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सामाजिक-न्याय की कसौटी पर जाति-आधारित आरक्षण का औचित्य 

तमिलनाडु की दलित एवं पिछड़ी जातियों, जनजातियों के संदर्भ में, एकमात्र जाति-आधारित आरक्षण वह रास्ता है, जिसके माध्यम से समाज में सामाजिक-न्याय के लक्ष्य को यकीनन और पुख्ता तौर पर प्राप्त किया जा सकता है। इसके लिए कोयटंबूर स्थित पेरियारवादी पत्रिका ‘कात्तारू’ द्वारा तमिल में प्रकाशित पुस्तिका का अध्ययन किया जा सकता है। पुस्तिका का तमिल से अंग्रेजी में अनुवाद टी. थमाराई कन्नन ने किया है

आरक्षण क्या है?

हमारे देश में हजारों वर्षों से जनसंख्या के बड़े हिस्से को, व्यक्ति के जन्म के आधार पर शिक्षा से दूर रखा गया। सभी महाप्रतापी सम्राट, जिन्होंने भारतीय उपमहाद्वीप पर राज किया, ‘मनुस्मृति’ की अनुज्ञाओं से बंधे हुए थे। हिंदुओं का न्याय-विधान कही जाने वाली यह पुस्तक शूद्रों के लिए शिक्षा को निषिद्ध बताती है।  उस व्यवस्था में गैर-ब्राह्मणों को तरह-तरह से दबाया जाता था। उन्हें न केवल शिक्षा, अपितु प्रतिष्ठित नौकरियों और सत्ता में भागीदारी से भी वंचित रखा जाता था।

‘आरक्षण’ ऐसा माध्यम है जो दलितों को उनकी जाति के आधार पर शिक्षा एवं नौकरियों के अवसर उपलब्ध कराता है। जी हां, उसी जाति के आधार पर जिसके बहाने अतीत में उन्हें शिक्षा और नौकरियों से वंचित रखा जाता था। 

आनुपातिक आरक्षण क्या है?

‘आनुपातिक आरक्षण नीति’ शिक्षा, रोजगार तथा राजनीतिक प्रतिनिधित्व के क्षेत्र में देश या प्रांत की कुल जनसंख्या में प्रत्येक जाति-वर्ग की आनुपातिक जनसंख्या के आधार पर आरक्षण का समर्थन करती है; तथा उसे आवश्यक मानती है। भारत में राष्ट्रीय स्तर पर तथा राज्यों, जैसे कि तमिलनाडु में केवल साधारण आरक्षण का प्रावधान है, न कि जातिवार जनसंख्या के अनुपात में।

क्या जाति-आधारित आरक्षण देना नीति-संगत है?

अमेरिका में, अफ्रीकी-अमेरिकन (अश्वेत) नागरिक अपनी प्रजाति के आधार पर शताब्दियों से उत्पीड़न का शिकार थे। उनकी स्थिति में सुधार हेतु की जाने वाली ‘सकारात्मक तरफदारी’, जिसका आधार उनकी प्रजाति है, ने उन्हें विकास के अवसर प्रदान किए हैं।

आरक्ष्ण की मांग को लेकर एक प्रदर्शन की तस्वीर

भारतीय उपमहाद्वीप में, ब्राह्मणों (आर्यों) के आक्रमण के बाद, यहां रह रहे लोगों को जाति के आधार पर बांटकर, उन्हें उनके मूलभूत अधिकारों से वंचित कर दिया था। तर्कसम्मत यही है कि जिस तरीके से अन्याय की शुरुआत हुई है, अन्याय का निवारण भी उसी सुसंगत तरीके से किया जाए। केवल इसी रास्ते समानता को पुनर्स्थापित किया जा सकता है। 

जाति की पहचान जरूरी क्यों है?

चलिए, एक ऐसी डकैती की कल्पना करते हैं, जिसमें गृहस्वामी अनेक बेशकीमती वस्तुएं गंवा चुका है। जब वह थाने में शिकायत दर्ज कराने जाता है, पुलिस उससे उसका नाम और पता पूछती है, ताकि जब भी कभी वे वस्तुएं बरामद हों, उन्हें उसके स्वामी को लौटाया जा सके। 

ठीक इसी तरह, आरक्षण नीति को लागू करते समय ऐसे लोगों की सटीक पहचान करना आवश्यक है, जिनके अधिकारों का हनन हजारों वर्षों से होता आया है, ताकि जाति-विशेष के साथ जो अन्याय हुआ था, समय रहते उसकी क्षतिपूर्ति  की जा सके।

विद्यालयों में प्रवेश के समय जाति-प्रमाणपत्र मांगना क्या जातिवाद को बढ़ावा देना नहीं है?

जिन गली-मुहल्लों में हम जन्म लेते और रहते हैं, वे पहले से ही जाति के आधार पर बंटे होते  हैं। हमारे गांव और कस्बे ‘अग्रहार’, विशेषरूप से ब्राह्मणों की बस्तियों; तथा दलित ‘बस्तियों’ और ‘टोलों’ में बंटे होते हैं। बाकी क्षेत्र गांव के दूसरे सवर्ण हिंदुओं के लिए निर्धारित होता है। यहां तक सड़कें भी जातियों के नाम से पहचानी जाती हैं। किसी आदमी का पता जानने मात्र से ही कोई व्यक्ति उसकी जाति का अनुमान लगा सकता है। क्या इन बस्तियों की स्थापना जाति-प्रमाणपत्र के आधार पर की जाती है? नहीं, यह विभाजन लोगों पर केवल जाति के आधार पर, उनके जन्म से ही थोप दिया जाता है। 

आज भी, अनेक गांवों में चाय की दुकानों पर दलितों(पिछड़ी और अस्पृश्य जातियों) को चाय मिट्टी के कुल्हड़ों में  दी जाती है। एक बार प्रयोग करने के बाद उन्हें फेंक दिया जाता है। बाकी लोगों को कांच या चीनी मिट्टी के बर्तनों में परोसी जाती है, जिनका दुबारा इस्तेमाल किया जा सकता है। वहां भिन्न जाति-समूहों के लिए अलग-अलग बैंचें लगी होती हैं। चाय की उन दुकानों पर क्या जाति प्रमाणपत्र मांगा जाता है? नहीं, वे व्यक्ति की जाति को केवल उसका चेहरा देखकर पहचान लेते हैं।

यहां तक कि वे लोग भी जो दावा करते हैं कि जाति-प्रमाणपत्र ने जातिवाद को बढ़ाने का काम किया है, अपने बच्चों के विवाह के समय जाति का उल्लेख करना नहीं भूलते। क्या वे अपनी ही जाति के दूल्हा या दुलहन की चाहत नहीं रखते? क्या उनके बिचौलिये या इंटरनेट पर मौजूद बेवसाइटें जाति प्रमाणपत्र की मांग करती हैं? नहीं।

मनुष्य मृत्यु के बाद भी जाति से मुक्त नहीं हो पाता। यहां तक कि दलितों के लिए शमशान घाट और कब्रिस्तान भी उनकी जाति के अनुसार आरक्षित होते हैं। क्या वे दिवंगत के दाह-संस्कार या उसे दफनाते समय, उसके जाति प्रमाणपत्र की जांच करते हैं? नहीं।

इस तरह हमारे जन्म से लेकर शमशान घाट की अंतिम यात्रा तक, बिना हमसे पूछे या जाति-प्रमाणपत्र की जांच किए जाति हमपर सवार रहती है। यदि स्कूलों में जाति प्रमाणपत्र कभी न मांगे जाएं, तब क्या जाति-आधारित उत्पीड़न खत्म हो जाएगा? स्कूल प्रवेश के समय जाति-प्रमाणपत्र की मांग करने का जातिवाद और जाति-आधारित उत्पीड़न को बढ़ावा देने में कोई योगदान नहीं है। बिना किसी जाति प्रमाणपत्र के भी समाज में जातिवाद मौजूद और फलता-फूलता रहता है।

जाति आधुनिक शिक्षा प्रणाली के उदय से पहले ही मौजूद थी

हमारे समाज में स्कूलों में दाखिले के समय जाति-प्रमाणपत्र की मांग और तत्संबंधी जांच-पड़ताल एक शताब्दी से ज्यादा पुरानी नहीं हैं। ‘जटिस्स पार्टी’ और ‘स्वाभिमान आंदोलन’ जैसे संगठनों का उनके लंबे संघर्ष के लिए आभार। उसी के फलस्वरूप हमें बीसवीं शताब्दी में आरक्षण का लाभ मिला, जिसके लिए जाति प्रमाणपत्र की आवश्यकता पड़ती है। 

2000 वर्षों से अधिक के कालखंड में हमारे देश में कोई सार्वजनिक स्कूल या विश्वविद्यालय नहीं था। भारत में ब्रिटिश शासन के दौरान, हमें शैक्षिक संस्थानों में प्रवेश का अवसर मिला। बहुत पहले न भी जाएँ तो, वर्तमान जाति-व्यवस्था को पहली शताब्दी से हमपर थोपा गया था। तभी से वह पूरी तरह अमल में है। जाति के कारण का भारत ने पिछले दो हजार वर्षों में कैसी उन्नति की है? राजा-महाराजाओं के जमाने में, जब भारत में कोई स्कूल नहीं था, कोई जाति-प्रमाणपत्र जारी नहीं किया जाता था, तब जाति-व्यवस्था किस तरह विकासोन्मुखी थी? केवल इसी तरह के तर्कों से बचने के लिए ब्राह्मणवादी मीडिया, वह मीडिया जिसमें ऐतिहासिक बोध और समझ का सरासर अभाव है, विद्यालयों में प्रवेश के समय जाति-प्रमाणपत्र मांगे जाने को, मुख्य अनिवार्यता के रूप में, गलत तरीके से पेश करता है। 

शिक्षारंभ संस्कार, वेदारंभ संस्कार सहित सभी जाति-आधारित उत्सवों पर प्रतिबंध लागू हो

प्रत्येक वर्ष ब्राह्मण परिवारों में एक पारंपरिक उत्सव मनाया जाता है, जिसे अवनि अवित्तम(यज्ञोपवीत संस्कार) या यजुर्वेद उपकर्म (वेदारंभ या शिक्षारंभ संस्कार) कहा जाता है। उस दिन ब्राह्मणों के लड़के जो आठवें वर्ष में प्रवेश कर चुके हों, अपने जीवन में पहली बार इस संस्कार में हिस्सा लेते हैं। संस्कार के दौरान उनके शरीर के ऊपरी हिस्से पर जनेऊ पहनाया जाता है। माना जाता है कि ब्राह्मण के रूप में उनका दूसरा  जन्म हुआ है। पवित्र जनेऊ उनके ब्राह्मण होने का प्रमाण, उसके लिए प्रतीक चिह्न का काम करता है। यहां तक कि भारत के कुछ राज्यों में इस दिन, सार्वजनिक अवकाश घोषित कर किया जाता है। इस उत्सव की, जिसका उद्देश्य कुछ लोगों द्वारा दुनिया के सामने खुलेआम अपनी जाति की घोषणा करना है, कोई आलोचना नहीं करता। उल्टे उत्सव के दिन सार्वजनिक अवकाश घोषित कर उसको महिमा-मंडित किया जाता है।

सिनेमाई दुनिया के छद्यं बुद्धिजीवी, प्रिंट मीडिया तथा टेलीविजन के पत्रकार जो इस बात पर हैरान दिखते हैं कि स्कूलों में जाति प्रमाणपत्र लगातार मांगे जाने से, जाति-प्रथा का संपूर्ण उन्मूलन कैसे होगा—वे किसी ब्राह्मण पास जाकर यह नहीं पूछते कि जब तक वे जनेऊ, जो उनकी जाति की साफ नजर आने वाली पहचान है और दर्शाती है कि वे दूसरों से अलग हैं—पहनते रहेंगे तो जाति-प्रथा का सफाया कैसे होगा! क्या किसी ने इसपर कभी कोई सवाल किया है कि ऐसे घोर जातिवादी उत्सव के दिन सार्वजनिक अवकाश क्यों घोषित किया जाता है?

देहाती इलाकों में अनेक जातिवादी त्योहार, जाति और संप्रदाय आधारित दंगों को उकसाने में बड़ी भूमिका निभाते हैं। उदाहरण के लिए तमिल नाडु के दक्षिणी जिलों में, सितंबर में, पसुंपन थेवर(उकीरापंदी मुथुरमलिंगम थेवर, दक्षिण तमिलनाडु के नेता, जो दो बार सांसद रहे) की गुरु पूजा, जाति-विशेष द्वारा मनाई जाती है, वह अक्सर अंतर्जातीय हिंसा का कारण बनती है। दंगों पर नियंत्रण के लिए अदालत को वहां हर साल धारा 144 यहां तक कि कर्फ्यू के आदेश भी जारी करने पड़ते हैं। क्या किसी ने ऐसे जातिवादी त्योहारों पर प्रतिबंध लगाने की मांग की है?

क्या जाति प्रमाणपत्र की मांग समानता को बढ़ावा देती है?  

बावजूद इसके, ऐसे लोग भी हैं जो स्कूलों में जाति-प्रमाणपत्र मांगे जाने की शर्त पर सवाल उठाते हैं। ये वही लोग हैं जो बगैर किसी चूक के जाति-व्यवस्था का अनुसरण कर, उसे बचाए रखते हैं। जन्म से लेकर मृत्यु तक वे, अपनी जाति की महत्ता को दर्शाने के लिए,  अनेकानेक अनुष्ठानों और रीति-रिवाजों का पालन करते हैं।

यदि स्कूलों में जाति/समुदाय संबंधी प्रमाण पत्र न भी मांगे जाएं, तब भी समाज में जाति का अस्तित्व बना रहेगा। इसलिए जाति-आधारित अत्याचारों के समाधान तथा समतामूलक समाज बनाने के लिए, स्कूलों में जाति-प्रमाणपत्रों की मांग करना अत्यावश्यक है। इसके अलावा, जाति प्रमाणपत्र का एक उद्देश्य ऐतिहासिक रूप से अपने अधिकार गंवा चुके लोगों की पहचान करना भी है। इसलिए जाति प्रमाणपत्र मांग करना, जाति को बढ़ावा देना हरगिज नहीं है।  इसके विपरीत वह ऐतिहासिक अन्याय को रेखांकित करता है, तथा उसके माध्यम से समानता को प्रोत्साहित करता है।

क्या आरक्षण गुणवत्ता और प्रतिभा को बरबाद करता है?

सरकार परीक्षाओं में अनुत्तीर्ण होने वाले विद्यार्थियों को आरक्षण का लाभ कभी नहीं देती। फिर ‘आरक्षण’ ‘गुणवत्ता’ और ‘प्रतिभा’ को कैसे बरबाद कर सकता है? प्रत्येक वर्ष तमिल नाडु सरकार मेडीकल कॉलिजों में प्रवेश हेतु कट-आफ अंकों की घोषणा करती है। केवल वही विद्यार्थी मेडीकल कॉलिजों में प्रवेश पाने में सफल हो पाते हैं, जो निर्धारित कट-कट-आफ अंकों की शर्त को पूरा करते हों।

उदाहरण के लिए चेन्नई के तीन प्रमुख मेडिकल कॉलिजों, चेन्नई मेडिकल कॉलिज, स्टेनले मेडिकल कॉलिज तथा किल्पॉक मेडिकल कॉलिज में 2012 का कट-ऑफ स्तर नीचे दिया गया है—

उपवर्गचेन्नई मेडिकल कॉलिजस्टेनले मेडिकल कॉलिजकिल्पॉक मेडिकल कॉलिज
खुली प्रतियोगिता द्वारा200.00199.50199.50
पिछड़ी जातियां199.75199.50199.25
पिछड़ी जातियां-मुस्लिम199.50199.25199.00
अतिपिछड़ी जातियां तथा विमुक्त समुदाय199.50199.25199.00
अनुसूचित जातियां198.50198.00197.25
अनुसूचित जाति-अरुंथातियार198.50198.00197.50
अनुसूचित जनजातियां198.00197.25196.00

ऊपर दिए गए विवरण से पता चलता है कि सामान्य और आरक्षित श्रेणी के विद्यार्थियों में कट-आफ अंकों में केवल 0.25 या 0.50 का अंतर है। समझदार लोग जानते हैं कि अंकों में 0.25 प्रतिशत का महीन-सा अंतर, विद्यार्थी की ‘योग्यता’ को निश्चित तौर पर प्रभावित नहीं कर सकता। ठीक यही रुझान अन्ना विश्वविद्यालय के अंतर्गत आने वाले कॉलिजों में, इंजीनियरिंग की विभिन्न शाखाओं में प्रवेश के समय देखा गया था।

यह गलतफहमी ब्राह्मणों तथा उनके पिछलग्गुओं द्वारा पैदा की गई है कि हम आरक्षण की मांग केवल जाति के आधार पर, यहां तक कि अयोग्य उम्मीदवारों के लिए भी करते हैं।

प्रोफेसर अश्विनी देशपांडे जो पहले दिल्ली कॉलिज आफ इकानॉमिक्स में थे और इन दिनों अशोक विश्वविद्यालय में हैं; तथा मिशीगन यूनीवर्सिटी के प्रोफेसर ई. वीसकॉफ ने संयुक्त रूप से भारतीय रेलवे, जो भारत का सबसे बड़ा नियोक्ता है, में 1980 से 2002 के बीच भर्ती हुए प्रथम और द्वितीय श्रेणी के अधिकारियों की कार्यक्षमता, गुणवत्ता तथा उत्पादकता को लेकर एक शोध किया था। उसके निष्कर्ष ‘वर्ल्ड डेवल्पमेंट जरनल के नवंबर 2009 के अंक में प्रकाशित हुए थे।

उपर्युक्त शोध के निष्कर्षों ने मेसाचुसेट्स विश्वविद्यालय में, ‘इंटरनेशनल पॉलिटीकल इकानॉमिक रिसर्च इंस्टीट्यूट—पीईआरआई) द्वारा आयोजित, अंतरराष्ट्रीय राजनीति एवं आर्थिक संगोष्ठी के दौरान विकसित देशों का ध्यान अपनी ओर खींचा था। शोध के परिणाम भारत के प्रमुख समाचारपत्रों में भी प्रकाशित हुए थे। उसके अनुसार प्रबंधकीय पदों तथा निर्णायक क्षमता के आधार पर, आरक्षित श्रेणी के कर्मचारियों का प्रदर्शन दूसरे कर्मचारियों से बेहतर पाया गया था। यह शोध उन रूढ़िवादी तर्कों की हवा निकाल देता है, जो यह कहते हैं कि आरक्षण ‘गुणवत्ता और प्रतिभा’ दोनों की अवहेलना करता है।

मंडल कमीशन ने इस तथ्य को उजागर किया था कि केंद्र सरकार में वरिष्ठ पदों पर भर्ती के समय ब्राह्मणों का वर्चस्व रहता है। बावजूद इसके कि ब्राह्मणों में उच्चस्तरीय ‘गुणवत्ता और प्रतिभा’ है, और केंद्र सरकार में वे छाये हुए हैं, भारत पर विदेशों की 46,000 करोड़(दिसंबर 2018 में 52,120 करोड़) अमेरिकी डॉलर की देनदारी बकाया है। एक अमेरिकी डॉलर का वर्तमान मूल्य 60(अगस्त 2019 में 71) रुपये से अधिक है। ब्राह्मणों की ‘योग्यता एवं गुणवत्ता’ के कारण के कारण भारत कर्ज के दलदल में धंसा हुआ है। क्या अब भी ब्राह्मण यह कहकर चिंता जाहिर कर सकते हैं कि आरक्षण ‘गुणवत्ता और प्रतिभा’ को कैसे प्रभावित करता है।

आर्थिक आधार पर आरक्षण को नकारना क्यों जरूरी है?

सर्वप्रथम समाज में हमारे शिक्षा-तंत्र की कार्यशैली का सांख्यिकीय आधार पर अध्ययन होना चाहिए, जहां परंपराओं का सहारा लेकर, लोगों के अधिकारों को उनकी जाति के आधार पर नकार दिया  जाता है। मनुस्मृति कहती है, ‘शूद्रों को कुछ भी मिले, शिक्षा नहीं मिलनी चाहिए। चेरों, चोलों, पांड्यों ने जाति के आधार पर लोगों(दलित जातियों, पिछड़ों तथा आदिवासियों) को शिक्षा के अधिकार से वंचित रखा था। 

पूरी दुनिया में केवल धनवान लोग ही शिक्षातंत्र पर काबिज रहे हैं। शिक्षा-नीतियों का निर्धारण करने वाली समितियों तथा सरकारी एवं निजी संस्थानों के उच्चतर एवं निर्णायक पदों पर भी उन्हीं का नियंत्रण होता है। मंडल आयोग के आंकड़ों से यह सिद्ध हो चुका है कि भारत सरकार में, उपर्युक्त निर्णायक पदों पर किसी और वर्ग-विशेष का वर्चस्व न होकर, केवल ब्राह्मण परिवारों का आधिपत्य  है। 

यदि हम समान पद, वेतनादि के आधार पर तुलना करें तो सामाजिक विभाजन और वर्गीय अंतर एकदम स्फटिक की भांति स्पष्ट होकर, सामने आ जाएगा। 

  1. ब्राह्मण परिवारों में कोई भी अशिक्षित नहीं है। वे हस्ताक्षर की जगह अंगूठे का इस्तेमाल कभी भी नहीं करते। जबकि, गैर-ब्राह्मण परिवारों में, कम से कम कुछ सदस्य निरक्षर अवश्य मिल जाएंगे, विशेषरूप से उनके पैतृक गांवों में महिला सदस्य। पूरे देश में, ऐसे लोग जो हस्ताक्षर की जगह अंगूठा लगाते हैं, वे सभी गैर-ब्राह्मण होते हैं। यह समान आर्थिक वर्ग में, एक जाति से दूसरी जाति के बच्चों की भिन्न शैक्षिक परिस्थितियों का स्वयं-सिद्ध प्रमाण है। हालांकि कुछ गैर-ब्राह्मण अनपढ़ होने के बावजूद धन जुटा लेते हैं। 
  2. ब्राह्मणों के परिवार के सदस्य विकसित देशों अथवा उत्तरी राज्यों में भी बस सकते हैं। ये संबंध ब्राह्मण परिवारों को शिक्षा और रोजगार हेतु जरूरी अवसर उपलब्ध कराने में मदद करते हैं। पश्चिम में बसे गैर-ब्राह्मण परिवारों की संख्या बहुत विरल है। संयोगवश यदि कुछ गैर-बाह्मण विदेशों में बसे भी हैं तो आमतौर पर वे अपने देश में रह रहे सगे-संबंधियों की कोई मदद नहीं कर पाते।
  3. ब्राह्मण परिवार के सदस्य अथवा रिश्तेदार सरकारी एवं निजी क्षेत्र में ऊंचे और निर्णायक पदों पर होते हैं, जिससे उच्चतर शिक्षा ग्रहण करने, तदनंतर नौकरियों पर काबिज होने की स्थितियां उनके अपेक्षाकृत अधिक अनुकूल होती हैं। इस तथ्य के बावजूद कि गैर-ब्राह्मण परिवार भी संपन्न हो सकते हैं, पुख्ता तौर पर उनके, उतने बड़े संबंध नहीं होते, जैसे ब्राह्मणों के। इस तरह उनके लिए शिक्षा एवं रोजगार की संभावनाएँ भी उतनी शानदार नहीं होतीं, जितनी ब्राह्मणों के लिए होती हैं।
  4. हालांकि, कोई ब्राह्मण परिवार गरीबी से काफी ग्रस्त हो सकता है, फिर भी उसके सदस्य हल चलाने, बोझा ढोने, गड्ढा खोदने या पत्थर की खदानों में कभी काम नहीं करते। गरीबी के कारण केवल गैर-ब्राह्मण ही शारीरिक श्रम को चुनता है।

ऊपर दर्शाए गए अंतर मनुष्य की जाति पर आधारित नहीं हैं। इनका मूल कारण उसकी जाति है। गैर-ब्राह्मण जातियों की परिस्थितियों के स्तर या सामाजिक ऊंच-नीच का अंतर अलग-अलग सकता है। तथापि सामाजिक न्याय के निमित्त तथा ऊपरोल्लित भेद-भाव के समाधान हेतु जाति-आधारित जनगणना होनी चाहिए। उसके बाद, आरक्षण का एकमात्र आधार जाति ही होना चाहिए। 

छात्रवृत्तियां विद्यार्थी की आर्थिक हैसियत के आधार पर प्रदान की जाती हैं। इसलिए संपन्न पिछड़े वर्ग इन छात्रवृत्तियों के लिए अपात्र माने जाते हैं। जबकि कम आय दिखाने वाले प्रमाणपत्र आमतौर पर फर्जी होते हैं; और इस तरह वे जरूरतमंद विद्यार्थी का अवसर छीन लेते हैं। सरकारी नौकरियों के विपरीत खेती और व्यापारिक क्षेत्र में आय में उतार-चढ़ाव काफी तेज होता है। छात्र-वृत्ति प्रदान करते समय इस तथ्य को अकसर नजरंदाज कर दिया जाता है।

इसी तरह, आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के लिए हाल ही में लागू किया गया आरक्षण, पिछड़ी जातियों के गरीब और पात्र विद्यार्थियों के अवसरों को छीन लेता है। ब्राह्मण तथा उनके चाटुकार लोग जाति-आधारित आरक्षण का यह कहकर विरोध करते हैं, कि वह ‘प्रतिभा’ की उपेक्षा करता, उसे कमतर आंकता है। दूसरी ओर वे आर्थिक आधार पर आरक्षण की मांग करते हैं। क्या यह ‘प्रतिभा’ और ‘गुणवत्ता’ का ध्वंस नहीं करेगा?

जब तक जाति-आधारित विषमता पूरी तरह समाप्त नहीं हो जाती, जाति पर आधारित आरक्षण को लागू रहना ही चाहिए। संविधान की धारा 16(4) के अनुसार, सामाजिक न्याय के लक्ष्य को प्राप्त करने का यही वैज्ञानिक दृष्टिकोण है। 

अमेरिकी आरक्षण का आधार प्रजाति है

संयुक्त राज्यों में, नीग्रो जनता (अश्वेत लोगों) के मौलिक अधिकारों का उसकी प्रजाति के आधार पर हनन किया जाता था। वहां नीग्रो लोगों के अधिकारों के संरक्षण हेतु शुरू किए गए ‘रचनात्मक कार्यक्रम’, केवल उन्हीं के लिए हैं। अन्य कोई नागरिक उनका लाभ नहीं उठा सकता।

इसी तरह से, उन अधिकारों को जिन्हें कभी जाति के बहाने छीन लिया गया था, जाति के आधार पर वापस दिलाना ही वैज्ञानिक, सामाजिक और न्यायोचित तरीका है।

अमेरिकियों ने धनाढ्य नीग्रो नागरिकों और गरीब गोरे लोगों के बीच  वैसी मूर्खतापूर्ण तुलना कभी नहीं की, जैसे कि भारत के सवर्ण, पिछड़ी जाति के संपन्न नागरिकों और गरीब ब्राह्मणों के बीच करते रहते हैं। अमेरिकी ‘प्रजाति-आधारित आरक्षण’ को ‘गरीबी उन्मूलन योजना’ समझकर कभी नहीं उलझते। 

इसलिए ऐतिहासिक प्रजाति-आधारित एवं जाति-आधारित भेदभाव के समाधान हेतु आर्थिक मापदंड अपनाना—सामाजिक न्याय तथा छीन लिए गए अधिकारों की पुनर्वापसी के वैज्ञानिक दृष्टिकोण के सर्वथा विरुद्ध है।

क्या आरक्षण रोजगार-उपलब्धता के संकट का समाधान कर सकेगा?

आरक्षण का उद्देश्य आर्थिक प्रगति नहीं है। इसका उद्देश्य उन नागरिकों के मूलभूत अधिकारों को पुनर्स्थापित करना है, जिन्हें लंबे अरसे से शिक्षा और राजकीय प्रशासन में हिस्सेदारी से वंचित रखा गया है। इसलिए, आरक्षण बेरोजगारी का उन्मूलन कभी नहीं कर सकता। प्राइवेट सेक्टर, जहां कुल रोजगारों के 90 प्रतिशत अवसर हैं, भारत में वहां किसी भी प्रकार का आरक्षण (सकारात्मक तरफदारी) लागू नहीं है। ब्राह्मण एवं गैर-ब्राह्मण दोनों की बढ़ती गरीबी और बेरोजगारी संकट का समाधान, प्राइवेट सेक्टर की कार्यशैली और भविष्य पर निर्भर करता है। इसके साथ-साथ यह याद रखना भी आवश्यक है कि ब्राह्मण की गरीबी उसके परिवार को कभी भी फुटपाथ पर रहने को विवश नहीं करती। न ही ब्राह्मण की गरीबी उसके परिवार को खेत में जाकर हल जोतने, कुली का काम करने, कठिन परिश्रम और कड़ी मेहनत वाले दूसरे कार्य करने को विवश कर सकती है।

आरक्षण वर्ण-व्यवस्था के असर को खोखला करता है। उसकी मदद से मिले रोजगारों के कारण, हजारों वर्षों से सताए, दास बनाकर रखे गए गैर-ब्राह्मणों की सामाजिक मनोरचना में परिवर्तन की शुरूआत हुई है। यह विचार कि ‘हमारी जाति के लिए शिक्षा की क्या जरूरत है’—हमारे दिलो-दिमाग में बिठा गई थी। आरक्षण ने हमारी ब्राह्मणवादी वर्चस्व से बनीं पलायनवादी मानसिकता और कुंठाओं का समाहार किया है।

क्या जाति-उन्मूलन का आंदोलन, समानांतर मगर विडंबनापूर्ण तरीके से, जाति-आधारित आरक्षण का समर्थन करेगा? आरक्षण कब तक चलेगा?

इसी तरह का प्रश्न वर्गहीन समाज की रचना को समर्पित किसी ईमानदार और प्रतिबद्ध साम्यवादी दल से भी पूछा जा सकता है। जैसे, वर्ग-विशेष के अधिकारों की वापसी के लिए क्या संघर्ष अपरिहार्य है? क्या यह वर्ग तथा उसकी पहचान, मूल्य, तथा संगठित प्रतिरोध की भावनाओं को उकसाकर, उसे मजबूत नहीं करेगा? वर्ग-भेद युक्त यह व्यवस्था, अनेकानेक प्रच्छन्न-अप्रच्छन्न रूपों में वर्गहीन समाज की स्थापना बनी रहेगी। यही नहीं, वर्ग के आधार पर छीन लिए गए अधिकारों की वापसी के लिए संघर्ष भी वर्गहीन समाज की स्थापना होने तक चलता रहेगा। वर्ग व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष की तरह, जाति-आधारित अधिकारों की प्राप्ति के लिए भी सतत संघर्ष आवश्यक है। यह संघर्ष समाज में स्थायी और भरोसेमंद समानता की प्राप्ति निरंतर तक चलता रहेगा। यही व्यावहारिक तरीका है। इसके लिए दलित वर्गों को उनकी जनसंख्या के अनुपात के अनुरूप, शिक्षा एवं रोजगार में प्रतिनिधित्व देना होगा। और वह सभी विभागों में होना चाहिए। आरक्षण उस समय तक बना रहेगा, या बना रहना चाहिए, जब तक न्याय-संगत प्रतिनिधित्व के लिए सकारात्मक तरफदारी की आवश्यकता स्वतः समाप्त न हो जाए।

यदि आरक्षण को सुव्यवस्थित ढंग से लागू किया जाए तो यह स्वयं अप्रासंगिक हो जाएगा। उदाहरण के लिए तमिलनाडु के इंजीनियरिंग एवं मेडिकल कॉलिजों में सामान्य वर्ग, पिछड़े वर्गों तथा अनुसूचित जाति के प्रवेशांकों के कट-आफ में उल्लेखनीय कमी आ चुकी है। जैसा कि ऊपर की तालिका में दर्शाया गया है, विद्यार्थियों के पुराने और नए बैच के एमबीबीएस और इंजीनियरिंग स्नातक विषयों में प्रवेश से संबंधित जांच इसे पूरी तरह स्पष्ट कर देती है। यदि यह सकारात्मक परिवर्तन आगे भी निर्बंध रूप से जारी रहता है, तब, आने वाले समय में, उम्मीद की जाती कि राज्य में आरक्षण पूरी तरह अप्रासंगिक हो जाएगा।

महज सरकारी नौकरियों में आरक्षण द्वारा जातीय समानता के लक्ष्य को प्राप्त करना असंभव है, क्योंकि देश में 90 प्रतिशत रोजगार अवसर निजी और कारपोरेट क्षेत्र में हैं। जबकि प्राइवेट क्षेत्रों में आरक्षण का फिलहाल कोई प्रावधान नहीं है। आरक्षण नीति को अभी तक रोजगार के सभी क्षेत्रों में लागू नहीं किया गया है। यदि इसे लागू कर दिया जाए तो थोड़े ही समय के भीतर आरक्षण अपने आप अर्थहीन हो जाएगा। तब उसे समाप्त भी किया जा सकता है। इसलिए, आरक्षण को सरकारी और निजी क्षेत्रों में, शिक्षा एवं रोजगार के मामले में, संपूर्णता के साथ लागू किया जाना चाहिए।

क्या यह सही है कि आरक्षण का लाभ दलित जातियों के उच्च वर्गों तक सीमित है, उनके निचले वर्गों को यह लाभ नहीं मिल पा रहा है?

आज, यह सामाजिक यथार्थ है कि शिक्षा एवं रोजगार के क्षेत्र में दलित वर्गों के लिए उपलब्ध आरक्षण आनुपातिक रूप से उनके उच्च तबकों को ज्यादा मिल रहा है, यह अंतर लगातार बढ़ता जा रहा है। इसलिए पहली पीढ़ी के विद्यार्थियों तथा ग्रामीण स्कूलों में पढ़ने वालों को आरक्षण उपलब्ध कराना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए। 

इसके अतिरिक्त, हमें आरक्षण नीति के विरुद्ध दलित एवं पिछड़ी जातियों की मानसिकता के विरोध की आवश्यकता को भी समझना होगा। यदि कोई दलित जाति तथा पिछड़ी जाति का व्यक्ति प्रशासक या पुलिस अधीक्षक बन जाता है, तब उसके अर्थ लाभ के भागीदार केवल उसके परिजन होंगे। परंतु इस प्रगति का बाकी लोगों पर भी पर्याप्त और सकारात्मक मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ेगा। आरक्षण का लाभ उठाकर उच्च पद तक पहुंचा व्यक्ति महसूस करता है कि दलित और पिछड़ी जातियों का प्रत्येक व्यक्ति समाज में सम्मानजनक स्थान प्राप्त कर सकता है। भले ही उसके समुदाय को उसका कोई आर्थिक लाभ न पहुंचे, ‘हमारे अपनों का शासन है’ की भावना उनका भरपूर प्रोत्साहन करेगी। यह उनको ब्राह्मणवादी वर्चस्व से बने इस पलायनवादी सोच से उबरने में सहायक होगी कि ‘हमारी जाति के लिए शिक्षा अनुपयुक्त है’। इस तरह यह सामाजिक क्रांति, दास-मानसिकता की समाप्ति तक ले जाएगी।

क्या हम ब्राह्मणों तथा अन्य ऊंची जातियों को भी आरक्षण दे सकते हैं?

सामाजिक न्याय के लक्ष्य को तभी प्राप्त किया जा सकता है, जब  अय्यर, अयंगार, रेडियार, चेट्टियार तथा मुदलियार को, उनकी जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण प्राप्त हो। किंतु, वर्तमान परिदृश्य में, ब्राह्मण(अय्यर, अयंगार आदि) जो कुल जनसंख्या का केवल 5 प्रतिशत हैं, भारत में शिक्षा एवं रोजगार के कुल अवसरों के 70 से 90 प्रतिशत तक का लाभ उठा रहे हैं।

दूसरी सामान्य अथवा सामान्य श्रेणी में आने जातियां तथा कथित रूप से अग्रणी जातियां जैसे चेट्टियार, मुदलियार और रेडियार ब्राह्मणों जितनी सुविधा-संपन्न नहीं हैं, जो समस्त शिक्षा एवं रोजगारों पर कब्जा जमाए हुए हैं। ऐसी जातियों की आरक्षण-संबंधी मांग न्याय-संगत है।

न केवल दलित(अनुसूचित जातियां), अपितु पिछड़ी जातियां भी आरक्षण की पात्र हैं, क्या आप व्याख्या कर सकते हैं?

एक घिसी-पिटी सोच है। पिछड़ी जाति के लोगों को प्रायः यह बताया जाता है कि आरक्षण का प्रावधान पूरी तरह से दलितों के लिए है। शैक्षिक संस्थानों में छात्रवृत्तियां केवल दलित जाति के विद्यार्थियों को दी जाती हैं। इसके अलावा निःशुल्क छात्रावास भी केवल दलित विद्यार्थियों के लिए उपलब्ध होते हैं। इस तरह की ढेरों पक्षपातपूर्ण सूचनाएं पिछड़े समुदायों के बीच लगातार फैलाई जाती है।

जबकि हकीकत इस प्रचार के एकदम विपरीत है।

दलित जातियों से इतर पिछड़ी जातियों को पारंपरिक रूप से कुछ ताकत और विशेषाधिकार प्राप्त हैं। भू-अधिकारों तथा व्यापार के अवसरों ने अधिकांश पिछड़ी जातियों को आर्थिक रूप से संपन्न बनाया है। दलित जातियों के अधिकांश लोग गरीब हैं। इस कारण पिछड़ी जातियों के छात्रों की अपेक्षा दलित छात्र अधिक छात्रवृति प्राप्त कर लेते हैं।

इसके साथ-साथ तमिलनाडु सरकार पिछड़ी जाति और अति पिछड़ी जातियों के विद्यार्थियों के लिए भी निःशुल्क हॉस्टल चलाती है। वेबसाइट देखें :  http://www.tn.gov.in./ta/department/4

तमिलनाडु सरकार द्वारा संचालित हॉस्टल :

  • पिछड़ी जातियों के विद्यार्थियों के लिए 721 निःशुल्क छात्रावास
  • अतिपिछड़ी जातियों तथा विमुक्त समुदायों के विद्यार्थियों हेतु 580 निःशुल्क छात्रावास।
  • अल्पसंख्यकों के लिए 14 निःशुल्क छात्रावास।
  • कल्लार समाज(जाति) के विद्यार्थियों के लिए डिंडीगुल, थेनी और मदुरई आदि जिलों में 290 कल्लार विद्यालय।

पिछड़ी जाति के लोगों को इस पूर्वाग्रह में नहीं पड़ना चाहिए कि सरकार की ओर से सभी अवसर, अधिकार और लाभ केवल दलित जातियों के लिए हैं।

यदि ये दोनों जातीय समुदाय अपने अधिकारों के लिए एकजुट होकर संघर्ष करें तो वे अपेक्षाकृत बहुत जल्दी अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं। ब्राह्मणों तथा उनके पिछलग्गुओं का, जो जानबूझकर झूठे प्रचार-प्रचार में लिप्त हैं, अपने षड्यंत्र में कामयाब न हों, इसलिए संगठित होकर उनका मुकाबला करना चाहिए।

राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ कहता है कि आरक्षण का लाभ केवल ईसाई और मुस्लिम विद्यार्थी उठा रहे हैं। संघ यह क्यों कहता है कि सरकार की कल्याणकारी योजनाओं का लाभ हिंदू विद्यार्थियों को नहीं मिल रहा है?

इधर कुछ वर्षों से, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ तथा उसके प्रमुख संगठन ढेर सारी मनगढंत आफवाहें फैला रहे हैं। 

भारत सरकार और तमिलनाडु की सरकार की बेवसाइटें जो कहती हैं, उसे हम जान ही चुके हैं।

राज्य में पिछड़ी जातियों के विद्यार्थियों के लिए 721, अतिपिछड़ी और विमुक्त जातियों के विद्यार्थियों हेतु 580, तथा अल्पसंख्यकों के लिए केवल 14 छात्रावास राज्य में बनाए जा चुके हैं।

राज्य में कुल 1301 छात्रावास पिछड़ी और दलित जातियों के लिए हैं। इन 1301 छात्रावासों में रह रहे सभी विद्यार्थी हिंदू हैं। 

ध्यान देने योग्य बात यह है कि तमिलनाडु में 69 प्रतिशत आरक्षण है। इसमें से मुस्लिमों के लिए मात्र 3.5 प्रतिशत आरक्षण है, बाकी 65.5 प्रतिशत हिंदुओं के लाभ के लिए है। इस स्थिति को स्कूल, कॉलिज, तथा सरकारी कार्यालयों में परखा जा सकता है।

इसलिए भारतीय जनता पार्टी और संघ जो शोर मचा रहा है, वह पूर्णतः मनगढ़ंत और निर्लज्ज झूठ है।

क्या आईआईटी जैसे प्रमुख उच्चतर शिक्षा-संस्थानों को जातीय आरक्षण की परिधि में लाना आवश्यक है?

23 नबंवर 1954 को केंद्रीय शिक्षामंत्री ने सभी राज्यों के मुख्य सचिव कार्यालयों को यह निर्देश दिया था कि वे दलितों को रोजगार तथा शिक्षा-क्षेत्र में नियमानुसार प्रतिनिधित्व दें।

1982 में, उच्चतर शिक्षण संस्थानों में अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों के आरक्षण को 22.5 प्रतिशत तक बढ़ा दिया गया था। सरकार का यह आदेश भी है कि वही 22.5 प्रतिशत आरक्षण इन संस्थानों में नियुक्ति के समय भी दिया जाए। 

5 अप्रैल 2006 को, तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री अर्जुन सिंह ने संसद में घोषणा की थी कि उच्चतर शिक्षा संस्थानों में 27 प्रतिशत स्थान पिछड़ी जातियों(अन्य पिछड़ा वर्ग, ओबीसी) के विद्यार्थियों के लिए सुनिश्चित किए जाएंगे। तीव्र विरोध के बावजूद 3 जनवरी 2007 को इससे संबंधित एक आदेश भी जारी कर दिया गया था।

बावजूद इसके, भारत में अनेक उच्चतर शिक्षा संस्थानों,  विशेषरूप से आईआईटी, आईआईएम तथा केंद्र सरकार के विश्वविद्यालयों ने आज तक भी सरकारी आदेश का पालन नहीं किया है। 

जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय जो भारत के सर्वाधिक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में से है, के 449 प्रोफेसरों तथा एसोसिएट प्रोफेसरों में से एक भी पिछड़ी जाति से नहीं है। यह सूचना, सूचना अधिकार अधिनियम (आरटीआई) के अंतर्गत किरण कुमार द्वारा, 8 दिसंबर 2015 को मांगी गयी सूचना के संदर्भ में दी गई थी।

नीचे दी गई तालिका, प्रमुख केंद्रीय विश्वविद्यालयों में कार्यरत अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के कर्मचारियों की संख्या को दर्शाती है। इसे भी सूचना अधिकार अधिनियम के अंतर्गत प्राप्त किया गया है।

विश्वविद्यालयप्रोफेसरएसोसिएट प्रोफेसरकुलअनुसूचित जातिअनुसूचित जनजातिकुल
1234(2+3)567(5+6)
बनारस हिंदू विश्वविद्यालय3466801026000
दिल्ली विश्वविद्यालय305644949000
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय161288449000
इलाहाबाद विश्वविद्यालय59151210011
पांडिचेरी बनारस हिंदू विश्वविद्यालय69138207011

आईआईटी और आईआईएम इस मुद्दे को लेकर कितने ईमानदार हैं? इस संबंध में आरटीआई द्वारा 12 सिंतबर, 2012 को प्राप्त की गई सूचना नीचे तालिका में दी गई है—

शैक्षिक संस्थान का नामप्रोफेसर  एवं एसोशिएट प्रोफेसर के कुल पदअन्य पिछड़ा वर्ग का प्रतिनिधित्व
आईआईटी मुंबई7786
आईआईटी दिल्ली5785
आईआईटी मद्रास35939
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय4490
आईआईएम लखनऊ (नॉन टीचिंग)
ग्रुप ‘ए’401
ग्रुप ‘बी’15210

2014 में, मानव संसाधन विकास मंत्रालय के उच्चतर शिक्षा विभाग ने उच्चतर शैक्षिक संस्थानों के बारे में एक विशद् अध्ययन कराया था; तथा  उसके निष्कर्षों की रिपोर्ट प्रकाशित की थी। उस शोध में पूरे देश के 757 विश्वविद्यालयों, 38,056 कॉलेजों तथा 11,922 स्वशासी शैक्षिक संस्थानों को सम्मिलित किया गया था। इनमें केंद्रीय विश्वविद्यालय, उच्चतर शैक्षिक संस्थान, राज्य सरकार द्वारा संचालित विश्वविद्यालय, प्राइवेट विश्वविद्यालय, प्राइवेट कॉलेज तथा सरकार द्वारा सहायता प्राप्त प्राइवेट कॉलेजों को शामिल किया गया था। रिपोर्ट के अनुसार कुल 14,18,389 अध्यापकों में से 1,02,534 अनुसूचित जाति, 30,076 अनुसूचित जनजाति तथा 3,52,160 अन्य पिछड़ा वर्ग के अध्यापक कार्यरत थे। 

अध्यापकों की कुल संख्याअनुसूचित जातिअनुसूचित जनजातिअन्य पिछड़ा वर्ग
कुल संख्या14,18,3891,02,53430,0763,52,160
प्रतिशत1007.232.1224.83
अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति तथा अन्य पिछड़ा वर्ग का कुल प्रतिशत34.18 प्रतिशत

स्रोत : अखिल भारतीय उच्चतर शिक्षा सर्वेक्षण: 2014—2015, मानव संसाधन विकास मंत्रालय

दलित जातियां, पिछड़े और आदिवासी मिलकर देश की जनसंख्या का बहुलांश, करीब 90 प्रतिशत होते हैं। आरक्षण का लाभ उन्हें बहुत वर्षों से मिलता आ रहा है। बावजूद इसके देश के कुल प्रोफेसरों में उनकी संख्या 30 प्रतिशत से थोड़ी ही ऊपर है। 

ये आंकड़े बमुश्किल 10 प्रतिशत ब्राह्मणों तथा दूसरी ऊंची जातियों के शिक्षा एवं सत्ता केंद्रों पर कब्जे के साक्षी हैं। इस स्थिति से निपटने के लिए आवश्यक है कि आरक्षण नीति को प्रत्येक उच्चतर शैक्षिक संस्थान में लागू किया जाए।

उच्चतर शैक्षिक संस्थानों में हमें कितना प्रतिशत आरक्षण है? हमारे आरक्षण के अधिकार की रक्षा कैसे की जाए?

केंद्र सरकार अनुसूचित जातियों(शिडुल्ड कॉस्ट) को 15 प्रतिशत, अनुसूचित जनजातियों(शिडुल्ड ट्राइव) को 7.5 प्रतिशत तथा अन्य पिछड़ा वर्गों(ओबीसी) को 27 प्रतिशत आरक्षण देती है। इस तरह यह नीति केंद्र सरकार द्वारा स्थापित सभी उच्च शैक्षिक संस्थानों पर लागू होती है, जिसमें 23 आईआईटी, 19 आईआईएम, 31 एनआईटी तथा 24 आईआईटी सम्मिलित हैं। इन संस्थानों में दाखिले की प्रक्रिया की विस्तृत सूचना, जिसमें आरक्षण भी सम्मिलित है, मानव संसाधन विकास मंत्रालय की बेवसाइट पर उपलब्ध है, जिसका लिंक है: http://mhrd.gov.in/iits

हमें वेबसाइट से आवश्यक आंकड़े लेकर उनके बारे में अगली पीढ़ी को बताना चाहिए। इसके साथ-साथ ‘सूचना का अधिकार अधिनियम—2005’ का प्रयोग करते हुए आरक्षण की प्रगति पर निरंतर नजर रखनी चाहिए। यदि हमारे अधिकारों का हनन होता दिखे, तब हमें द्रविड़ संगठनों को सूचित करना चाहिए, जो हमारे लिए संघर्ष करेंगे, तथा हमें उनके प्रदर्शन में सहभागी होना चाहिए।

क्या अमेरिका जैसे विकसित देशों में भी आरक्षण है?

अनेक विकसित देशों में उनकी आवश्यकतानुरूप आरक्षण के भिन्न रूप प्रचलित हैं:

  1. संयुक्त राष्ट्र अमेरिका : सकारात्मक कार्रवाही
  2. यूनाइटिड किंग्डम : समानता अधिनियम(इक्विलिटी एक्ट)
  3. कनाडा : एंप्लायमेंट इक्विटी एक्ट
  4. चीन : एफरमेटिव-माइनारिटी नेशनलिटी एक्ट
  5. नार्वे : एफरमेटिव-वूमेन एक्ट
  6. दक्षिणी अफ्रीका : एंप्लायमेंट इक्विटी एक्ट

एक हजार वर्षों से भी अधिक वर्षों से दलित एवं पिछड़ी जातियों को उनकी जाति के आधार पर शिक्षा और रोजगार अवसरों से वंचित रखा गया है। जाति के आधार पर हम अपने अधिकार बहुत पहले खो चुके हैं। अब, अपने अधिकारों को प्राप्त करने के लिए जाति का इस्तेमाल करना, निस्संदेह सर्वोपयुक्त रास्ता है। 

अनेक देश, जो अपने समाज के विशिष्ट वर्गों को कुछ विशेषाधिकार(आरक्षण) देते हैं, एक समय था जब उन्हीं वर्गों के उन्हीं अधिकारों को एकदम नकार दिया जाता था।

क्या आरक्षण प्राइवेट सेक्टर में भी आवश्यक है?

सार्वजनिक क्षेत्र कुल रोजगार का मात्र 2 प्रतिशत उपलब्ध कराता है। इसलिए यदि जातीय समानता के लक्ष्य को प्राप्त करना है तो, प्राइवेट क्षेत्र में आरक्षण लागू करना अपरिहार्य होगा।

यहां तक कि सार्वजनिक क्षेत्र का आरक्षण भी संकट में है। सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों को प्राइवेट सेक्टर को सौंपने की कोशिश में अधिकारीगण जानबूझकर उन कंपनियों की वार्षिक रिपोर्टें इस तरह प्रस्तुत करते कि उनमें इन कंपनियों को वर्षों से घाटे में चल रही दिखाया जाता है। परिणामस्वरूप उन कंपनियों का विनिवेश होता है। सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी के प्राईवेट सेक्टर में आने के साथ ही उन उद्यमों में आरक्षण भी समाप्त हो जाता है। इस तरह हमारे रोजगार अवसर हमारे हाथों से खींच लिए जाते हैं। 

देवेंद्रकुला वेल्लालर जाति के लोग स्वयं को अनुसूचित जाति वर्ग से  बाहर निकालने व ओबीसी में शामिल करने की मांग को लेकर प्रदर्शन करते हुए

 अमेरिका में निजी क्षेत्र में भी आरक्षण दिया जाता है 

यूनाइटिड स्टेट अमेरिका विकसित देश है। वह अपने काले नागरिकों को प्राईवेट सेक्टर में भी आरक्षण देता है। अमेरिका में आरक्षण केवल नौकरी के क्षेत्र में नहीं है, अपितु वह व्यापारिक ठेकों तथा निजी कंपनियों को अन्य व्यापारिक लाभ के रूप में भी दिया जाता है।

यूनाइटिड स्टेट तथा अन्य यूरोपीय देशों में वहां की बहुराष्ट्रीय कपनियों में भी आरक्षण नीति लागू है।

विश्व की सबसे बड़ी और सर्वाधिक उत्पादन करने वाली बहुराष्ट्रीय कंपनी माइक्रोसाफ्ट सुविधाहीन नागरिकों को आरक्षण देती है। दुनिया के हर देश, हर महानगर में जगह-जगह फैला हुआ रेस्तरां मेक्डोनॉल्ड भी आरक्षण नीति पर अमल करता है। स्वीडन की कार उत्पादक कंपनी वोल्वो भी आरक्षण के नियमों का पालन करती है। 

संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के निजी क्षेत्र में आरक्षण पर सरसरी नजर :

फारच्यून 500 कंपनियांप्रबंधक/अधिकारी(प्रतिशत में)
फोर्ड कंपनी18.20
जनरल मोटर23.00
एकसॉन मोबाइल16.90
आईबीएम21.56
बोइंग18.00

हावर्ड विश्वविद्यालय

श्रेणी1994 का प्रतिशत1999 का प्रतिशत
शोधार्थी28.3033.90
प्रोफेसर9.5413.67
प्रशिक्षु30.3137.50

समाचारपत्र

वाल स्ट्रीट जरनल17.10
यूएसए टूडे18.70
न्यू यार्क टाइम्स16.20
वाशिंग्टन पोस्ट19.50
लास एंज्लस  टाइम्स18.70

स्रोत: तहलका 19 जून, 2004

आरक्षण की व्यवस्था न होने के कारण भारत के निजी क्षेत्र की 1000 कंपनियों में केवल ब्राह्मण छाए हुए हैं।

श्रेणीबोर्ड के सदस्यप्रतिशत
ब्राह्मण सहित अन्य सवर्ण838792.70
पिछड़ी जातियां3463.80
अनुसूचित जातियां3193.50

स्रोत : इकानामिक एंड पालिटीकल वीकली, अगस्त 2012

केंद्र सरकार में भी निर्णायक पदों पर उच्च जाति के लोग विद्यमान हैं, तत्संबंधी आंकड़े नीचे दिए गए हैं :

श्रेणीकुल संख्याअन्य पिछड़ा वर्गअनुसूचित जातिअनुसूचित जनजाति
ग्रुप ‘ए’74,8668,316(11.11%)10,434(13.94%)4,354(5.82%)
ग्रुप ‘बी’1,88,77620,069(10.63%)29,373(15.56%)12,073(6.40%)

स्रोत : आंकड़े केंद्र सरकार के 55 विभागों एवं मंत्रालयों के हैं, जिन्हें सूचना अधिकार अधिनियम के माध्यम से 1 जनवरी 2013 को प्राप्त किया गया है।

ब्राह्मण तथा दूसरी ऊंची जातियां केंद्र सरकार तथा बहुराष्ट्रीय कंपनियों, दोनों में निर्णायक पदों को कब्जाए हुए हैं। परिणामस्वरूप वही बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ जो दूसरे देशों में आरक्षण देती हैं, वे भारत में आरक्षण देने से बच जाती हैं। ब्राह्मण तथा ऊंची जातियों के सत्ता के दलाल उन्हें आरक्षण नीति लागू करने की अनुमति ही देते। 

भारत में सबसे बड़े व्यापार एवं वाणिज्य संगठन भारतीय वाणिज्य एवं उद्योग महासंघ(फिक्की), भारतीय उद्योग संघ(सीआईआई) तथा भारतीय वाणिज्य एवं उद्योग मंडल(एसोचैम) हैं। ये सभी संगठन तथा भारतीय व्यापार जगत का बड़ा हिस्सा, देश के प्राइवेट सेक्टर में आरक्षण नीति लागू करने का विरोध करते हैं। 

क्या निजी कंपनियों में जिनमें लाभ के लिए पूंजी-निवेश किया जाता है, आरक्षण की मांग करना न्याय-संगत है?

यह एकदम गलत अवधारणा है। प्राइवेट या कोरपोरेट सेक्टर की कोई भी कंपनी, कभी भी अपना धन व्यापार में निवेश नहीं करती। कंपनियां या तो बैंकों से रकम उधार लेती हैं, जिसे प्रायः वे लौटाती भी नहीं हैं, अथवा शेयर के रूप में आम जनता से जुटाती हैं. उनमें सभी वर्गों के लोग शामिल होते हैं। जनता से शेयर निधि(अथवा बैंकों से जिनमें जनता का ही पैसा जमा होता है) के रूप में धनराशि जुटाने के बाद ही वे व्यापार आरंभ करती हैं।

इसके अलावा ये कंपनियां विशेष आर्थिक क्षेत्र(एसईजेड) में हजारों एकड़ जमीन प्राप्त कर लेती हैं। साथ ही करोड़ों रुपये आयात-निर्यात के बहाने छूट, बिजली तथा पानी के बिल की माफी प्राप्त कर लेती हैं।

इस तरह निजी तथा कारपोरटे कंपनियां अपना व्यापार केवल हमारी शेयर निधि(निवेश) तथा बड़ा हिस्सा सरकार से(जनता से टैक्स के रूप में जमा किया गया) के पूंजी जुटाने के बाद आरंभ करती हैं। इसलिए, निश्चित रूप से, निजी क्षेत्र में आरक्षण की मांग करना कहीं भी गलत नहीं है।

क्या इसका अभिप्रायः पूंजीवाद की मदद करना है?

साम्यवादी भारत सरकार की संरचना का यह कहकर विरोध करते हैं, कि यह श्रमजीवियों की सरकार नहीं है। वे सरकार को कारपोरेट सरकार, पूंजीवादी सरकार कहकर परिभाषित करते हैं। लेकिन वही साम्यवादी ‘पूंजीवादी सरकार’ का हिस्सा बनने के लिए चुनावी राजनीति में हिस्सा लेते हैं; और राज्यों में चुनाव जीतकर शासन करते हैं।

यहां तक कि ऐसे संगठन जो निर्वाचन प्रक्रिया में हिस्सा नहीं लेते, वे भी कारपोरेट सरकार द्वारा बनाए गए कानूनों के तहत अपना काम करते हैं। हालांकि इसका अभिप्राय यह नहीं है कि सभी साम्यवादी इस प्रकार की सरकार को स्वीकार करते हैं।

इसी आधार पर, हम प्राइवेट संगठनों का हिस्सा बनने के लिए निजी क्षेत्र में आरक्षण की मांग करते हैं, मगर इसका यह मतलब नहीं है कि हम बहुराष्ट्रीय कंपनियों की राजनीति का समर्थन करते हैं।

‘मलाईदार परत’(क्रीमी लेयर) का सिद्धांत, संपन्न वर्ग को आरक्षण की परिसीमा से बाहर रखने के लिए आर्थिक रूप से समृद्ध परिवारों की पहचान करता है। यह तरीका सरासर गलत है, कैसे? 

“क्रीमी लेयर’ पिछड़ी जातियों में आर्थिक रूप से समृद्ध परिवारों की पहचान करता है। ऐसे परिवारों से आए उम्मीदवार आरक्षण के अयोग्य माने जाते हैं।“

─‘क्रीमी लेयर’ : कृष्णा अय्यर

इस कपटी और भ्रामक योजना को लागू करने वाला सबसे पहला राज्य केरल था। केरल राज्य बनाम एन. एम. थॉमस मामले में न्यायमूर्ति वी. आर. कृष्णा अय्यर ने इस पद्धति को परिभाषित किया था। मनुष्यता के प्रति करुणाशील बताते हुए इसकी प्रशंसा की गई थी।

2007 में, केंद्र सरकार ने ‘क्रीमी लेयर’ के लिए 2,50,000 रुपये वार्षिक आय निर्धारित की थी। उसके बाद सरकार ने पहली बार इसकी सीमा को 6,00,000 रुपये वार्षिक तथा उसके बाद 8,00,000 रुपये वार्षिक तक बढ़ा दिया। इस मामले में राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग का ताजातरीन निर्णय यह है कि उसने ‘क्रीमी लेयर’ की आय-सीमा को 15,00,000 रुपये वार्षिक करने की अनुशंसा की है।

कागजों में, पिछले कई दशक से, केंद्र सरकार में, शिक्षा एवं रोजगार के मामले में अनुसूचित जातियों एवं अनुसूचित जनजातियों को 22.5 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था की गई है। जबकि उसके वास्तविक लाभार्थी, आज तक भी 10 प्रतिशत तक नहीं पहुंच पाए हैं।

बावजूद इसके कि केंद्र सरकार द्वारा पिछड़े वर्गों को सरकारी नौकरियों में पिछले लगभग 3 दशकों; तथा उच्चतर शिक्षा संस्थानों में एक दशक से ज्यादा, से 27 प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान किया गया है। लेकिन वास्तव में उन्हें अभी तक 5 प्रतिशत आरक्षण भी नहीं मिल पाया है। इस हकीकत से जुड़े आंकड़े  ऊपर दर्शाए दिए जा चुके हैं। 

सर्वप्रथम, 22.5 का निर्धारित कोटा अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों; तथा 27 प्रतिशत कोटा पिछड़ी जातियों से भरे जाने की आवश्यकता है। वस्तुस्थिति यह है कि कुछ समुदायों को अभी शिक्षा के लिए प्रोत्साहित ही किया जा रहा है। ‘मलाईदार परत’ की अवधारणा इसे भी नहीं होने देना चाहती।

सबसे जरूरी तो यह है कि ब्राह्मण तथा अन्य ऊंची जातियां जिन्होंने हजारों वर्षों से संपूर्ण प्रशासन और शैक्षिक संस्थानों पर कब्जा जमाया हुआ है, को ‘मलाईदार परत’ घोषित किया जाना चाहिए और यदि किसी को शिक्षा और सत्ता की भागीदारी से रोकना है, तो वह उन्हीं में से होना चाहिए। वे सर्वोपयुक्त ‘मलाईदार परत’, क्रीमी लेयर हैं।

क्या ब्राह्मणों के आरक्षण विरोध का कोई नैतिक पक्ष भी है?

नहीं। ब्राह्मण शिक्षा एवं रोजगार आरक्षण नीति का विरोध केवल ‘गुणवत्ता/प्रतिभा’ के बहाने करते हैं। हालांकि वे मंदिरों में पुजारी के काम में ‘प्रतिभा/गुणवत्ता’ की चिंता नहीं करते। वहां वे तर्क देते हैं कि केवल ब्राह्मण ही इस कार्य को कर सकते हैं।

2016 में, वे उच्चतम न्यायालय में, अपने जाति-आधारित अधिकारों के पक्ष में अपील करने गए थे। इसलिए ब्राह्मणों द्वारा आरक्षण के विरोध के पीछे किसी नैतिकता की उम्मीद नहीं की जा सकती।

‘आरक्षण का परित्याग करो; व्यापारिक क्षेत्र आपके जीवन की प्रगति में आपकी मदद करेगा।’ राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ द्वारा देवेंद्रकुला वेल्लार समुदाय को दिया गया यह संबोधन खतरनाक है, कैसे?

ब्राह्मण यह मानने लगे हैं कि आरक्षण के कारण उनकी सर्वोच्चता कम हो रही है। जनवरी 2014 में उन्होंने त्रिची में तमिलनाडु के ब्राह्मण युवा संगठनों का राज्य-स्तरीय सम्मेलन किया था। वहां उन्होंने अपने लिए शिक्षा और रोजगार क्षेत्र में दस प्रतिशत आरक्षण की मांग की थी। इस तरह की जिला-स्तरीय बैठकों का आयोजन वे नियमित रूप से करते हैं।

पिछले कुछ वर्षों में, पटेल जाति की आर्थिक समृद्धि में, पूरे भारतवर्ष में अभूतपूर्व उछाल आया है। राष्ट्रीय और बहुराष्ट्रीय राष्ट्रीय स्तर की कंपनियों के कई मालिक पटेल समुदाय से हैं। बावजूद इसके कि पटेल जाति के सदस्य मुख्यमंत्री, मंत्री, विधायिकाओं के सदस्य और सांसद बनते आए हैं, वे जाति-आधारित आरक्षण के लिए आक्रामक रूप से संघर्ष कर रहे हैं।

कप्पू, बालीजा, गोवारा, ओनदारी तथा थेलगा आंध्र प्रदेश की ऐसी जातियां हैं जिनका आर्थिक क्षेत्र में दबदबा है। वे भी 2013 से खुद को पिछड़ी जातियों में शामिल करने तथा शिक्षा एवं रोजगार के क्षेत्र में 22.4 प्रतिशत(अपनी जनसंख्या के अनुपात में)  आरक्षण की मांग करती आ रही हैं। 

वेटुवा गाउंडर भी अपने लिए पृथक आरक्षण की मांग कर रहे हैं। पिल्लईमार, वेल्लार, सेंगुंथार तथा मुदलियार जातियां भी अपने लिए 20 प्रतिशत आरक्षण के पक्ष में आवाज उठा रही हैं।

इस तरह तमिलनाडु सहित पूरे भारतवर्ष में, वे जातियां भी जो दलितों(अनुसूचित जातियों) की तुलना में समृद्ध हैं, अपने लिए आरक्षण की मांग कर रही हैं। व्यापारिक जातियां अपने आर्थिक वर्चस्व को और अधिक बढ़ाना चाहती हैं, ताकि वे सरकारी संस्थाओं पर काबिज हो सकें।

तमिलनाडु की दलित एवं पिछड़ी जातियों को जाति-आधारित आरक्षण जस्टिस पार्टी के शासनकाल में मिला था, जो द्रविड़ आंदोलन का स्वर्णकाल था। उसी के कारण हम शिक्षा और रोजगार के क्षेत्र एक सीमा तक तरक्की कर पाए हैं।

यद्यपि भारत का संविधान दलित जातियों के लिए सार्वजनिक निकायों में 15 प्रतिशत आरक्षण की अनुमति देता है। लेकिन ब्राह्मणों का वर्चस्व इतना शक्तिशाली है कि पिछले कुछ दशकों में, जब से आरक्षण का प्रावधान किया गया है, 15 प्रतिशत आरक्षण का लक्ष्य कभी पूरा नहीं हो पाया है। इसका विरोध करने वाले वही हैं, जो ब्राह्मणों के अधिपत्य को ज्यों का त्यों बनाए रखना चाहते हैं। 

हम भारत के उच्चतर शिक्षा संस्थानों से जुडे़ गहन शोध के आंकड़ों पर नजर डाल चुके हैं। वे हमें मानव संसाधन विकास मंत्रालय के उच्चतर शिक्षा विभाग की ओर से प्राप्त हुए हैं। आंकड़े बताते हैं कि सभी भारतीय राज्यों में तमिल नाडु आरक्षण नीति को लागू करने में पहले स्थान पर है। 

तमिल नाडु के उच्चतर शैक्षिक संस्थानों में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़े वर्ग के प्राध्यापकों की संख्या नीचे दी गई है—

कुल प्राध्यापकअनुसूचित जातिअनुसूचित जनजातिअन्य पिछड़ा वर्ग
2,03,22317,2846191,18,540

स्रोत : अखिल भारतीय उच्चतर शिक्षा सर्वेक्षण: 2014-2015, मानव संसाधन विकास मंत्रालय

उच्चतर शिक्षण संस्थानों में प्राध्यापकों की आरक्षित पदों पर कुल भर्ती को लेकर, संख्या के हिसाब से, तमिलनाडु देश के बाकी सभी राज्यों से आगे है। दलितों के आरक्षित पदों को भरने के मामले में महाराष्ट्र दूसरा सबसे बड़ा नियुक्तिकर्ता राज्य है, उसके बाद तेलंगाना का नंबर आता है। जबकि अन्य पिछड़ा वर्ग के आरक्षित पदों को भरने के हिसाब से तेलंगाना दूसरे नंबर पर तथा महाराष्ट्र तीसरे पर आता है. 

इस प्रकार विश्वविद्यालय संकायों में दलितों और पिछड़ी जातियों को आरक्षित पदों के सापेक्ष नियुक्ति देने के मामले में तमिल नाडु सबसे आगे है.

कुल प्राध्यापकअनुसूचित जातिअनुसूचित जनजातिअन्य पिछड़ा वर्ग
2,03,22317,2846191,18,540

स्रोत : अखिल भारतीय उच्चतर शिक्षा सर्वेक्षण: 2014-2015, मानव संसाधन विकास मंत्रालय

कुछ राज्यों ने आरक्षण नीति की बुरी तरह अवहेलना की है। विश्वविद्यालयों में प्रवेश संबंधी आरक्षण नीति का भी यही हाल है।

अंततोगत्वा, यह तमिलनाडु की आरक्षण नीति ही है, जिसे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ खत्म करना चाहता है। इसके लिए वह समुदायों की जोड़-तोड़ तथा उन्हें गुमराह करने की योजना बना रहा है। नाडर, एक प्रभुत्वशाली जाति समूह, जो बैंक, तमिलनाडु मर्केंटाइल बैंक तक चला रहा है, इन दिनों आरक्षण के लिए दावा कर रहा है! दबी-पिछड़ी पल्लार जाति ने आरक्षण को ठुकरा दिया है, इसलिए बदले में नडारों को आरक्षण दे दिया गया है। इसके पीछे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ काम कर रहा है।  वही पर्दे के पीछे से देवेंद्रकुला वेल्लार समुदाय, जिसमें पल्लार भी शामिल होंगे, को अतिपिछड़ी जातियों की श्रेणी में लाने की मांग कर रहा है। पल्लारों में आर्थिक, शैक्षिक और राजनीतिक शक्ति अथवा सरकारी संस्थाओं में प्रतिनिधित्व का अभाव है। इस तरह का कदम अवनतिकारक होगा और पल्लार सहित आरक्षण का लाभ उठा रहे दूसरे जाति-समूहों पर भी बुरा असर डालेगा।

क्या ब्राह्मण वर्चस्व आज भी प्रभावी है?

पूरे देश में ब्राह्मण धर्म और संस्कृति के माध्यम से ‘निचली जातियों’ पर जन्म से लेकर मृत्यु तक राज करते हैं। 2016 में उच्चतम न्यायालय ने फैसला सुनाया था कि अगम शास्त्र के अनुसार मंदिर का पुजारी बनने का अधिकार केवल ब्राह्मण को है। 

ब्राह्मणों का वर्चस्व सरकारी कार्यालयों, बहुराष्ट्रीय कंपनियों, न्याय विभागों, राजनीतिक सत्ता के केंद्रों, तथा मीडिया जगत में हर जगह व्याप्त है। 

नौकरशाही

ब्राह्मण सभी मंत्रालयों और विभागों में, जिनके पास देश की कल्याणकारी योजनाएं बनाने, उन्हें चलाने अधिकार है, पूरी तरह से छाये हुए हैं :

वर्गकुल कर्मचारीअन्य पिछड़ा वर्गअनुसूचित जातिअनुसूचित जनजाति
वर्ग ‘ए’74,8668,316

(11.11%)
10,434

(13.94%)
4,354

(5.82%)
वर्ग ‘बी’1,88,77620,069

(10.63%)
29,373

(15.56%)
12,073

(6.40%)

स्रोत : सूचना अधिकार अधिनियम के अंतर्गत 1 जनवरी 2013 को प्राप्त

उद्योग

श्रेणीबोर्ड के सदस्यों की संख्याप्रतिशत
ब्राह्मण तथा अन्य ऊंची जातियां838792.7
पिछड़ी जातियां3463.8
अनुसूचित जातियां3193.5

स्रोत : इकॉनामिक एंड पॉलिटीकल वीकली, अगस्त 2012

बैंकिंग

महाप्रबंधकउपप्रबंधक
कुल संख्याअन्य पिछड़ा वर्गअनुसूचित जातिअनुसूचित जनजातिकुल संख्याअन्य पिछड़ा वर्गअनुसूचित जातिअनुसूचित जनजाति
43651471216147216
(1.1%)(3.2%)(1.6%)(1.15%)(5.9%)(1.3%)

स्रोत : सूचना अधिकार अधिनियम के अंतर्गत 1 अक्टूबर 2015 को प्राप्त की गई

न्यायपालिका

            जातियां1950-70

(प्रतिशत में)
1971-89

(प्रतिशत में)
ब्राह्मण4045.2
अन्य ऊंची जातियां57.142.9
अनुसूचित जातियां04.6
अनुसूचित जनजातियां00
पिछड़ी जातियां2.96.8

2011 के सर्वे के अनुसार देश के 21 उच्च न्यायालयों में से, 14 उच्च न्यायालयों में अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति का एक भी न्यायाधीश नहीं था। उच्चतम न्यायालय के कुल 31 न्यायाधीशों में केवल 1 न्यायाधीश अनुसूचित जाति से संबंधित था। आजादी के बाद, 2007 में, पहली बार दलित जाति का एक सदस्य, मुख्य न्यायाधीश नियुक्त किया गया था। इस पद तक पहुंचने में दलित जातियों को 59 वर्ष लगे थे।

सरकार में ब्राह्मणों का प्रभुत्व

देश आजाद होने के बाद से, 2014 तक, कुल 67 वर्ष में 51 वर्ष देश का प्रधानमंत्री ब्राह्मण रहे हैं। 

भारत में ब्राह्मणों की कुल जनसंख्या केवल 5.6 करोड़ है। यह देश की कुल जनसंख्या का मात्र 5 प्रतिशत है। 2014 में मनमोहन सिंह के नेतृत्व में बनी सरकार में 5 कैबिनेट मंत्री ब्राह्मण थे।

नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में 2014 में बनी कैबिनेट की स्थिति भी कुछ ऐसी थी :

श्रेणीब्राह्मण तथा अन्य ऊंची जातियांअन्य पिछड़ा वर्गअनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजातिमुस्लिमईसाई
प्रतिशत में884032.3

स्रोत : टाइम्स आफ इंडिया, इंडियन एक्सप्रेस 27 मई 2014

कैबिनेट मंत्रियों में 12 सदस्य उच्च जातियों के थे, जिनमें ब्राह्मण के अलावा राजपूत और कायस्थ भी शामिल थे। देश में ब्राह्मणों तथा अन्य ऊंची जातियों की कुल जनसंख्या मात्र 16 प्रतिशत है। लेकिन वे कैबिनेट स्तर के कुल पदों में से 50 पर कब्जा  जमाए हुए हैं।

लोकतंत्र का चौथा स्तंभ : मीडिया

भारतीय संचार माध्यम (मीडिया) में कार्यरत वरिष्ठ पत्रकारों का एक सर्वेक्षण किया गया था। ये सभी पत्रकार अपने-अपने प्रतिष्ठान में निर्णायक पदों पर हैं। वही तय करते हैं कि कौन-सा समाचार छपना चाहिए और कि किस मुद्दे पर बहस होनी चाहिए। इसमें प्रिंट मीडिया, टेलीविजन तथा वेबसाइटें आदि सभी सम्मिलित थे। सेंट्रल फार स्टडीज आफ ड्वेल्पिंग सोसाइटीज(सीएसडीएस) ने प्रोफेसर योगेंद्र यादव जो विश्वविद्यालय अनुदान आयोग(यूजीसी) तथा राष्ट्रीय सलाहकार परिषद में कार्यरत थे—के नेतृत्व में शिक्षा का अधिकार अधिनियम पर एक शोध किया था। उसके अनुसार— 

श्रेणीब्राह्मण तथा अन्य ऊंची जातियांअन्य पिछड़ा वर्गअनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजातिमुस्लिमईसाई
प्रतिशत में884032.3

शोध परिणाम दर्शाते हैं कि मात्र 5 प्रतिशत ब्राह्मण मीडिया में 49 प्रतिशत पदों पर कब्जा जमाए हुए हैं। ऊंची जातियां, जिनमें क्षत्रिय और कायस्थ सम्मिलित हैं, का मीडिया के 88 पदों पर अधिकार है। विडंबना देखिए कि अंग्रेजी समाचार मीडिया में, निर्णायक पदों पर पिछड़ी जातियों की हिस्सेदारी मात्र 1 प्रतिशत है। जबकि अनुसूचित जातियों की भागीदारी शून्य है। 

हमने विभिन्न तर्कों और प्रमाणों के माध्यम से सिद्ध किया है कि ब्राह्मणों का वर्चस्व प्रत्येक क्षेत्र में है। यही नहीं, अंतरिक्ष एवं परमाणु कार्यक्रम, सैन्य बलों तथा वैज्ञानिक शोध से जुड़े संगठनों में भी ब्राह्मणों का ही प्रभुत्व है। 

पिछड़ी जातियां और दलित समुदाय के लोग एक-दूसरे के प्रति वैर-भाव रखते हैं। हम एक-दूसरे से लड़ते रहते हैं। जब तक यह नहीं रुकेगा, ब्राह्मणों का अधिपत्य भी बना रहेगा।

तमिलनाडु में आरक्षित वर्ग की श्रेणियां क्या हैं? वे कैसे लागू की जा रही हैं? 

तमिलनाडु में, पिछड़ी जातियों के लिए 26 प्रतिशत आरक्षण, 3.5 प्रतिशत आरक्षण मुस्लिम पिछड़ी जातियों के लिए, अतिपिछड़ी जातियों को 20 प्रतिशत, अनुसूचित जातियों को 15 प्रतिशत, अरुंधातियार हेतु 3 प्रतिशत तथा अनुसूचित जनजातियों के लिए 1 प्रतिशत, यानी कुल 69 प्रतिशत आरक्षण दिया जाता है।

ब्राह्मणों के वर्चस्व तथा उनके विरोध के कारण, 69 प्रतिशत आरक्षण के लक्ष्य को कभी भी प्राप्त नहीं किया गया है। उच्चतम न्यायालय भी हमारे अधिकारों में हस्तक्षेप कर, उन्हें बाधित करता है।

अपने अधिकारों की पुनःप्राप्ति हेतु दलितों और पिछड़ी जातियों, आदिवासियों तथा अल्पसंख्यकों, द्रविड़ संगठनों और दलित संगठनों को पूरे भारत और तमिल नाडु में पूरी तरह से संगठित हो, संघर्ष को दृढ़तापूर्वक आगे बढ़ाना होगा।ल

दस्तावेज का स्रोत : पेरियार स्टडी सेंटर, द्रविड़ कझ़गम, इंडियन इंस्टीट्यूट आफ दलित स्टडीज, राष्ट्रीय अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति आयोग, राष्ट्रीय पिछड़ा आयोग, अखिल भारतीय पिछड़ा वर्ग महासंघ।

(कोयंबटूर की तमिल पत्रिका ‘कात्तारू’ द्वारा प्रकाशित पुस्तिका से पुन: प्रस्तुत,  तमिल से अंग्रेजी अनुवाद : इवानो,  अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद : ओमप्रकाश कश्यप, हिन्दी संपादक : नवल )


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लेखक के बारे में

टी. थमराई कन्नन

पेरियादवादी सामाजिक कार्यकर्ता टी. थमराई कन्नन "कात्तारु : वैज्ञानिक संस्कृति का तमिल प्रकाशन" की संपादकीय-व्‍यवस्‍थापकीय टीम के संयोजक हैं। उनकी संस्था 'कात्तारु' नाम से एक तमिल मासिक पत्रिका का प्रकाशन भी करता है।

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