‘एफपी ऑन द रोड’ नामक बहुजन पत्रकारिता की मुहिम के तहत फारवर्ड प्रेस की संपादकीय टीम के सदस्यों ने भारत के विभिन्न क्षेत्रों की यात्रा की है तथा बहुजन भारत के अनछुए पहलुओं को सामने लाने की कोशिश की। इस मुहिम के तहत पहली यात्रा वर्ष 2016 में हुई थी। जनवरी, 2017 में इसी के तहत फारवर्ड प्रेस के प्रबंध संपादक प्रमेाद रंजन, अंग्रेेजी-संपादकअनिल वर्गीज और युवा समाजशास्त्रीअनिल कुमार ने महाराष्ट्र समेत अनेक राज्यों की यात्रा की थी।
इस दौरान 24 जनवरी, 2017 को टीम ने मुंबई में दलित पैंथर के तीन संस्थापकों में से एक जेवी पवार (जयराम विट्ठल पवार )से मुलाकात की। प्रस्तुत है भारिप[1] बहुजन महासंघ’ के कार्यालय में श्री पवार से हुई बातचीत का संपादित अंश :
दलितों के आक्रोश का विस्फोट था दलित पैंथर्स
–जे.वी. पवार से प्रमोद रंजन एवम एफपी टीम की बातचीत :
प्रमोद रंजन : पवार साहब, आप दलित पैंथर्स पार्टी के संस्थापकों में से एक रहे हैं। विशेषकर हमारे लिए यह गौरव का क्षण है कि इस वक्त हम आपके साथ हैं। हम जानना चाहेंगे कि दलित पैंथर्स पार्टी का गठन कब और किन परिस्थितियों में हुआ? इसमें कौन लोग शामिल थे और इसका उद्देश्य क्या था?
जे.वी. पवार : यह बात 1960 के दशक की है। इस दशक में दलितों के ऊपर बहुत ही अत्याचार होता था। अखबारों में दलित उत्पीड़न की खबरें रोज आती थीं। मसलन कहीं दलित लड़की के साथ छेड़छाड़ की गई, तो कहीं बलात्कार की घटनाएं। हर प्रकार के जुल्म होते थे। ज्यादा घटनाएं ग्रामीण इलाकों में होती थीं। उस समय हम 20-25 साल के नौजवान थे। हम और हमारे कुछ साथी लेखक थे। राजा ढाले लेखक थे, नामदेव ढसाल लेखक थे और मैं भी लेखक था। एक दिन हमने विचार किया कि हम केवल लिखते रहते हैं, लेकिन बिना आंदोलन के लिखने का मतलब क्या है? तब हमने तय किया कि लिखना भी चाहिए और साथ-साथ आंदोलन भी करना चाहिए। तो इसलिए हम लोगों ने आंदोलन शुरू किया। उन्हीं दिनों अमेरिका में ब्लैक पैंथर्स[2] नामक पार्टी थी। वह लड़ाकू पार्टी थी। इसके जरिए अफ्रीकी-अमेरिकन लोग श्वेतों के द्वारा जुल्म के खिलाफ लड़ते थे। उन्हें जनतांत्रिक अधिकार नहीं थे।
हमारे यहां बाबा साहब ने संविधान के जरिए दलितों को अनेक अधिकार दिए, लेकिन उनका क्रियान्वयन नहीं होता था। दलितों पर जुल्म फिर भी होता था, होता है। तब हमने सोचा कि ब्लैक पैंथर के जैसे ही हम दलित पैंथर बनाएंगे, जिसका काम दलितों पर होने वाले जुल्म व शोषण का विरोध करना होगा। उन दिनों एलिया पेरुवर नामक एक व्यक्ति सांसद थे। इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं। उन्होंने एक समिति का गठन किया था। उस समिति का काम पूरे देश में दलितों पर होने वाले अत्याचारों के संदर्भ में रिपोर्ट प्रकाशित करना था। उनके साथ कई सांसद थे। जब पेरुवर ने केंद्र सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपी, तब यह बात सामने आई कि छोटी-छोटी घटनाएं कैसे बड़ा रूप ले लेती हैं। तब यह भी बात सामने आई कि पूरे देश में किस तरह से दलितों पर बेइंतहा जुल्म किए जा रहे हैं। तब हमने भी मजबूती से निर्णय लिया कि हमें भी इस जुल्म के खिलाफ लड़ना चाहिए।
उसके पहले एक घटना घटी थी। महाराष्ट्र के एक जिले में दो महिलाओं को नंगा करके मारा-पीटा गया। तब महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री वसंतराव नाइक थे। हम लोगों ने विरोध किया और उनके घर के आगे विरोध मोर्चा निकाला और उनसे कहा कि दलितों पर अत्याचार बंद होने चाहिए। सोचिए कि यदि इसी तरह की घटना समाज की अन्य जातियों की महिलाओं के साथ हो, तो क्या तब भी सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी रहेगी? जब हम विरोध मार्च से लौट रहे थे, तब हमारे साथियों ने कहा कि क्यों न हम दोनों पीड़ित महिलाओं के घर जाएं और उन्हें साड़ियां दें। तब मैंने और नामदेव ने इसका विरोध किया। हमने कहा कि जिन औरतों को नंगा किया गया और उन्हें हम साड़ियां देकर समाज के सामने लाएं! यह अच्छा तरीका नहीं है। हालांकि, कई लोग गए और उन्होंने पीड़ित महिलाओं को साड़ियां दीं, लेकिन हम नहीं गए।
रास्ते में मैंने और नामदेव ने दलित पैंथर्स पार्टी के गठन के बारे में सोचा। तब नामदेव मेरे घर के बगल में ही रहते थे। उन दिनों मैं बैंक ऑफ इंडिया में नौकरी करता था। रोज सुबह मैं अपनी नौकरी पर चला जाता था। उस दिन बसंतराव नाइक से मिलकर लौटने के क्रम में हमने यह फैसला लिया कि हमारी भी एक स्वतंत्र पार्टी होनी चाहिए। इस प्रकार हमने दलित पैंथर्स पार्टी का गठन किया। कहने का मतलब यह है कि दलित पैंथर्स पार्टी का गठन किसी वातानुकूलित बंद कमरे में नहीं हुआ। सड़क पर चलते-चलते हुआ। उस वक्त शुरू में मैं और नामदेव ढसाल चाहते थे कि हम अपना आंदोलन अंडर ग्राउंड रहकर चलाएं। हम चाहते थे कि कहीं भी घटना होने पर रात में या कभी भी जाएं और दलितों पर अत्याचार करने वाले को शिक्षा दें; ऐसा मेरा विचार था। लेकिन, नामदेव चाहते थे कि हमें दलितों पर होने वाले अत्याचारों के खिलाफ खुलकर सामने आकर उसका विरोध करना चाहिए। इससे हमें लोगों की सहानुभूति और सहयोग भी मिलेगा। तब हमने खुले तौर पर अपना आंदोलन शुरू किया। इस प्रकार 29 मई 1972 को हमने पहला पत्र प्रकाशित किया, जिसमें हमने दलित पैंथर्स पार्टी के गठन की घोषणा की। तभी से हम लोग काम कर रहे हैं।
शायद आपको याद होगा कि 1972 में, जब देश की आजादी को 25 वर्ष हो गए थे; देश में सिल्वर जुबली का जश्न मनाया जा रहा था। हमने विचार किया कि यह किस प्रकार की आजादी है? दलितों को उनका वाजिब हक नहीं मिल रहा और उनके उपर अत्याचार हो रहे हैं। यह हमारे लिए आजादी नही है। हमने यह निर्णय लिया था कि हम काला स्वतंत्रता दिवस मनाएंगे। ढाले साहब ने यह प्रोग्राम दिया। बाद में वे हमसे जुड़े भी। उस दिन बंबई में खूब रोशनी की गई थी। हम लोगों ने बंबई में काला कपड़ा पहनकर विरोध मार्च निकाला। उसी दिन देश के सभी राज्यों की विधानसभाओं में एक दिन का विशेष सत्र बुलाया गया था। यह आयोजन 14 अगस्त 1972 की आधी रात को किया गया था। बंबई में महाराष्ट्र विधानसभा में भी सत्र बुलाया गया था। उस दिन विधानसभा के विशेष सत्र के समानांतर हमने विधानसभा के ठीक बाहर अपने विधानसभा सत्र का आयोजन किया। इस विधानसभा का अध्यक्ष मैं था। अन्दर के विधानसभा में चुने हुए लोग थे और बाहर गैर चुने हम युवा। हमने अपने विधानसभा की बैठक में भारत सरकार के प्रस्ताव को खारिज किया। रात के करीब एक बजे हम लोगों ने अपनी विधानसभा की बैठक को स्थगित किया।
तो, बात यह है कि अंदर की विधानसभा में मृणाल गोरे जी सदस्य थीं। उन्होंने कहा था कि तुम लोग रास्ते पर लड़ो, हम विधानसभा के अंदर लड़ेंगे। इस प्रकार हम सड़क पर लड़ते थे और विधानसभा के अंदर कई ऐसे सदस्य थे, जो हमारे सवालों को वहां उठाते थे। इस प्रकार हमारी लड़ाई सड़क से लेकर सदन तक जारी थी। फिर धीरे-धीरे पूरे महाराष्ट्र के लोग हमसे जुड़ने लगे। उन दिनों हमारा कोई कार्यालय नहीं था। मेरा घर ही हमारा कार्यालय हुआ करता था। पूरे महाराष्ट्र से युवा मुझसे संपर्क करते थे।
प्रमोद रंजन : आपका घर कहां पर था?
जे.वी. पवार : मेरा घर कमाथीपुरा नामक बस्ती में था, जो उस समय रेड लाइट एरिया था। यह सेंट्रल बंबई में था। उसी इलाके में सिद्धार्थ नगर नामक बस्ती थी।
प्रमोद रंजन : वह आपका पैतृक घर था?
जे.वी. पवार : हां, नामदेव ढसाल मेरे घर के पास ही रहता था। करीब आठ-नौ मिनट के पैदल सफर की दूरी थी। हमारे आंदोलन का असर पूरे महाराष्ट्र में था। लोगों ने दलितों पर अत्याचार के खिलाफ दलित पैंथर्स पार्टी के बैनर तले खुद से विरोध-प्रदर्शन किए, विरोध-मार्च आदि निकालने शुरू किए। केवल पांच-छह महीने में ही हमारा काम बहुत बढ़ गया था। कहीं भी अत्याचार होता, लोग दलित पैंथर्स पार्टी के बैनर तले सड़क पर उतर जाते थे। यह सब हमारे नियंत्रण के बाहर था। इतनी जल्दी इतने विस्तार की हमने कल्पना भी नहीं की थी। मैं पार्टी का सेक्रेटरी था और बैंक में नौकरी करता था। इसके बावजूद, जहां कहीं भी अत्याचार होता था, हम बहुत सारे लोग जाते थे।
प्रमोद रंजन : पवार जी, आप उस समय बैंक में नौकरी करते थे। आपसे जुड़े अन्य लोग क्या करते थे?
जे.वी. पवार : ढसाल जी उन दिनों टैक्सी चलाते थे और राजा ढाले नौकरी करते थे। उस समय वे कस्टम में थे। हमारे दूसरे भाई संगारे भी नौकरी करते थे। अविनाश राणे मेरी तरह बैंक में नौकरी करते थे। हम पांच लोग तो थे ही। हमारे अलावा भी बहुत सारे लोग थे; जिनमें एक अर्जुन डांगले थे, जो लेखक थे। एक प्रह्लाद चंदवानकर भी थे, वह भी लेखक थे।
प्रमोद रंजन : हम उन सभी लोगों के नाम जानना चाहेंगे, जो आपके साथ थे या फिर जिन्हें कम जाना जाता है।
जे.वी. पवार : उस समय तो हम पांच ही मुख्य थे। हमें पांच पांडव कहा जाता था। उन दिनों अर्जुन डांगले और अन्य कई लेखक भी थे। पार्टी में केवल लेखक ही नहीं, कई और लोग भी थे। मतलब, हमारे साथ सभी प्रकार के लोग थे। कई लोग लेखक भी थे और आंदोलनकारी भी। कई केवल लेखक थे। लेखक और आंदोलनकारी दोनों, चार-पांच लोग थे। जैसे नामदेव ढसाल, राजा ढाले, बाबू राव और मैं लेखक थे। आंदोलनकर्ता नहीं थे। केशव मेश्राम भी लेखक ही थे। महाराष्ट्र के बाहर के एक एच.एल. मनोहर लेखक थे। इस प्रकार हमारे साथ सब थे। लड़ाकू और लेखक सब। जल्दी ही कम समय में पूरे महाराष्ट्र में हमारा संगठन फैल गया था। हर जिले में हमारी शाखा हो गई। हमें मालूम ही नहीं होता था कि हमारा कौन साथी कहां आंदोलन कर रहा है। जहां कहीं भी अन्याय होता था, लोग दलित पैंथर्स पार्टी के बैनर तले आंदोलन करते थे। बाद में हम लोगों ने एक अधिवेशन लिया। अधिवेशन का फैसला इसलिए लिया गया, क्योंकि हमने महसूस किया कि पार्टी का विस्तार हो रहा है और पार्टी चलाने के लिए इसे संगठित करना जरूरी है। हम लोगों ने महसूस किया कि आंदोलन तो चलता रहता है, लेकिन संगठन का निर्माण जरूरी है। इसलिए हम लोगों ने नागपुर में अधिवेशन का आयोजन किया।
प्रमोद रंजन : यह दौर कब तक चला?
जे.वी. पवार : ऐसा अक्टूबर 1974 तक हुआ।
प्रमोद रंजन : यानी बिना संगठन के आंदोलन अक्टूबर 1974 तक चला?
जे.वी. पवार : हां, इसके पहले केवल आंदोलन होते थे। मैं पार्टी का महासचिव था; लेकिन कोई कार्य-समिति नहीं थी।
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प्रमोद रंजन : इसका मतलब यह कि चार–पांच वर्षों तक बिना किसी कार्य–समिति के आंदोलन चलता रहा?
जे.वी. पवार : चार-पांच साल तो नहीं, लेकिन दो साल तक जरूर चला। 1972 में हम लोगों ने आंदोलन शुरू किया और 1974 में पहला अधिवेशन आयोजित किया गया। अधिवेशन में ढाले को अध्यक्ष और मुझे महासचिव चुना गया। उन दिनों ही नामदेव ढसाल हमसे अलग हो गए। नामदेव वामपंथी विचारधारा के थे। यह भी कहा जा सकता है कि वामपंथियों ने उन्हें घेरा था। बाबा साहब ने कहा था मार्क्सवाद से दूर रहो। उन्होंने बुद्ध की विचारधारा को अपनाने की बात कही थी।
प्रमोद रंजन : आजकल बहुत–से दलित लोगों को दलित शब्द से आपत्ति है। उनका कहना है कि दलित की जगह शेड्यूल कास्ट का उपयोग किया जाए। सवाल यह है कि जो दलित शब्द आया, उसका क्या इतिहास है? क्योंकि दलित पैंथर, जो इस संगठन का नाम था; नाम में ही दलित शब्द जुड़ा हुआ है।
जे.वी. पवार : देखो, दलित जो शब्द है, वह ऑफिशियल शब्द नहीं है। 1935 का गवर्नमेंट ऑफ इंडिया का एक्ट था, उसमें जातियों का शेड्यूल बनाया गया; एक शेड्यूल में कुछ जातियां, दूसरे शेड्यूल में कुछ जातियां। तो इस तरह शेड्यूल कास्ट की जातियां अलग हो गईं, शेड्यूल ट्राइब्स की जातियां अलग हो गईं। तो वह (अनुसूचित जाति) ऑफिशियल तौर पर शेड्यूल कास्ट है। बाद में क्या हो गया कि इन्हें बांट दिया गया। अब शेड्यूल कास्ट में तो 50-60 जातियां हैं। शेड्यूल ट्राइब्स में 500-600 जातियां हैं। तो सवाल यह उठा कि किसको शेड्यूल कास्ट बोला जाएगा। तो शेड्यूल कास्ट को आइडेंटिफाई करने के लिए अन-ऑफिसियल दलित शब्द आया। इसका इंटरप्रेटेशन बाबा साहब ने किया था। उन्होंने अनौपचारिक तरीके से इस शब्द का उपयोग किया। लेकिन यह अधिकारिक शब्द नहीं है। आज सभी दलित बोलते हैं; शेड्यूल कास्ट कोई नहीं बोलता।
अनिल कुमार : दलित में केवल अनुसूचित जातियां शामिल थीं या फिर ओबीसी, आदिवासी भी शामिल थे?
जे.वी. पवार : अनुसूचित जातियां, अनुसूचित जनजातियां शामिल थीं। ओबीसी तो बिजनेस वाले थे।
अनिल कुमार : नहीं, जैसे हर शब्द का अर्थ होता है, फिर दलित शब्द…?
जे.वी. पवार : यह दलित शब्द बाबा साहब का ही शब्द है न!
प्रमोद रंजन : लेकिन दलित शब्द का अर्थ शुरू में यह था कि इसमें दलित, आदिवासी, ओबीसी सभी शामिल हैं।
जे.वी. पवार : हां, दलित शब्द जो है, वह सभी डाउन ट्रोडेन (वंचित) जातियों के लिए है।
अनिल कुमार : कुछ लोग दलित शब्द का विरोध कर रहे हैं। वे इसे अपमानजनक मानते हैं। तो इस आधार पर लोग यह मानते हैं कि मैं खुद को दलित क्यों कहूं। इसको आप ऐसे भी देखेंगे कि अलग–अलग जातियों ने अपना इतिहास लिख रखा है कि हम राजा थे, हमारा यहां किंगडम था, यह था, वो था। कुछ लोगों ने बढ़ा–चढ़ाकर लिख रखा है; ताकि नई पीढ़ी उसे स्वीकार कर सके और उस जाति के लोगों को मान–सम्मान दे। अभी कुछ लोग अपनी जाति को बताते हुए प्राउड फील करते हैं, लेकिन दलित शब्द में प्राउडनेस नहीं है।
जे.वी. पवार : शुरू में जो हमारा साहित्य था, हम लोग उसे दलित साहित्य बोलते थे। मराठी में उसे दलित साहित्य बोलते थे। आज भी लोकल हिंदी के लोग दलित साहित्य बोलते हैं। यहां तक कि पंजाब और दक्षिण भारत के लोग दलित साहित्य बोलते हैं। उसको पॉपुलाइज्ड कर दिया। हमलोगों ने मीडिया में दलित लिखना शुरू किया। मैं भी इनमें एक था। हमने बाद में कहा कि हम दलित हैँ, दलित होने का हमें गर्व भी था। जैसे ब्लैक लोग अमेरिका में क्या बोलते हैं कि वी हैव प्राउड ऑफ द वीइंग ब्लैक। (हमें काला होने पर गर्व है) मगर, हम दलित कब तक रहेंगे? तुम्हारे गुलाम कब तक रहेंगे? आज दलित हैं, क्योंकि आपने हमारे साथ अन्याय किया। हमें दलित आपने बनाया। आप चाहते हैं कि हम दलित रहें, मगर अब हम नहीं चाहते कि हम दलित रहें। अब हम दलित नहीं रहना चाहते। मगर, आप चाहते हैं कि हम हमेशा दलित रहें। इसीलिए अभी हमने दलित साहित्य की जगह आंबेडकर साहित्य किया।
अनिल कुमार : अभी?
जे.वी. पवार : हां, अभी।
अनिल वर्गीज : मतलब, कहीं न कहीं आप भी दलित शब्द से खुश नहीं हैं?
जे.वी. पवार : एक स्टेप हमने आगे लिया है; हम कल दलित जरूर थे। उसका हमें गर्व था । मगर हम कब तक दलित रहेंगे? कब तक गुलाम रहेंगे? अब हम दलित रहना नहीं चाहते। तो इसलिए आज हमारा साहित्य कौन-सा है? आज हमारा साहित्य आंबेडकर साहित्य है। तो कल ऐसा होगा कि बड़ी तादाद में दलित समाज की बजाय आंबेडकर समाज होगा। यह मेरा सपना है कि चाहे तो चेन्नई का दलित हो या पंजाब का दलित हो; वहां का कोई भी दलित हो, जैसा आज वह दलित साहित्य मानता है, वह आज क्या सोचता है कि वह दलित समाज से है। कल वह सोचेगा कि वह दलित नहीं, आंबेडकरवादी है।
प्रमोद रंजन : तो कहीं न कहीं आपको लगता है कि दलित शब्द प्राउडनेस फील नहीं कराता है?
जे.वी. पवार : हां।
अनिल कुमार. :अच्छा कुछ लोग कह रहे थे कि महाराष्ट्र में जो ब्राह्मण कम्यूनिटी है, वह कहीं न कहीं आज दलित समाज से सिम्पैथी रखती है। क्या आपको लगता है कि इसमें कोई सच्चाई है?
जे.वी. पवार : नहीं, नहीं; देखो कई लेखक प्रोग्रेसिव होते हैं; लेखक तो प्रोग्रामी (कार्यक्रमी) होते हैं। लेखक तो लिख देते हैं। कई ब्राह्मण लोग हमारे साथ भी थे, दलित पैंथर के समय में हमारा साथ भी दिया था कई ने। पर वे हमेशा हमारे साथ नहीं रह सकते। क्योंकि, जब उनको लगता है कि यह हमारे धर्म के विरोध में हैं, तो हमसे वे लोग विदा हो जाते हैं। हम जब तक धर्म के बारे में नहीं बोलते, वे साथ रहते हैं। बाबा साहब ने एक धर्म छोड़ दिया, दूसरा धर्म अपना लिया; तो जब भी हम उनके धर्म के खिलाफ अगर बोले, तो वे हमें छोड़ देते हैं। तो वे हमेशा तो हमारे साथ रहेंगे, ऐसी कोई बात नहीं है।
प्रमोद रंजन : क्या दलित पैंथर के लोगों ने बौद्ध धर्म स्वीकार किया था?
जे.वी. पवार : अब दलित पैंथर के लोगों में एक कौम तो थी नहीं। जो महार जाति के लोग थे उन्होंने स्वीकार किया।
प्रमेाद रंजन : क्या दलित पैंथर्स के लीडर्स ने किया?
जे.वी. पवार : हां, मैं स्वयं बुद्धिज्म ऑफ इंडिया का सेक्रेटरी था।
प्रमोद रंजन : ढसाल साहब ने?
जे.वी. पवार : ढसाल बुद्धिस्ट था। वह मार्क्सवादी था, परंतु बुद्धिस्ट था। ढसाल के अलावा दलित पैंथर्स के अन्य सभी जो चार-पांच लोग थे, बुद्धिस्ट थे।
अनिल कुमार : अभी आप भारतीय बहुजन महासंघ में हैं। तो इस पार्टी का क्या उद्देश्य है?
जे.वी. पवार : वही उद्देश्य है, जो दलित पैंथर का था; दलितों पर होने वाले अत्याचार और उनके हितों की रक्षा के लिए आवाज उठाना सब वैसे ही है।
अनिल वर्गीज : यह राजनीतिक पार्टी है या सामाजिक संगठन?
जे.वी. पवार : यह पूरी तरह राजनीतिक पार्टी है।
अनिल वर्गीज : तो आप चुनाव लड़ेंगे?
जे.वी. पवार : हां, चुनाव लड़ूंगा। हमारे लोग विघानसभा और पार्लियामेंट में जाते रहते हैं।
अनिल कुमार : अगर आप सत्ता में आ जाएंगे, तो क्या करेंगे?
जे.वी. पवार : आज की जो सामाजिक संरचना और व्यवस्थागत समस्यायएं हैं, इन्हें बदलने के लिए हम खुद प्रोग्राम दे देंगे।
अनिल कुमार : आप महाराष्ट्र के बाहर के लोगों को संदेश देना चाहेंगे, इस बारे में?
जे.वी. पवार : मुझे जब भी मौका मिलता है, तो करता रहता हूं। जैसे मैं आंध्र प्रदेश में कई बार होकर आया हूं। वहां लोगों में कई बार जाकर आया हूं। तो हमारा जो उद्देश्य है, हमारा विचार है, उसके साथ लोग हैं। वहां तो मेरी कविता के प्रशंसक हैं; मैं बहुत ज्यादा प्रसिद्ध हूं। बहुत सारे लोग तो मुझे स्वीकारते हैं। लेकिन मैं जरूर कहूंगा कि हमारे लक्ष्यों की पूर्ति एकदम से तो नहीं होने वाली है। यह पांच-दस वर्ष में भी नहीं होने वाला है। अभी तो यह शुरू हुआ है। हमारी अगली पीढ़ी जब बाबा साहब को पढ़ेगी, जे.वी. पवार को पढ़ेगी, नामदेव ढसाल को पढ़ेगी; तो आते-आते, आते-आते मतलब धीरे-धीरे हो जाएगा। सामाजिक विसंगतियां इतनी अधिक हैं और यह हजारों साल का परिणाम है; तो यह थोड़े ही पांच-दस साल में खत्म हो जाएगा। अभी तो हमने केवल टक्कर देना शुरू किया है। एक-एक पत्थर निकालना शुरू किया है, एक-एक नींव हिलानी शुरू की है। आज नहीं, तो कल यह सामंती वर्चस्व का जो किला है, गिर जाएगा। फिर कुछ नया कंस्ट्रक्शन होगा। वी आर डिस्ट्राइंग दिस फार द न्यू कंस्ट्रक्शन। (हम नए समाज के निर्माण के लिए सदियों से थोपी गयीं प्रथाओं और जातिगत भेदभाव को खत्म कर रहे हैं।)
प्रमोद रंजन : आप दूसरे राज्यों में जाते हैं। यह जानकर अच्छा लगा। अभी तक जितने दलित आंदोलन हुए हैं, पिछड़े वर्गों के आंदोलन हुए हैं, आंबेडकरवादी आंदोलन हुए हैं; यह देखा गया है कि इन आंदोलनों के नेता अपने राज्य के बाहर के लोगों को एड्रेस नहीं करते। तो इसका क्या कारण आप देखते हैं?
जे.वी. पवार : अभी तो राज्य की कोई बाउंड्री ऐसी नहीं है। जैसे अभी रोहित बेमूला के मामले में हुआ। पूरे देश से आवाज उठी। वह महाराष्ट्र हो या गुजरात हो। पूरा देश हमने रोहित के मामले में एक किया।
अनिल कुमार : लेकिन, यह तो स्पांटेनियस (स्वत: स्फूर्त) हुआ।
जे.वी. पवार : शुरू में तो स्पांटेनियस ही होता है। बाद में एक विचारधारा के तरीके से उसमें सब होता है। जो कि रोहित बेमूला के मामले में हो रहा है। मैं आपको बता रहा हूं कि रोहित के मामले के बाद, कर्नाटक, तमिलनाडु, आंध्र प्रदेश और, पंजाब आदि राज्यों में हमारे विचार संप्रेषित हो रहे हैं। वहां के विद्यार्थी इधर आते रहते हैं। वे समझना चाहते हैं कि आंबेडकर क्या हैं? बुद्धिज्म को समझना चाहते हैं। आज की तारीख में महाराष्ट्र के लोग, हम लोग उनका बौद्धिक नेतृत्व कर रहे हैं। राजनीति में भी कर रहे हैं; समाजसेवा भी कर रहे हैं। हम यह नहीं चाहते कि हमारा नेतृत्व हमेशा रहे। हम यह चाहते हैं कि इस देश में कैडर बने और वहां से सामाजिक-, राजनीतिक नेतृत्व उभरकर सामने आए।
अनिल कुमार : अच्छा, आपका जो सिंबल था वो ब्लैक पैंथर्स का था, जो अमेरिका में था। वहां जो पैंथर्स बने, क्योंकि वहां जो भेदभाव था, वो ब्लैक–व्हाइट में था। लेकिन, यहां तो हर जाति में ब्लैक हैं, हर जाति में व्हाइट हैं। तो ऐसे में आपने अपनी पुस्तक में ब्लैक सिंबल लिया, इसके पीछे क्या कारण था? क्योंकि, यहां आपसे कोई ब्लैक होने से भेदभाव नहीं करेगा, यहां जाति के हिसाब से भेदभाव होता है।
जे.वी. पवार : नहीं, ब्लैक होने से भेदभाव नहीं है। आपको देखकर एकदम से मालूम नहीं पड़ेगा कि आप कौन-सी जाति के हैं। मगर आप ब्लैक हैं, फिर भी ब्राह्मण हैं। तो आपकी ब्राह्मणगीरी बाद में दिखेगी। तो उसके विरोध में हम लिखते रहते हैं। वहां (यूएस में) तो रंगभेद का सवाल ही नहीं, वो (वहां के ब्लैक-व्हाइट लोग) दिखते ही थे; वो तो बाल से, चेहरे से, नाक से, सबसे दिखेंगे। यहां तो दिखने वाला नहीं है। यहां तो ज्यादा समस्या तब है कि मैं आपके साथ बातें करूंगा, ब्राह्मण को गाली दे दूंगा; बाद में मालूम चलेगा कि अरे यह तो ब्राह्मण ही था। तो यहां तो ज्यादा समस्याएं हैं भाई। वहां इतनी समस्या नहीं है। वहां ब्लैक है, तो ब्लैक है; व्हाइट है, तो व्हाइट है। यहां ऐसा नहीं था। यहां इसीलिए तो ज्यादा सजग रहना पड़ता था। यहां हम सजग रहते थे। फिर हमारे साथ बहुत ब्राह्मण थे, जहां तक हमारे साथ चलना था, चले। उनको बाद में पांव दुखने लगे, घर में बैठे। हम बोलते थे कि चलना चाहते हो, तो चलो; नहीं चलना चाहते हो, तो घर में जाओ।
अनिल कुमार : आपने एक बार बोला था कि आप पहले सक्रिय राजनीति करना नहीं चाहते थे; अभी आप एक पूरी तरह राजनीतिक पार्टी में सक्रिय हो। कैसे आपने यह मन बनाया?
जे.वी. पवार : हां, हां; क्योंकि, हमारा जो समाज है। वह समाज, जैसे हमारी सब इंद्रियां है; नाक इंद्री है, आंख इंद्री है; तो जो इंद्रियां हैं न हमारी, तो हमारे समाज में सबसे पॉवरफुल अगर कोई इंद्री होगी, तो राजनीति होगी। राजनीति के सिवाय कोई दूसरी पॉवरफुल इंद्री नहीं होती। सामाजिक स्तर या प्रगति के लिए अब कोई प्रमुखता नहीं दे रहा। अगर आप सांसद हो गए, मंत्री हो गए; तो इसको प्रमुखता दी जाती है। मेरी तो बात अलग है, मैं तो अभी मंत्री होने वाला नहीं हूं। हो भी नहीं सकता, क्योंकि मुझे चाहिए भी नहीं; वो मेरा समय चला गया। जैसे कि मेरे साथ मेरा असिस्टेंट रामदास आठवले, आज मेरे से ज्यादा महत्व उसको मिलता है; वह मेरा शिष्य था। आज पूरे भारत में जे.वी. पवार को लोग नहीं पहचानते; मगर आठवले को पहचानते हैं। क्यों? क्योंकि, वह राजनीति में है। तो जो लाइम लाइट रहती है; राजनीति में होती है। तो खुद को लाइम लाइट में लाने के बजाय मैंने , एक आदमी को नहीं, सभी आदमी को लाइट में लाने का विचार किया। इसलिए मैंने विचार किया कि अभी बाबा साहब ने या फिर उनके पहले फुले आदि सभी ने लाइम लाइट में रहे बगैर काम किया। समाज के लिए काम किया।
अनिल वर्गीज : आपने राजनीति में आने का निर्णय कब लिया?
जे.वी. पवार : यह 15-20 वर्ष से।
अनिल वर्गीज : अभी जो आपकी पार्टी है, बहुजन महासंघ, यह क्या कर रही है? कुछ उसके बारे में बताइए, ताकि लोग महाराष्ट्र के बारे में भी जान सकें।
जे.वी. पवार : जो क्षेत्रवदोस हैं, लैंडलैस (भूमिहीन) हैं, उनके लिए भी काम करते हैं। श्रमिकों के लिए भी करते हैं। बाजार भाव के लिए भी हम लड़ते रहते हैं। उसमें केवल दलित नहीं होते, मजदूर होते हैं। अभी कितने लोगों को समस्या हो गई, अंडों का भाव बहुत बढ़ गया था, उसके लिए भी हम लड़े। हम हर प्रकार के अन्याय-अत्याचार के लिए लड़ते हैं। बाबा साहब की जो पार्टी थी, शेड्यूल कास्ट फेडरेशन, उस सबके लिए काम करते हैं हम।
अनिल कुमार : अच्छा, सर आपने जो साहित्य लिखा है मराठी में, उसे आप जितना जल्दी हो सके, हिंदी–इंग्लिश में करवाइए, ताकि महाराष्ट्र के बाहर के जो लोग हैं, वे जानें महाराष्ट्र के बारे में।
जे.वी. प. : आप लोगों ने मदद की, तो हो सकता है कि प्रकाशित हो जाए।
अनिल कुमार : नहीं, तो फारवर्ड प्रेस के प्रबंध संपादक प्रमोद रंजन जी ने तो कहा कि वह छापने को तैयार हैं।
जे.वी. पवार : नहीं, जो हमारे अनुवाद करने वाले लोग होते हैं, वे मराठी से अनुवाद मराठी के हिसाब से करते हैं। तो अनुवाद सही होना चाहिए न!
प्रमोद रंजन : पहले भी हमारे अनेक बुद्धिजीवी राजनीति और सरकार में रहे हैं। स्वयं आंबेडकर श्रम मंत्री रहे, कानून मंत्री रहे; लेकिन उनके साथ बहुत सारे लोग मंत्री रहे, हम तो उन सबको नहीं जानते हैं। अगर मंत्री होने से लोग जानते, तो बहुत सारे लोग मंत्री रहे। आंबेडकर को ऐसा नहीं है कि मंत्री होने से लोग जानते हैं, उनके काम से उन्हें लोग जानते हैं। मेरे विचार में बौद्धिक काम सक्रिय राजनीति से अधिक महत्वपूर्ण है।
जे.वी. पवार : सही बात है। बाबा साहब मंत्री थे, इसके लिए उनका महत्व नहीं है। बाबा साहब ने इस देश में समाज एकता के बारे में जो काम किया, और जो किताबें लिखीं, उनकी एनिहिलेशन ऑफ कास्ट हुई, और भी…, इससे बाबा साहब जाने जाते हैं। आज देखो, एक-एक सरकार के कार्यकाल में सौ-सौ मंत्री होते हैं, कितनों को लोग जानते हैं। आज कोई समाज में उनका खयाल भी नहीं रखता। आज देखो हमारे इधर जितने भी मुख्यमंत्री हुए, सब उनको भूल गए। वे चाहें वीपी नायक हों, कोई हों। अभी फिलहाल में जो काम करता है, वह जाना जाता है। राजनीति में मैं आज की बात कर रहा हूं। कल की बात मत करो, परसों की भी बात मत करो; तो इसलिए आठवले को लोग जानते हैं। बाकी लोग इतने पॉवरफुल नहीं हैं, यह मेरा कहना था। मैंने तो बहुत कुछ काम किया है इस समाज के लिए, लोग मुझे नहीं जानते इतना। चार लोग तुम्हारे जैसे जानते हैं। पब्लिक थोड़े ही जानती है मुझे। रास्ते में बैग लेकर निकल जाऊंगा, तो कोई यह थोड़े ही कहेगा यह जे.वी. पवार है।
प्रमोद रंजन : बाबा साहब लगातार चुनाव हारे, जगजीवन राम जीतते रहे। लेकिन आज इतिहास में कौन है?
जे.वी. पवार : हां, वही; आज सक्रिय राजनीति वाले जिन लोगों को महत्वपूर्ण माना जाता है, 50 साल में उनमें से अधिकांश भुला दिए जाएंगे।
अनिल कुमार : खैर, इतिहास में तो पवार साहब की भी जगह रहेगी।
जे.वी. पवार : (मुस्कुराते हुए…) ऐसा नहीं है।
(संपादन : नवल, लिप्यांतर : प्रेम बरेलवी)
सन्दर्भ :
[1] भारतीय रिपब्लिकन पक्ष
[2] ब्लैक पैंथर नामक एक राजनीतिक संगठन अमेरिकी प्रांत कैलिफोर्निया के ऑकलैंड में वर्ष 1966 में अस्तित्व में आया। अफ्रीकी-अमेरिकन्स द्वारा अपने हक-हुकूम के लिए बनाए गए इस संगठन की स्थापना बॉबी सिलऔर ह्यूई न्यूटन ने किया था।
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