[जून, 2017 में किन्नौर, लाहौल और स्पीति की यात्रा के दौरान किन्नौर जिले के सुदूर गांव कानम के एक गोम्पा में सुमार नाम की जोमो मिलीं। जोमो यानी बौद्ध भिक्षुणी। मध्य हिमालय की अपूर्व शांति से भरी उस घाटी में सहज वात्सल्य से भरीं 56 वर्षीय सुमार के साथ कुछ घंटे बिताना एक अनूठा अनुभव था। भावना के तल पर हम एक–दूसरे तक बखूबी संप्रेषित हो पा रहे थे; लेकिन इन दुनियावी प्रश्नों के उत्तर पाने में हिंदी भाषा का तिब्बती लहजे में उच्चारण एक बड़ी बाधा थी। मैंने उनसे जानना चाहा कि जोमो बनने की प्रक्रिया क्या है? परंपराएं और आज के संदर्भ में उनकी स्थिति क्या है? उनसे हुई बातचीत को मैंने अपने मोबाइल–कैमरे में रिकॉर्ड किया था। अबूझ उच्चारण वाली हिंदी को पकड़ने के लिए साथी प्रेम बरेलवी व नवल किशोर कुमार ने रिकार्डिंग को बार–बार सुनकर यहां लिप्यांतरित किया है।]
किन्नौर के कानम गांव में जोमो सुमार से प्रमोद रंजन की बातचीत
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प्रमोद रंजन
प्रमेाद रंजन : क्या नाम है आपका?
जोमो : सुमार।
प्र. रं. : आप कहां की रहने वाली थीं?
जोमो : मैं इसी गांव [कानम] की रहने वाली हूं। यहां जितनी जोमो हैं, वे सब इसी गांव की हैं।
प्र. रं. : यहां इस समय कौन हैं हेड? आप ही हैं?
जोमो : यहां हेड तो है; लेकिन अभी यहां नहीं है। इस कारण अभी इस गांव के गोम्पा की हेड फिलहाल मैं ही हूं।
प्र. रं. : आप पुजारी हैं?
जोमो : हां, मैं हूं।
प्र. रं. : क्या आप लोग अपने घर भी जाती हैं, या यहीं रहती हैं?
जोमो : आजकल तो हमारे गांव में काफी गर्मी है। घर में भी बैठती (जाती) हैं; कभी–कभी पूजा आदि में। सर्दी में तो हम सब इकट्ठी यहां ही मिलती हैं। अभी महीने में एक बार यहां पूजा होती है, उस समय सभी यहां इकट्ठी होती हैं।
प्र. रं. : मतलब घर जा सकती हैं, घर जाने में कोई रोक नहीं है?
जोमो : रोक नहीं है। घर जाने में रोक नहीं है। कई मंदिरों में है रोक। कई मंदिरों में (सामूहिक) स्टोव है, खाना–पीना सब कुछ वहीं है; वहां तो घर जाना भी मना है। हमारे यहां स्टोव भी नहीं है, कुछ नहीं है। इसलिए अपना–अपना खाना बनाना पड़ता है। राशन–पानी सब कुछ अपने घर से लाना पड़ता है। इसलिए घर भी कभी–कभी जा सकते हैं।
प्र. रं. : तो अभी कितनी जोमो हैं यहां पर?
जोमो : यहां 30–40 हैं। अभी आधी लद्दाख में रहती हैं। जो छोटी लोग [कम उम्र की जोमो] उसके मीडियम जो बीच वाली हैं, वो धर्मशाला में रहती हैं। मेरी उम्र की कुछ लोग [जोमो, यहां हैं। सात–आठ यहां हैं।
प्र. रं. : सात–आठ हैं?
जोमो : हां, सात–आठ हैं। बाकी सब बाहर हैं।
प्र. रं. : नई लड़कियां भी जोमो बन रही हैं या कम हुआ है पहले से?
जोमो : अभी तो नई जोमो कम ही बन रही हैं। अभी जो जोमो हैं, वे 14–15 से 60 साल की हैंं।
प्र. रं. : 15 साल की उम्र से लेकर 60 साल की उम्र तक?
जोमो : अभी जो यहां इस मंदिर में रहती हैं, वो 15 साल से लेकर 60 साल की हैं।
प्र. रं. : मतलब अभी नई लड़कियां बन रही हैं जोमो?
जोमो : हां, अभी बन रही हैं।
प्र. रं. : ऐसी क्या बात है, जो लड़कियों को या लड़कों को जोमो या लामा बनने के लिए प्रेरित करती है?
जोमो : नहीं, नहीं; कुछ नहीं। यहां कम्पलसरी नहीं है जोमो बनना। गांव का नियम भी नहीं है। खुद समझकर वो बनती हैं। कोई मां–बाप भी नहीं कहते कि उनकी बेटी जोमो बने। बनना चाहे तो विरोध भी नहीं। सब अपने हिसाब से तय करती हैं।
कोई समझदार हो, तो वह सोचती है कि सांसारिक जीवन में कितनी कठिनाइयां है; फिर कुछ पूजा–पाठ करने का भी टाइम नहीं मिलेगा। वे कृषि–जीवन त्यागना चाहती हैंय इसलिए जोमो बनती हैं। कई बच्चियां भी बनती हैं। मुझे भी जोमो बनना है, बोल के। कोई जबरदस्ती नहीं है। मां–बाप भी जबरदस्ती नहीं करते हैं। यहां गांव में भी जबरदस्ती नहीं है; अपनी मर्जी से बनती हैं।
[28/09, 18:29] Lucky Bhai (Kinnaur): कि,,,,,फा/ ग्येसुलफा
[28/09, 18:30] Lucky Bhai (Kinnaur): झिनोमा/ ग्योलोङमा
[28/09, 18:32] Lucky Bhai (Kinnaur): रछुकमा/रबजुङमा
[28/09, 18:35] Lucky Bhai (Kinnaur): केसलफा/ग्येसुलमा
प्र. रं. : जोमो बनने की प्रक्रिया क्या है? क्या इसके लिए कोई नियम या परंपरा है?
जोमो : प्रारंभ में जो लड़कियां जोमो बनती हैं, उन्हें अपने बाल कटवाने पड़ते हैं। उन्हें रबजुङमा बोलते हैं। शुरुआत में पांच शीलों [नियमों] का पालन करना होता है। लड़कियां जो जोमो बनती हैं, उन्हें गेञेगमा तथा लड़कों को गेञन भी कहते हैं। इसके बाद 36 शीलों [नियमों का पालन करना होता है। जो बौद्ध भिक्षुणी ऐसा करती हैं, उनको ग्येसुलमा बोलते हैं। जबकि पुरुष बौद्ध भिक्षु को लड़के को ग्येसुलफा बोलते हैं। इसके लिए किसी बौद्ध भिक्षु से ज्ञानादि लेने के बाद दलाई लामा से शिक्षा लेनी होती है। लामा [पुरुष बौद्ध भिक्षु, को गेलङ बोलते हैं और जोमो को ग्लेयोंङमा बोलते हैं। फिर बारी आती है 364 शीलों/नियमों का पालन करने की। ये नियम भारत में नहीं हैं। (कुछ अन्य स्थानीय लोगों के अनुसार बौद्ध भिक्षुणियों के लिए 311 शील और बौद्ध भिक्षुओं के लिए 227 शील होते हैं – प्र. रं.)
प्र. रं. : 364?
जोमो : हां, 364 नियमों का पालन करना होता है।
प्र. रं. : भारत में नहीं हैं अभी?
जोमो : 364 नियमों का पालन करने, वाला? वो नहीं है, कोई नहीं है। अभी दलाई लामा जी हम लोगों को ज्ञान देते भी नहीं हैं। बहुत कठिन है उसको [नियमों का] पालन करना। जैसे हम लोगों को पेंटिंग बनाना, सीखना आदि मना है। और जैसे हम लोगों को गीत गाना मना है; फोन खरीदना मना है; यह (चेहरे पर हाथ घुमाते हुए) [मेकअप] वगैरह सब मना है; डांस करना मना है। बाकी जैसे चोरी आदि नहीं करना तो है ही। बहुत सारे नियम हैं। लेकिन, 364 नियमों का पालन बहुत कठिन है। जैसे हमें सामान्य तरीके से रास्ते पर चलने की भी मनाही होती है। बस में जाने को भी मना है। क्योंकि, बस में चढ़ते हैं, तो सीट पर (हाथ से हाथ पर इशारा करते हुए) कोई लड़का छुएगा, तो वो मना है। देखिए, तो गेलङमा को बहुत कठिनाई है [कठिन नियमों का पालन करना होता है]।
प्र. रं. : विदेशों में कोई है? बाहर कोई है, इंडिया से?
जोमो : हां, विदेशों में है, ऐसा बोलते हैं। दलाई लामा ऐसा बोलते हैं कि विदेशों में है। सभी 364 नियमों को पालन करने वाली जोमो। गेलङमा भिक्षुणी यहां नहीं है; भारत में नहीं है। मगर बाहर के देश में गेलङमा है। वहां से परंपरा आनी चाहिए। जैसे हमारे गुरु हैं, जिन्होंने हमें ज्ञान दियाय शिक्षा दी। वैसे ही हम लोग भी चेला [शिष्य] बनाते हैं। दलाई लामा जी खुद केवल देखकर बता सकते हैं कि कौन, कहां से है और क्या वह गेलङमा [364 नियमों का पालन करने वाली] है या नहीं। (आंख की ओर इशारा करते हुए) नजरों से देख सकते हैं कि कौन गेलङमा है। हम लोगों को [हमारी भाषा में, भिक्षुणी नहीं बोलते हैं। हम लोगों को तो शम्मेरी बोलते हैं।
प्र. रं. : शम्मेरी?
जोमो : हां, शम्मेरी बोलते हैं हिंदी में। वह भिक्षुणी, जो 364 [नियमों का पालन करती है] उनको शम्मेरी बोलते हैं। जैसे हमें जोमो [बौद्ध भिक्षुणी] ही बोलते हैं; उधर जो लड़की बोलते हैं न! उसी तरह लड़कियों से अलग जोमो बन गई, तो जोमो ही बोलते हैं।
प्र. रं. : आप किस उम्र में गई थीं दलाई लामा के पास, दीक्षा लेने के लिए?
जोमो : जब 27 साल की थी। अभी तो मेरी उम्र मैं 56 साल है। 27 साल की उम्र में दलाई लामा के पास गई। फिर उस समय यह सब वस्त्र बदल के, यह तो ऐसे ही है। फिर दलाई लामा के पास हमें ले जाया जाता है।
प्र. रं. : कहां, कौन ले जाता है?
जोमो : ग्रुप में जाना पड़ता है। ग्रुप में जाते हैं।
प्र. रं. : दलाई लामा के पास क्या करना पड़ता है?
जोमो : रसीद लेकर, फिर सब मंदिर में पूजा–पाठ करके पूरा जीवन मंदिर में ही रहते हैं।
प्र. रं. : दलाई लामा जी से मिलने, धर्मशाला?
जोमो : हां जी; हां जी।
प्र. रं. : और आप आजीवन अविवाहित रहेंगी?
जोमो : हां जी; हां जी। सिवाय पूजा–पाठ के कुछ भी नहीं करना पड़ता। शादी भी नहीं। कोई एकाध कर ले तो उसे अपना सम्मान [जोमो होने का सम्मान] छोड़ना पड़ता है। दलाई लामा जी से वादा करने के बाद [दीक्षा लेने के बाद] ऐसा [शादी–प्रेम] तो नहीं करना पड़ता है।
प्र. रं. : बुद्ध का कुछ साहित्य मैंने पढ़ा है; उसमें कुछ गीत भी हैं कि जो बौद्ध भिक्षुणियों ने बनाए थे, तो और भी कई जानकारियां इसमें मिलती हैं कि बुद्ध ने कहा था, जो बौद्ध भिक्षुणियां हैं, उनको जो पुरुष भिक्षु हैं, उनको नमस्ते करनी पड़ेगी। यानी उनके सामने वे दोयम दर्जे की रहेंगी। मतलब पुरुषों को पहला दर्जा प्राप्त होगा और महिलाओं को दूसरा। ऐसा है क्या?
जोमो : ऐसा कहीं होगा। यहां, हमारे यहां तो नहीं है इतना भेदभाव।
प्र. रं. : जितने अधिकार पुरुषों को हैं, उतने आप लोगों को हैं?
जोमो : हां, उतना है।
प्र. रं. : मंदिर में, हर जगह?
जोमो : हां, मंदिर में है। मान लें हेड जो है, पुरुष रहते हैं; वहां उनके अंडर [अधीन] में रहना पड़ता है। जैसे यहां महिलाओं का मंदिर है; यहां हम लोगों का अधिकार है। यहां पूरा हमारे लोगों के ऊपर है। किसी के अधीन में रहने की जरूरत नहीं है। पर, कहीं पर पुरुष और महिला दोनों साथ में पूजा करने को जाते हैं, वहां फिर हेड लामा है; उसके अधीन रहना पड़ता है।
प्र. रं. : उनके अधीन रहना पड़ता है?
जोमो : हां, उनका कहना मानना पड़ता है।
प्र. रं. : तो ऐसी जगहों पर जाना पड़ता होगा?
जोमो : कहीं–कहीं दोनों [भिक्षुणियों और भिक्षुओं] को मिलकर पूजा करनी पड़ती है। कहीं भिक्षुणी का मंदिर नहीं होगा, तो अपने–अपने गांव में बैठना पड़ता है। अपने–अपने गांव में बैठकर पूजा करने के बाद लामाओं [बौद्ध भिक्षुओं, के मंदिर में जाना पड़ता है। उस समय भी उसके अधीन में बैठना पड़ता है। क्योंकि, वहां भिक्षुणियों का मंदिर नहीं होता है। जिस गांव में भिक्षुणी का मंदिर होगा, तो उसमें पूजा करेंगे, उनके [बौद्ध लामाओं के] अधीन में बैठने की जरूरत नहीं है।
प्र. रं. : तो उनके अधीन रहने पर क्या–क्या आदेश मानने पड़ते हैं?
जोमो : उनके अधीन रहने पर जैसा दलाई लामा जी ने कहा है, उनके अनुसार करना पड़ता है।
प्र. रं. : मतलब पहले पूजा वो करेंगे, ऐसा कुछ है?
जोमो : हां, पूजा। जैसे सुबह 9 बजे, 9:30 बजे पूजा में जाना पड़ता है। पूजा में जाने के बाद हेड लामा बैठते हैं। हम भी गांव में जाते हैं कभी, गांव में जाते समय हेड लामा के अंडर में बैठना पड़ता है। पूजा करते समय हेड लामा ऊपर बैठते हैं। हम लोग हेड लामा को नमस्कार करके बैठते हैं। फिर चाहे लामा हो या, जोमो हो।
प्र. रं. : अच्छा, इनका खर्च कैसे चलता है गोम्पाओं का?
जोमो : गोम्पाओं का खर्च तो इतना नहीं है।
प्र. रं. : गांव वाले ही डोनेट करते होंगे?
जोमो : हां, गांव वाले सब पूजा–पाठ में देते हैं। यहां जैसे हम लोग पूजा करते हैं, उस समय आकर गांव से खाना खिलाते हैं।
प्र. रं. : अपने बगीचे वगैरह भी होते हैं गोम्पा के?
जोमो : गोम्पा का बगीचा तो नहीं हैं। पहले–पहले तो था, अभी नहीं है।
प्र. रं. : इनकी बिल्डिंग बनाने में खर्च लगता होगा, वो?
जोमो : हां, बिल्डिंग बनाने में तो हम लोग गवर्नमेंट से मांगकर लाते हैं। जैसे हिमाचल गवर्नमेंट, सेंट्रल गवर्नमेंट से मांग–मांगकर बना लेते हैं।
प्र. रं. : जैसे यह बिल्डिंग नई लग रही है, इसके लिए सरकार ने दिया था पैसा?
जोमो : हां, हमने गवर्नमेंट से मांग–मांगकर यह बनाई है।
प्र. रं. : बाकी सारा खर्च जो पूजा–पाठ में मिलता है, उसी से चलता है?
जोमो : हां, जो पूजा–पाठ में मिलता है; जो जिस दिन पूजा करेगा, उस दिन पूजा–पाठ में मिलता है। बाकी अपने घर से खर्च करती हैं जोमो लोग।
(कॉपी संपादन व लिप्यांतरण : नवल / प्रेम / इनपुट : जीता सिंह नेगी / लकी नेगी)
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