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फिक्सर संस्कृति का खात्मा

हमारे नौकरशाहों की शिक्षा और प्रशिक्षण की गुणवत्ता को बेहतर बनाने के प्रयास भी होने चाहिए, विशेषकर उन अधिकारियों की, जिनका कार्य अपने अधीनस्थों की कार्यप्रणाली का पर्यवेक्षण करना है

प्रिय दादू,

आपका पिछला पत्र पढ़कर मैं अवाक रह गया। आपने एक दु:खद व गंभीर समस्या का एकदम सटीक विवरण किया है। मैं किंकर्तव्यविमूढ़ हूं। क्या आपको सचमुच ऐसा लगता है कि इस मामले में कुछ किया जा सकता है? मेरी उत्कट इच्छा है कि आप मुझे इस संबंध में कुछ करने के लिए प्रेरित करें।

सप्रेम,

शिव

प्रिय शिव,

समस्या सचमुच बहुत बड़ी है और इसलिए इसका हल निकालने के लिए हम सबको मिलजुल कर काम करना होगा।व्यक्तिगत स्तर पर हमारी कोशिश यही होनी चाहिए कि जहां तक हो सके हम फिक्सरों से बचें। तुम ”इंडिया नो ब्राइब कोएलेशन’’ (www.nobribe.co.in) की सदस्यता ले सकते हो और अपने परिचितों को भी इस बारे में बता सकते हो। शोध बताते हैं कि यदि हम हमारे मूल्यों और सिद्धांतों की सार्वजनिक रूप से घोषणा कर दें तो हम उनका बेहतर ढंग से पालन कर पाते हैं और जो लोग हमें हमारे सिद्धांतों से डिगाना चाहते हैं, वे हतोत्साहित होते हैं।

bnet-bribery006परंतु यदि मजबूरीवश हमें किसी फिक्सर की सेवाओं का इस्तेमाल करना ही पड़े तो ”आई पेड ए ब्राईब’’ (www.ipaidabribe.com) जैसी कुछ वेबसाईटें उपलब्ध हैं, जिन पर हम इसका खुलासा कर सकते हैं। इस समय इस साईट पर देश के एक हजार अलग-अलग शहरों, कस्बों और गांवों के निवासियों की 75,000 से ज्यादा रपटें उपलब्ध हैं, जिनमें 2,500 करोड़ रूपए से अधिक की रिश्वतखोरी का खुलासा किया गया है। इस तरह के खुलासे से रिश्वत लेने वाले व्यक्तियों और संस्थाओं को शर्मिंदगी महसूस होती है और वे लोग, जिन्हें इस तरह के मामलों में कार्यवाही करनी चाहिए परंतु जो आलस्यवश या किसी लाभ की उम्मीद में ऐसा नहीं करते, उन पर दबाव बनता है।

व्यक्तिगत स्तर पर इस तरह की कार्यवाहियां करना आवश्यक है। ज़मीनी स्तर पर कार्यवाही के बिना फिक्सर संस्कृति समाप्त नहीं की जा सकती।

परंतु फिक्सर संस्कृति को समाप्त करने के लिए कुछ संरचनात्मक और प्रणालीगत परिवर्तनों की भी आवश्यकता है। भारत को कुछ लोग ”सरपरस्ती का प्रजातंत्र’’ भी कहते हैं। हमारे देश में नागरिकों के जीवन में राज्य की अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका होती है। अधिकारियों को वस्तुएं और सेवाएं प्रदान करने के मामले में व्यापक विवेकाधिकार होते हैं। अगर नियमों और प्रक्रियाओं की व्याख्या करने और उन्हें लागू करने के संबंध में विवेकाधिकार कम होंगे तो इससे फिक्सर संस्कृति कमज़ोर पड़ेगी। नियमों और प्रक्रियाओं को सरल और पारदर्शी बनाया जा सकता है और इन्हें इंटरनेट पर उपलब्ध करवाया जा सकता है। निर्णय लेने के लिए समय सीमा का निर्धारण किया जा सकता है और यदि कोई अधिकारी इस सीमा का उल्लंघन करता है तो उसे दंडित करने का प्रावधान किया जा सकता है। कुछ मामलों में नियम बहुत पुराने हो गए हैं, अन्य मामलों में नियम सुस्पष्ट नहीं हैं और कई मामलों में अधिकारियों को नज़ीरों और अपनी सामान्य बुद्धि का इस्तेमाल कर निर्णय लेना होता है। इस कारण फिक्सरों को मौका मिल जाता है। अगर कोई काम करवाने के लिए भरे जाने वाले प्रपत्रों की संख्या कम कर दी जाए तो इससे फिक्सरों की भूमिका कम हो सकती है। जैसे-जैसे पारदर्शिता बढ़ती जाएगी फिक्सरों की उपयोगिता घटेगी। हमारे देश में कुछ राज्यों ने नियमों का सरलीकरण किया है और इंटरनेट का इस्तेमाल कर शासकीय निर्णय प्रक्रिया को अधिक पारदर्शी बनाया है। परंतु यह काम उतनी तेज़ गति से नहीं हो रहा है जितना कि होना चाहिए। और जो लोग फिक्सर संस्कृति के लाभार्थी हैं, वे किसी न किसी बहाने, नियमों के सरलीकरण और पारदर्शिता में वृद्धि की प्रक्रिया को बाधित करते हैं।

सरकारी प्रक्रियाओं को पारदर्शी बनाना तो आवश्यक है ही; यह भी ज़रूरी है कि अधिकारियों पर नजऱ रखी जाए और यह सुनिश्चित किया जाए कि वे अपने विवेकाधिकारों का दुरूपयोग न करें। यही बात किसी देश या संस्था के संचालन के मामले में भी लागू होती है। अगर नियमों का उल्लंघन होता है तो यह आवश्यक है कि निर्धारित प्रक्रिया का पालन कर दोषी को सज़ा दी जाए। अगर किसी भी कारण से, चंद मामलों में भी, दंड आरोपित नहीं किया जाता तो इससे अन्य लोगों को यह लगने लगता है कि वे जैसा चाहे वैसा कर सकते हैं। दूसरी ओर, कुछ लोगों को सज़ा मिलने से ही अन्य सभी सावधान हो जाएंगे।

इस मामले में सामान्य नागरिक भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकते हैं। सामुदायिक नेता, बुजुर्ग, स्थानीय संस्थाएं और नागरिक समाज संगठन सभी इसमें अपनी भूमिका निभा सकते हैं और यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि लोगों को अपना काम करवाने के लिए फिक्सरों पर निर्भर न रहना पड़े और व्यवस्था ठीक ढंग से काम करे।

देश के विभिन्न राज्यों और अन्य शासी निकायों के बीच प्रक्रिया को सरल और पारदर्शी बनाने के लिए परस्पर प्रतियोगिता को प्रोत्साहित किया जा सकता है और विभिन्न राज्य और शासी निकाय, एक-दूसरे से सीख सकते हैं। यह हो भी रहा है परंतु अत्यंत धीमी गति से।

हमारे नौकरशाहों की शिक्षा और प्रशिक्षण की गुणवत्ता को बेहतर बनाने के प्रयास भी होने चाहिए, विशेषकर उन अधिकारियों की, जिनका कार्य अपने अधीनस्थों की कार्यप्रणाली का पर्यवेक्षण करना है।

अपनी बात समाप्त करने के पहले मैं सरकारी अधिकारियों के वेतन के बारे में भी बात करना चाहूंगा। अगर किसी अध्यापक या पुलिस अधिकारी का वेतन इतना कम होगा कि उससे वह अपनी आवश्यकताएं ही पूरी न कर सके तो वह निश्चित रूप से गलत तरीकों से पैसा कमाने की कोशिश करेगा। दूसरे शब्दों में, हमें सरकारी तंत्र के पुर्जों को समुचित वेतन देना चाहिए ताकि हम उनसे यह अपेक्षा कर सकें कि वे समय पर और ठीक से अपना काम करेंगे। सोवियत संघ के पतन के समय वहां के एक नौकरशाह ने मज़ाक में कहा था कि ”वो हमें  मूंगफलियां देते हैं और हम बंदरों की तरह व्यवहार करते हैं’’। यह सुनिश्चित करना तो आसान है कि हमारे न्यायिक, राजनैतिक और प्रशासनिक सत्ताधारियों को उचित वेतन दिया जाए परंतु यह सुनिश्चित करना कहीं अधिक कठिन है कि वे बंदरों की तरह व्यवहार न करें।

हमें यह कोशिश करनी होगी कि ऐसे व्यक्ति राजनीति में आएं जो काबिल, ईमानदार और कार्यकुशल हों और जो नैतिक सिद्धांतों और मूल्यों के प्रति प्रतिबद्ध हों। और फिर हमें ऐसे नेताओं को अपना पूरा समर्थन देना होगा। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि फिक्सर केवल निचले स्तर पर सक्रिय नहीं होते। वे उच्चतम स्तर पर भी काम करते हैं। एक प्रजातांत्रिक देश के निवासी बतौर हम सबकी यह जि़म्मेदारी है कि जो चीज़ गलत है, हम उसका प्रतिरोध करें और जो सही है, उसका समर्थन।

तो आज तुम ऐसा क्या करने जा रहे हो, जिससे तुम गलत चीज़ का विरोध करो ताकि जो सही है, उसकी जीत हो सके।

सप्रेम

दादू

 

(फारवर्ड प्रेस के अप्रैल, 2016 अंक में प्रकाशित )

लेखक के बारे में

दादू

''दादू'' एक भारतीय चाचा हैं, जिन्‍होंने भारत और विदेश में शैक्षणिक, व्‍यावसायिक और सांस्‍कृतिक क्षेत्रों में निवास और कार्य किया है। वे विस्‍तृत सामाजिक, आर्थिक और सांस्‍कृतिक मुद्दों पर आपके प्रश्‍नों का स्‍वागत करते हैं

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