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विश्वविद्यालयों में आरक्षण : कमजोर आधार पर टिका है सुप्रीम कोर्ट का फैसला!

अदालत का मानना है कि यदि विश्वविद्यालय को इकाई मानकर रोस्टर बनाया गया तो यह संविधान के अनुच्छेद 14 और 16 का उल्लंघन होगा। जबकि सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़ों के लिए आरक्षण का प्रावधान इन्हीं अनुच्छेदों के तहत किया गया है। सवाल उठता है कि यदि विभाग को इकाई माना गया तो आरक्षित वर्गों के लिए 49.5 फीसदी आरक्षण कैसे मिलेगा?

बीते 22 जनवरी 2019 को सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार की याचिका को खारिज कर दिया जिसके तहत उसने 7 अप्रैल 2017 को इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती दी थी। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने अपने फैसले में विश्वविद्यालयों में नियुक्ति में आरक्षण के आधार के लिए विषय/विभाग को माना था न कि विश्वविद्यालय को। सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश यू. यू. ललित और न्यायाधीश इंदिरा बनर्जी की खंडपीठ ने केंद्र की याचिका को खारिज करते हुए विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) द्वारा 25 अगस्त 2006 को जारी गाइडलाइन को भी खारिज कर दिया जिसके तहत विश्वविद्यालयों में नियुक्ति के लिए आरक्षण का रोस्टर बनाने हेतु 200 प्वायंट का प्रावधान किया गया था।

क्या है मामला?

इसके क्लाउज 6(सी) में किए गए प्रावधान के कारण एक विश्वविद्यालय के रिक्त सभी पदों को आरक्षण देने के उद्देश्य से एक इकाई के रूप में माने जाने का प्रावधान है। यह क्लाउज विभागवार आरक्षण रोस्टर बनाने से रोकता है।वहीं इसी गाइडलाइन के क्लाऊज 8(a)(v) में एक कैडर में 40 प्वायंट या 100 प्वायंट के आधार पर रोस्टर बनाने का प्रावधान है। यह प्रावधान आर. के. सभरवाल बनाम पंजाब सरकार मामले में हाईकोर्ट के फैसले के उपरांत किया गया।  इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इन दोनों क्लाउज को खारिज किया था।

सुप्रीम कोर्ट, नई दिल्ली

अदालत का तर्क

हम आपको बताते हैं कि इलाहाबाद हाई कोर्ट के जज विक्रम नाथ और जज दयाशंकर त्रिपाठी ने किस आधार पर अपना फैसला सुनाया था और जिसपर सुप्रीम कोर्ट ने मुहर लगा दी है।

  1. अदालत का मानना है कि एक विषय ‘ए’ का कोई असिस्टेंट प्रोफेसर किसी दूसरे विषय ‘बी’, ‘सी’ या ‘डी’ के लिए एसोसिएट प्रोफेसर या प्रोफेसर पद पर सीधी भर्ती के लिए आवेदन नहीं कर सकता है। वह केवल ‘ए’ विषय से संबंधित पदों के लिए ही आवेदन कर सकता है।
  2. किसी भी विषय के विभागाध्यक्ष पद के लिए वरीयता का लाभ केवल उसी को मिलेगा जो उस विषय का है। किसी दूसरे विषय के वरिष्ठ प्रोफेसर को किसी दूसरे विषय के विभागाध्यक्ष के रूप में प्रोन्नति नहीं दी जा सकती है।
  3. अलग-अलग विषयों के समान रैंक के प्रोफेसरों के बीच कोई प्रतिस्पर्धा नहीं होती है। प्रतिस्पर्धा एक ही विषय के उम्मीदवारों के बीच होती है।
  4. समान वेतनमान अलग-अलग विषयों के पदों को सिंगल कैडर मानने का आधार नहीं माना जा सकता है।
  5. इस प्रकार किसी विश्वविद्यालय में एक ही रैंक के सभी पदों को एक साथ मिलाया जाना पूर्णत: अव्यावहारिक है।
  6. ऐसा करना संविधान की धारा 14 और 16 का उल्लंघन होगा।
  7. यदि आरक्षण के लिए विश्वविद्यालय को इकाई माना गया तो इसका एक परिणाम यह होगा कि कुछ विभागों के सारे पदों पर आरक्षित वर्ग के उम्मीदवार होंगे तो कुछ विभागों में सामान्य वर्ग के।

क्या कहते हैं विशेषज्ञ?

डायलॉग फॉर एकेडमिक जस्टिस के संयोजक व दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर सुरेंद्र कुमार के मुताबिक, अदालत का यह निष्कर्ष पूरी तरह गलत है कि विश्वविद्यालय को इकाई मान कर रोस्टर के निर्माण से कुछ विभागों में केवल आरक्षित वर्ग के तो कुछ विभागों में सामान्य वर्ग के उम्मीदवार होंगे।

प्रो. सुरेंद्र कुमार, दिल्ली विश्वविद्यालय

प्रो. कुमार के मुताबिक, यदि विश्वविद्यालय के बजाय विभाग को इकाई माना गया तो आरक्षित वर्ग को आरक्षण मिलेगा ही नहीं। अदालत को यह बताना चाहिए कि आखिर वह कौन सा तरीका है जिसके उपयोग से आरक्षित वर्ग को उसका हक मिलेगा। हमारे संविधान में ओबीसी को 27 फीसदी, अनुसूचित जाति को 15 फीसदी और अनुसूचित जनजाति को 7.5 फीसदी आरक्षण देने का प्रावधान है। अदालत को यह बताना चाहिए कि आखिर किस तरह से 49.5 फीसदी पदों पर आरक्षित वर्ग़ों के उम्मीदवारों को जगह मिलेगी, अगर विभाग को इकाई माना गया। रही बात यह कि विश्वविद्यालय को इकाई मानने से संविधान के अनुच्छेद 14 और 15 का उल्लंघन होता है तो वह कैसे होता है, यह भी अदालत को बताना चाहिए जबकि इन्हीं अनुच्छेदों के तहत किए गए प्रावधानों के कारण आरक्षण की व्यवस्था बनाई गई है।

(कॉपी संपादन : अशोक झा)


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