आरक्षण पर चल रही बहस मुझे एक पुराने किस्से की याद दिलाती है, जिसमें कुछ अंधे लोग एक हाथी के समीप जाते हैं। उनमें से एक हाथी की सूंड़ छूने पर उसे साँप समझ बैठता है। दूसरा व्यक्ति हाथी के शरीर को छूता है और उसे दीवार समझ लेता है, इत्यादि। इसी तरह आरक्षण की भी व्याख्या बड़े पैमाने पर व्यक्ति के पूर्वाग्रहयुक्त अनुमानों तथा अनुभवों के आधार पर की जाती है। अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति समुदाय के सदस्यों के लिए, यह सामाजिक उत्थान की सीढ़ी है। संविधान के रचयिताओं ने ऐतिहासिक तथा सामाजिक कारणों को ध्यान में रखते हुए शिक्षा एवं रोज़गार के क्षेत्र में दलितों और आदिवासियों के निमित्त ऐसे प्रावधान तैयार किये थे, जो उन्हें विशेषाधिकार प्रदान करते हों।
आरक्षण को लेकर नैतिक दृष्टिकोण में बुनियादी बदलाव 1990 के दशक में ही देखे गए, जब सकारात्मक कार्रवाई की नीतियों को राजनीतिक रंग दिया गया। इसके विपरीत, अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षण की नीति, कुछ एक उदाहरणों को छोड़कर, बिना किसी सामाजिक उथल-पुथल के लागू की गयी थी। समाज का शेष वर्ग अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के कल्याण पर काफ़ी ज़ोर देता था।
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मंडल आयोग की सिफ़ारिशों ने पहले से मौजूद सामाजिक विभेद को और बढ़ा दिया। भूस्वामी तथा आर्थिक रूप से संपन्न समुदायों ने हिंसा के बलबूते अपने हिस्से के अधिकार की माँग की जिससे आरक्षण के मूलतत्व को क्षति पहुँची। जिस उद्देश्य के साथ इसकी परिकल्पना की गई थी, उस पर सार्वजनिक रूप से बहसें हुईं और इसको जारी रखने के पक्ष और विपक्ष में तर्क दिए गए।
हाल में केंद्र सरकार द्वारा गरीब तबके के लिए सकारात्मक कार्रवाई की घोषणा से आशा की एक नई किरण नज़र आ रही है। संविधान में 124वां संशोधन अधिनियम स्पष्ट रूप से कहता है कि अतिरिक्त 10 प्रतिशत आरक्षण दलितों, आदिवासियों और सामाजिक व शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए मौजूदा कोटा के इतर होगा। यह अधिनियम भारत में सामाजिक न्याय को एक नयी दिशा देगा।
दुर्भाग्यवश, इस प्रयास को यथोचित श्रेय न देने के क्रम में कई भ्रामक विचार व्यक्त किए जा रहे हैं। आरोप लगाया जा रहा है कि यह संशोधन आरक्षण को ही कलंकित कर देगा। हालांकि राजनीतिक तंत्र पर अपनी मज़बूत पकड़ रखने वाले दलित नेतृत्व ने इस अधिनियम का खुलकर समर्थन किया है। इस अधिनियम ने मायावती से लेकर रामविलास पासवान तथा रामदास आठवले तक, दलित समुदाय के बीच से उठती आवाज़ों को एक किया है। इसके पीछे एक कारण है। दरअसल, देश में दलित नेतृत्व गरीब जनता द्वारा गरीब जनता के लिए है। समाज में दलित समुदाय आज भी सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक अधिकारों से वंचित है। आरक्षण से भले ही इस समुदाय के कई लोगों की स्थिति में सुधार आया हो, लेकिन इससे भी आगे बहुत कुछ करने की आवश्यकता है।
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दलित समुदाय का एक अभिजात वर्ग, जो आरक्षण पर अपना एकाधिकार जमाते हुए उससे लाभान्वित होता आया है, गरीब सवर्णों के आरक्षण के खिलाफ़ बोल रहा है। लेकिन सामान्य तौर पर मध्यम वर्ग के आकांक्षी दलित इस अधिनियम से संतुष्ट हैं क्योंकि वे इसे आरक्षण पर लगे कलंक को मिटाने की प्रक्रिया में एक पहल के रूप में देख रहे हैं। दलित अक्सर कार्यस्थलों पर संघर्ष करते हैं, जहां उनकी योग्यता पर सवाल उठाए जाते हैं। जब एक बार आर्थिक रूप से पिछड़ों का एक बड़ा तबका आरक्षण के बूते सशक्त होना शुरू हो जाएगा, तब आरक्षण से लाभान्वित होने वाले लोगों के प्रति उनकी सहानुभूति जागृत होगी।
दलितों द्वारा इस प्रयास के समर्थन के पीछे व्यावहारिक कारण हैं। यह समुदाय सरकारी सेवाओं के नियमन का एक प्रबल समर्थक रहा है और इसने ठेका-आधारित सेवाओं, एडहॉक और बाहरी स्रोत से सेवाएँ लेने की प्रवृत्ति (आउटसोर्सिंग) के खिलाफ़ आवाज़ उठाई है। यह केवल वर्तमान सरकार के तहत ही संभव हो पाया है कि दलितों को पारंपरिक संवैधानिक सशक्तीकरण के प्रावधानों से परे भी उद्यम करने के लिए प्रोत्साहन दिया गया। ‘मुद्रा’, ‘पीएमजेडीवाई, ‘स्टैंड-अप इंडिया’ और ‘नेशनल एससी/एसटी हब’ जैसे कदम आर्थिक अस्पृश्यता को समाप्त करने की दिशा में महत्वपूर्ण हस्तक्षेप साबित हुए हैं। उन्हें ख़ास तौर पर ऋण के संबंध में संस्थागत सम्बल प्राप्त हुआ है और उद्भवन (इन्क्यूबेशन) केंद्रों का सबाल्टर्न युवा वर्ग पर परिवर्तनकारी प्रभाव पड़ा है।
124वें संवैधानिक संशोधन के बाद, ‘भीख’ के रूप में माने जाने वाले आरक्षण को ‘समता’ स्थापित करने वाले उपकरण के रूप में देखा जाएगा।
(ये लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं)
(यह लेख अंग्रेजी दैनिक ‘द इंडियन एक्सप्रेस’ द्वारा बीते 18 जनवरी 2019 को प्रकाशित लेख का अनुवाद है)
(अनुवाद : डॉ. देविना अक्षयवर, कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)
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