रामानन्द नहीं, कबीर का विवेक था उनका गुरु
कासी में हम प्रगट भए हैं,
रामानन्द चेताय।[i]
ये पंक्तियां न ‘कबीर-ग्रन्थावली’ में मिलती हैं और न ‘गुरु ग्रन्थ साहब’ में। लेकिन कबीर के सभी जीवनी-लेखकों ने इसके आधार पर यह निष्कर्ष निकाला है कि कबीर को रामानन्द ने दीक्षा दी थी, अर्थात् रामानन्द कबीर के गुरु थे। जब यह पंक्ति कबीर ग्रन्थावली में नहीं है, तो इसका स्रोत क्या है? किसी भी जीवनी लेखक ने इस पंक्ति का स्रोत नहीं बताया है। यह हो सकता है कि इसे किसी रामानन्दी वैष्णव-पंथी ने बाद में गढ़ा हो। लेकिन, इसका अर्थ यह नहीं है, जो द्विज लेखकों ने बताया है। इसका सही अर्थ यह है कि कबीर स्वयं रामानन्द को चेताने के लिये काशी में आये थे।
मुसलमान कबीरपंथी सूफी फकीर शेख तकी को कबीर का गुरु मानते हैं। इस संबंध में श्याम सुन्दर दास का कहना है–
‘‘कबीर ने अपने गुरु के बनारस निवासी होने का स्पष्ट उल्लेख किया है। इस कारण ऊँजी के पीर और तकी उनके गुरु नहीं हो सकते। ‘घट घट है अविनासी सुनहु तकी तुम शेख’ में उन्होंने तकी का नाम उस आदर से नहीं लिया है, जिस आदर से गुरु का नाम लिया जाता है और जिसके प्रभाव से कबीर ने असंभव का भी संभव होना लिखा है– ‘गुरु प्रसाद सूई कै नोकै हस्ती आवै जाहि।।’ बल्कि वे तो उलटे तकी को ही उपदेश देते हुए जान पड़ते हैं। यद्यपि यह वाक्य इस ग्रन्थावली में कहीं नहीं मिलता, फिर भी स्थान-स्थान पर ‘शेख’ शब्द का प्रयोग मिलता है, जो विशेष आदर से नहीं लिया गया है, वरन् जिसमें फटकार की मात्रा ही अधिक दिख पड़ती है। अतः तकी कबीर के गुरु तो हो ही नहीं सकते।’’ [ii]
श्याम सुन्दर दास ने जिस तर्क से शेख तकी को कबीर का गुरु नहीं माना है, उसी तर्क से रामानन्द भी उनके गुरु नहीं हो सकते, क्योंकि कबीर ने रामानन्द को भी बिल्कुल सम्मान नहीं दिया है। लेकिन श्याम सुन्दर दास रामानन्द को कबीर का गुरु मानने के लिये सभी तर्क ताक पर रख देते हैं। वह कहते हैं।
‘‘वे (कबीर) जीवन-पर्यन्त रामनाम रटते रहे, जो स्पष्टतः रामानन्द के प्रभाव का सूचक है, अतएव, स्वामी रामानन्द को कबीर का गुरु मानने में कोई अड़चन नहीं है, चाहे उन्होंने स्वयं उन्हीं से मंत्र ग्रहण किया हो अथवा उन्हें अपना मानस गुरु बनाया हो।’’ [iii]
लेकिन, श्याम सुन्दर दास दूसरे ही क्षण यह भी स्वीकार करते हैं–
‘‘केवल किंवदन्ती के आधार पर रामनन्द जी को उनका गुरु मान लेना ठीक नहीं। यह किंवदन्ती भी ऐतिहासिक जांच के सामने ठीक नहीं ठहरती। रामानन्द जी की मृत्यु अधिक से अधिक देर में मानने से संवत् 1467 में हुई। इससे 14 या 15 वर्ष पहले भी उसके होने का प्रमाण विद्यमान है। उस समय कबीर की अवस्था ग्यारह वर्ष की रही होगी, क्योंकि हम उनका जन्म संवत् 1456 सिद्ध कर आये हैं। ग्यारह वर्ष के बालक का घूम-फिरकर उपदेश देने लगना सहसा ग्राह्य नहीं होता। और, यदि रामानन्द जी की मृत्यु संवत् 1453 के लगभग हुई, तो यह किंवदन्ती झूठ ठहरती है, क्योंकि उस समय तो कबीर को संसार में आने के लिये अभी तीन-चार वर्ष रहे होंगे।’’[iv]
इस ऐतिहासिक साक्ष्य के बाद भी श्याम सुन्दर दास हठ करते हैं ‘‘जब तक कोई विरुद्ध दृढ़ प्रमाण नहीं मिलते, तब तक हम इस लोकप्रसिद्ध बात को कि रामानन्द जी कबीर के गुरु थे, बिल्कुल असत्य भी नहीं ठहरा सकते। हो सकता है कि बाल्यकाल में बार-बार रामानन्द जी के साक्षात्कार तथा उपदेश श्रवण से (‘गुरु के सबद मेरा मन लागा’) अथवा दूसरों के मुंह से उनके गुण तथा उपदेश सुनने से बालक कबीर के चित्त पर गहरा प्रभाव पड़ गया हो, जिसके कारण उन्होंने आगे चलकर उन्हें अपना मानस गुरु मान लिया हो।’’[v]
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यहां भी वही कहानी दोहरायी गयी है, जो एकलव्य के बारे में गढ़ी गयी थी कि उसने द्रोणाचार्य की माटी की मूरत बनाकर उसके समक्ष अभ्यास करके उन्हें अपना मानस गुरु बनाया था। यह दोनों ही कहानियां झूठी हैं, न द्रोणाचार्य को एकलव्य ने अपना गुरु बनाया था और न रामानन्द को कबीर ने। शेख और रामानन्द दोनों ही कबीर के गुरु नहीं हो सकते। यदि कबीर ने शेख को फटकार लगायी है, तो ब्राह्मण को भी नहीं बख्शा है। ब्राह्मण के लिये उनमें रत्ती-भर भी सम्मान नहीं है। वे ब्राह्मण को जगत का गधा तक कहते हैं।[vi] यदि उन्होंने रामानन्द को अपना गुरु बनाया होता, तो उनकी वैचारिकी कुछ दूसरी ही होती, वे वेद-शास्त्र, परलोक, मोक्ष और पुनर्जन्म का खण्डन नहीं करते, जिनमें रामानन्द आस्था रखते थे। यह तो वही बात हुई, मान न मान, मैं तेरा मेहमान! जो कबीर रामानन्द की विचारधारा के विरोध में खड़े हैं, वे उनके शिष्य कैसे हो सकते हैं? कबीर क्यों रामानन्द को अपना गुरु बनायेंगे, जबकि वे उनकी मान्यताओं के ही विरोधी हैं? कबीर में ऐसा कुछ भी तो नहीं है, जिसे रामानन्द का कहा जाय। लेकिन जबरदस्ती का कोई इलाज नहीं है, जिसे हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ‘राम की भक्ति’ के रूप में कबीर में देख ली है। वह उसे रामानन्द की देन बताते हुए लिखते हैं–
‘‘कबीरदास का पाठक जानता है कि उनके पदों में उसे एक कोई अनन्य साधारण बात मिलती है, जो सि़द्धों और योगियों की अक्खड़ता-भरी उक्तियों में नहीं है, जो वेदान्तियों के तर्क-कर्कश ग्रन्थों में नहीं है, जो समाज-सुधारकों की ‘हाय-हाय’ में भी नहीं है। कोई अनन्य साधारण बात। वह क्या है? फिर वह वस्तु भी क्या है, जिसे रामानन्द से पाकर कबीर जैसा मस्तमौला फक्कड़ हमेशा के लिये उनका कृतज्ञ हो गया?’’[vii]
वह आगे लिखते हैं–
‘‘वह बात भक्ति थी। वह योगियों के पास नहीं थी, सहजयानी सिद्धों के पास नहीं थी, कर्मकाण्डियों के पास नहीं थी, ‘पंडितों’ के पास नहीं थी, ‘मुल्लाओं’ के पास नहीं थी, ‘काजियों’ के पास नहीं थी। इसी परमाद्भुत रत्न को पाकर कबीर कृत्य-कृत्य हो रहे। भक्ति भी किसकी? राम की! राम-नाम रामानन्द का अद्वितीय दान था।…… राम और उनकी भक्ति ये ही रामानन्द की कबीर को देन है। इन्हीं दो वस्तुओं ने कबीर को योगियों से अलग कर दिया, सिद्धों से अलग कर दिया, पंडितों से अलग कर दिया, मुल्लाओं से अलग कर दिया।’’[viii]
जब विचारधारा से काम नहीं बना, तो हजारी प्रसाद द्विवेदी ने जबरदस्ती रामानन्द से कबीर को जोड़ने के लिये ‘राम की भक्ति’ की ‘हवाई खोज’ कर ली। इसके लिये उन्हें कबीर को रामानन्द से मिलाने के लिये यह नाटकीय कथा भी गढ़नी पड़ी–
‘‘बाह्ययाचार बहुल शुष्क साधना की मरुभूमि में कबीर खड़े थे। वे सहज ही गल जाने वाले जीव नहीं थे। सारा संसार अपनी-अपनी आग में जल रहा था। ऐसा कोई नहीं मिलता था, जिससे लगकर वे रह सकें। कसाला यह था कि जिससे हृदय की बात कहते, वही डंक मार देता, निर्भय भाव से, निशंक होकर जिस आदमी से दिल की बात कही जा सके, ऐसा कोई मिल नहीं रहा था। वे व्याकुल भाव से कुछ खोज रहे थे, पर पा नहीं रहे थे, सारा मन और प्राण संशय के विष से जर्जर हो गये थे। हृदय बेचैन था, ऐसा प्रेमी मिल नहीं रहा था, जिसके प्रेमपूर्ण संसर्ग से यह सारा का सारा हलाहल अमृत हो जाता। ठीक ऐसे ही समय में रामानन्द जी से उनकी भेंट हुई। कबीरदास ने सद्गुरु को पाकर अपने को बड़भागी समझा।’’[ix]
इसके आगे, द्विवेदी जी उन लोगों पर, जो रामानन्द को कबीर का गुरु नहीं मानते, टिप्पणी करते हुए लिखते हैं–
‘‘इस विषय में उन लोगों को भले ही सन्देह हो, जो कबीरदास के नाम उलटा-सीधा मत-मतान्तर चलाना चाहते हों, स्वयं कबीरदास को कोई संशय नहीं था–
सद्गुरु के परताप से, मिटि गयौ सब दुख-दंद।
कह कबीर दुबिधा मिटी, गुरु मिलिया रामानंद।।’’[x]
‘गुरु मिलिया रामानंद’ वाली यह साखी कबीर ग्रन्थावली में नहीं मिलती। यह प्रक्षिप्त साखी है और सम्भवतः कबीर की मृत्यु के बाद, किसी तथाकथित रामानन्दी वैष्णव-पंथी ने गढ़ी होगी। ऊपर ‘मरुभूमि में कबीर’ की जो नाटकीय कथा द्विवेदी जी ने गढ़ी है, उसकी पुष्टि में भी उन्होंने ये पद उद्धरित किये हैं–
ऐसा कोई ना मिलै जासों रहिये लागि,
सब जग जलताँ देखिया अपनी अपनी आगि।
ऐसा कोई ना मिलै जासों कहूँ निसंक,
जासों हिरदै की कहूँ सो फिरि मारै डंक।[xi]
(इन पदों का सन्दर्भ उन्होंने कबीर ग्रन्थावली (श्याम सुन्दर दास) के पद संख्या 66 के रूप में दिया है। किन्तु, ये पद इस ग्रन्थावली में पद संख्या 66 में मौजूद ही नहीं है।)
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कबीर को रामानन्द से जोड़ने का यह जबरदस्ती का प्रयास जिस ‘राम’ नाम के कारण द्विवेदी जी ने किया, वह ‘राम’ भी रामानन्द के ‘राम’ से मेल नहीं खाता। यहां विचारणीय यह है कि द्विवेदी जी ने यह जबरदस्ती की ‘रामकथा’ उस किंवदन्ती को सत्य ठहराने के इरादे से गढ़ी है, जिसमें कबीर रामानन्द का जबरदस्ती शिष्य बनने के लिये पंचगंगा घाट की सीढ़ी पर लेट गये थे। श्याम सुन्दर दास ने इस किंवदन्ती का वर्णन इस प्रकार किया है–
‘‘किंवदन्ती है कि जब कबीर भजन गा-गाकर उपदेश देने लगे, तब उन्हें पता चला कि बिना किसी गुरु से दीक्षा लिये हमारे उपदेश मान्य नहीं होंगे, क्योंकि लोग उन्हें ‘निगुरा’ कहकर चिढ़ाते थे। लोगों का कहना था कि जिसने किसी गुरु से उपदेश नहीं ग्रहण किया, वह औरों को क्या उपदेश देगा। अतएव कबीर को किसी को गुरु बनाने की चिन्ता हुई। कहते हैं, उस समय स्वामी रामानन्द जी काशी में सबसे प्रसिद्ध महात्मा थे। अतएव, कबीर उन्हीं की सेवा में पहुंचे। परन्तु उन्होंने कबीर के मुसलमान होने के कारण उनको अपना शिष्य बनाना स्वीकार नहीं किया। इस पर कबीर ने एक चाल चली, जो अपना काम कर गयी। रामानन्द जी पंचगंगा घाट पर नित्य प्रति प्रातः काल ब्रह्ममुहूर्त में ही स्नान करने जाया करते थे। उस घाट की सीढि़यों पर कबीर पहले से ही जाकर लेट गये। स्वामी जी जब स्नान करके लौटे तो उन्होंने अन्धेरे में इन्हें न देखा, उनका पांव इनके सिर पर पड़ गया, जिस पर स्वामी जी के मुंह से ‘राम-राम’ निकल पड़ा। कबीर ने चट उठकर उनके पैर पकड़ लिये और कहा कि आप राम-राम का मंत्र देकर आज मेरे गुरु हुए हैं। रामानन्द जी से कोई उत्तर देते न बना। तभी से कबीर ने अपने को रामानन्द का शिष्य प्रसिद्ध कर दिया।’’[xii]
ऊपर लिखा जा चुका है कि यही श्याम सुन्दर दास पीछे इस किंवदन्ती के ऐतिहासिक आधार पर खण्डन कर चुके हैं। यह कहानी भी बे-सिर-पैर की है। यदि कबीर पंच गंगा घाट की सीढ़ियों पर पहले से ही जाकर लेट गये थे, तो स्नान से लौटते समय क्यों, जाते समय ही रामानन्द का पांव कबीर के सिर पर पड़ जाना चाहिए था? क्या जाते समय सीढ़ियों पर अंधेरा नहीं था? लौटते समय ही उन्हें अंधेरा दिखायी दिया? यह अनोखा तरीका था गुरु बनाने का! गुरु चेला बनाना चाहता नहीं, और चेला है कि जबरदस्ती चेला बनना चाहता है। क्या नादान थे कबीर कि मुंह से राम-राम निकालने के लिये ही घाट की सीढ़ियों पर जाकर लेट गये होंगे? क्या कबीर के लिये राम शब्द अपरिचित था? क्या इससे पहले उन्होंने राम शब्द नहीं सुना था? सुबह से शाम तक जाने कितनी बार रामानन्द राम-राम उच्चारते होंगे, तो जो भी सुनता होगा, वह उनका चेला हो जाता होगा? इस बे-सिर-पैर की कहानी के आधार पर यदि कोई, इसके ऐतिहासिक साक्ष्य न मिलने के बावजूद कबीर को रामानन्द का शिष्य मानता है, तो यह उसकी हठधर्मिता के सिवा कुछ नहीं है।
ऐसी ही हठधर्मिता दिखायी है पुरुषोत्तम अग्रवाल ने। जब हर तरह से इस बात का खण्डन हो गया कि कबीर रामानन्द के शिष्य नहीं थे, विचारधारा में भी दोनों एक-दूसरे के धुर-विरोधी हैं, जिससे स्वतः ही उनके बीच गुरु-शिष्य के सम्बन्ध का खण्डन हो जाता है, तो हिन्दी की व्यथित ब्राह्मण लॉबी ने पुरुषोत्तम अग्रवाल को इस काम के लिये तैयार किया कि वह दलित लेखकों के प्रहारों से रामानन्द को बचा लें और हजारी प्रसाद द्विवेदी की मेहनत को जाया न होने दें। ब्राह्मण लॉबी ने पुरुषोत्तम अग्रवाल को अग्रिम पूंजी दी और अग्रवाल जी ब्राह्मण-सेवा के इस पुण्य काम में लग गये। इतिहास की ऐसी-तैसी करते हुए, ब्राह्मणों की संस्कृत पोथियों से उद्धरण देते हुए ब्राह्मणवाद के किले में कबीर को खड़ा करने में उन्होंने अपना सारा जोर लगा दिया। कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा लेकर उन्होंने भानुमती का ऐसा कुनबा जोड़ा, जिसमें वह सिद्ध कुछ नहीं कर पाये, अपना ही उपहास करा बैठे। जब कोई ठोस प्रमाण उनके हाथ नहीं लगा, तो अन्त में वह भी हठधर्मिता पर उतर आये। जरा, आप भी देखिए, वह कबीर पर अपनी प्रायोजित पुस्तक ‘‘अकथ कहानी प्रेम की’’ में कैसी हठधर्मिता दिखाते हैं–
‘‘परम्परा मान्य रामानन्द-कबीर सम्बन्ध को नकारने वाले एक प्रश्न यह भी उठाते हैं कि कबीर की रचना में उनके गुरु के तौर पर रामानन्द या अन्य व्यक्ति का नाम सीधे-सीधे क्यों नहीं मिलता? मेरा प्रतिप्रश्न यह है कि सरहपा से लेकर तुलसीदास तक किस सन्त, भक्त या साधक की रचना में मिलता है? फिर यह मानने में ही क्या दिक्कत है कि इनमें से किसी का कोई गुरु नहीं था। जाहिर है कि दिक्कत है। साधना की उस परम्परा में गुरु-विहीन रहना अकल्पनीय था। जो यह जानते हैं, उन्हें यह भी याद रखना चाहिए कि अपने गुरु का नामोल्लेख ना करना ही उस परम्परा में मान्य विधि थी।’’[xiii]
हठधर्मिता की दूसरी बानगी देखिए–
‘‘कबीर की रचना में रामानन्द का नाम नहीं है, तो नीरू और नीमा का नाम ही कहां है? जिन स्रोतों के आधार पर नीरू और नीमा को कबीर के जनक या पालक माता-पिता माना जाता है, वे ही स्रोत रामानन्द को कबीर का गुरु भी बताते हैं। रामानन्द कबीर के गुरु नहीं थे, ऐसा कहने वालों को यह भी कहना चाहिए कि नीरू-नीमा कबीर के न तो जनक-जननी थे, न उन्होंने कबीर को पाला था।’’[xiv]
इस हठधर्मिता का मतलब यह है कि परम्परा में यह मान्य है कि रामानन्द कबीर के गुरु थे, तो उसे मानना ही होगा, अन्यथा यह भी मत मानो कि नीरू और नीमा कबीर के जनक-जननी थे। इस हठधर्मिता का क्या इलाज है? इस प्रायोजित पुस्तक ने पुरुषोत्तम अग्रवाल को जितना धन दिया है, उतना उनकी किसी पुस्तक ने नहीं दिया होगा। प्रसिद्धि, धन और पुरस्कार तो मिला ही, ब्राह्मण लॉबी ने उसे पाठ्यक्रम में भी डलवा दिया है। सत्य का गला घोंटने के एवज में इतना सब कुछ क्या कम है?
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नाभादास की साक्षी को भी लेते हैं। कबीर की मृत्यु के लगभग डेढ़ सौ साल बाद तुलसीदास के समकालीन नाभादास ने अपने ‘भक्तमाल’ (1585) में, रामानन्द के जिन बारह शिष्यों का उल्लेख किया है, वे इस प्रकार हैं (1) कबीर, (2) रैदास, (3) पीपा, (4) सुरसुरानन्द, (5) सखानन्द, (6) भवानन्द, (7) धन्ना, (8) सेन, (9) महानन्द, (10) परमानन्द, (11) श्रियानन्द और (12) अनन्तानन्द।[xv] इन नामों पर विचार कीजिए। इनमें कबीर, रैदास, पीपा, धन्ना और सेन इन पाँच सन्तों के नामों के आगे ‘नन्द’ शब्द नहीं लगा है, जबकि रामानन्द का शिष्य होने पर उनके नामों में भी ‘नन्द’ शब्द लगा होना चाहिए था। किन्तु यदि कबीर कबीरानन्द, रैदास रैदासानन्द, पीपा पीपानन्द, धन्ना धन्नानन्द और सेन सेनानन्द नहीं हैं, तो इसका कारण यह है कि इनमें से कोई भी रामानन्द का शिष्य नहीं था।
जहां तक मैं जानता हूं, कबीर को रामानन्द का शिष्य कहने वाली परम्परा किंवदन्ती और हठधर्मिता का सबसे पहला खण्डन डा. राकेश गुप्त ने किया था। उन्होंने 1940 की ‘सम्मेलन पत्रिका’ में ‘क्या कबीर रामानन्द के शिष्य थे’ शीर्षक से एक अत्यन्त महत्वपूर्ण लेख लिखा था, जो सात दशक पहले के हिन्दी जगत में सचमुच धमाकेदार रहा होगा।
यह लेख 1999 में प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘‘सूर सूर तुलसी ससी तथा अन्य निबन्ध’’ में क्रमांक 12 पर संकलित है। डा. राकेश गुप्त ने अपने इस लेख में जो सबसे महत्वपूर्ण सवाल उठाया है, वह यह है ‘‘क्या कबीर, जिन्होंने ‘गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूँ पाँय’ कहकर गुरु को ईश्वर से भी ऊँचा स्थान दिया है, रामानन्द को अपना गुरु मानते हुए भी उनकी नीति-रीति का इतनी निरंकुशता के साथ विरोध कर सकते थे? क्या गुरु से कुछ भी दुराव न रखने वाले, उन्हें सब कुछ समर्पित करने वाले कबीर से हम यह आशा करें कि वे अपने गुरु के सिद्धान्तों के इतने कठोर, इतने अनुदार समालोचक हो सकते थे? क्या सतगुरु के एक-एक शब्द पर अपार विश्वास एवं अनन्त श्रद्धा रखने के लिये कहने वाले कबीर के विषय में भी यह मत सम्भव हो सकता है कि वे एक ऐसे व्यक्ति को अपना गुरु मानते थे, जिसकी कड़ी आलोचना करने में ही उन्होंने अपना जीवन व्यतीत किया? क्या अपने गुरु के चरण चिह्नों पर आँख मूँद कर चलने में विश्वास करने वाले कबीर के विषय में हम यह सोचें कि उन्होंने उन रामानन्द को अपना गुरु माना होगा, जिनकी एक भी बात का अनुसरण उन्होंने अपने सामाजिक प्रचार के क्षेत्र में नहीं किया?’’[xvi]
उन्होंने अपने लेख में अयोध्या सिंह उपाध्याय और रामचन्द्र शुक्ल की स्थापना का भी खण्डन किया है। उपाध्याय के इस तर्क पर कि कबीर ने रामानन्द के सत्संग से ही हिन्दूधर्म का भीतरी ज्ञान प्राप्त किया था, डा. राकेश गुप्त लिखते हैं–
‘‘हम भी मानते हैं कि उन्होंने रामानन्द का सत्संग किया, पर किस लिये? स्पष्ट रूप से हिन्दूधर्म ग्रन्थों तथा रामानन्द के उपदेशों को सच मानकर उनका प्रचार करने के लिये नहीं, वरन् उनकी आलोचना और उनका विरोध ही करने के लिये। यदि कबीर के इस रूप में भी उपाध्याय जी उनकी शिष्य-भावना को सुरक्षित पायें, तो अपनी धृष्टता के लिये उनसे क्षमा माँगने के अतिरिक्त मैं और क्या कहूँगा।’’[xvii]
रामचन्द्र शुक्ल की कल्पना का खण्डन करते हुए उन्होंने लिखा–
‘‘इस विषय में शुक्ल जी की यह जो कल्पना है कि रामानन्द का यश सुनकर बचपन में कबीर के हृदय में उनके शिष्य होने की लालसा जगी होगी, सम्भव है किसी सीमा तक ठीक हो, परन्तु इसके साथ ही इतना निश्चित है कि आगे चलकर जब कबीर का वह व्यक्तित्व पूर्ण रूप से विकसित हुआ होगा, जो कि रामानन्द के व्यक्तित्व से बिल्कुल भी मेल नहीं खाता, तब उन्होंने अपने को रामानन्द का शिष्य मानने की कल्पना को भी अपने हृदय से निकाल फेंका होगा।’’ (वही, पृष्ठ 97)
लेख के अन्त में, डा. राकेश गुप्त ने इस प्रश्न पर विचार किया है कि क्या अद्वैतवाद की भावना कबीर में रामानन्द से ही आयी, जैसा कि आलोचकों का विचार है? इस सम्बन्ध में उनका कहना है–
‘‘क्या कबीर के गुरु के आदर्शानुसार रामानन्द कभी उन्हें ईश्वर की ओर ले चलने में प्रयत्नशील हुए थे? यदि हाँ, तो हम अपने विज्ञ पाठकों से प्रार्थना करेंगे कि वे हमें बतलाने की कृपा करें कि कब, कहाँ और किस रूप में? और, यदि नहीं, तो हम कैसे मान लें कि कबीर ने कभी स्वप्न में भी रामानन्द को अपना गुरु माना होगा? हम कैसे मान लें कि रामानन्द के मत का जोरदार खण्डन करने वाले कबीर ने ‘पंडित वाद बदंते झूठा’ कहते समय रामानन्द को अपने लक्ष्य में नहीं रखा होगा? हम कैसे मान लें कि कबीर में रामानन्द के प्रति, रामानन्द के सिद्धान्तों के प्रति इतनी स्पष्ट भत्र्सना होते हुए भी उन्होंने रामानन्द के लिये अपने हृदय में गुरु-भावना की एक क्षीण देखा को भी उदय होने दिया होगा?’’ [xviii]
निस्सन्देह रामानन्द कबीर के गुरु नहीं थे। रामानन्द की शिक्षाओं से कबीर का दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं था। यदि रामानन्द कबीर के गुरु होते, तो दोनों की शिक्षाएं समान होतीं, जबकि दोनों में बुनियादी अन्तर थे। रामानन्द दण्डधारी थे, जबकि कबीर नहीं थे, रामानन्द मूर्ति-पूजक थे, जबकि कबीर मूर्ति पूजा का खण्डन करते थे, रामानन्द का वेदों और वैदिक धर्म में विश्वास था, जबकि कबीर का न वेदों में विश्वास था और न वैदिक धर्म में, रामानन्द के राम साम्प्रदायिक थे—विष्णु के अवतार, स्त्रीधारी, जबकि कबीर के राम सार्वभौमिक थे—निर्गुण, निराकार, निरंजन। रामानन्द परलोक में विश्वास करते थे, जबकि कबीर परलोक को नहीं मानते थे। ये सारी असमानताएं रामानन्द को कबीर का गुरु क्या, समर्थक भी साबित नहीं करतीं।
फिर, कबीर के गुरु कौन हैं? कबीर के यहां गुरु एक तत्व है, अर्थात् भीतर का गुण। कबीर ने इसका नाम ‘विवेक’ रखा है ‘‘कहु कबीर मैं सो गुरु पाया जाका नाउ बिबेकौ’’[xix]
लेकिन, यह कहना कदाचित गलत नहीं है कि कबीर का वैचारिक युद्ध जिस ब्राह्मण के साथ हुआ है, वह रामानन्द ही हैं। भले ही वह कबीर के समय में जीवित नहीं थे, परन्तु उनका रामानन्दी सम्प्रदाय और उनका वैष्णववाद पूरी तरह जीवित और सक्रिय था। ‘ब्राह्मण गुरु जगत का साधु का गुरु नाहिं’, ‘पंडित वाद बदन्ते झूठा’, ‘पाँडे न करसि वाद-विवाद’ और ‘बैसनो भया तौ का भया’ जैसी कबीर की पंक्तियां साफ-साफ बताती हैं कि कबीर का विवाद और संवाद काशी के जिस ब्राह्मण से चल रहा था, वह रामानन्दी ब्राह्मण ही था और ‘कासी में हम प्रकट भये हैं रामानन्द चेताय’ में भी वे उसी रामानन्दी को चेता रहे हैं। उन्होंने उसे यहां तक कहा कि ‘तू ब्राह्मण मैं कासी का जुलाहा, चीन्हि न मोर गियाना’[xx], और ‘जौ तू ब्राह्मण ब्राह्मणी जाया, तौ आन वाट काहे नहीं आया।’[xxi]
धर्म, समाज और राजनीति पर जैसी जोरदार और विचारोत्तेजक बहस बीसवीं सदी में गाँधी के साथ डॉ. आंबेडकर की चली थी, वैसी ही विचारोत्तेजक बहस पन्द्रहवीं सदी में रामानन्दी ब्राह्मण से कबीर की चली थी। कबीर ने ‘उलटबासियां’ लिखकर ज्ञान की गूढ़ पहेलियां बूझने की जो चुनौती रामानन्दियों को दी थी, क्या गजब का संयोग है कि ठीक वैसी ही चुनौती डॉ. आंबेडकर ने ‘हिन्दूधर्म की पहेलियां’ लिखकर अपने समय के पंडितों को दी थी।
(कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)
संदर्भ :
[i] (क.ग्र., पृष्ठ 18)
[ii] (वही, पृष्ठ 19-20)
[iii] (वही, पृष्ठ 20)
[iv] (वही, पृष्ठ 18)
[v] (वही)
[vi] (क.स., पृष्ठ 435)
[vii] (कबीर, पृष्ठ 113)
[viii] (वही)
[ix] (वही, पृष्ठ 113-114)
[x] (वही)
[xi] (वही)
[xii] (क.ग्र., पृष्ठ 17-18)
[xiii] (अकथ, पृष्ठ 307)
[xiv] (वही)
[xv] (भा.धा.इ., पृष्ठ 331)
[xvi] (पृष्ठ 96)
[xvii] (वही)
[xviii] (वही, पृष्ठ 97-98)
[xix] (क.ग्र. पृष्ठ 207)
[xx] (वही, पृष्ठ 128)
[xxi] (वही, पृष्ठ 214)
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