राजा ढाले (30 सितम्बर 1940 – 16 जुलाई 2019)
दलित पैंथर का जन्म देश भर में दलितों के विरुद्ध बढ़ते अत्याचारों के प्रतिक्रिया में हुआ था। तत्कालीन सरकारें और दलितों की तथाकथित प्रतिनिधि – रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इंडिया (आरपीई) – के नेतागण इन अत्याचारों की अनदेखी कर रहे थे। आरपीआई के नेता आपसी झगड़ों और सत्ताधारी कांग्रेस की लल्लो-चप्पो करने में व्यस्त थे। जे.वी. पवार, अपनी पुस्तक, ‘दलित पैंथर्स: एन एथोरीटेटिव हिस्ट्री’, में लिखते हैं कि 1970 के दशक की शुरुआत में नामदेव ढसाल और उनके द्वारा दलित पैंथर की स्थापना के बाद, इस संगठन को राजा ढाले ने पोषित किया और आगे बढ़ाया। ढाले उस वक्त 30-35 वर्ष के थे। उनके व्यक्तित्व का चित्र खींचते हुए, पवार लिखते हैं कि वे आग उगलने वाले लेखक और वक्ता थे। परन्तु वे उतने ही संवेदनशील और उदार भी थे। कई लोग केवल उनका भाषण सुनने के लिए दलित पैंथर की सभाओं में आया करते थे। सत्ता कभी उनका ध्येय नहीं रही। वे तो सबके साथ न्याय चाहते थे। पवार ने उनके बारे में जो लिखा है, उसे पढ़कर उनके व्यक्तित्व से प्रभावित हुए बिना नहीं रहा जा सकता।
तत्समय, कांग्रेस की केंद्र सरकार ने यह घोषणा की कि थिएटरों में फिल्म से पहले राष्ट्रगान बजाया जायेगा और उस समय सभी दर्शकों के लिए उनके स्थान पर खड़ा होना अनिवार्य होगा। ऐसा ही कदम, अभी कुछ वर्ष पहले भी उठाया गया था। बहरहाल, महाराष्ट्र पुलिस, सरकार के इस आदेश का पालन करवाने में जुट गयी। उस समय, राजा ढाले ने एक मराठी पत्रिका ‘साधना’ में लिखा :
“ब्राम्हणगांव में किसी ब्राम्हण महिला को नंगा नहीं किया जाता। वहां एक बौद्ध महिला को नंगा किया जाता है। और इसकी सजा क्या है? एक माह की कैद या 50 रूपये जुर्माना! अगर कोई व्यक्ति राष्ट्रध्वज के सम्मान में खड़ा नहीं होता तो उस पर 300 रूपये का जुर्माना लगाया जाता है। राष्ट्रध्वज केवल कपड़े का एक टुकड़ा है – वह कई रंगों से बना एक प्रतीक है – परंतु उसका असम्मान करने पर व्यक्ति को भारी जुर्माना चुकाना पड़ता है। और अगर एक जीती-जागती दलित महिला, जो अनमोल है, उसे नंगा कर दिया जाता है तो उसके लिए केवल 50 रूपये का जुर्माना निर्धारित है। ऐसे राष्ट्रध्वज का क्या मतलब है? क्या हम उसे अपनी गुदा में घुसा लें? कोई भी राष्ट्र उसके लोगों से बनता है। क्या राष्ट्र के प्रतीक के अपमान को उसके लोगों के अपमान से अधिक गंभीर माना जा सकता है? इनमें से क्या ज्यादा गंभीर है? क्या हमारी गरिमा और सम्मान की कीमत कपड़े के एक टुकड़े से भी कम है? अतः इस तरह के अपराध के लिए कड़ी सजा का प्रावधान होना चाहिए। अगर ऐसा नहीं होता तो देशभक्ति भला कैसे पनपेगी?”
अपने छोटे-से जीवनकाल में दलित पैंथर ने महाराष्ट्र में दलितों पर अत्याचार के कई मामलों में हस्तक्षेप किया। इनमें से एक मामला था अकोला जिले के धाकली गाँव में एक धनी जमींदार के लड़के द्वारा गवई बंधुओं की आंखें निकाल लेने की लोमहर्षक घटना। जमींदार के लड़के ने यह इसलिए किया क्योंकि गवई बन्धु उससे कह रहे थे कि वह उनकी 16 साल की बहन – जिसके पेट में उसका बच्चा पल रहा था – से विवाह करने के अपने वायदे को निभाए। स्थानीय पुलिस ने पीड़ितों की शिकायत तक दर्ज करने से इंकार कर दिया। इसके बाद, उन्होंने दलित पैंथर से संपर्क किया। दलित पैंथर की काफी कोशिशों के बाद, मुंबई पुलिस इस बात के लिए राजी हो गयी कि प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की मुंबई यात्रा के दौरान, गवई बंधुओं को उनसे मिलने दिया जायेगा। ढाले भी इस मुलाकात के दौरान मौजूद थे। पवार इस मुलाकात कर वर्णन निम्न शब्दों में करते हैं:
“प्रधानमंत्री से हमारी यह पहली मुलाकात थी। एक फरवरी 1975 को हवाईजहाज से उतरने के बाद, उन्हें उस स्थान कर लाया गया जहाँ हम लोग उनका इंतज़ार कर रहे थे। वहां मुख्यमंत्री, मंत्री, पुलिस महानिदेशक, मुंबई के पुलिस कमिश्नर व अन्य अधिकारी मौजूद थे। प्रधानमंत्री को उम्मीद थी कि हम लोग विनम्रतापूर्वक हाथ जोड़कर उनका अभिवादन करेंगे। परन्तु हमने ऐसा नहीं किया। उन्होंने हाथ जोड़कर हमारा अभिवादन किया। मैंने तुरंत गवई बंधुओं की ओर इशारा करते हुए कहा, “अपनी आंखों से देखिये कि आपके राज में किस तरह के अत्याचार हो रहा हैं?” उन्होंने शायद ‘राज’ शब्द को ‘राज्य’ सुना और वे नाराज़ हो गईं। उन्होंने तल्खी से मुझसे कहा, “ये राज्य क्या तुम्हारा नहीं है?” मैंने बिना डरे जवाब दिया, “नहीं, इस तरह का अन्याय आपके राज में ही होता है।” लगभग चार मिनट तक मैं हमारी पीड़ा और व्यथा का वर्णन करता रहा। इसी बीच, मुख्यमंत्री नाईक ने हस्तक्षेप करते हुए, राजा ढाले से प्रधानमंत्री का परिचय करवाने का प्रयास किया। “ये राजा ढाले हैं,” उन्होंने कहा। वे शायद प्रधानमंत्री को याद दिलाना चाह रहे थे कि ढाले वही व्यक्ति है जिसने राष्ट्रीय ध्वज के बारे में विवादस्पद लेख लिखा था। ढाले ने तुरंत गुस्से से मुख्यमंत्री से कहा कि वे प्रधानमंत्री से मेरी चर्चा जारी रहने दें। मुख्यमंत्री से जहाँ मुझे रोक दिया था, मैंने वहीं से अपनी बात फिर शुरू की और प्रधानमंत्री को पूरे घटनाक्रम से अवगत करवाया। गवई बंधुओं ने भी उनकी आपबीती सुनायी और न्याय की मांग की।
श्रीमती गाँधी ने जब इस बर्बर घटना के बारे में सुना और पीड़ितों की आँखों के स्थान पर गड्डों को देखा तो उनकी आँखों में आंसू भर आये। उन्होंने वहीं मुख्यमंत्री से कहा कि वे मामले की पूरी जांच करवाएं। इस पर मैंने ऊंची आवाज़ में कहा कि “हमें महाराष्ट्र सरकार पर भरोसा नहीं है। वह दलितों की शत्रु है। अगर कोई जांच कराई जानी है, तो वह सीबीआई द्वारा करवाई जानी चाहिए।” मैंने श्रीमती गाँधी को ज्ञापन सौंपा, जिसे स्वीकार कर उन्होंने उसे अपने निजी सहायक को दे दिया। जब मैंने ज्ञापन की एक प्रति मुख्यमंत्री को देनी चाही तो वे उसे लेने में आनाकानी करने लगे। यह देखकर श्रीमती गाँधी ने मुख्यमंत्री को डांट लगाई। “वो आपको ज्ञापन दे रहा है और आप उसे ले तक नहीं रहे हैं। अगर आप ऐसा व्यवहार करेंगे तो ये लोग आपके खिलाफ हो जाएंगे।” नाईक के पास अब ज्ञापन स्वीकार करने के अतिरिक्त कोई चारा नहीं था। प्रधानमंत्री पलटीं और आगे बढ़ गईं। मैंने देखा कि वे अपनी साड़ी के पल्लू से अपनी आँखें पोंछ रही थीं। हम लोग पुलिस की गाड़ी से वापस लौटे। हमें संतोष था कि हम व्यक्तिगत रूप से गवई बंधुओं का मामला प्रधानमंत्री के सामने रख सके। बाद में, उन्होंने पीड़ितों के लिए मुआवज़े की घोषणा भी की।
2 फरवरी 1975 को सभी अख़बारों ने गवई बंधुओं की प्रधानमंत्री से मुलाकात की खबर प्रमुखता से छापी। मुझे पुलिस के ज़रिये यह सन्देश मिला कि मुख्यमंत्री गवई बंधुओं से मिलना चाहते हैं। दोनों भाईयों के साथ, मैं भी सचिवालय गया और हम लोग मुख्यमंत्री से मिले।”
चूंकि ढाले, दमितों को न्याय दिलवाने के लिए केंद्र और महाराष्ट्र की कांग्रेस सरकारों के खिलाफ लगातार बोलते रहते थे इसलिए आपातकाल के बाद, जनता पार्टी तो लगा कि वे उसके लिए उपयोगी हो सकते हैं। परन्तु ढाले किसी के झांसे में आने वालों में से नहीं थे। पवार लिखते हैं:
“मुझे सन्देश मिला कि जनता पार्टी ढाले को नांदेड लोकसभा क्षेत्र से अपना उम्मीदवार बनाना चाहती है। यह सन्देश भी पहुँचाया गया कि गैर-कांग्रेस पार्टियों द्वारा, कांग्रेस से सत्ता छीन लिए जाने के बाद मुझे केबीनेट मंत्री बनाया जायेगा। ये सन्देश भारतीय बौद्ध महासभा के विधिक सलाहकार एन.पी. निकुम्भ ने मुझे दिए। वे कांग्रेस के उस गुट से भी जुड़े हुए थे जो जनता पार्टी का साथ दे रहा था और नीति निर्माण करने वाले उसके पांच सदस्यों में से एक थे। अगर हम लोगों ने ये प्रस्ताव स्वीकार कर लिए होते तो शायद समाजवादी नेता एस.एम. जोशी, जो कि जनता पार्टी के संस्थापकों में से एक थे, अपना वायदा निभाते। परन्तु हम जानते थे कि जनता पार्टी लम्बे समय तक नहीं चलेगी क्योंकि उसका एक मात्र एजेंडा कांग्रेस का विरोध है। हमें न तो जनता पार्टी पर भरोसा था और ना ही सरकार पर। जनता पार्टी में कई ऐसे दल शामिल थे, जिनकी विचारधाराएँ परस्पर विरोधी थी। राजा ढाले, इमरजेंसी के दौरान जेल में डाल दिए गए जनता पार्टी की नेताओं की तुलना भगवान कृष्ण से करते थे, जिनका जन्म जेल में हुआ था। ढाले का कहना था कि इन नेताओं की भगवद्गीता विश्वनीय नहीं है।”
ढाले अब नहीं हैं। उन्होंने सत्ता के गलियारों में कभी कदम नहीं रखा। वे सड़कों पर चलते थे और सत्ता के गलियारों में रहने वाले उनकी बात सुनते और मानते थे।
(कॉपी संपादन : नवल, अनुवाद : अमरीश हरदेनिया)
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