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औरत होने की सजा : होइहे सोई जो पुरुष रचि राखा

भारतीय समाज में सामाजिक संरचना के साथ बहुत सारे कानून भी पुरुषों के पक्ष में हैं। अपने विशेषाधिकारपूर्ण सामाजिक और कानूनी हैसियत के चलते पुरुष स्त्री पर मालिकाना हक रखने की स्थिति में है। प्रस्तुत लेख में अरविंद जैन ने व्यवहारिक स्तर पर पुरुष की तुलना में स्त्री की सामाजिक और कानूनी स्थिति का विश्लेषण किया है

मैं आदमी हूं यानी पुरुष, मर्द स्‍वामी, देवता, मंत्री, संतरी, सामंत, राजा, मठाधीश और न्‍यायाधीश -सब कुछ मैं हूं और मेरे लिए ही सब कुछ है या सब कुछ मैंने अपने सुख-सुविधा, भोग-विलास और अय्याशी के लिए बनाया है। सारी दुनिया की धरती और (स्‍त्री) देह यानी उत्‍पादन और पुनरुत्‍पादन के सभी साधनों पर मेरा ‘सर्वाधिकार सुरिक्षत’ है और रहेगा। धरती पर कब्‍जे के लिए उत्‍तराधिकार कानून और देह पर स्‍वामित्‍व के लिए विवाह संस्‍था की स्‍थापना मैंने बहुत सोच-समझकर की है। सारे धर्मों के धर्मग्रंथ मैंने ही रचे हैं। धर्म, अर्थ, समाज, न्‍याय और राजनीति के सारे कायदे-कानून मैंने बनाए हैं और मैं ही समय-समय पर उन्‍हें परिभाषित और परिवर्तित करता हूं। घर, खेत, खलिहान, दुकान, कारखाने, धन, दौलत, सम्‍पत्ति, साहित्‍य, कला, शिक्षा, सत्‍ता और न्‍याय-सब पर मेरे अधिकार हैं। सभी धर्मों का भगवान मैं ही हूं और सारी दुनिया मेरी ही पूजा करती है।

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लेखक के बारे में

अरविंद जैन

अरविंद जैन (जन्म- 7 दिसंबर 1953) सुप्रीम कोर्ट में अधिवक्ता हैं। भारतीय समाज और कानून में स्त्री की स्थिति संबंधित लेखन के लिए जाने-जाते हैं। ‘औरत होने की सज़ा’, ‘उत्तराधिकार बनाम पुत्राधिकार’, ‘न्यायक्षेत्रे अन्यायक्षेत्रे’, ‘यौन हिंसा और न्याय की भाषा’ तथा ‘औरत : अस्तित्व और अस्मिता’ शीर्षक से महिलाओं की कानूनी स्थिति पर विचारपरक पुस्तकें। ‘लापता लड़की’ कहानी-संग्रह। बाल-अपराध न्याय अधिनियम के लिए भारत सरकार द्वारा गठित विशेषज्ञ समिति के सदस्य। हिंदी अकादमी, दिल्ली द्वारा वर्ष 1999-2000 के लिए 'साहित्यकार सम्मान’; कथेतर साहित्य के लिए वर्ष 2001 का राष्ट्रीय शमशेर सम्मान

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