प्रेमकुमार मणि वैश्विक दृष्टि और इतिहास बोध से लैस लेखक हैं। उनका लेखन इस बात का सबूत है कि वे एक खूबसूरत भविष्य का सपना देखते हैं। इस प्रक्रिया में वे समय के ज्वलंत प्रश्नों से टकराते हैं। इन्हीं टकराहटों से ‘चिंतन के जनसरोकार’ किताब निकली है। फारवर्ड प्रेस से प्रकाशित यह किताब प्रेमकुमार मणि के समसामयिक विषयों पर लिखे गए लेखों, उनके खुद के साक्षात्कारों एवं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिखे गए पत्र का संग्रह है। इस संग्रह का लेखन–काल 2011-2015 के बीच का है, जिसका पुस्तकाकार प्रकाशन 2016 में हुआ है। इन लेखों के जरिए वे दलित-बहुजन समाज, राजनीति व साहित्य की मुख्य प्रवृत्तियों को छूने व उसे व्याख्यायित करने की भरपूर कोशिश करते हैं।
फारवर्ड प्रेस द्वारा प्रकाशित यह किताब समाजशास्त्र के अध्येताओं के लिए तो महत्वपूर्ण है ही, साथ ही राजनीतिक लोगों को भी यह किताब अवश्य पढ़नी चाहिए; ताकि वे यह समझ सकें कि बहुजनों के चिंतन के विषय क्या हों और उन्हें देखने का नजरिया क्या हो। यह किताब अमेजन एवं अन्य ई-कॉमर्स वेबसाइटों पर सहज रूप से उपलब्ध है और घर बैठे मंगाई जा सकती है।
यह पुस्तक भारत के सभी बहुजनों के लिए बहुत ही खास है। इसकी वजह यह है कि इसमें शामिल लेख समसामयिक तो हैं ही, साथ ही इनके लेखक प्रेमकुमार मणि विषयों व मुद्दों की तह में जाने के लिए इतिहास व पुराणों को भी खंगालते हैं। ऐसा करने में वे सिर्फ विषय की व्याख्या ही नहीं करते हैं, बल्कि उस पर अपनी सहमति–असहमति भी व्यक्त करते हैं और जरूरत पड़ने पर आक्रोश भी जतलाते हैं। चूंकि इन लेखों में मुख्य रूप से डॉ. आंबेडकर की बहुजन दृष्टि व कार्ल मार्क्स की वर्गीय दृष्टि का समावेश है। अतः ये बहुजन समाज को अपनी वर्गीय पक्षधरता भी तय करने के लिए प्रेरित करते हैं।
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मसलन, आजादी के समय के भारत को नेहरू के माध्यम से बताते हुए वे लिखते हैं कि ‘‘वर्गों और जातियों में बंटा हिंदुस्तानी समाज, अज्ञानता के अंधकार में डूबा हुआ था। भारत, जो मोटे तौर पर ब्राह्मणवाद और इस्लाम के अंधानुयायियों की वास भूमि है, अपने प्रतिगामी सामाजिक खयालों के लिए दुनियाभर में बदनाम था। यहां के निवासियों की सोच में वैज्ञानिक चेतना का घोर अभाव था। यहां तक कि उपनिवेशवाद के खिलाफ लड़ा गया स्वतंत्रता आंदोलन भी भारत माता जैसे कल्पित मिथकीय और सांप्रदायिक सोच का अवलंब लिए हुए था। इसी सोच की परिणति आजादी के साथ देश का बंटवारा या बंटवारे के साथ आजादी थी।’’
पुस्तक के प्रथम लेख ‘गांधी से ज्यादा आंबेडकर का भारत’, में वे बहुजन समाज को अपना नायक व पथ-प्रदर्शक चुनने में मदद करते हैं एवं यह बताते हैं कि कैसे आंबेडकर के बहुसंख्यक भारतीय समाज के लिए प्रासंगिक होते हुए भी गांधी लोगों के दिमाग पर छा गए। प्रामाणिक रूप से अपनी बात रखते हुए प्रेमकुमार मणि लिखते हैं कि ‘‘आज पूरे भारत के गांव–टोलों व नगरों में सबसे अधिक मूर्तियां किसी की हैं, तो वे डॉ. आंबेडकर की है। इनमें बहुत कम मूर्तियां सरकारी कोष से बनी हैं। ज्यादातर का निर्माता वह जनसमूह है, जिसने अपने मुक्तिदाता के रूप में इन्हें स्वीकार किया है। …आज एक बौद्धिक के लिए गांधी साम्राज्य विरोधी और राष्ट्रीय आंदोलन के अग्रणी नेता जरूर हैं; लेकिन स्वतंत्रता, समानता और भाईचारा जैसे आधुनिक उसूलों के लिए आंबेडकर ने जो कार्य किया, उसके सामने गांधी बौने दिखते हैं।’’
समाज के मध्य वर्ग व सिविल सोसायटी के बड़े तबके को प्रेमकुमार मणि समाज की दुर्गति का कारण मानते हैं। क्योंकि, इस तबके के पास समाज को बदलने, उसे बेहतर करने, न्यायपूर्ण व समतापूर्ण बनाने का न कोई लक्ष्य है और न ही दृष्टि।
इसी प्रकार मनुवादी सामाजिक व्यवस्था पर चोट करते हुए वह लिखते हैं कि ‘‘मनुवादी समाज व्यवस्था का आदर्श है– परोपजीविता। जो श्रेष्ठ है, परजीवी है, ब्राह्मण व अन्य द्विज जिसे आज सवर्ण कह रहे हैं, शारीरिक श्रम को हेय समझता है। शारीरिक श्रम करने वालों को ज्ञान से दूर रखने की व्यवस्था थी– ‘न शूद्राय मतिं दद्यात्’– शूद्रों को मति (बुद्धि) मत दो– यह मनुस्मृति का विधान है।”
प्रेमकुमार मणि की खूबी यह है कि वे न केवल उच्च कोटि के साहित्यकार व चिंतक हैं, बल्कि संवेदनशील व सुलझे हुए राजनीतिज्ञ भी हैं। इसका प्रभाव भी उनके लेखों में स्पष्ट रूप से दिखता है। मसलन, राजनीति में विचारधारा व संगठन के महत्व को समझाते हुए वे कहते हैं कि ‘‘पिछड़े वर्ग के लोग गांधीवाद–सावरकरवाद की रामनामी जितना जल्द हो सके उतार फेकें। फुले–आंबेडकरवाद जैसे दलितों के लिए मार्गदर्शक हैं, वैसे ही अन्य पिछड़े वर्गों के लिए भी। दलितों के बिना पिछड़ों की राजनीति अंधी है और पिछड़ों के बिना दलितों की राजनीति स्थावर। दोनों एक–दूसरे के पूरक हैं। इस सोच के साथ ही एक नई वैचारिकी की शुरुआत होनी चाहिए।’’
अपने एक दूसरे लेख ‘संसद के कार्टून’ के अंतर्गत वे संसद व न्यायपालिका को लेकर आम लोगों की समझदारी को भी तोड़ते हुए लिखते हैं कि ‘‘कुछ लोग चाहते हैं कि इस संसद को प्रतिनिधि बुद्धिजीवी सभा भी समझा जाए, तो इससे मेरा इनकार है। कोई भी संसद चाहे वह किसी भी देश या समाज की हो, बुद्धिजीवी सभा भी हो, ऐसा सोचना उसके प्रति ज्यादती होगी। हर संस्था की सीमाएं होती हैं, संसद की भी हैं। नहीं हैं, तो होनी चाहिए। आज जिस तरह संसद है, राजतंत्र में राजा का दरबार होता था। इन्हीं दरबारों में सुकरात, ईसा और गैलीलियो को हाजिर होना पड़ा था। इन्हीं दरबारों ने सुकरात और ईसा को मृत्युदंड और गैलीलियो को एकांतवाद की सजा दी थी। उस समय भी यह सब कुछ जनभावनाओं की दुहाई देकर ही किया गया था।’’
प्रधानमंत्री को लिखा गया पत्र लेखक की ऐतिहासिक दृष्टि का खूबसूरत नमूना है, जिसमें वे लिखते हैं कि “पुराने जमाने में जब हमारे यहां नालंदा था, चीन का ह्वेनसांग और फाह्यान वहां पढ़़ने आए थे। ब्रिटिश-काल में भी हमारे लोग ऑक्सफोर्ड और कैम्ब्रिज जाते थे। आपको पता होगा, भारतीय छात्र वहां भारत की आजादी पर भी चर्चा करते थे। उनका संगठन था, उनकी कार्यवाही थी, लेकिन ब्रिटेन के लोगों ने इसके लिए उन पर देशद्रोह का मुकदमा नहीं चलाया। आपके सावरकार भी वहां पढ़़ने गए थे और अपनी प्रसिद्ध किताब ‘इंडियन वार ऑफ इंडिपेंडेंस : 1857’ उन्होंने ब्रिटेन में रहकर पूरी की। वहीं, उन्होंने ‘फ्री इंडिया सोसायटी’ की स्थापना की। हमें भी अपनी युनिवर्सिटियों को इतनी आजादी देनी चाहिए कि वहां लोग मुक्त मन से विचार कर सकें। विश्वविद्यालय में जो विश्व शब्द है, उस पर ध्यान दीजिए; आप उसे संघ का शिशु मंदिर बनाना चाहते हैं?”
साहित्य समलोचना के केंद्र में बहुजन विमर्श को रखते हुए ‘आलोचना की अधोगति’ नामक लेख में वे दुनिया के दो वैश्विक दृष्टिकोणों को बहुत ही सरल शब्दों में रखते हुए कहते हैं कि ‘‘विमर्श का ब्राह्मणवादी नजरिया अवैज्ञानिक है, यह बतलाता है कि पहले सतयुग था, आज कलयुग है। अच्छे से बुरे की ओर गति को ब्राह्मणवाद स्वीकारता है। वह प्रगति में नहीं, अधोगति में विश्वास करता है। पहले सब अच्छा था, अब सब कुछ खराब है। आरंभ में देव भाषा संस्कृत थी, बाद में लोकभाषाएं विकसित हुईं। पहले देवताओं का जमाना था, अब उनसे कमतर मनुष्यों का जमाना है।”
प्रेमकुमार मणि बहुजनों से वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाने की अपील करते हैं। उनके अनुसार, “विज्ञान कहता है कि सरल से जटिल की ओर प्रगति होती है। एक कोशकीय जीवों से विकास करते हुए बहुकोशकीय जीव बने। पहले जन भाषाएं बनीं, इसे मांजकर, संस्कारित कर अभिजनों ने अपनी भाषा बनाई; पहले खराब युग था उसकी अपेक्षा आज बढ़िया युग है। यह है– प्रगतिवाद।”
बर्टेड रसेल से संवाद करते हुए वह लिखते हैं कि ‘‘यदि वह मेरे पास होते, तो मैं उनके कानों में धीरे से कहता– मानव प्रकृति में अनेक चीजें हैं, सेक्स भी, वेल्थ भी, पॉवर भी, डिग्निटी भी, कुछ और चीजें भी। सबका जटिल सम्मुच्य है, मनुष्य। कालक्रम और मनुष्य की अवस्था अनुसार उसका केंद्र बदलता रहता है। हमारी बुनियादी दार्शनिक समस्या, जैसा कि कार्ल मार्क्स ने कहा है, दुनिया की व्याख्या नहीं; दुनिया को बदलना है। मानव प्रकृति के मूल में वस्तुतः प्रेम और करुणा है, और इसके बुते ही हम घृणा और वर्चस्व की सत्ता विनष्ट कर सकते हैं। बुद्ध और ईसा ने मानव जाति को यही पाठ पढ़ाया है।’’
साहित्यिक समालोचना के क्रम में ही शरतचंद्र के उपन्यास ‘शेष प्रश्न’ के माध्यम से प्रेमकुमार मणि ने विवाह रूपी संस्था का सूक्ष्म निरीक्षण किया है, उसके एक पात्र कमल के माध्यम से वे बताते हैं कि ‘‘कमल विवाह व्यवस्था पर भी प्रश्न खड़े करती है। और बताती है कि जिस विवाह में स्थाई भाव हो, उसमें सौन्दर्य का अभाव होता है। क्योंकि, सुंदर चीजें स्थाई नहीं हुआ करतीं। खूबसूरत फूल अंततः झड़़ जाते हैं। स्थायित्व पत्थर होना होता है।”
राजेंद्र यादव की मृत्यु पर लिखा गया स्मरण लेख भी इस पुस्तक का भी हिस्सा है, जिसे पाठकों के लिए महत्वपूर्ण माना जा सकता है। इसमें प्रेमकुमार मणि कहते हैं कि ‘‘हर मनुष्य की तरह राजेंद्र जी में गुण–अवगुण थे, लेकिन उनका केंद्रीय गुण था उनका डेमोक्रेट होना। उनसे आप बिना भय के असहमत हो सकते थे। किसी की असहमति पर रंज होना उन्होंने नहीं सीखा था।’’
श्रीलाल शुक्ल को श्रद्धांजलि देते हुए प्रेमकुमार मणि लिखते हैं कि ‘‘उनका लेखन भारत के आम इंसान की नियति का जीवंत दस्तावेज है। वह हमारे इर्द–गिर्द के पाखंड को भी पकड़ने की कोशिश करते हैं। अपनी बातचीत में उन्होंने सहजता के साथ कहा था, एक लेखक का काम है- मिथ्याचार को, हिपोक्रेसी (पाखंड) को उजागर करना। यदि वह इसे करने में असमर्थ है, तो उसे लिखना बंद कर देना चाहिए।’’
पुस्तक के अंतिम लेख में वे शक्ति का महत्व बताते हुए कहते हैं कि ‘‘अमेरिका की दादागिरी पूरी दुनिया में चल रही है, तो इसलिए कि उसके पास सबसे अधिक सामरिक शक्ति और संपदा है। जिसके पास एटम बम नहीं है, उसकी बात कोई नहीं सुनता; उसकी आवाज का कोई मूल्य नहीं है। गीता उसकी सुनी जाती है, जिसके हाथ में सुदर्शन हो; उसी की धौंस का मतलब है और उसी की विनम्रता का भी।’’
इस तरह पूरी किताब को पढ़ने पर ऐसे लगता है कि जैसे लेखक के पास अपने देश–समाज के बारे में एक मुकम्मल सपना है, और उस सपने को पूरा करने का मुकम्मल रास्ता और योजना भी। लेखक अपनी इसी योजना को पूरा करने में अपने ईर्द–गिर्द बिखरे हुए जीवन–जगत को छूता है। कुल मिलाकर इस किताब में लेखक के एक समय का पूरा मानसिक जगत ही संकलित है।
(कॉपी संपादन : एफपी डेस्क)
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