जन-विकल्प
धातुओं का युग पत्थर युग के बाद आया। नवपाषाणकाल पांच या सात हज़ार वर्ष तक चला। यानी आज से दस या बारह हज़ार वर्ष पूर्व यह आरम्भ हुआ और पांच हज़ार पूर्व तक चला। यानी ईसा से तीन हज़ार वर्ष पूर्व तक। कांस्य-क्रांति के साथ ही नवपाषाणयुग का अंत हो जाता है। ये तमाम काल-निर्धारण किसी अनुमान से नहीं, खोज और उत्खनन में प्राप्त सामग्रियों के आधार पर किया गया है। इसलिए इन सबके प्रमाण हैं। हम ऐसा नहीं समझ लें कि धातु के आ जाने से पत्थरों का महत्व ख़त्म हो गया। ऐसा नहीं हुआ। जैसा कि पहले बतला चुका हूँ, हाल तक मसाला पीसने के सिलबट्टे और अनाज पीसने के घरेलु जान्ता-चक्की के रूप में हम इन्हें संजोये रहे। लेकिन धातु के गुण पत्थरों से बढ़ कर थे और इसके आविष्कार ने चुपचाप एक नयी क्रांति कर दी। इसने मनुष्य के पराक्रम को काफी बढ़ा दिया।
पत्थर और धातु में एक बड़ा अंतर है। पत्थर को तराशा तो जा सकता है, लेकिन उसे पीट कर या गला कर मनमाफिक आकार नहीं दिया जा सकता। धातु में यह गुण विद्यमान होता है। उन्हें पीट कर और गला कर मनमाफिक आकार में लाया जा सकता है। ठंडा होने पर यदि इनकी सख्ती भी पत्थरों जैसी हो जाती है, तब इनका महत्व बढ़ जाता है। कांस्य धातु के पूर्व कॉपर, जिंक और टीन जैसे जो उपलब्ध धातु थे, वे अपेक्षित रूप से कठोर नहीं थे। वे पत्थरों जैसी कठोरता का काम नहीं कर सकते थे, इसलिए उनका स्थान भी नहीं ले सकते थे। लेकिन कांसा या कांस्य एक कठोर धातु है, जिसका संधान मनुष्य ने किया था। इस गुण के कारण इस धातु का संधान, मनुष्य जाति के हाथ में एक बड़ी उपलब्धि थी।
धातु युग दो चरणों में आया। पहला चरण कांस्य युग है और दूसरा लौह युग। संस्कृत शब्द कांस्य का मतलब है कांसा। इसे अंग्रेजी में ब्रॉन्ज़ कहा जाता है। यह दो धातुओं – ताम्बा (कॉपर )और रांगा (टीन ) – से मिल कर बना मिश्र धातु है। जैसे ताम्बा और जस्ता (जिंक ) से मिलकर मिश्रधातु पीतल (ब्रास) बनाया जाता है। धातुओं के इतिहास में गलाने की प्राविधि कुछ बाद में विकसित हुई होगी। आरम्भ में धातुओं को कम ऊष्मा पर पीटकर ही कोई रूप दिया जाता होगा। इस दौर में मिश्रित धातुओं का निर्माण मुश्किल था। अतएव मानी हुई बात है कि कांस्य युग के पूर्व मनुष्य ने धातुओं को गलाने की प्राविधि विकसित कर ली थी। इससे यह भी ज्ञात होता है कि ब्रॉन्ज़ युग के पूर्व ताम्बा अथवा ताम्रयुग भी कुछ समय तक रहा होगा। धातुओं को गलाने के लिए उच्च ताप और वैसे उपयुक्त पात्र आवश्यक हुए होंगे। प्राचीन युग के इन धातुकर्मियों की मेधा और उनकी तकनीकी क्षमता का आकलन हमें उत्साह से भर जाता है।
कांस्य और पीतल की प्रकृति अधिक कठोर धातु की है। बतला चुका हूँ, ताम्बा, रांगा और जस्ता में अलग -अलग वैसी कठोरता नहीं होती। इसलिए इनसे बने बर्तन भले उपयोगी हों, औजार बहुत उपयोगी नहीं होते होंगे। काँसा और पीतल अधिक कठोर थे। काँसा तो पीतल से भी अधिक कठोर धातु है। इसलिए कांसे से बने औजार और हथियार अधिक कारगर हुए। इसके बने कुछ औजार खेती में भी इस्तेमाल हुए। इनसे हमारी उत्पादन क्षमता में कई गुना वृद्धि हुई। अतिरिक्त उत्पादन से व्यापार की आधारशिला खड़ी हुई। मेले, हाट-बाजार और अंततः नगरों की स्थापना हुई। यह सब आज से कोई पांच हज़ार वर्ष पूर्व हुआ, ईसा से तीन हज़ार वर्ष पूर्व।
लेकिन कांस्य-युग से भी अधिक महत्वपूर्ण लौह-युग को अभी आना था। लौह अर्थात लोहा, जिससे आज हर कोई पूरी तरह परिचित है। आज तो हमारी सभ्यता के रेशे-रेशे से यह जुड़ा है। यह कल्पना करना ही अजीब लगता है कि बस तीन हज़ार वर्ष पूर्व तक हम इस धातु से परिचित नहीं थे। इतिहासकारों का मानना है भारत में लोहे की खोज आज से तीन हज़ार वर्ष पूर्व हुई। संसार के कुछ दूसरे हिस्सों में इससे दो सौ साल पहले। यानी लौह युग ईसा से अधिक से अधिक एक हज़ार दो सौ(1200) साल पहले आरम्भ हुआ।
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लोहा प्राकृतिक स्तर पर ताम्बा, टीन और जस्ता की अपेक्षा प्रचुर मात्रा में मिलने वाला धातु पदार्थ है। लेकिन इसकी खोज उन सबकी खोज के लगभग दो हजार वर्ष बाद हुई। चुम्बकीय गुणों से भरपूर इस धातु को खोजने का श्रेय भारत में असुर जनजाति को है। बिहार-झारखंड, तक्षशिला, तमिलनाडु, कर्नाटक और देश के अन्य हिस्सों में हुई पुरातात्विक खुदाइयों में लोहे से बनी चीजें मिली हैं। सभी धातुओं की तरह लोहा की भी कुछ विशेषता और कुछ कमजोरी है। यह प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है और इसका इस्पात रूप अत्यधिक कठोर होता है। इसमें बारीक़ धार (ब्लेड ) बनाया जा सकता है और गर्म करके भी इसे मनचाहा आकार दिया जा सकता है। गलने के लिए ताम्बा, जिंक और टीन की तुलना में यह कहीं अधिक तापमान की मांग करता है। इसलिए इसका धातुकर्म कठिन और चुनौतीपूर्ण है। इसकी एक बड़ी कमजोरी इसमें जंग लगना है, जो इसे बहुत जल्दी कमजोर बना डालता है। आरम्भ में बहुत दिनों तक पिटवे लोहे का प्रयोग होता रहा, जिसे लुहार अपनी भट्टी में गर्म कर और हथौड़े से पीट कर कोई औजार या हथियार बना लेते थे। किन्तु धीरे-धीरे इसे गलाने और उसमें अन्य धातुओं का एक अनुपात मिलाकर इस्पात बनाने की खोज भी असुर जनजाति के लोगों ने कर ली। यह ठीक-ठीक कहना मुश्किल है कि उच्च कोटि के इस्पात का निर्माण कब हुआ, लेकिन दिल्ली के महरौली में अवस्थित लौह स्तम्भ जो लम्बाई में 23 फुट 8 इंच, डायमीटर में सोलह इंच और वजन में अनुमानतः छह टन का है, जाने कब से पानी, धूप और हवा के झोंके खा रहा है, हमें हैरान करता है। इसके निर्माण-काल पर विवाद है, लेकिन किसी भी तरह यह डेढ़ हज़ार वर्ष से कम पूर्व का नहीं है। यह हमारी उस तकनीक का प्रमाण है, जिसे हमारे तत्कालीन कारीगरों ने हासिल किया हुआ था।
लौह-युग ने उस क्रांति को अधिक तेज बना दिया जिसका आरम्भ कांस्य-युग में हुआ था। वनों को खत्म तो खांडव वन की तरह आग से जला कर भी किया जा सकता था, लेकिन उसे कृषि लायक बनाने के लिए गैंती, खंते, फाबड़े आदि की बड़े पैमाने पर जो जरुरत थी, वह लोहे से ही पूरी की जा सकती थी। लोहे के बने औजारों से कृषि-भूमि का विस्तार हुआ। लोहे के बने फाल जब हल में जुटे तब खेतों की गुड़ाई गहरी होने लगी। इससे उन खेतों में भी कृषि संभव हुई जहाँ मुलायम मिटटी नहीं थी। गहरी गुड़ाई से धान की खेती बड़े पैमाने पर संभव हुई, जो अबतक छोटे पैमाने पर होती थी। सस्ती कीमत की कुदाल-फाबड़ों की बेशुमार संख्या ने अधिक से अधिक कृषि को संभव बनाया। धान की पैदावार बढ़ने का एक नतीजा और आया। गेहूं की अपेक्षा चावल सुपाच्य है। इसमें स्टार्च की मात्रा अधिक होती है, जिसके कारण यह एक अच्छा बालखाद्य (बेबीफूड) है। इस मांड अथवा स्टार्च के उपभोग से धान के पैदावार वाले इलाकों में बाल मृत्यु दर कम हो गया। इससे जनसंख्या बढ़ी। इस बढ़ी जनसंख्या से ही प्रचुर मात्रा में सैनिक मिलने संभव हुए। इसलिए कहा जाना चाहिए कि नन्द और मौर्य साम्राज्यों के उदय के कारणों में यह लोहा भी है। लोहे से बनी तलवारें अब सैनिकों की खास पसंद थी। लोहे के बने तीर अधिक मारक होते थे। मगध के पार्श्व में स्थित छोटानागपुर तब लौह का सब से बड़ा स्रोत था। इसी इलाके के असुरों ने लोहा खोज निकाला था। ऐसा लगता है कि अशोक का कलिंग अभियान इसी लौह क्षेत्र को विस्तार देने और बाँधने की कोशिश थी। कलिंग अभियान के बिना मौर्य साम्राज्य को विस्तार और मजबूती देना संभव नहीं था।
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लौह युग ने उन सभी नगरों के शौर्य और सम्पन्नता को चुनौती दी, जो कांस्य युग की उत्पादन क्षमता से जुड़े थे। यूनान, मिस्र, मेसोपोटामिया की सभ्यताएं आर्मीनियाई जनजातियों के लौह वैभव से डर गयीं और अंततः ख़त्म हो गयीं। लौह वैभव पर खड़ी हुई पाटलिपुत्र जैसी नयी नगर सभ्यता और नन्द और मौर्य साम्राज्यों ने मोइनजोदडो हड़प्पा और इसी तरह की अन्य नगर सभ्यताओं को उदासीन बना दिया और अंततः तहस-नहस कर दिया। बड़ी मिहनत से खड़ी की गयी कांस्य सभ्यता, वह पूरा का पूरा युग चुपचाप लौह युग के समक्ष नतमस्तक हो गया। संस्कृतियों और सभ्यताओं के इतिहास में अच्छे का शत्रु बुरा नहीं, और अच्छा होता है। पत्थर-युग से कांस्य-युग अच्छा था, और कांस्य-युग से लौह युग। सभ्यताओं का सिलसिला ऐसे ही हार-जीत से चलता है।
(कॉपी संपादन : नवल)
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