देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा के बीच सीट शेयरिंग का खाका तैयार हो चुका है, बस केवल आधिकारिक घोषणा भर होने की देर है। विश्वस्त सूत्र की मानें तो इस वर्ष फूलपुर व गोरखपुर में हुए उपचुनाव वाले प्रयोग को सपा-बसपा दोहराने जा रही है। यानी कांग्रेस को गठबंधन से दूर रखा जा रहा है।
सपा-बसपा गठजोड़ की भनक लगते ही भाजपा की चिंता बढ़ गई है क्योंकि इस गठजोड़ का रिजल्ट फूलपुर व गोरखपुर, कैराना उपचुनाव में देख चुकी है। सारी ताकत लगाने के बावजूद भाजपा इन दोनों उपचुनावों में अपने प्रत्याशियों को जीत नहीं दिला पायी थी।
भाजपा उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा गठजोड़ से कितनी सशंकित है, इसका अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि उसके (भाजपा) राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह तक इसे बड़ी चुनौती मानते हैं। यह बात उनके इस बयान से साफ हो जाता है जिसमें उन्होंने कहा है कि “बीजेपी के लिए महागठबंधन कोई बड़ी चुनौती नहीं है। 2019 में भी हमारी वापसी होगी, हां यूपी में सपा-बसपा के गठबंधन से कुछ चुनौती जरूर खड़ीं हो सकतीं हैं।”
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फूलपुर व गोरखपुर, कैराना उपचुनाव परिणाम को देखते हुए भाजपा के लिए पिछले चुनाव जैसा रिजल्ट दोहराना होगा मुश्किल
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इन उपचुनावों में सपा, बसपा ने मिलकर लड़ा था चुनाव और भाजपा को दी थी पटकनी
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2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा ने उत्तर प्रदेश की कुल 80 सीटों में से 71 पर की थी जीत दर्ज
अमित शाह का यह बयान हाल में कुछ कार्यक्रमों के दौरान महागठबंधन को लेकर पूछे सवाल पर आया है। उनकी बातों से स्पष्ट है कि खुद भाजपा के भीतर भी उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा के प्रस्तावित गठबंधन को लेकर कुछ घबराहट है। यह अलग बात है कि चुनावी रणनीति के तहत पार्टी इस घबराहट को उजागर नहीं होने देना चाहती है। राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक, सपा-बसपा के पास जिस तरह से थोक में जाति विशेष का बेस वोट बैंक है, वह अगर 2019 में एकजुट हुआ तो भाजपा के ‘हिंदू वोटर’ के फार्मूले पर जातीय समीकरण भारी पड़ सकते हैं। यह ठीक उसी तरह होगा, जैसे बिहार में राजद और जदयू के कांग्रेस के साथ बनाए महागठबंधन के जातीय समीकरणों के फेर में बीजेपी उलझकर रह गई थी।
यह है संभावित सीट शेयरिंग फार्मूला
उत्तर प्रदेश के सियासी गलियारे में इस वक्त सपा-बसपा गठबंधन की स्थिति में सीट शेयरिंग का खाका तैयार हो जाने की खबरें तेजी से उड़ रहीं हैं। खबरों के मुताबिक, उत्तर प्रदेश की 80 लोकसभा सीटों में 38 पर बहुजन समाज पार्टी चुनाव लड़ेगी तो 37 सीटों पर समाजवादी पार्टी, जबकि तीन सीटें पश्चिम उत्तर-प्रदेश में चौधरी अजित सिंह की पार्टी रालोद के खाते में जाएंगी। वहीं केवल दो सीटें खाली छोड़ी गई है और माना जा रहा है कि यह कांग्रेस के लिए छोड़ी गई है। ये दोनों सीटें रायबरेली और अमेठी की हैं जहां से यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी और कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी चुनाव लड़ते रहे हैं।
हालांकि इस बाबत जब संबंधित पार्टियों के नेताओं से बात की तो सभी ने इस तरह की गठबंधन पर साफ-साफ कुछ भी बोलने से इन्कार किया, लेकिन माना जा रहा है ऐसा पार्टी हाई कमान के आदेश के तहत किया जा रहा है क्योंकि बसपा या सपा दोनों नहीं चाहती कि अभी इसका खुलासा किया जाए। हालांकि पार्टी के ही नेता दबी-जुबान से गठबंधन के ऐसे समीकरणों को खारिज नहीं कर रहे हैं। हालांकि सतीश मिश्रा अभी इस तरह की किसी भी संभावना को नकार रहे हैं लेकिन उनके इस बयान को पार्टी की रणनीति का हिस्सा माना जा रहा है।
कांग्रेस से दूरी की वजह
सपा-बसपा दोनों को लगता है कि कांग्रेस को दूर रखने में ही भलाई है। इसके पीछे तर्क दिया जा रहा है कि कांग्रेस अगर अपने दम पर चुनाव लड़ती है तो उसका फायदा सपा-बसपा गठबंधन को मिलेगा क्योंकि वोटकटवा की भूमिका में वह वहां रहेगी। इसके अलावा 2017 में हुए पिछले विधानसभा चुनाव में सपा ने कांग्रेस से गठजोड़ कर देख लिया था कि इससे फायदा कुछ नहीं हुआ, बल्कि घाटा ही हुआ। 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के साथ समाजवादी पार्टी के गठबंधन करने का दोनों दलों को फायदा नहीं हुआ। न कांग्रेस के सवर्ण वोटर समाजवादी पार्टी के उम्मीदवारों को वोट दिए और न ही सपा के मतदाताओं ने कांग्रेस के उम्मीदवारों को वोट दिया। यही वजह है कि 2017 में सौ विधानसभा सीटों पर चुनाव लड़ने के बाद भी कांग्रेस केवल सात सीटों पर जीत सकी, जबकि समाजवादी पार्टी के खाते में महज 47 सीटें आईं। वहीं 2012 के चुनाव में इसी समाजावादी पार्टी को अकेले चुनाव लड़ने पर 224 सीटें मिलीं थीं। 2017 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के सवर्ण मतदाताओं के भाजपा में शिफ्ट होने की बात सामने आई थी। 1996 में कांग्रेस के साथ गठबंधन करने के बाद बसपा भी यह चीज भुगत चुकी है। उस वक्त बसपा को भी महसूस हुआ था कि कांग्रेस के साथ गठबंधन कर कोई फायदा नहीं हुआ।
सपा-बसपा का मानना है कि कांग्रेस अकेले चुनाव लडे़गी तो बीजेपी का ही वोट काटेगी और इसके पक्ष में वह इस साल जब गोरखपुर, फूलपुर और कैराना लोकसभा सीटों के उपचुनाव का हवाला दिया गया। इन उपचुनावों में सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव और बसपा प्रमुख मायावती ने प्रयोग करने का फैसला लिया। उन्होंने कांग्रेस को गठबंधन से दूर रखने की चाल चली। वह भी तब, जबकि कांग्रेस बिना किसी शर्त के गठबंधन का हिस्सा बनने को तैयार थी। उल्टे अखिलेश यादव ने कांग्रेस उम्मीदवारों को दोनों सीटों पर मजबूती से लड़ने को कहा और पूरी मदद करने का भी आश्वासन दिया। दरअसल सपा और बसपा यह देखना चाहतीं थीं कि कांग्रेस के अलग लड़ने से क्या असर पड़ता है?
सपा और बसपा के नेताओं के मुताबिक कांग्रेस अगर अकेले चुनाव मैदान में उतरती है तो वह बीजेपी का ही वोट काटेगी। ऐसे में जिन सीटों पर कम वोटों से हार-जीत का अंतर होता है, वहां पर कांग्रेस की वोटकटवा भूमिका निर्णायक सिद्ध हो सकती है। यही वजह रही कि तीनों सीटों के उपचुनाव में गठबंधन विजयी रहा। राजनीतिक जानकार बताते हैं कि 2012 के विधानसभा चुनाव में जिन सीटों पर कांग्रेस ने बीजेपी के सवर्ण वोटरों में चार से पांच हजार की सेंधमारी कर ली थी, उन सीटों पर समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी की जीत हुई थी। 2012 में कांग्रेस अकेले लड़ी थी तो समाजवादी पार्टी को 224 सीटें मिलीं थीं वहीं 2017 के विधानसभा चुनाव में साथ चुनाव लड़ने की रणनीति बुरी तरह फ्लॉप रही और समाजवादी पार्टी की सीटों की संख्या 224 से घटकर 47 पर पहुंच गई। कांग्रेस की सीटों का आंकड़ा भी घट गया। 2012 में कांग्रेस को जहां 28 सीटें मिलीं थीं, वहीं सपा के साथ गठबंधन कर चुनाव लड़ने पर 2017 में मात्र सात सीटों से संतोष करना पड़ा।
2009 और 2014 के चुनाव में किसको कितनी सीटे
2014 में कुल 80 लोकसभा सीटों के लिए चुनाव हुए थे जिसमें भाजपा ने 71 और गठबंधन में शामिल अपना दल ने दो सीटें जीतीं थी। इस प्रकार भाजपा नेतृत्व वाले गठबंधन को रिकॉर्ड 73 सीटें मिलीं थी जबकि दो सीटें कांग्रेस और पांच सीटें समाजवादी पार्टी को मिलीं थीं। हालांकि बसपा का 2014 के लोकसभा चुनाव में खाता भी नहीं खुल पाया था। वहीं, 2009 के लोकसभा चुनाव में 23.26 प्रतिशत वोट शेयर के साथ समाजवादी पार्टी को 23, कांग्रेस को 18.25 प्रतिशत वोट बैंक के साथ 21 और भाजपा को 17.50 प्रतिशत वोट शेयर के साथ दस सीटें मिलीं थीं जबकि रालोद के खाते में पांच लोकसभा सीटे आई थी।
(कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)
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