[सर्वोच्च न्यायालय के अधिवक्ता चर्चित लेखक अरविंद जैन की किताब ‘औरत होने की सजा’ को हिंदी के वैचारिक लेखन में क्लासिक का दर्जा प्राप्त है। यह किताब भारतीय समाज व कानून की नजर में महिलाओं की दोयम दर्जे को सामने लाती है। इसका पहला प्रकाशन ‘विकास पेपरबैक’, नई दिल्ली से 1994 में हुआ था। 1996 में इसे राजकमल प्रकाशन ने प्रकाशित किया। अब तक इसके 25 संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। स्त्रीवाद व स्त्री अधिकारों से संबंधी अध्ययन के लिए यह एक आवश्यक संदर्भ ग्रंथ की तरह है। हम अपने पाठकों के लिए यहां इस किताब को हिंदी व अंग्रेजी में अध्याय-दर-अध्याय सिलसिलेवार प्रकाशित कर रहे हैं। फारवर्ड प्रेस बुक्स की ओर से हम इसे अंग्रेजी में पुस्तकाकार भी प्रकाशित करेंगे। हिंदी किताब राजकमल प्रकाशन के पास उपलब्ध है। पाठक इसे अमेजन से यहां क्लिक कर मंगवा सकते हैं।
लेखक ने फारवर्ड प्रेस के लिए इन लेखों को विशेष तौर पर परिवर्द्धित किया है तथा पिछले सालों में संबंधित कानूनों/प्रावधानों में हुए संशोधनों को भी फुटनोट्स के रूप में दर्ज कर दिया है, जिससे इनकी प्रासंगिकता आने वाले अनेक वर्षों के लिए बढ गई है।
आज पढें, इस किताब में संकलित ‘यौन हिंसा और न्याय की भाषा’ शीर्षक लेख। अरविन्द जैन द्वारा 1999 में लिखित यह विस्तृत लेख पहली बार हंस के जनवरी-फरवरी, 2000 के विशेषांक ‘अतीत होती सदी और स्त्री का भविष्य’ में प्रकाशित हुआ। उसी वर्ष इस लेख को मार्च महीने में मुंबई में दैनिक हिंदी ‘हमारा महानगर’ में सीरीज के रूप में प्रकाशित किया गया। इसका मलयालम में अनुवाद मनोरमा पत्रिका के ईयर बुक-2000 में प्रकाशित हुआ। इस लेख में उन्होंने राष्ट्रीय अपराध अभिलेख ब्यूरो के द्वारा जारी ‘क्राइम इन इंडिया-1996’ के आंकड़ों का उपयोग किया है। वर्तमान के आंकड़े ब्यूरो के आधिकारिक वेबसाइट पर उपलब्ध हैं, यहां क्लिक कर देखे जा सकते हैं। लेख में वर्णित विषयों का महत्व और अदालती पेंचोखम आज के आंकड़ों के सापेक्ष भी जस के तस हैं।]
भारत में यौन हिंसा : समाज और कानून
– अरविन्द जैन
बलात्कार के (सरकारी) आँकड़े पूर्ण रूप से अविश्वसनीय हैं क्योंकि बलात्कार की सभी दुर्घटनाएँ आँकड़ों पर पहुँचती ही नहीं। फिर भी जो आँकड़े उपलब्ध हैं, उनके आधार पर कहा जा सकता है कि इस प्रकार की दुर्घटनाएँ निरन्तर बढ़ रही हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट (1996) के अनुसार, देश भर में 1996 में 14,849 बलात्कार हुए, जबकि 1990 में यह संख्या 10,068 थी। यानी 1990 के मुकाबले 1996 में 47.5 प्रतिशत अधिक बलात्कार हुए। 1995 में बलात्कार के अपराधों की संख्या 13,774 थी, इसलिए पिछले वर्ष से 1996 में सिर्फ 7.8 प्रतिशत अधिक अपराध हुए। कहा यह भी जा सकता है कि अपराधों की ‘रिपोर्टिंग बढ़ रही है। कुछ संवेदनशाली विद्वानों का कहना है, ”अपराधों की बढ़ोतरी को जनसंख्या के अनुपात में देखें तो अपराध कहाँ बढ़ रहे हैं ? एक और तर्क (कुतर्क) यह भी दिया जाता है कि कुल अपराधों की तुलना में स्त्री के प्रति अपराध का प्रतिशत तो सिर्फ 6.8 ही है।
आँकड़ों का आतंक
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो द्वारा जारी 1996 की रिपोर्ट के पृष्ठ संख्या 88 पर तालिका 7.2 में बलात्कार के आँकड़े कहते हैं कि 1994 में 12,351, 1995 में 13,774 और 1996 में 14,849 बलात्कार हुए। लेकिन इसी रिपोर्ट के पृष्ठ संख्या 90 पर तालिका 7.4 कहती है कि 1994 में 13,218, 1995 में 13,774 और 1996 में 14,649 बलात्कार के मामले दर्ज किए गए। एक तालिका के अनुसार 1994 में 12,351 बलात्कार हुए और दूसरी के अनुसार 13,218 यानी 867 बलात्कार के मामलों का घपला है। किसे सही माना जाए और किसे गलत ? राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की 1994 वाली रिपोर्ट के पृष्ठ संख्या 212 पर 1994 में बलात्कार के अपराध का आँकड़ा 12,351 ही है। 1995 की रिपोर्ट के पृष्ठ संख्या 222 में भी 1994 में हुए बलात्कारों की संख्या 12,351 ही दिखाई गई है। लेकिन क्रमश: पृष्ठ 216 और 226 में बनाई तालिका में यह संख्या 13,218 प्रकाशित हुई है। 1994 की रिपोर्ट (पृष्ठ 212) के अनुसार 1993 में 11,242, 1992 में 11,112 बलात्कार के केस दर्ज हुए लेकिन इसी रिपोर्ट के पृष्ठ 216 पर बनी तालिका के अनुसार 1993 में 12,223 और 1992 में 11,734 बलात्कार हुए। मतलब यह है कि 1993 में 981 और 1992 में 622 बलात्कार के मामलों का घपला है। 1992 से 1996 तक कुल 2,493 बलात्कार के मामलों का यह अन्तर किसी की भी समझ से बाहर का मामला है। आँकड़ों के इस ‘घपले पर राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो ही स्थिति स्पष्ट कर सकता है। तीन सालों में आँकड़े क्या ‘भूलवश छपते रहे हैं और छपते रहेंगे ? यह मात्र एक उदाहरण है, घपले अभी और भी हैं। शेष फिर कभी।
यौन हिंसा की शिकार युवा स्त्री
1996 में हुए 14,849 बलात्कारों में से 8,281 (55.76 प्रतिशत) 16 से 30 वर्ष की महिलाओं के साथ और 3,475 (23.4 प्रतिशत) 10 से 16 वर्ष की किशोरियों के साथ हुए। दोनों को जमा करें तो मालूम होगा कि 79.16 प्रतिशत बलात्कार की शिकार स्त्रियाँ 10 से 30 वर्ष की थी। 30 वर्ष से अधिक उम्र की स्त्रियों के साथ बलात्कार के अपराध 608 (4.1 प्रतिशत) हैं। संक्षेप में, लगभग 80 प्रतिशत बलात्कार 10 से 30 वर्ष की महिलाओं के साथ और करीब 20 प्रतिशत बलात्कार 10 वर्ष से कम उम्र की बच्चियों और 30 वर्ष से अधिक उम्र की महिलाओं के साथ हुए। स्पष्ट है कि युवा स्त्रियों के साथ बलात्कार की सम्भावना सबसे अधिक रहती है।
गत वर्ष की तुलना में
हालाँकि प्रतिशत की भाषा में 10 वर्ष से कम उम्र की बच्चियों के साथ हुए बलात्कार लगभग 4 प्रतिशत ही हैं, लेकिन यह प्रतिशत लगातार बढ़ रहा है। इसलिए गम्भीर चिन्ता का विषय है।बच्चियों के बढ़ते बलात्कार को अधिक गम्भीर कहने का मतलब यह नहीं है कि शेष बलात्कारों को गम्भीर अपराध न माना जाए। 1996 में 10 वर्ष से कम उम्र की लड़कियों के साथ हुए बलात्कार का आँकड़ा 1990 से 394 से बढक़र 608 हो गया है। 1990 के मुकाबले 1996 में 54.3 प्रतिशत अधिक बलात्कार हुए मगर 1995 में हुए 747 बलात्कारों की तुलना में 18.6 प्रतिशत घट गए हैं। 1991 में आश्चर्यजनक रूप से यह संख्या पिछले वर्ष की अपेक्षा 47.12 प्रतिशत बढक़र 1,099 हो गई थी। इन दोनों ही सालों में हुई आश्चर्यजनक बढ़ोतरी या घटोतरी विश्वास योग्य नहीं लग रही। 1996 के आँकड़ों की तुलना अगर 1991 के आँकड़ों से करें तो सारे प्रतिशत उलट-पुलट हो जाते है। 10 वर्ष से कम उम्र की बच्चियों से बलात्कार में 44.3 प्रतिशत की कमी और 30 वर्ष से अधिक उम्र की महिलाओं से बलात्कार में 88 प्रतिशत वृद्धि यह असम्भव नहीं मगर…विश्वास योग्य भी नहीं। इसके विपरीत, 1996 में 30 वर्ष से अधिक उम्र की महिलाओं के साथ 2,485 बलात्कार हुए। 1995 में यह संख्या 1955 है।
कहने का अभिप्राय यह है कि 1996 में 1,995 की तुलना में बलात्कार 27.1 प्रतिशत अधिक हुए हैं। 1991 में 1990 की तुलना में जहाँ 10 वर्ष से कम उम्र की बच्चियों के साथ बलात्कार 178.9 प्रतिशत बढ़ गया था, वहीं 30 वर्ष से अधिक उम्र की महिलाओं के साथ 14.4 प्रतिशत और 16 से 30 वर्ष की महिलाओं के साथ 10.8 प्रतिशत घट गया था। 1992 में अचानक 10 वर्ष की उम्र की बच्चियों से बलात्कार 1,099 से घटकर 532 (51.5 प्रतिशत कम) हो गया लेकिन 16.30 वर्ष के वर्ग में 30 प्रतिशत और 30 वर्ष से अधिक वर्ग में 22.8 यानी 52.8 प्रतिशत बढ़ गया। अगर ये आँकड़े सचमुच विश्वनीय हैं तो इसका विस्तार से विवेचन आवश्यक है कि इन वर्षों में ऐसा होने के पीछे कौन से कारण या स्थितियाँ सक्रिय थी। कहीं यह आँकड़ों की उलटफेर ही तो नहीं है ? 1991 के आँकड़ों में कहीं कुछ गम्भीर गड़बड़ है। इसके आधार पर तो नतीजे एकदम काल्पनिक लगते हैं। क्या नहीं ?
सात सालों में हिंसा
खैर…1990 से 1996 तक हुए बलात्कार के अपराधों को देखें तो सात सालों में 86,291 बलात्कार हुए। 4,748 (5.5 प्रतिशत) 10 वर्ष से कम उम्र की बच्चियों के साथ, 20,114 (23.3 प्रतिशत) 10 से 16 वर्ष की किशोरियों के साथ, 48,918 (56.7 प्रतिशत) 16 से 30 वर्ष की महिलाओं के साथ और 12,511 (14.5 प्रतिशत) 30 वर्ष से अधिक उम्र की महिलाओं के साथ हुए। साफ दिखाई देता है कि 16 से 30 वर्ष की युवा स्त्रियाँ सबसे अधिक बलात्कार की शिकार बनी। 80 प्रतिशत बलात्कार के मामलों में महिलाओं की उम्र 10 से 30 साल है। 22.8 प्रतिशत बलात्कार के मामले सिर्फ 16 वर्ष से कम उम्र की लड़कियों के साथ हुए। उल्लेखनीय है कि 16 वर्ष से कम उम्र की लडक़ी से सहवास बलात्कार ही माना जाता है, भले ही सहमति हो।
प्रतिशत की भाषा
हालाँकि बलात्कार की शिकार अधिकांश महिलाओं की उम्र 16 से 30 साल के बीच रहती है लेकिन 1990 की तुलना में 1996 में इस वर्ग में सबसे कम 37.4 प्रतिशत बढ़ोतरी हुई है। सबसे अधिक अपराध (65.1 प्रतिशत) 10 से 16 वर्ष की किशोरियों के साथ बढ़े। 30 वर्ष से अधिक उम्र की महिलाओं के साथ 6.12 प्रतिशत और 10 वर्ष से कम उम्र की बच्चियों के साथ 54.3 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। मतलब यह है बलात्कार के मामलों में 16-30 वर्ष की स्त्रियों की संख्या सबसे अधिक रही है, परन्तु 1990 की अपेक्षा 1996 में 10-16 वर्ष की किशोरियों के साथ हुए बलात्कारों का प्रतिशत सबसे अधिक बढ़ा है। कहा जा सकता है कि इस वर्ग की लड़कियों के साथ बलात्कार की आपराधिक प्रवृत्ति बढ़ रही है। जहाँ कुल अपराधों का 1996 में प्रतिशत (1990 की तुलना में) 47.5 प्रतिशत बढ़ा है, वहाँ 10-16 वर्ष की किशोरियों के साथ बलात्कार की दुर्घटनाएँ 65.1 प्रतिशत अधिक हो गई हैं।
1990 से 1996 तक हुए बलात्कारों में 71 प्रतिशत बलात्कार 16 साल से अधिक उम्र की स्त्रियों के साथ और 29 प्रतिशत बलात्कार 16 वर्ष से कम उम्र की लड़कियों के साथ हुए हैं। 1990 में यही प्रतिशत क्रमश: 75 प्रतिशत और 25 प्रतिशत के लगभग था। अभिप्राय यह है कि पिछले सात सालों में जहाँ 4 प्रतिशत बलात्कार 16 वर्ष से कम उम्र की लड़कियों के साथ बढ़े हैं, वहीं 16 वर्ष से अधिक उम्र की स्त्रियों के साथ हुए बलात्कारों में 4 प्रतिशत की कमी हुई है। यह 4 प्रतिशत का परिवर्तन बेहद महत्त्वपूर्ण बदलाव की ओर संकेत देता है। इस बदलाव के सामाजिक-सांस्कृतिक कारणों को रेखांकित करने के लिए अपराध और संचार माध्यमों की भूमिका को भी देखना पड़ेगा
रिपोर्ट के अनुसार देश के 23 महानगरों में वर्ष 1996 के दौरान 545 बलात्कार 16 वर्ष से कम उम्र की लड़कियों के साथ, और 456 केस 16 से 30 वर्ष की स्त्रियों के साथ और 95 मामले 30 वर्ष से अधिक उम्र की महिलाओं के साथ हुए। शहरी क्षेत्रों में 16 वर्ष से कम उम्र की लड़कियों से बलात्कार अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा लगभग दो गुना है। 16 वर्ष से बड़ी उम्र की स्त्रियाँ शहरी क्षेत्रों में अन्य की तुलना में 20 प्रतिशत कम बलात्कार की शिकार हुई हैं। 1996 में हुए 14,849 बलात्कार के मामलों में से मध्य प्रदेश में 3,265 (22 प्रतिशत), उत्तर प्रदेश में 1,854 (12.5 प्रतिशत), बिहार में 1,453 (9.8 प्रतिशत), महाराष्ट्र में 1,444 (9.7 प्रतिशत), राजस्थान में 1,162 (7.8 प्रतिशत) और पश्चिम बंगाल में 855 (5.8) प्रतिशत हुए। दिल्ली में 484 (3.3 प्रतिशत) बलात्कार के केस दर्ज किए गए। जनसंख्या के अनुसार अपराध दर, सबसे अधिक मध्य प्रदेश (4.4 प्रतिशत) और दिल्ली (4.37 प्रतिशत) में रही। 1994 की अपेक्षा 1996 में जहाँ उपरोक्त राज्यों में (बिहार और दिल्ली के अलावा) बलात्कार के अपराधों में कमी आई है, वहाँ बिहार और दिल्ली के साथ-साथ केरल, हरियाणा, उड़ीसा, पंजाब, सिक्किम और त्रिपुरा में भी बलात्कार के अपराधों में बढ़ोतरी हुई है। इसके आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक कारणों की जाँच-पड़ताल अनिवार्य है।
दिल्ली और हरियाणा में भारतीय जनता पार्टी का शासन रहा है और बिहार में लालू यादव का। बिहार में 1994 में जहाँ 823 (6.7 प्रतिशत) बलात्कार रिकॉर्ड हुए थे, वहाँ 1996 में यह संख्या बढक़र 1,453 (9.8 प्रतिशत) पर पहुँच गई है। दिल्ली में 1994 में 261 (2.1 प्रतिशत) से बढक़र 1996 में 484 (3.3 प्रतिशत) वृद्धि हुई है। आश्चर्यजनक रूप से हरियाणा में भी 1994 में 198 बलात्कार का आँकड़ा बढक़र 336 पर पहुँच गया।
[फीचर इमेज : भारत में महिलाओं के खिलाफ होने वाले अत्याचार से जुड़े अद्यतन आंकड़ों के लिए यहां यहां क्लिक कर ]
इसी सन्दर्भ में थोड़ा और पीछे मुडक़र देखने पर पता चलता है कि जहाँ 1976 में 3,893 बलात्कार के मामले दर्ज हुए थे, वहाँ 1978 में यह संख्या बढक़र 4,559, 1980 में 5023, 1984 में 6,203, 1985 में 6,356 और 1988 में 6,888 हो गई थी. अगर 1976को आधार वर्ष मानें तो 1996 में 282 प्रतिशत बलात्कार हुए हैं। दिल्ली में 1985 में 88, 1986 में 97, 1987 में 104, 1988 में 127, 1989 में 161, 1990 में 196, 1991 में 214 बलात्कार बढक़र 1996 में 419 हो गए। 1985 की अपेक्षा 1996 में यह भयावह वृद्धि 376 प्रतिशत बैठती है।
सबसे आगे कौन?
16 वर्ष से कम उम्र की बच्चियों से बलात्कार के मामले में भी मध्य प्रदेश (873), उत्तर प्रदेश (535), महाराष्ट्र (453), आन्ध्र प्रदेश (269), दिल्ली (269), पश्चिम बंगाल (251) और बिहार (217) सबसे आगे रहे। उपरोक्त राज्यों में ही कुल बलात्कारों का प्रतिशत 70.7 बैठता है। 30 वर्ष से कम उम्र की महिलाओं के साथ मध्य प्रदेश (95), महाराष्ट्र (60), दिल्ली (67), उत्तर प्रदेश (49), आन्ध्र प्रदेश (48) और पंजाब में (46) बलात्कार दर्ज हुए। 16 वर्ष से कम उम्र की लड़कियों के लिए सबसे अधिक खतरनाक शहर इस देश की राजधानी दिल्ली ही है, जहाँ 1996 में 232 बलात्कार हुए। इसके बाद बम्बई में (97), बंगलौर में (24), भोपाल में (19) और पुणे में (24) मामले रिकॉर्ड किए गए। उल्लेखनीय है कि अधिकांश महानगरों में 98 प्रतिशत बलात्कार 30 वर्ष तक की महिलाओं के साथ और 2 प्रतिशत इससे बड़ी उम्र की स्त्रियों के साथ हुए। कुछ महानगरों में, जैसे—हैदराबाद, लुधियाना, मद्रास, मदुरै, सूरत, बड़ौदा में 100 प्रतिशत बलात्कार सिर्फ 30 वर्ष से कम उम्र की स्त्रियों के साथ ही हुए। बलात्कार ही नहीं, स्त्री के प्रति हिंसा और अपराध में भी दिल्ली सबसे आगे है। यहाँ अपराध 23.5 प्रतिशत है जबकि महाराष्ट्र में 14.3, मध्य प्रदेश में 12.9 और उत्तर प्रदेश में 11.8 प्रतिशत है।
अनुसूचित जाति की महिलाओं के साथ 1994 में 992, 1995 में 873 और 1996 में 949 बलात्कार हुए। इनमें से 34 प्रतिशत बलात्कार अकेले उत्तर प्रदेश में हुए। अनुसूचित जनजाति की महिलाओं के साथ 1996 में 385, 1995 में 369 और 1996 में 314 बलात्कार की दुर्घटनाएँ हुईं, जिनमें से करीब 53 प्रतिशत अकेले मध्य प्रदेश में हुई। हालाँकि हर साल यह संख्या घट रही है, लेकिन स्थिति चिन्ताजनक है। अनुसूचित जाति पर हुए अपराधों में उत्तर प्रदेश (35 प्रतिशत), राजस्थान (21 प्रतिशत) और मध्य प्रदेश (13 प्रतिशत) सबसे प्रमुख हैं। इन तीनों प्रदेशों का कुल हिस्सा ही 69 प्रतिशत बैठता है। अनुसूचित जनजातियों के विरुद्ध अपराधों में मध्य प्रदेश (29.4 प्रतिशत), राजस्थान (28 प्रतिशत), गुजरात (7.4 प्रतिशत), महाराष्ट्र (6.8 प्रतिशत) और उत्तर प्रदेश (6.7 प्रतिशत) प्रमुख हैं. जनजातियों के विरुद्ध अपराधों का करीब 78 प्रतिशत अपराध इन पाँच राज्यों में हो रहा है। राजस्थान में जनजातियों व अनुसूचित जातियों के प्रति अपराध समान रूप से जारी है। बलात्कारियों का वर्ग, वर्ण और जाति के आधार पर विवेचन उपलब्ध नहीं है।
न्याय में देर या अँधेर?
ब्यूरो रिपोर्ट के अनुसार 1995-96 में पुलिस के पास जाँच के लिए क्रमश: 18,914 और 19,963 बलात्कार के मामले आए। इनमें से सिर्फ 72-73 प्रतिशत मामलों में जाँच-पड़ताल होने के बाद सिर्फ 62-63 प्रतिशत मामले लटके पड़े रहे। दूसरी तरफ देश-भर में 1995 में 47,084 और 1996 में 51,734 बलात्कार केस सुनवाई के लिए थे. इनमें से केवल 16-17 प्रतिशत की सुनवाई हो पाई, शेष 83 प्रतिशत मामले अधर में लटके रहे. 1995 में जहाँ 5 प्रतिशत अपराधियों को सजा हुई, वहाँ 1996 में यह सजा घटकर 4.5 प्रतिशत ही रह गई. 1996 में अन्त तक बलात्कार के 43,016, अपहरण के 36,470 दहेज हत्या के 14,133, छेड़छाड़ के 72,539, यौन उत्पीडऩ के 8,656, पति व सम्बन्धियों द्वारा क्रूरता के 83,195, वेश्यावृत्ति के 4,799, दहेज के 6,175, अश्लील प्रदर्शन के 500 और सती के 3 मुकदमों का फैसला होना बाकी था। अदालतों ने 1995-96 में वेश्यावृत्ति के 60-61 प्रतिशत मामलों का फैसला सुनाते हुए करीब 53-54 प्रतिशत अपराधियों को सजा सुनाई। कहने की आवश्यकता नहीं है कि इनमें से अधिकांश अपराधी स्वयं वेश्या (स्त्री) ही रही होंगी। सती के तीनों मुकदमों में कोई फैसला नहीं हो पाया। अदालतों में सालों की देरी और कानूनी चोर दरवाजों से अधिकांश अपराधियों के साफ बच निकल जाने का परिणाम है कि स्त्री के प्रति यौन हिंसा लगातार बढ़ रही है।
घर या वधस्थल
उपरोक्त आँकड़ों के विवेचन, विश्लेषण और अध्ययन के आधार पर नि:सन्देह यह स्पष्ट होता है कि 16 वर्ष से कम उम्र की लड़कियों के साथ यौन हिंसा के अपराध लगातार बढ़ रहे हैं विशेषकर महानगरों में, अधिकांश बलात्कारी नजदीकी रिश्तेदार, पड़ोसी, दोस्त या परिचित होता है। पिता, भाई, चाचा, ताऊ, मामा वगैरह द्वारा भी बलात्कारों की संख्या में निरन्तर वृद्धि हो रही है। कम उम्र की बच्चियों की प्राय: बलात्कार के बाद हत्या कर दी जाती है या आघात से मृत्यु हो जाती है। कुछ मामलों में बलात्कार की शिकार लडक़ी सामाजिक अपमान और लज्जा के कारण आत्महत्या कर लेती है।
मीडिया की भूमिका
यह मात्र संयोग नहीं है कि जैसे-जैसे अश्लील और यौन साहित्य, फिल्म, वीडियो वगैरह बढ़े हैं, वैसे-वैसे यौन अपराध बढ़ते गए हैं। बड़ी उम्र की लड़कियों या स्त्रियों के विरोध-प्रतिरोध और शिकायत से बचने के लिए 16 वर्ष से कम उम्र की अबोध बच्चियों से बलात्कार के अपराध बढ़े हैं। इन्हें बहलाना, फुसलाना या काबू करना
अपेक्षाकृत आसान है। दूसरा कारण अक्षत योनि की आदिम आकांक्षा भी है और विक्षिप्त यौन कुंठाएँ भी। इसके अलावा किशोर उम्र के लडक़ों द्वारा कम उम्र की बच्चियों के साथ यौन अपराध की प्रवृत्ति भी लगातार बढ़ रही है। नाबालिग किशोर युवकों द्वारा कम उम्र की बच्चियों से दुष्क र्म (बलात्कार) भी हर साल बढ़ता जा रहा है। संचार माध्यमों में बढ़ा ‘सेक्स और हिंसा का प्रदर्शन, समाज में भी यौन अपराधों के बढऩे में ‘उत्प्रेरक का काम करता है। जैसे-जैसे नारी चेतना और मुक्ति के स्वर पहले से अधिक मुखर होकर सामने आए हैं वैसे-वैसे स्त्री के विरुद्ध हिंसा (यौन हिंसा) बढ़ी है। जितना विरोध और प्रतिरोध बढ़ रहा है, उससे ज्यादा यौन अपराध बढ़ रहे हैं।
यौन हिंसा का मुख्य कारण काम-पिपासा शान्त करना या मानसिक विक्षिप्तता कम, बदला लेना अधिक है। अपराधियों को सुधारवादी-उदारवादी न्याय नीति के अन्तर्गत कम सजा देने सेे ‘न्याय का लक्ष्य भले ही पूरा हो जाए मगर इस प्रकार के अपराधों को बढ़ावा ही मिलता है। दंड-भय ही न रहे तो अपराध कैसे कम (समाप्त) होंगे !कानून व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन के साथ-साथ जरूरी है सामाजिक, सांस्कृतिक और नैतिक सोच में बदलाव। बलात्कारियों का मृत्युदंड की ‘हवाई घोषणाओं से क्या होना है? यौन हिंसा के ये आँकड़े और आँकड़ों का तुलनात्मक जमा-घटा सिर्फ संकेत मात्र है। स्त्री के विरुद्ध पुरुष द्वारा की जा रही यौन हिंसा की वास्तविक स्थिति (सरकारी) आँकड़ों से कहीं अधिक विस्फोटक, भयावह और खतरनाक है।
क़ानून की भाषा
भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 375 के अनुसार बलात्कार के लिए ‘लिंगच्छेदन (पैनीटे्रशन) अनिवार्य शर्त है। किसी भी अन्य वस्तु या यंत्र से यौन शोषण या उत्पीडऩ को बलात्कार का अपराध नहीं माना जाता। स्त्री द्वारा सहमति की उम्र सोलह वर्ष तय की गई है। सोलह वर्ष से कम उम्र की लडक़ी के साथ सहवास बलात्कार होगा, भले ही उसकी सहमति हो या न हो। लेकिन इस प्रावधान में अपवाद यह है कि किसी भी पुरुष द्वारा पन्द्रह वर्ष से बड़ी उम्र की पत्नी के साथ सहवास को बलात्कार नहीं माना जाएगा। हालाँकि हिन्दू विवाह अधिनियम और बाल विवाह निरोधक अधिनियम के अनुसार विवाह के समय दुल्हन की उम्र अठारह साल से अधिक होनी चाहिए। स्त्री द्वारा सहवास के लिए सहमति की उम्र सोलह साल और विवाह के लिए अठारह साल रखी गई है। लेकिन पुरुष (पति) द्वारा सहवास (बलात्कार) के लिए लडक़ी की उम्र सीमा पन्द्रह साल काफी है। यही नहीं, अगर पत्नी की उम्र बारह साल से अधिक और पन्द्रह साल से कम हो तो पति को सजा में ‘विशेष छूट मिलेगी। दो साल कैद या जुर्माना या दोनों हो सकते हैं। जबकि अन्य बलात्कार के मामलों में यह सजा कम से कम दस साल कैद और अधिकतम उम्रकैद निर्धारित की गई है। बारह वर्ष से पन्द्रह वर्ष तक की पत्नी के साथ बलात्कार संज्ञेय अपराध नहीं और जमानत योग्य भी होगा। मतलब, पुलिस बिना मजिस्ट्रेट से वारंट लिये पति को गिरफ्तार नहीं कर सकती। और पति होने के ‘विशेषाधिकार स्वरूप जमानत पर छोडऩा पड़ेगा। पन्द्रह साल से कम उम्र की पत्नी भी बलात्कार की शिकायत सिर्फ एक साल के भीतर ही कर सकती है। उसके बाद की गई शिकायत को सुनने का किसी भी अदालत को कोई अधिकार नहीं, जबकि अन्य मामलों में ऐसी कोई समय सीमा नहीं है।
सर्वोच्च न्यायालय तक कई बार कह चुका है कि बाल विवाह भले ही दंडनीय अपराध हो लेकिन विवाह गैरकानूनी या रद्द नहीं माना जाएगा। पति अपनी पत्नी का प्राकृतिक संरक्षक है, भले ही दोनों नाबालिग हो। विवाह का पंजीकरण कानूनन अनिवार्य नहीं है, इसलिए कैसे रुकेंगे बाल विवाह ? और ऐसे कानूनी प्रावधानों से स्त्री के विरुद्ध यौन हिंसा पर कैसे काबू पाया जा सकता है ? (देखें अध्याय बाल विवाह और बलात्कार)।कानून की ‘कॉमेडी यहीं समाप्त नहीं होती। भारतीय साक्ष्य अधिनियम, में आज भी यह प्रावधान है कि गवाह की विश्वसनीयता खंडित करने के लिए ”अगर किसी व्यक्ति या पुरुष पर बलात्कार का आरोप हो तो उसे यह सिद्ध करना चाहिए कि पीडि़ता आमतौर से अनैतिक चरित्र की महिला है। (धारा 155(4)) महिला को अनैतिक चरित्र की महिला प्रमाणित करो और बाइज्जत रिहा हो जाओ। यानि कानून के इस प्रावधान के रहते हर किसी को यह कानूनी अधिकार है कि वह वेश्याओं, कॉलगर्ल या चरित्रहीन महिलाओं (भले ही नाबालिग बच्ची हो) के साथ, जब चाहे बलात्कार कर सकता है या बलात्कार करने के बाद किसी भी महिला को अनैतिक चरित्र की औरत प्रमाणित करके, मूँछों पर ताव देते हुए अदालत से बाहर आ सकता है। दूसरे, भारतीय दंड संहिता के अनुसार व्यभिचार का अपराध किसी अन्य व्यक्ति की पत्नी के साथ उसके पति की सहमति या मिलीभगत के बिना सहवास (बलात्कार नहीं) करना है। (धारा 497) आपसी सहमति से पुरुष किसी भी बालिग अविवाहित, तलाकशुदा या विधवा महिला से सम्बन्ध रख सकता है। यह कोई अपराध नहीं। परिणामस्वरूप व्यापक स्तर पर वेश्यावृत्ति और कॉलगर्ल व्यापार फैल रहा है। अनैतिक देह व्यापार नियंत्रण अधिनियम के किसी भी प्रावधान में पुरुष ग्राहक पर कोई अपराध ही नहीं बनता। अपराधी सिर्फ ‘वेश्याएँ ही होंगी।उपरोक्त कानूनी जाल-जंजाल को देखते हुए इतना ही कहा जा सकता है कि पितृसत्ता ने जानबूझकर ऐसा चक्रव्यूह रचा हुआ है कि बलात्कारी किसी-न-किसी चोर दरवाजे से भाग निकल सके।
सुसन ब्राउन मिलर के शब्दों में, ”बलात्कार, पुरुषों द्वारा औरतों को लगातार बलात्कार से भयभीत रखकर, समस्त स्त्री समाज पर पूर्ण नियंत्रण बनाए रखने का षड्यंत्र है। मिलर की स्थापना से असहमत विद्वानों का कहना है कि पुरुषों का सत्ता, सम्पत्ति, समाज और स्त्रियों पर वैसे ही पूर्ण नियंत्रण है, रहा है। इसलिए बलात्कार का भय बनाए रखने की क्या जरूरत है ? बलात्कार, पितृसत्ता का षड्यंत्र नहीं, बल्कि कुछ विकृत, विक्षिप्त और ‘स्टिरियो टाइप बीमार अपराधियों का व्यक्तिगत अपराध मात्र है। मिलर की स्थापना को सही न मानने का कोई कारण नहीं है। दुनिया भर के अधिकांश देशों में (जहाँ पितृसत्तात्मक समाज है) बलात्कार सम्बन्धी कानूनी प्रावधानों की भाषा, परिभाषा प्राय: समान है। विवाह संस्था में सहवास पति का कानूनी अधिकार है और अनैतिक चरित्र की महिलाओं के साथ बलात्कार में यह मानना स्वाभाविक है कि हो सकता है उन्होंने सहमति दी हो। कानूनी भाषा से न्यायिक परिभाषा और सामाजिक मान्यताओं या मिथ तक में सबके सब एकमत हैं। कानून बनाने से लेकर पुलिस, अदालत और संचार माध्यमों तक में स्त्री के विरुद्ध यौन हिंसा के सवाल पर पितृसत्ता की चुप्पी या तटस्थता का अर्थ (अनर्थ) इसका प्रमाण है। स्पष्ट है कि पितृसत्तात्मक समाजों में पुरुष की काम-पिपासा के लिए विवाह संस्था से लेकर वेश्यावृत्ति (देवदासी, जोगिन वगैरह) और व्यभिचार के सभी दरवाजे खुले छोड़ दिए गए हैं। पुरुष द्वारा व्यभिचार या बलात्कार की शिकार अधिकांश लड़कियों को अन्तत: वेश्यावृत्ति के व्यवसाय में ही शरण लेनी पड़ती है या पड़ेगी। वेश्यावृत्ति का व्यवसाय मूल रूप से पुरुषों के ही हित को पोषित करता है, इसलिए भी नाबालिग लड़कियों का अपहरण, बलात्कार लगातार बढ़ रहा है।
भारत में इस समय लगभग तीस लाख महिलाएँ वेश्यावृत्ति करने को विवश हैं, जिसमें (सरकारी आँकड़ों और मानव संसाधन विकास मंत्री महोदय के राज्यसभा में बयानानुसार) लगभग पन्द्रह प्रतिशत वेश्याओं की उम्र पन्द्रह साल से कम है। इसका अर्थ यह हुआ कि करीब पाँच लाख नाबालिग लड़कियों के साथ रोज बलात्कार होता है या हो रहा है। क्योंकि आपके ही कानूनानुसार सोलह वर्ष से कम उम्र की लडक़ी के साथ सहवास बलात्कार है, भले ही उसकी सहमति हो या न हो…हम जानते हैं कि आप फिर वही कानून पढ़ाने लगेंगे या कुतर्क करेंगे—”वे सब ‘भ्रष्ट और ‘अनैतिक चरित्र की औरतें हैं…’वेश्या…’कॉलगर्ल…’रंडी… ग्राहक से पैसे लिये हैं, सो ‘बलात्कार का सवाल ही नहीं उठता। है ना ! बाल वेश्याओं के यौन शोषण सम्बन्धी एक जनहित याचिका में माननीय न्यायमूर्तियों ने कहा, ”हमारे विचार से देश भर में केन्द्रीय जाँच ब्यूरो द्वारा पूछताछ या पड़ताल हो, व्यावहारिक रूप से न सम्भव है और न ही वांछित। उन्हें निर्देश देने से कोई लाभदायक उद्देश्य सिद्ध नहीं होनेवाला। यह सिर्फ सामाजिक नहीं, आर्थिक समस्या भी है। सजा से अधिक नियंत्रण आवश्यक है।
कहने की आवश्यकता नहीं कि अधिकांश (90 प्रतिशत) यौन हिंसा या बलात्कार के मामले परिवार की प्रतिष्ठा के कारण थाने में दर्ज नहीं कराए जाते। जो दर्ज होते हैं, उनमें से अधिकांश (96 प्रतिशत) बलात्कारी निचली अदालतों द्वारा बाइज्जत बरी कर दिए जाते हैं। पुलिस ने जाँच ठीक से नहीं की या गवाह, प्रमाण, सबूत नहीं थे। जिन थोड़े से (तीन-चार प्रतिशत) बलात्कारियों को सजा होती है, वे उच्च न्यायालय से सर्वोच्च न्यायालय तक अपील-दर-अपील करते ही हैं। अपील में भी ज्यादातर बरी हो जाते हैं या किसी न किसी आधार पर सजा कम करवाने में कामयाब हो जाते हैं। अपील के दौरान ‘जमानत पर छूटने की सम्भावना भी है और सालों मुकदमा लटकने की भी।
आँकड़े बताते हैं कि निचली अदालतों से कई गुना अधिक समय, अपील का निर्णय होने, करने में लगता है। यौन हिंसा की शिकार निर्धन स्त्री आखिर कब तक ‘कोर्ट-कचहरी का चक्कर काट सकती है ? घर-परिवार-विवाह बच्चे-समाज-खर्च-भागदौड़ कौन करेगा? कहाँ से? कब तक? बहुत-सी समस्याएँ हैं। सब करने के बाद भी क्या गारंटी है कि ‘न्याय होगा ? बड़े बाप की बेटियों या साधन-सम्पन्न और सत्ता-समर्थ स्त्रियों की बात अलग है।
यौन हिंसा की शिकार निर्धन, अशिक्षित आम औरत नहीं जानती–न्याय की प्रथम अवधारणा है कि जब तक अपराध सन्देह से परे तक सिद्ध न हो, अभियुक्त को निर्दोष ही माना जाएगा। वरना अभियुक्त को बाइज्जत बरी करना विवशता है। अदालत में थोड़ा सा भी सन्देह हुआ तो ‘सन्देह का लाभ अभियुक्त को ही मिलेगा। सन्देह से परे तक अपराध सिद्ध होने के बावजूद उम्र, समय, स्थितियाँ (सामाजिक, आर्थिक, मानसिक, राजनीतिक…), परिस्थितियाँ वगैरह-वगैरह के आधार पर अभियुक्त की सजा कम भी की जा सकती है। न्याय के सुधारवादी, उदारवादी, मानवीय दृष्टिकोण से रचे सारे नए शास्त्रों की व्याख्या का फायदा अभियुक्त को ही होता है, होता रहा है। न्याय की एक और उल्लेखनीय अवधारणा यह है कि भले ही हजारों दोषी व्यक्ति छूट जाएँ मगर एक भी निर्दोष आदमी को सजा नहीं होनी चाहिए। ऐसे में उसे यह विश्वास दिलाना जरूरी है कि ‘दुर्लभतम में दुर्लभ मामला हुआ तो बलात्कारी को फाँसी के फन्दे से कोई नहीं बचा सकता। न्याय में देरी का मतलब, न्याय नहीं मिलना है। मगर न्याय में जल्दबाजी का अर्थ न्याय को दफनाना भी है। ज्ञानी लोगों का कहना है, ”न्याय की चक्की धीरे पीसती है, मगर पीसती है, तो बहुत बारीक… खैर !
आओ न्याय करें : रेप यानी एक कहानी
यह कहानी 1974 की है और महावीर नाम के एक बीस-बाईस वर्षीय मर्द और पन्द्रह-सोलह वर्षीया लडक़ी शीला के इर्द-गिर्द घूमती है। दोनों आपस में दूर के सम्बन्धी हैं और दरअसल एक-दूसरे को बहुत अच्छी तरह जानते हैं। 27 सितम्बर, 1974 को महावीर शीला को बहरामपुर ले गया। वहाँ वे करीब पन्द्रह दिन रहे और आपस में देह का ताप बाँटते रहे। जब वे वापस आए तो शीला के माँ-बाप बिना किसी देरी के शीला को लेकर पुलिस स्टेशन पहुँच गए, जहाँ उसकी माँ ने पहले से ही रिपोर्ट दर्ज करवा रखी थी। परिणामस्वरूप महावीर की गिरफ्तारी हुई और बाद में अभियोग चला। 13 अगस्त, 1976 को अदालत ने महावीर को अपराधी करार दे, भारतीय दंड संहिता की धारा 366 और 376 के तहत सजा सुनाई। यह उसी महावीर की अपील है। इस मुकदमे की कुंजी शीला के बयान में ही है। और यह क्या दर्शाती है ? यह दिखाती है कि उसके महावीर के साथ अच्छे दोस्ताना सम्बन्ध थे और वह यमुना नदी के किनारे, रेस्टोरेंट और अन्य अघोषित स्थानों पर उसके साथ घूमती रही है। यह वह ही थी, जो उस दिन ‘आश्रम ‘ नामक स्थान पर महावीर से मिली। वहाँ से ये बहरामपुर की गाड़ी पकडऩे के लिए रेलवे स्टेशन आए। यह एक लम्बी यात्रा थी, जो ‘एक दिन और रात खा गई। बहरामपुर में वे बुद्धू, गवाह नम्बर दो, के घर पर ठहरे, जहाँ उनके पास एक कमरा था और उसी कमरे में उन्होंने मांसल देह से विषय-सुख का खेल खेला। शीला हमें बताती है कि किसी भी स्तर पर उसकी सहमति नहीं थी। यही नहीं, उसने तो विरोध भी किया और रोती भी रही लेकिन सब बेकार। इससे मुझे कोई असर ही नहीं हो रहा। वह रेलवे स्टेशन गई। महावीर जब टिकट खरीदने गया तो वह वहाँ अकेली खड़ी रही।
डिब्बे में अन्य यात्रियों के होते हुए वह उसके साथ घंटों यात्रा करती रही। बहरामपुर रेलवे स्टेशन से ताँगे में बुद्धू के घर तक गई। ताँगे में और सवारियाँ भी थी। तब भी उसने कोई विरोध नहीं किया, कोई विद्रोह का झंडा नहीं उठाया और भागने का भी कोई प्रयास नहीं किया। इस बीच उसके पास शोर मचाने, रुकने या महावीर से दूर रहने का काफी समय भी था और अवसर भी। और हाँ ! बहरामपुर में बुद्धू के घर पर क्या हुआ ? वह कहती है कि उसने उस समय विरोध किया था, जब महावीर उसका परिचय पत्नी के रूप में दे रहा था। बुद्धू उसे झूठा सिद्ध करता है। उसका अपना व्यवहार भी उसे ‘फाँसी के तख्ते की ओर ले जाता है। बहरामपुर में वह साड़ी, पेटीकोट और ब्लाउज खरीदने बाजार भी गई थी। वह महावीर के साथ एक ही कमरे में रह रही थी और उसे अपनी देह का ताप देती रही, कभी रात में दो बार और कभी-कभी तीन बार भी। वह स्वीकार करती है कि देह की पुकार का शिकार होने से पहले वे अक्सर एक-दूसरे से बातचीत और आलिंगन करते रहते थे और बुद्धू हमें बताता है कि वहाँ कभी विरोध की फुसफुसाहट तक नहीं थी। यह विश्वास करना असम्भव है कि वह खेल में शामिल नहीं थी, बल्कि उसने सक्रिय रूप से पूरी सहमति के साथ इस खेल में अपना योगदान दिया है।
सरकारी वकील साहब ने तर्क दिया था कि उस समय शीला की सहमति भी थी, तो भी उसकी उम्र सोलह साल से कम है, इसलिए उसकी सहमति का कोई मतलब नहीं। क्या सचमुच शीला ने सोलह गर्मियाँ नहीं देखीं ? मुझे सभी महत्त्वपूर्ण दिन दोबारा बुलाने दो। वह सितम्बर 1974 था। हमारे पास जन्म प्रमाणपत्र नहीं है। स्कूल प्रमाणपत्र तक भी नहीं है। हमारे पास रिकॉर्ड में डॉक्टर विरमानी की सलाह (ओपिनियन) मौजूद है। उसके अनुसार शीला की उम्र करीब चौदह साल है और सोलह साल से कम है। लेकिन तब भी हम सब जानते हैं कि वह सिर्फ सलाह या विचार ही है, जिसमें डेढ़ से दो साल तक ‘इधर-उधर होना सम्भव है। मगर तब हम इस सलाह पर जाते ही क्यों हैं विशेषकर जब स्वयं शीला और उसकी माँ हमें बताती हैं कि उम्र क्या मानी जानी चाहिए ? 19 अप्रैल, 1976 को अदालत में शीला का और अगले दिन यानी 20 अप्रैल, 1976 को उसकी माँ बयान हुआ था। शीला ने अपनी उम्र अठारह साल बताई थी। उसकी माँ ने भी उसकी उतनी ही उम्र बताई थी। अगर ऐसा ही है तो, गणना के दिन निश्चित रूप से वह सोलह की सीमा रेखा पार कर चुकी है। यह उसकी सहमति के मुद्दों को मजबूत करता है।
चूँकि, पूरे प्रकरण में उसकी सहमति मौजूद है, महावीर बिना किसी रुकावट के मुसीबतों के उस पार जा सकता है। महावीर की अपील में विजय होती है और उसे बाइज्जत रिहा किया जाता है। यह कोई मनगढ़न्त कहानी नहीं, बल्कि दिल्ली उच्च न्यायालय के एक विद्वान न्यायमूर्ति श्री जसपाल सिंह द्वारा 11 मई, 1994 को सुनाए एक फैसले का अनुवाद है।[1] 1977 में दायर एक अपील, जिसका फैसला होने (करने) में लगभग सत्रह साल का समय लगा। सत्रह साल का समय कोई ‘अनहोनी या ‘आश्चर्यजनक बात नहीं। ऐसा ‘न्यायिक विलम्ब प्राय: हो जाता है। विलम्ब के एक नहीं, अनेक कारण हैं। यहाँ उल्लेखनीय है कि बलात्कार के ऐसे मामलों में ‘लडक़ी की उम्र सिद्ध करने का एकमात्र अकाट्य दस्तावेज है जन्म प्रमाणपत्र। मगर दुर्भाग्य से इस देश में जन्म प्रमाणपत्र प्राय: उपलब्ध नहीं होता।[2] आसिफिकेशन टेस्ट के आधार पर डॉक्टर की रिपोर्ट महज सलाह, विचार (ओपिनियन) भर है। इसलिए अनुमान लगाने में एक से तीन साल तक का अन्तर हो सकता है। ‘इधर या उधर ‘जिधर भी अभियुक्त या अपराधी को लाभ पहुँचता हो। इस सन्दर्भ में सैकड़ों नजीर गिनाने से क्या लाभ !
न्याय की भाषा : लिंग पूर्वाग्रह
खैर, उपरोक्त निर्णय पढ़ते-पढ़ते अचानक ध्यान आता है कि ‘न्याय की भाषा में पुरुष या लिंग पूर्वग्रह (दुराग्रह) पूरी आक्रामकता के साथ सक्रिय है। ‘देह का ताप बाँटते रहे से लेकर ‘वह उसे अपनी देह का ताप देती रही। कभी रात में दो बार और कभी-कभी तीन बार भी तक की भाषा का सम्पूर्ण व्याकरण स्त्री देह की कामना और आनन्द के शब्दजाल में भटक रहा है। न्याय की भाषा में मर्द भाषा की यह घुसपैठ पढ़ते हुए सचमुच डर लगने लगता है कि क्या न्याय व्यवस्था स्त्री के प्रति, इतने हत्यारे अर्थों में खड़ी है ? यह सोचते, समझते और लिखते समय अवमानना का आतंक भी सामने आ खड़ा होता है ? पारदर्शी पूर्वग्रहों के पीछे की पृष्ठभूमि क्या है–कहना कठिन है। परन्तु इतना साफ दिखाई देता है कि कहीं-न-कहीं वृद्ध यौन कुंठाएँ चेतन-अवचेतन को भयंकर रूप से विक्षिप्त और विकृत कर चुकी हैं। ‘मांसल देह के ताप’ और ‘यौन सम्बन्धों के खेल’ की अवधारणा से अभिभूत न्यायमूर्ति दमित इच्छाओं की अभिव्यक्ति के लिए प्रतीकात्मक या संकेतात्मक भाषा की बैसाखियों का सहारा लेते हैं। स्वयं से सवाल पूछते हैं, ‘क्या शीला ने सोलह गर्मियाँ नहीं देखीं? यहाँ ‘गर्मियाँ शब्द का प्रयोग मौसम या वर्ष गणना के लिए नहीं किया गया लगता। वसन्त, सावन या सर्दी की अपेक्षा, ‘सोलह गर्मियाँ लिखने का असली अभिप्राय निश्चित रूप से वह नहीं है, जो पढऩे में आता है। जो अर्थ पढऩे में आता है, वह समझने में नहीं आता। दोनों अर्थों का अन्तर हम सब अच्छी तरह जानते-समझते हैं। क्या नहीं ? फैसला पढऩे के बाद महसूस होता है कि महावीर जो ‘खेल’ देह से खेल रहा था, क्या न्यायमूर्ति उसी खेल को दोबारा शब्दों में खेलना-देखना चाहते हैं ? न्यायमूर्ति की भाषा में महावीर मन ही मन सोच रहा है, ‘यह एक लम्बी यात्रा थी, जो एक दिन और रात खा गई। वरना वह इस समय का उपयोग भी देह उपभोग में करता। शायद कहीं गहरे में ईर्ष्या और द्वेष भावना सिर उठा कहने-बताने लगती है, ‘दे प्लेड द गेम ऑफ सेंसुअल फ्लैश। और कहीं आहत अतीत या अनुभव समझता है ‘यह विश्वास करना असम्भव है कि वह खेल में शमिल नहीं थी।
भेष बदलते पुरुषों में यह पहचानना मुश्किल है कि कौन अपराधी है और कौन न्याय (धीश)। यह कैसा ‘खेल’ है जिसमें चारों ओर ‘पुरुष’ के बचाव में खड़े सुरक्षा प्रहरी कभी ‘सहमति से सम्भोग’ पर बहस करने लगते हैं और कभी उम्र के प्रश्न पर मतभेद। कानूनी मुद्दों पर न्यायमूर्ति के तर्क पूर्णतया विवेकसम्मत हो सकते हैं। हालाँकि न्यायिक विवेक और आलोचनात्मक व्याख्या की भी अपनी सीमा है, क्योंकि पूर्व निर्धारित है। निर्णय सही-गलत हो सकता है। गलत होगा तो ‘ऊपरवाला’ सही कर देगा। लेकिन क्षमा करें मी लॉर्ड ! लिंग पूर्वग्रहों या व्यक्तिगत संस्कारों से ग्रस्त दुराग्रहों से रची यह भाषा, नि:सन्देह न्याय की भाषा नहीं कही जा सकती। मर्दवादी भाषा का कोई भी नकाब बीमार मानसिकता को छिपाने के लिए नाकाफी है। परपीड़ा में आनन्द खोजती, अवांछित भाषा का ऐसा शब्दजाल न्याय की गरिमा के अनुकूल नहीं। ‘आधी दुनिया’ की गरिमा के तो बिलकुल ही नहीं।
बलात्कार के मुकदमे में ‘सेक्स’ को ‘गेम’, स्त्री देह को ‘सेंसुअल फ्लैश’ और स्त्री-पुरुष को ‘खिलाड़ी’, मानकर चलना, स्वयं पितृसत्ता के उस सत्ता-विमर्श में शामिल हो जाना है, जहाँ स्त्री मात्र देह, वस्तु, भोग्या और सम्पत्ति है। ‘खेल’ के अन्त में न्यायमूर्ति घोषणा करते हैं ‘महावीर विंज द अपील’। महावीर की ‘विजय’ का अर्थ है-स्त्री देह पर विजय। यही तो है पुरुष वर्चस्व का भाषाशास्त्र। अदालतों में न्यायमूर्ति अपील ‘मंजूर’ करते हैं या ‘स्वीकार’ करते हैं। अभियुक्त अपराधी की ‘हार-जीत’ घोषित नहीं करते।
पितृसत्ता के प्रेत : ‘मर्यादाहीन‘ स्त्रियाँ
आश्चर्यजनक है कि 1994 में भी स्त्री के प्रति न्याय की भाषा सदियों पुरानी पुरुष मानसिकता की शिकार है। वर्षों पूर्व लाहौर उच्च न्यायालय के एक न्यायमूर्ति ने बलात्कार के अपराधी को रिहा करते समय कहा था, ”अभियुक्त महिला की सहमति से सहवास कर रहा था। जब वह (औरत) सहवास करते हुए, रँगे हाथों पकड़ी गई तो स्वाभाविक है कि उसने अपनी लाज बचाने के लिए, वह कहानी गढ़ी कि अभियुक्त ने जबर्दस्ती उसे पकड़ लिया।[3] ‘शी नेचुरेली कांकोक्टेड ए स्टोरी, टू सेव हर फेस’ न्यायिक नहीं, बल्कि सामन्ती शब्दावली है। लाहौर से दिल्ली तक, मर्द भाषा का यही ‘न्यायशास्त्र’ पढ़ा-पढ़ाया जाता रहा है। पटना उच्च न्यायालय के एक न्यायमूर्ति ने तो एक निर्णय में यहाँ तक कहा कि, ‘लेकिन…जहाँ एक औरत की कोई गरिमा (मान-सम्मान, मर्यादा) ही न हो, वहाँ किसी पुरुष द्वारा उसके साथ सम्भोग को अपराध नहीं कहा जा सकता है।[4] इसी परम्परा में पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों ने एक मुकदमे में कहा कि अभियुक्त द्वारा सात महीने की बच्ची के विशेषांगों से छेड़छाड़ करना कोई अपराध नहीं है, क्योंकि ”शी इज फिजिकली इंकेपेबल ऑफ हैविंग एनी सेंस ऑफ मॉडेस्टी।[5] न्याय की भाषा के इस शिल्प या स्वरूप को मर्दों की घृणित और घिनौनी ‘मानसिक क्षमता’ का उदाहरण ही कहा जा सकता है वरना ऐसी हजारों न्याय गाथाएँ सुरक्षित हैं। इसी क्रम में त्रिपुरा उच्च न्यायालय के एक न्यायमूर्ति ने भारतीय दंड संहिता की धारा 354 की व्याख्या करते हुए कहा है कि इस धारा के अन्तर्गत अपराध के लिए ‘बलप्रयोग’ अनिवार्य है।” जहाँ अभियुक्त के विरुद्ध सिर्फ यह साक्ष्य हो कि उसने अपने कपड़े उतारे और गुप्तांग महिला को दिखाए, यह अपने आपमें धारा 354 के तहत कोई अपराध नहीं होगा।[6]
कानून की भाषा-परिभाषा से लेकर न्याय की भाषा तक, पितृसत्ता का यही रूप दिखाई पड़ता है। एक और ऐतिहासिक फैसले के अनुसार, ”बलात्कार कांड को सिर्फ देखना भर, बलात्कार के अपराध की उत्प्रेरणा नहीं कहा जा सकता।[7] सामाजिक जीवन से लेकर सिनेमा और टी.वी. के पर्दे तक पर हो रहे बलात्कारों को देखना (और आनन्द उठाना) कोई अपराध नहीं। शौक से देखिए-दिखाइए। ‘रेप-सीन’ अभी और भी हैं, आप इसे देखते रहिए। ‘इनसाफ का तराजू’, ‘मेरी आवाज सुनो’ और ‘जख्मी औरत’ से लेकर ‘बैंडिट क्वीन’ तक। सम्पूर्ण मर्दवादी ढाँचे में पूर्वग्रहों और ‘मनुवाद’ से आतंकित, कानूनी व्याख्या में न्याय की भाषा का एक और भयावह रूप पेश होता है।स्वाति लोढा बनाम राजकुमार।[8] इस मुकदमे में राजकुमार ने स्वाति से बिना विवाह किए ही देह सम्बन्ध स्थापित किया। स्वाति गर्भवती हो गई। राजकुमार ने दूसरी स्त्री से विवाह कर घर बसा लिया। इस पर स्वाति ने राजकुमार पर बलात्कार का मुकदमा दायर किया और प्रमाण के लिए राजकुमार और उससे उत्पन्न हुए बच्चे के डी.एन.ए. टेस्ट की माँग की। राजस्थान उच्च न्यायालय के विद्वान न्यायमूर्ति ने अपने निर्णय में लिखा, ”स्वाति में एक वह माँ नहीं बोल रही जो बच्चे के किसी कानूनी अधिकार के लिए, उसके माता-पिता का निर्धारण करवाना चाहती है। यह एक स्त्री के प्रतिशोध का परिणाम है, जो वह राजकुमार के खिलाफ ले रही है, जिसने उसका कौमार्य, अस्मिता और पवित्रता भंग करने के बाद किसी दूसरी स्त्री से शादी कर ली है। यहाँ कौमार्य या पवित्रता को लेकर जो कहा जा रहा है, लगता है वह राजकुमार कह रहा है। यह है मर्दवादी भाषा का चमत्कार। इसी फैसले में यह टिप्पणी भी उल्लेखनीय है, ”उसके गन्दे कपड़ों के बारे में बताया गया है कि वे धो दिए गए हैं, यद्यपि राजकुमार के कथित गन्दे कपड़ों को अदालत में पेश करने की माँग की गई है।[9] न्याय की माँग करनेवाली स्त्री की बात ‘प्रतिशोध का परिणाम’ लगती है क्योंकि ‘उसका कौमार्य, अस्मिता और पवित्रता भंग’ हो चुकी है। ‘गन्दे कपड़े’ धुल सकते हैं, लेकिन ऐसी भाषा का कोई क्या करे?
बलात्कार मृत्युजनक शर्म है–सिर्फ स्त्री के लिए
इससे भी अधिक पेचीदा स्थिति वहाँ आती है, जहाँ न्याय की भाषा स्त्री के पक्ष में बोलती दिखती है। एक मामले में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति श्री आर. कृष्ण अय्यर लिखते हैं, ”कोई भी प्रतिष्ठित महिला किसी पर भी बलात्कार का आरोप नहीं लगाएगी क्योंकि ऐसा करके वह जो बलिदान करती है, वही तो उसे सबसे अधिक प्रिय है।[10] यहाँ ‘विमेन ऑफ ऑनर’ यानी प्रतिष्ठित महिला की परिभाषा में वेश्या, कॉलगर्ल या चरित्रहीन औरतें शामिल नहीं हैं और न ‘दोहरा अभिशाप’ झेलती वे गरीब, हरिजन और आदिवासी औरतें, जो बिना किसी ‘मानवीय गरिमा’ या किसी भी ‘गरिमा’ की निर्धनता-रेखा से नीचे जी रही हैं। तर्क के दूसरी ओर यह छिपा है कि प्रतिष्ठित स्त्री को बलात्कार का आरोप लगाने की जरूरत नहीं और अप्रतिष्ठित को ऐसा आरोप लगाने का हक नहीं। यहाँ आर्थिक-भेद और लिंग-भेद किस कदर मिल-जुल गए हैं कि एक ओर तर्क से अमीर स्त्री की प्रतिष्ठा को उसका बन्धन बनाया जा रहा है दूसरी ओर गरीब स्त्री को प्रतिवाद के हक से वंचित किया जाता है वह तो ऐसी थी ही। उपरोक्त निर्णय से पचास साल पहले भी अदालत ऐसी ही भाषा बोल रही थी। ”यह बहुत ही कम सम्भावना है कि कोई आत्मस्वाभिमानी औरत न्याय की अदालत में आगे आकर अपने साथ हुए बलात्कार के बारे में, अपने सम्मान के विरुद्ध शर्मनाक बयान देगी, बशर्ते कि यह पूर्ण रूप से सच न हो।[11] या (पूर्ण रूप से झूठ ‘इज्जतदार औरतें’ तो बलात्कार सच में हो जाने पर भी किसी को नहीं बतातीं, शर्म के मारे डूबकर या जलकर मर जाती हैं। पचास सालों में ‘आत्मस्वाभिमानी औरत’ की जगह ‘प्रतिष्ठित महिला’ ने ले ली। चूँकि स्त्री के लिए बलात्कार मृत्युजनक शर्म है।[12] इसलिए चुप रहो। बेकार ‘शर्मनाक बयान’ देने से क्या फायदा ? ‘न्याय के प्रहरी’ इससे ज्यादा स्पष्ट और क्या कहें ? हर बार महसूस होता है कि स्त्री के प्रति वह न्याय की भाषा नहीं बल्कि क्रूरता और दमन की भाषा है। पितृसत्ता द्वारा जारी आदेश और अध्यादेश की भाषा है। न्याय के नाम पर पीढिय़ों से विरासत में मिली अन्याय की भाषा है। बलात्कारी भाषा। मर्दवादी भाषा कहती है, मर्द को बर्दाश्त कर ! बस ! यह भाषा न्यायालय की है। न्यायालय भी तो मर्दवादी हो सकता है।
न्याय की बुद्धिमत्ता का नियम
20वीं सदी के आरम्भ से लेकर अब तक अदालत, कानून और न्याय की भाषा-परिभाषा मूलत: स्त्री के प्रति अविश्वास, घृणा और अपमान से उपजी भाषा है। ”बलात्कार के मामलों में, सिर्फ बलात्कृत स्त्री के आरोपों पर किसी भी व्यक्ति (पुरुष) को सजा सुनाना बेहद असुरक्षित (क्वाइट अनसेफ) होगा।[13] असुरक्षित ही नहीं बल्कि एक कदम आगे बढ़ न्यायमूर्ति ने चेतावनी दी, ”बिना अन्य प्रमाणों के सिर्फ उसके बयान के आधार पर सजा देना अत्यन्त खतरनाक होगा।[14] तीन साल बाद एक अन्य न्यायमूर्ति ने ऐलान किया, बिना अन्य प्रमाणों के सिर्फ स्त्री के बयान पर विश्वास करना, प्रत्यक्ष रूप से बहुत असुरक्षित (नोटोरियसली वेरी अनसेफ) होगा।[15] इसलिए स्त्री की गवाही को अन्य स्वतंत्र साक्ष्यों से जोडक़र देखना अनिवार्य है।[16] और ”अन्य प्रमाणों की अनुपस्थिति में, सिर्फ तथाकथित बलात्कार की शिकार स्त्री के बयान के आधार पर अभियुक्त को दोषी ठहराना उपयुक्त नहीं।[17]
उपरोक्त फैसलों के कुछ साल बाद एक न्यायमूर्ति ने थोड़ा संशोधन करते हुए कहा, ”बलात्कार के मामलों में अन्य प्रमाण अनिवार्य नहीं। अदालत को अधिकार है कि वह बिना अन्य प्रमाणों के लडक़ी का साक्ष्य स्वीकार कर सकती है। लेकिन इसे स्वीकारने में धीमा रहना चाहिए। अदालत द्वारा उसकी गवाही (साक्ष्य) को बहुत ध्यान से देखना अनिवार्य है।[18] दूसरे न्यायमूर्ति ने लिखा है, ”दस वर्षीया बच्ची के साथ बलात्कार के मामले में कानून के लिए यह जरूरी नहीं कि अन्य स्वतंत्र प्रमाण उपलब्ध हों। हाँ, किसी औरत द्वारा बलात्कार का आरोप लगाना एकदम भिन्न स्थिति है और किसी बच्ची द्वारा यह कहना कि अमुक व्यक्ति दोषी है–भिन्न स्थिति है।[19] परन्तु तीसरे न्यायमूर्ति का विचार था, ”बलात्कार के मामले में सिर्फ लडक़ी के साक्ष्य को काफी न मानना ही एक अच्छा नियम है।[20] क्योंकि ”यह नियम कि बलात्कार की शिकार स्त्री का साक्ष्य मानने के लिए अन्य प्रमाण अनिवार्य हैं।
दरअसल बुद्धिमत्ता का नियम (रूल ऑफ प्रूडेंस) है।[21] इसके बिना ”अभियुक्त को सजा देने के लिए, इसे उचित आधार के रूप में स्वीकार नहीं करना चाहिए।[22] कुल मिलाकर नतीजा वही है कि ‘सिर्फ स्त्री की गवाही के आधार पर सजा देना उचित नहीं। स्त्री के बयान पर विश्वास करना ‘खतरनाक’ है। बलात्कार के अन्य प्रमाण, सबूत और गवाह अनिवार्य हैं। बीसवीं सदी के पचास साल तक न्यायमूर्ति, बलात्कार की शिकार स्त्री से स्वतंत्र साक्ष्य की माँग करते रहे और न्याय की भाषा ‘बेहद असुरक्षित’ से ‘बेहद खतरनाकहोती गई। 1950 में लाहौर उच्च न्यायालय के न्यायमूर्तियों ने पुनर्विचार करने के बाद स्पष्ट किया, ”अन्य प्रमाणों को देखने का नियम सह-अपराधियों के लिए बनाया गया है और बलात्कार की शिकार स्त्री सह-अपराधी नहीं, बल्कि अपराध से पीडि़त स्त्री है। इसलिए बलात्कार के मामलों में पीडि़ता के साक्ष्य मानने के लिए अन्य प्रमाण हमेशा अनिवार्य नहीं हैं। ऐसे मामलों में याद रखनेवाली बात यह है कि क्या सिर्फ उस (स्त्री) के बयान के आधार पर सजा देना सुरक्षित है ? यह हर मुकदमे की स्थितियों पर निर्भर करता है।[23] लेकिन उसी समय नागपुर उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति ने विरोध में स्थापना दी, ”यद्यपि कानूनन यह मानने योग्य है, लेकिन बिना अन्य प्रमाणों के अभियुक्त को सजा देना खतरनाक है। यह नियम समान रूप से जरूरी है, चाहे पीडि़ता वयस्क महिला हो या सात वर्षीया कन्या। व्यवहार में यह नियम मजबूत नियम है कि बिना अन्य प्रमाणों के बच्ची की गवाही न मानी जाए। हालाँकि भारतीय कानून में यह नियम बुद्धिमत्ता का नियम है–कानून का नहीं।[24] यह स्थापना देते हुए विद्वान न्यायमूर्तियों ने कुछ वर्ष पूर्व सुनाए अपने ही फैसले को निरस्त कर दिया। कानूनी नियम न होते हुए भी यह नियम न्यायमूर्तियों की ‘बुद्धिमत्ता का नियम’ बना रहा। बना हुआ है। कौन कहे–क्यों ? सवाल करो भी तो जवाब कौन देगा ?
खैर…आजादी के बाद, भारतीय गणतंत्र की सर्वोच्च अदालत ने लाहौर उच्च न्यायालय के 1950 वाले फैसले की तर्ज पर दोहराया, ”यह नियम, जो फैसलों के अनुसार कानूनी नियम बन गया है, इसका अर्थ यह नहीं है कि सजा के लिए अन्य प्रमाण अनिवार्य हैं। लेकिन बुद्धिमत्ता के लिए अन्य प्रमाणों का होना जरूरी है, सवाल यह है कि बुद्धिमत्ता का यह नियम हमेशा याद रहना चाहिए। व्यवहार में ऐसा कोई नियम नहीं है कि हर मुकदमे में, सजा देने से पहले अन्य प्रमाणों को देखना अनिवार्य हो।[25] सुप्रीम कोर्ट के इस निर्णय ने ‘बुद्धिमत्ता के नियम’ को भी ‘कानून का नियम घोषित कर दिया। इस निर्णय का प्रभाव यह हुआ कि सभी उच्च न्यायालयों को इसे मानना पड़ेगा। कुछ उच्च न्यायालयों के न्यायमूर्तियों ने इस फैसले को मानते हुए निर्णय सुनाए। लेकिन…कुछ न्यायमूर्ति ‘बुद्धिमत्ता के नियम’ के अनुसार ही न्याय करते रहे। पटना उच्च न्यायालय के एक न्यायमूर्ति ने सर्वोच्च न्यायालय के उपरोक्त निर्णय के बावजूद कहा, ”बलात्कार के मामले में, वयस्क महिला के मुकदमे में अन्य प्रमाण अनिवार्य ही नहीं हैं, बल्कि स्वतंत्र स्रोतों से भी होने चाहिए।[26]
बलात्कार नहीं, ‘शान्तिपूर्ण मामला‘
इसके बाद करीब तीन दशकों तक बलात्कार की शिकार स्त्री से ‘बुद्धिमत्ता का नियम’ प्राय: ‘अन्य प्रमाण’ माँगता ही रहा। आहत, अपमानित और पीडि़त हजारों स्त्रियों की चीखें कानून की किताबों में बन्द पड़ी हैं। न्याय की नजर में उसका चीखना…चिल्लाना…शोर मचाना सिर्फ झूठ के ऊतक (‘टिशू ऑफ लाइज’) हैं। ये सब औरतें ‘भंयकर रूप से झूठी थीं और उनकी गवाही ‘झूठ और असम्भावनाओं से भरी पड़ी हैं। उनके शरीर पर कोई ‘चोट’ का निशान नहीं था। ‘यौन झिल्ली पहले से ही फटी’ हुई थी। ‘सम्भोग की आदी’ थीं और ‘कथित सम्भोग एक शान्तिपूर्ण मामला’ था। उन्होंने खुद ‘पूर्ण रूप से हवस शान्त करने’ की सहमति दी थी। मत भूलो कि ‘सम्भोग और बलात्कार में दुनिया भर का भेद है। इन पर ‘विश्वास करना ‘खतरनाक’ है। ”इन महिलाओं की तुलना सभ्य और प्रतिष्ठित समाज की महिलाओं से नहीं की जा सकती। ये महिलाएँ नीच काम में शामिल थीं और उनका चरित्र सन्दिग्ध है।[27] 1972 में प्रमिला कुमारी रावत के साथ तीन व्यक्तियों ने बलात्कार किया। उस समय प्रमिला गर्भवती थी। अदालत ने अपने निर्णय[28] में कहा कि प्रमिला ‘रखैल’ थी, सम्भोग की आदी थी, उसने कोई चीख-पुकार नहीं मचाई, बलात्कार के बावजूद गर्भपात चार-पाँच दिन बाद हुआ। (अत:) लगता है, इन परिस्थितियों में जो कुछ हुआ, उसकी मर्जी या सहमति से हुआ या फिर उसमें पति (प्रेमी) की भी मिलीभगत थी। परिणामस्वरूप तीनों अभियुक्तों को बाइज्जत बरी किया जाता है। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति श्री पी. एन. भगवती और मुर्तजा फजल ने सेशन और हाई कोर्ट के फैसलों को रद्द करते हुए इसे ‘सीरियस मिसकैरिज ऑफ जस्टिस’ माना था। विद्वान न्यायमूर्तियों के अनुसार बलात्कार के कारण प्रमिला का गर्भपात नहीं बल्कि निर्दोष अभियुक्तों को सजा सुनाने के कारण, न्याय का गर्भपात हुआ था।
एक अन्य मामले[29] में सर्वोच्च न्यायालय ने देव समाज स्कूल अम्बाला की 9वीं कक्षा की छात्रा सतनाम कौर के साथ बलात्कार के चार अभियुक्तों को रिहा करते हुए कहा था कि लडक़ी सम्भोग की आदी थी और उसकी यौन झिल्ली पहले से भंग थी। इसी प्रकार महादेव व रहीम बेग बनाम राज्य[30] में एक बारह वर्षीय लडक़ी की दो अभियुक्तों ने बलात्कार के बाद हत्या कर दी। न्यायालय ने उन्हें इस आधार पर बरी कर दिया, ”लँगोट पर मिले वीर्य के धब्बे अनिवार्य रूप से बलात्कार सिद्ध नहीं करते और उनके लिंगों पर भी किसी प्रकार के चोट के निशान नहीं हैं। प्रश्न यह है कि शादीशुदा या सम्भोग की अनुभवी महिलाओं के साथ हुए बलात्कार को अपराध न मानना कहाँ तक उचित है ? 1978 में मथुरा बलात्कार कांड में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति श्री जसवन्त सिंह, पी. एस. कैलाशम और ए.डी. कौशल का फैसला[31] न्याय की भाषा का ‘सर्वश्रेष्ठ’ नमूना कहा जा सकता है। पुलिस स्टेशन में पुलिसकर्मियों द्वारा बलात्कार के इस मामले में न्यायमूर्तियों का (विवादास्पद) निर्णय था कि ‘प्रश्नगत सम्भोग बलात्कार प्रमाणित नहीं होता और अपीलार्थी गणपत के खिलाफ अपराध का कोई मामला नहीं बनता। मान लो मथुरा ‘झूठी’ थी और गणपत ने उसके साथ सहमति से सम्भोग किया था इसलिए बलात्कार का अपराध नहीं बनता और उसे कोई सजा नहीं दी जा सकती। परन्तु यह भी तो सच है कि गणपत ने पुलिस स्टेशन में सम्भोग किया। चूँकि सहमति से सम्भोग अपराध नहीं है तो क्या इसका मतलब यह नहीं कि कोई भी पुलिस या अन्य सरकारी अधिकारी दफ्तरों में खुलेआम सहमति से सम्भोग कर सकते हैं ? क्या पुलिस स्टेशन को ‘वेश्यालय’ की तरह इस्तेमाल करना कोई अपराध नहीं है और उपरोक्त निर्णय ‘लाइसेंस’ नहीं?
मथुरा केस में सुप्रीम कोर्ट के उपरोक्त निर्णय के विरुद्ध महिलाओं द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर विरोध और आन्दोलनों के परिणामस्वरूप 1983 में बलात्कार सम्बन्धी प्रावधानों में संशोधन करना पड़ा। कानून के संशोधन के बावजूद ‘गहरे गड्ढे मौजूद हैं और न्यायिक दृष्टिकोण से भी कोई उल्लेखनीय बदलाव नहीं हुआ लगता। मथुरा के बाद सुमन से लेकर भँवरीबाई बलात्कार कांड तक में हुए निर्णय इसका प्रमाण हैं। न्यायमूर्ति कृष्ण अय्यर के शब्दों में इसका कारण यह है कि ”नारी शरीर और पवित्रता को लेकर कोई सन्तोषजनक राष्ट्रीय योजना नहीं है।[32] कहना न होगा कि इसके बाद न्याय की भाषा में जो बदलाव दिखाई भी देता है, वह अगर-मगर, किन्तु-परन्तु और लेकिन के मर्दवादी मुहावरों में ही उलझा हुआ है। भँवरीबाई केस में अभियुक्तों को रिहा करते हुए सत्र न्यायाधीश ‘ब्राह्मण जाति’ की श्रेष्ठता से लेकर ‘भारतीय संस्कृति’ की महानता तक का गुणगान करते हैं। उच्च जाति के भद्र पुरुष नीच जाति की स्त्रियों से बलात्कार करेंगे। न्यायाधीश को लगता है कि यह आरोप ‘सन्देह से परे तक सिद्ध’ नहीं हो पाया। कैसे हो सकता है? स्त्री के विरुद्ध लगातार बढ़ती हिंसा के प्रश्न पर गहरी चिन्ता या चिन्ता के बावजूद ‘न्याय का लक्ष्य’ अपराधियों की बाइज्जत रिहाई या सजा कम करना ही रहा है। बढ़ते अपराधों और घटती सजाओं के आँकड़ों को प्रतिशत की पद्धति में सिद्ध करना बेकार है।
जले पर नमक छिडक़ता पुरुष वर्चस्व
1983 में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्तियों ने एक अन्य मामले का निर्णय लिखते हुए कहा, ”इस समय जरूरत है कि कानून को इस प्रकार बनाया और ढाला जाए कि यह और अधिक संवेदनशील और जवाबदेह बनकर समय की माँग पूरी कर सके और इस मूलभूत समस्या का समाधान भी कि क्या, कब और किस हद तक बलात्कार की शिकार स्त्री की गवाही को सच मानने के लिए अन्य प्रमाण/साक्ष्य अनिवार्य हैं। भारतीय स्त्रियों के लिए इस समस्या का विशेष महत्त्व है क्योंकि प्राय: उनका शोषण भी होता रहा है और उन्हें समान न्याय से वंचित भी किया जा रहा है। इस समस्या पर भारतीय स्त्रियों की साठ करोड़ उत्सुक आँखें केन्द्रित हैं।[33] स्त्री के विरुद्ध हिंसा के आँकड़ों को देखते और न्यायशास्त्र की पुनर्समीक्षा की जरूरत महसूस करते हुए न्यायमूर्तियों ने बलात्कार की शिकार महिला से अन्य प्रमाण माँगनेवाले नियमों को ‘जले पर नमक छिडक़ना कहते हुए कहा, ”बलात्कार की शिकार लडक़ी या महिला की गवाही को शंका, अविश्वास और सन्देह के चश्मे से ही क्यों देखा जाए? ऐसा करना पुरुष-प्रधान समाज के वर्चस्व के आरोपों को सही ठहराना होगा। भारतीय परिप्रेक्ष्य में स्त्री की पारिवारिक, सामाजिक, धार्मिक और नैतिक स्थितियों का उल्लेख करते हुए न्यायमूर्तियों ने कहा कि कोई भी स्त्री अपनी और परिवार की प्रतिष्ठा, लाज, शर्म और बदनामी के खतरे नहीं उठाना चाहती। निर्दोष होते हुए भी वह हमेशा भयभीत ही रहती है। वह तो सच कहने से भी डरती है–झूठ कैसे कहेगी? और क्यों कहेगी ? लेकिन ‘वयस्क महिला’ के बारे में ‘बुद्धिमत्ता के नियम’को बचाते हुए कहा कि ‘वयस्क महिला’ अगर सम्भोग की स्थिति में पकड़ी जाती है और अपने को बचाने के लिए ऐसे आरोप लगाने की सम्भावना दिखाई देती है तो उससे अन्य प्रमाण माँगे जा सकते हैं।
ध्यान से पढऩे-देखने के बाद लगता है कि यही सब तो 1952 में भी कहा गया था इसमें नई बात क्या है ?
अन्तत: दस-बारह साल की दो बच्चियों के साथ बलात्कार के प्रयास के इस उपरोक्त मुकदमे में न्यायमूर्तियों ने कहा, ”अभियुक्त ने जो अपराध किया, उसको बहुत ही गम्भीर रूप से लेना जरूरी है। लेकिन ”हाईकोर्ट द्वारा सजा के बाद (बेचारे की) नौकरी छूट गई है। घटना सात साल पहले घटी थी। अब साढ़े छह साल बाद अभियुक्त को दोबारा जेल भेजना पड़ेगा। समाज में भी अभी तक बहुत बेइज्जती और अपमान सहना पड़ा होगा…सब बातों को देखते हुए हमें लगता है कि अगर सजा ढाई साल से घटाकर सवा साल कर दी जाए तो ‘न्याय का लक्ष्य’ पूरा हो जाएगा।देखा ! मर्द के साथ कितनी जल्दी हमदर्दी पैदा हुई मर्दों को।
‘वर्दीवाला गुंडा‘ और ‘जवान लडक़ी‘
सुमन बलात्कार कांड (1989) में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्तियों द्वारा हरियाणा के पुलिसवालों की सजा दस साल से घटाकर पाँच साल की गई थी।[34] कारण–’लडक़ी सन्दिग्ध चरित्र’ की है। पुलिस पक्ष की ओर से मुकदमे की पैरवी मानवाधिकारों के चैम्पियन गोविन्द मुखौटी ने की। जब अखबारों और पत्रिकाओं में इस निर्णय की आलोचना हुई तो मुखौटी को सार्वजनिक रूप से माफी माँगते हुए पी.यू.डी.आर. की अध्यक्ष की कुर्सी ने इस्तीफा देना पड़ा था। पुनर्विचार याचिका में न्यायमूर्तियों ने अपना फैसला तो नहीं बदला, हाँ, इतना स्पष्टीकरण जरूर दिया कि हमारे पूर्व फैसले का आधार लडक़ी का चरित्रहीन होना नहीं, बल्कि रिपोर्ट पाँच दिन बाद करवाना है। पुनर्विचार के बाद निर्णय में कहा गया है, ”हम यह कहना चाहते हैं कि यह अदालत स्त्री गरिमा और सम्मान की रक्षा में किसी से कम नहीं है।[35] पुलिस हिरासत में बलात्कार के अपराध के लिए कम-से-कम दस साल जेल का प्रावधान होते हुए, सुमन-केस में पाँच साल की सजा क्यों ? सजा कम करने की ‘विशेष परिस्थिति’ क्या थी ? क्या सिर्फ रपट लिखवाने में पाँच दिन देरी की वजह से, पाँच साल सजा कम करना उचित है ? हरपाल सिंह बनाम हिमाचल प्रदेश[36] में तो रपट दस दिन बाद लिखवाई गई थी और देरी को उचित मानते हुए माननीय न्यायाधीशों ने कहा था, ”जवान लडक़ी के साथ बलात्कार होने पर, इस तरह की देरी स्वाभाविक है। सुमन-केस में तो रपट लिखने वाला भी वही पुलिस स्टेशन है, जहाँ के सिपाहियों ने उसके साथ बलात्कार किया था और क्या सुमन ‘जवान लडक़ी’ नहीं थी ? यहाँ विचारणीय है कि न्याय की भाषा में ‘जवान लडक़ी’ पर विशेष जोर दिया है। यानी ‘वयस्क महिला’ हो तो देरी उचित नहीं।
एक और मामले में पुलिसकर्मी चन्द्रप्रकाश केवलचन्द्र जैन द्वारा बलात्कार के अपराध में सत्र न्यायाधीश ने पाँच साल कैद की सजा सुनाई। अपील में सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्तियों (ए. एम. अहमदी और फातिमा बीवी) ने कहा, ”सजा के सवाल पर हम सिर्फ इतना ही कह सकते हैं कि जब कोई वर्दीवाला किसी जवान लडक़ी के साथ ऐसा गम्भीर अपराध करता है तो उसके साथ सहानुभूति या दया की कोई गुंजाइश नहीं। ऐसे मामलों में सजा उदाहरणीय होनी चाहिए।[37] यहाँ भी सजा के प्रश्न पर न्यायमूर्ति सख्ती का पाठ पढ़ाते हैं, लेकिन… ‘जवान लडक़ी’ के साथ बलात्कार होने पर सजा सख्त होनी चाहिए का दूसरा अर्थ, क्या यह नहीं कि वयस्क महिला के मामलों में सजा ‘नरम’ भी हो सकती है ? हालाँकि ‘जवान लडक़ी’ के मामलों में भी कठोरतम (अधिकतम) सजा कहाँ सुनाई जाती है ? हर बार सजा कम करने के लिए, कोई-न-कोई ‘विशेष परिस्थिति’ मौजूद रहती है। सात दशक पहले न्यायमूर्ति सीधे-सीधे कहते थे, ”जहाँ साक्ष्यों से मालूम हो कि बलात्कृत लडक़ी ‘अक्षत योनि’ या ‘पवित्र’ नहीं है, वहाँ सात साल कठोर कारावास की सजा बहुत सख्त सजा है।[38] अब, वही बात काफी ‘घुमावदार भाषा में कहने लगे हैं।
नारी अस्मिता और गरिमा पर न्याय की चिन्ता
न्यायमूर्ति पुरुष हो या स्त्री, न्याय की भाषा तो अक्सर वही रहती है, जो अब तक रची-गढ़ी गई है। पन्नालाल केस में न्यायमूर्ति सुनन्दा भंडारे और अनिल देव सिंह के निर्णय के अलावा भी अनेक उदाहरण हैं उपरोक्त खंडपीठ के निर्णय पुरुष न्यायमूर्तियों द्वारा लिये गए हैं। यही नहीं, बलात्कार के एक और केस में दिल्ली उच्च न्यायालय की न्यायमूर्ति सुश्री उषा मेहरा ने अपने निर्णय के आरम्भ में गम्भीरतापूर्वक लिखा, ”हमारे समाज में नारी अस्मिता के प्रति सम्मान घटता जा रहा है और बलात्कार के मामले बढ़ते जा रहे हैं। हालाँकि ऐसे अपराध बीमार दिमाग के व्यक्तियों द्वारा किए जाते हैं, लेकिन, चूँकि यह मुद्दा सार्वजनिक जीवन में सौम्यता और नैतिकता से जुड़ा है और स्त्रीत्व की गरिमा को छूता है, इसलिए अपराधियों के साथ सख्ती से निपटना चाहिए।[39] लेकिन अन्तत: अभियुक्त को बाइज्जत रिहा कर दिया। जन्म प्रमाणपत्र उपलब्ध नहीं। डॉक्टर की रिपोर्ट महज राय है। स्कूल प्रमाण पत्र पर विश्वास नहीं किया जा सकता और लडक़ी पहले से ही ‘सम्भोग की आदी’ है 29 मई, 1975 के इस मुकदमे की अपील का निर्णय 14 जुलाई, 1992 को (लगभग सत्रह साल बाद) हुआ। न्यायाधीश अय्यर के शब्दों में ‘वट ए पिटी’। स्त्री के विरुद्ध हिंसा के जलते सवालों पर (महिला) न्यायमूर्ति द्वारा मानवीय सरोकारों से लैस, संवेदना के शब्द सचमुच सराहनीय हैं। लेकिन मौलिक अभिव्यक्ति न होने के कारण, पेचीदा कानूनी प्रावधान और न्याय के चक्रव्यूह में ही फँसी रह जाती है। दो साल पहले सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्तियों ने भी तो यही कहा था, ”यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हमारे देश में स्त्रीत्व का सम्मान घटता जा रहा है और छेड़छाड़ और बलात्कार के मामले लगातार बढ़ते जा रहे हैं…सार्वजनिक जीवन में सौम्यता और नैतिकता का विकास और रक्षा केवल तभी की जा सकती है, जब अदालतें सामाजिक नियमों का उल्लंघन करनेवालों के साथ सख्ती से पेश आए।[40] बलात्कार के अपराधियों को बीमार, विकृत और विक्षिप्त मानसिकता के व्यक्ति घोषित करते, अपने निर्णय बताए-गिनाए जा सकते हैं।
चरित्र प्रमाणपत्र कहाँ है
बंटी उर्फ बलविन्द्र सिंह बनाम मध्य प्रदेश[41] सामूहिक बलात्कार का एक ऐसा मामला है, जिसमें पच्चीस वर्षीय विवाहिता महिला के साथ बलात्कार करनेवाले पाँचों अभियुक्तों को बाइज्जत रिहा करते हुए मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति श्री एस.के. सेठ और एस.के. चावला ने निर्णय में लिखा, ”यहाँ यह बता दें कि यह सामूहिक बलात्कार का मुकदमा है। एक औरत, जो भले ही कितनी भी दुराचारी क्यों न हो, इतने व्यक्तियों को अपमानजनक ढंग से सामूहिक सम्भोग करने की आमतौर पर सहमति नहीं देगी, जैसे वह सार्वजनिक प्रयोग के लिए कोई जानवर हो। उन्होंने आगे कहा, ”कानून मानता है कि भले ही कोई स्त्री अनैतिक चरित्र की हो या वेश्या ही हो, उसकी अपनी गरिमा और सम्मान होता है। उसके इस नीच व्यवसाय के कारण ही उसके साथ अतिक्रमण नहीं किया जा सकता। लेकिन निर्णय के अन्त तक आते-आते न्यायमूर्तियों ने स्थापना दी, ”लेकिन यह भी मानना पड़ेगा कि फिर भी, अनैतिक चरित्र पूर्णतया गौण परिस्थिति नहीं होगी। यह स्वयं सारी कहानी को अविश्वसनीय बना सकता है। यह कहानी से उस सम्भावना शक्ति को छीन सकता है, जो किसी ऐसी महिला ने सुनाई हो, जिसका कोई नैतिक चरित्र ही नहीं। जिस अनैतिक चरित्र की महिला पर विश्वास करना कठिन है, अगर वह यह कहे कि कुछ व्यक्तियों ने उसके साथ (बलात्) सम्भोग किया है, बशर्ते कि इस बात का कोई सन्तोषजनक प्रमाण उपलब्ध न हो।
वर्षों पूर्व मद्रास उच्च न्यायालय के एक निर्णय[42] में भी कहा था, ”किसी वेश्या की मर्यादा को भी सम्मान सुरक्षा का उतना ही अधिकार है, जितना किसी अन्य महिला को, लेकिन हर बार, न्याय की तुला में एक तरफ बलात्कार और अपमानजनक पीड़ा होती है और दूसरी तरफ पीडि़ता का नैतिक चरित्र। जाहिर है ऐसे में, ऐसी स्त्री के साथ न्याय असम्भव है, क्योंकि उसकी पूरी कहानी सन्देह के घेरे में ही घूमती रहेगी। उसकी बात पर कौन यकीन करेगा ? फिलहाल ऐसे सामाजिक या मानसिक बदलाव की कोई आधारभूमि नजर नहीं आ रही। सिर्फ न्यायमूर्तियों को दोषी ठहराना भी व्यर्थ होगा, क्योंकि वे भी उसी समय और समाज की उपज हैं, जिसमें नैतिकता, मर्यादा, पवित्रता, यौनशुचिता वगैरह की सारी जिम्मेवारी सिर्फ स्त्री पर लाद दी गई है। धर्मशास्त्रों से लेकर न्यायशास्त्रों तक में। स्त्री के लिए इस दुश्चक्र से बाहर निकलने का तब तक कोई दरवाजा नहीं, जब तक सत्ता और सम्पत्ति पर निर्णय लेने का उसे भी बराबर हक नहीं मिल जाता या वह न्याय व्यवस्था की गूढ़ भाषा पढऩे-समझने योग्य नहीं हो जाती। सुशिक्षित और प्रतिष्ठित, सचेत और अधिकारों के प्रति पूर्ण रूप से जागरूक।
वक्ष, जाँघ, नितम्ब या पीठ पर चोट के निशान दिखाओ
बिरम सोरेन बनाम पश्चिम बंगाल[43] केस में अभियुक्त घर में अकेली लडक़ी (उम्र सोलह-सत्रह वर्ष) के साथ बलात्कार करके भाग गया। माँ-बाप लौटकर आए तो लडक़ी के बताने पर थाने में रिपोर्ट दर्ज करवाई। सत्र न्यायाधीश ने बलात्कार के अपराधी को दस साल कैद और 5000 रुपए जुर्माना की सजा सुनाई। लेकिन उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति एस.पी. राजखोबा ने अपील का फैसला सुनाते हुए कहा, ”स्वाभाविक परिणाम यह होगा कि दोनों में प्रेम था या नहीं, मगर स्थितियों ने शारीरिक मिलन का अवसर प्रदान किया। अधिकांश ग्रामीण फुटबाल मैच देखने गए हुए थे। कुछ अड़ोसी-पड़ोसी भी फुटबाल मैच देखने गए हुए थे और माता-पिता बाजार। वह घर में अकेली थी। सारे तर्कों को तोड़ते हुए दोनों की आत्मीय यौन इच्छा बढ़ गई और यौन आनन्द उठाते हुए उन्होंने सम्भोग कामना शान्त की। यौन झिल्ली फटने और खून बहने का कारण यह है कि उसके जीवन में सम्भोग का प्रथम अनुभव था। शरीर के किसी हिस्से पर चोट के निशान नहीं होना, उसकी इस बात को झूठा प्रमाणित करता है कि उसने प्रतिरोध किया था और नतीजतन ब्लाउज फट गया था…. बाहरी चोटों का न होना जैसे वक्षस्थल पर नाखूनों के निशान, जाँघ, नितम्ब और पीठ वगैरह पर खरोंच सहमति का सुझाव ही देते हैं।
अन्त में न्यायमूर्ति ने कहा, ”पीडि़ता के गुप्तांगों पर चोट के निशान हमें भय से कँपकँपा देनेवाले हैं। परन्तु हम यह कहने को विवश हैं कि बलात्कार का मामला नहीं है….अभियुक्त को जेल से आजादी दे दी जाए…दूसरे न्यायमूर्ति जे.एन. होरे ने लिखा, ”मैं सहमत हूँ, और निर्णय में अपने हस्ताक्षर कर दिए।
लगता है, अदालत के लिए बलात्कार एक ‘स्टीरियो टाइप’ है कर्मकांड की तरह उसमें वही सब होना है जो होना चाहिए। यह सब बलात्कार को ‘संयोग में बदलने की युक्तियाँ हैं। बलात्कार की शिकार स्त्री सिर्फ एक गवाह है। गवाह को केवल बलात्कार का अनुभव दोहराना है। अपने अस्तित्व को भुलाकर दोबारा बताना है कि बलात्कार कब, कहाँ, कैसे और किसने किया। यही नहीं, यह भी बताना है कि उसने खुद क्या किया ? कुछ नहीं किया तो क्यों ? यानी एक बार फिर ‘बलात्कार’। मामूली-सी भूल-बलात्कार को सहमति से सम्भोग में बदल सकती है। बदलती रही है। ‘वक्षस्थल पर नाखूनों के निशान और जाँघ, नितम्ब और पीठ वगैरह पर खरोंच दिखाना मत भूलना। वरना…न्याय की भाषा में इसे ‘सहमति का सुझाव’ समझा जाएगा, समझा जाता है। सिर्फ यह कहना काफी नहीं कि उसने मेरी ‘इज्जत’ लूट ली, अपना ‘मुँह काला’ किया, जीवन ‘बर्बाद’ कर दिया या उसने मेरे साथ ‘वो काम किया जो उसे नहीं करना चाहिए था। ‘हर सेक्सुअललॅस्ट’ अपहरण और बलात्कार के एक अन्य मामले में न्यायमूर्तियों ने स्कूल सर्टीफिकेट को प्रामाणिक नहीं माना और डॉक्टरी रिपोर्ट को महज राय मानते हुए अभियुक्त को सन्देह का लाभ देकर छोड़ दिया। बलात्कार के आरोप को सहमति से सम्भोग घोषित करते हुए न्यायमूर्तियों ने कहा, ”अपीलार्थी के साथ रहने में नन्दा की पूर्व सहमति थी ताकि वह अपनी यौन लिप्सा शान्त कर सके।[44] न्याय की भाषा में, अब तक जहाँ ‘हिज सेक्सुअल लॅस्ट’ का इस्तेमाल किया जाता रहा है, वहाँ अब ‘हर सेक्सुअल लॅस्ट’ लिखा जाने लगा है। मर्दों की दुनिया में स्त्री के ‘मौन’ को सम्भोगेच्छा ही मानकर चला जाता है।
अनिल कुमार बनाम हरियाणा[45] में उच्च न्यायालय के न्यायमूर्तियों का निर्णय है कि एक जवान लडक़ी और एक युवा व्यक्ति एकान्त में, एक ही छत के नीचे, तीन दिन से ज्यादा रहे हों, तो इससे यही निष्कर्ष निकलता है कि अनिवार्य रूप से वे आपस में मैथुन करते रहे होंगे। इस निष्कर्ष के आधार बिन्दु वही प्रचलित मिथ हैं कि स्त्री-पुरुष के बीच घनिष्ठ सम्बन्धों का मतलब है यौन सम्बन्ध। इसके अलावा कुछ और तो सोचा ही नहीं जा सकता है न। सुभाष बनाम हरियाणा[46] में बलात्कार के आरोप को सहमति से सम्भोग मानते हुए न्यायमूर्तियों का कहना था, ”स्कूल प्रमाणपत्र के अनुसार लडक़ी की उम्र सोलह वर्ष से ज्यादा है और डॉक्टरी रिपोर्ट के मुताबिक यह सम्भोग की आदी है। शरीर पर न कोई चोट का निशान है और न खून बहने के ताजा चिह्न। लडक़ी द्वारा लिखे दो प्रेम पत्रों से पता लगता है कि वह अभियुक्त से प्रेम करती थी। अगर प्रेम और सहमति थी, तो फिर बलात्कार का आरोप वह लगाती ही क्यों ?
ब्रजेश कुमार बनाम हरियाणा[47] में उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति कहते हैं, ”अगर कोई सोलह वर्ष से बड़ी उम्र की लडक़ी सम्भोग में आनन्द उठाने के लिए, स्वेच्छा से किसी पुरुष के सामने समर्पण करती है तो यह नहीं कहा जा सकता कि पुरुष ने बलात्कार किया है। यहाँ, ‘सम्भोग का आनन्द’और पुरुष के सामने ‘स्वेच्छा से समर्पण’ की भाषा-संरचना के पीछे वही पुराना तर्क है कि ऐसी स्त्री स्वयं बलात् (सम्भोग) की इच्छुक होती है। अच्छी लडक़ी होती तो अपनी जान जोखिम में डालकर भी ‘सतीत्व’ या ‘कौमार्य’ की रक्षा करती। औरत के प्रतिरोध न करने का अर्थ है स्वेच्छा से समर्पण। और कानून या न्याय की भाषा में इसे ‘बलात्कार’ नहीं माना जाता। विवाहित महिला के साथ बलात्कार के एक मामले में सत्र न्यायाधीश ने तीन वर्ष कठोर कारावास की सजा सुनाई, परन्तु उच्च न्यायालय के माननीय न्यायमूर्ति श्री पी.पी. गुप्ता ने अभियुक्त को रिहा करते समय कहा कि पीडि़ता की गवाही पूर्णतया अमान्य और अविश्वसनीय है। निर्णय में लिखा है, ”यह विश्वास करने के लिए बेहद असम्भावित है कि पीडि़ता को उस समय भी यह पता नहीं लग पाया कि अभियुक्त उसका पति है या कोई और, जब अभियुक्त ने सम्भोग आरम्भ किया। एक विवाहित महिला और वह भी दो बच्चों की माँ, साँसों की गन्ध, डीलडौल, लिंग के आकार और लम्बाई, सम्भोग के तरीके और अन्य तत्त्वों तक से फौरन महसूस कर लेगी कि सहवास करनेवाला व्यक्ति उसका अपना पति है या कोई अन्य व्यक्ति….अस्तु, यह तथ्य कि सम्भोग शुरू होने के समय पीडि़ता ने न तो कोई प्रतिरोध किया और न ही शोर मचाया, उसके अपने व्यवहार को सन्देहास्पद बनाता है…उसने अभियुक्त को सम्भोग पूरा करने का अवसर दिया और इसके बाद ही शोर मचाना शुरू किया।[48]
सचित्र कोकशास्त्र से मुकाबला करती न्याय की भाषा
न्यायाधीश का अगला तर्क यह था कि उस दिन अँधेरी रात थी। तब वह अभियुक्त को कैसे पहचान सकती है–यह भी स्पष्ट नहीं होता। यही नहीं, यह भी सम्भवत: विश्वास योग्य नहीं है कि अभियुक्त ने एक हाथ से मुँह बन्द करके रखा और चारपाई से नीचे लाकर सम्भोग करने में कामयाब रहा… अभियुक्त को झूठे मुकदमे में फँसाने की इस सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि अभियुक्त के पिता और पीडि़ता के पति के सम्बन्ध तनावपूर्ण थे। उपरोक्त निर्णय में न्याय की भाषा तर्क (कुतर्क) की भाषा है। सामाजिक जीवन में स्त्री की स्थिति को भयावह अनुभव की भाषा नहीं कहा जा सकता। हालाँकि कानून और न्याय हमेशा तार्किक नहीं होता। नहीं हो सकता। अँधेरे में औरत अपने पति ‘परमेश्वर’ को तो पहचान सकती है–अभियुक्त को नहीं। पति को ‘साँसों की गन्ध’ या ‘लिंग का आकार और लम्बाई’ से पहचाना जा सकता है। मानो विवाहित औरतें पति के ‘लिंग का आकार और लम्बाई’ इंचटेप से नाप कर रखती हैं। दरअसल कानून, न्यायशास्त्र और ऐतिहासिक निर्णय ऐसी भाषा (अंग्रेजी) में हैं, जिसे ‘बहुमत’ पढऩा-लिखना ही नहीं जानता, समझना तो और दूर की बात है। जिस दिन ‘बहुमत’ अनपढ़ नहीं रहेगा या अपनी भाषा में जानने लगेगा, उस दिन यह ‘न्याय की भाषा’ नहीं रहेगी। नहीं रह सकती।
जनता की भाषा में ही न्याय की भाषा विकसित और समृद्ध हो सकती है। अगर अदालत की भाषा वादी, प्रतिवादी या मुवक्किल की भाषा नहीं है तो उस बेचारे वादी, प्रतिवादी या मुवक्किल को तो पता ही नहीं लगता कि वकीलों ने बहस में क्या कहा और न्यायमूर्ति ने क्या हुक्म दे दिया। मुवक्किल, वकील और न्यायमूर्ति जब एक दूसरे की भाषा को समान रूप से समझेंगे, तब सबको मालूम रहेगा कि क्या हुआ। न्याय या अन्याय ? गलत या सही ? विरोध-प्रतिरोध की सम्भावनाएँ बढ़ेंगी तो अन्याय की सम्भावना स्वत: समाप्त हो जाएगी। उस स्थिति में न्यायमूर्ति के निर्णय का हर शब्द, बहुत सोच-समझकर लिखा जाएगा, लिखना पड़ेगा, वरना…जनता सवाल करेगी और सवालों के जवाब भी देने ही पड़ेंगे।
‘फिट ऑफ पैशन‘ : टोकन पनिशमेंट
राजू और कृष्णा बनाम कर्नाटक राज्य[49] से सैलीना डिसूजा नाम की इक्कीस वर्षीया एक नर्स को अपने भाई की शादी में जाना था। रास्ते में देर हो गई। बंगलौर पहुँची तो पाँच बज गए। बस में साथ सफर कर रहे दो युवकों पर विश्वास करके, रात को होटल के एक कमरे में रुक गई। लडक़ों ने बारी-बारी से बलात्कार किया। मौका मिलते ही चीखी, चिल्लाई, शोर मचाया। सत्र न्यायाधीश ने 1980 में राजू को अपराधी माना मगर कृष्णा को नहीं। अभियुक्त की युवा उम्र और इस तथ्य को देखते हुए कि लडक़ी स्वेच्छा से अभियुक्त के साथ होटल के एक ही कमरे में रहने के लिए आई थी, जहाँ अभियुक्त ने सम्भोग कामना के दौर (फिट ऑफ पैशन) में बलात्कार किया, अभियुक्त राजू को उस दिन अदालत बन्द होने तक हिरासत में रखने और 500 रुपए जुर्माने की सजा सुनाई। बलात्कार के मामले में ऐसी ‘टोकन’ सजा का, शायद यह ‘अभूतपूर्व निर्णय’ कहा जा सकता है। अपील में उच्च न्यायालय के न्यायमूर्तियों ने 2 अगस्त, 1982 को दोनों अभियुक्तों को दोषी पाया और सात साल कैद का आदेश दिया। इसके विरुद्ध अभियुक्तों ने सर्वोच्च न्यायालय में अपील दायर की। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति श्री के. जयचन्द्रा रेड्डी और जी.एन. राय ने 12 अक्टूबर, 1993 को फैसला सुनाते समय कहा, ”भारतीय दंड संहिता की धारा 376 के अन्तर्गत दोनों अभियुक्तों की सजा में हस्तक्षेप करने का हमें कोई कारण नहीं मिला। जहाँ तक दोनों अभियुक्तों को सात साल कैद की सजा का सवाल है, हमें ऐसा लगता है कि यह असम्भव नहीं है कि शुरू में अभियुक्तों की वास्तव में यह ही इच्छा रही हो कि लडक़ी को भाई के घर जल्दी से जल्दी पहुँचाने में मदद की जाए। लेकिन बाद में जब वह रात को होटल के एक ही कमरे में साथ रहने को सहमत हो गई तो दोनों नवयुवक यौन हवस के शिकार हो गए और उन्होंने लडक़ी की असहमति और विरोध के बावजूद बलात्कार किया।
अभियुक्तों की बहुत युवा उम्र और उन परिस्थितियों को देखते हुए, जहाँ इस बात की सभी सम्भावनाएँ मौजूद हैं कि वे अपनी सम्भोग कामना के दौरे पर काबू नहीं पा सके, सारी सौम्यता और नैतिकता भुला बैठे और अन्तत: बलात्कार का अपराध किया (कर बैठे)। इस तथ्य को भी देखते हुए कि यह घटना बहुत पहले घटी थी और इस अदालत तक मुकदमेबाजी के दौरान, दोनों ही बहुत बदनामी और मानसिक पीड़ा झेल चुके हैं, हम सोचते हैं कि अगर दोनों अभियुक्तों को कम सजा सुनाई जाए, तो भी न्याय का लक्ष्य पूर्ण हो जाएगा। इसलिए हम निर्देश देते हैं कि इन दोनों अभियुक्तों को तीन साल कठोर कारावास का दंड भुगतना चाहिए….अपील के दौरान अभियुक्त जमानत पर रहे हैं। उन्हें हिरासत में ले लिया जाना चाहिए ताकि वे सजा भुगत सके। अभियुक्त के विद्वान वकील का तर्क था, ”लडक़ी ने खुद उत्पे्ररित किया था। अभियुक्त नौजवान था। उत्प्रेरणा और गम्भीर रूप से उकसाने पर, वह सम्भोग इच्छा के वशीभूत हो, मानसिक सन्तुलन खो बैठा। उस उम्र में यह सब होना बहुत स्वाभाविक है। क्या सचमुच ‘वेरी नेच्युरल’ नहीं? राज्य सरकार की ओर से विद्वान अधिवक्ता ने गम्भीरतापूर्वक कहा, ”अगर वह थोड़ी-सी बुद्धिमान और सतर्क होती तो शायद इन दो अनजान युवकों पर विश्वास न करती और ऐसा दुर्भाग्य न झेलना पड़ता।
हालाँकि शिक्षित है, मगर दिल से बहुत सीधी-सरल और मानवीय अच्छाइयों का सम्मान करनेवाली। सिर्फ भरोसा और विश्वास क रने का अर्थ यह नहीं कि अभियोजन पक्ष पर अविश्वास किया जाए….अगर अभियुक्त ने दुष्कर्ष नहीं, बल्कि लडक़ी की मदद की है तो यह अपेक्षा नहीं की जाती कि वह अभियुक्तों पर बलात्कार का झूठा आरोप लगाएगी। सवाल है कि आखिर वह ऐसा क्यों करेगी वह ही क्या, कोई भी नहीं कर सकता। उपरोक्त केस में सत्र न्यायाधीश द्वारा सुनाई ‘टोकन पनिशमेंट’ से लेकर सुप्रीम कोर्ट के उदारवादी-सुधारवादी निर्णय तक, एक शब्द बार-बार दोहराया गया है–’फिट ऑफ पैशन’। न्यायमूर्तियों द्वारा ही नहीं, बल्कि बचाव पक्ष के वकीलों द्वारा भी दो युवा लडक़े और एक जवान लडक़ी, तीनों होटल के एक ही कमरे में। रात का समय। ऐसी स्थिति में ‘सभी सम्भावनाएँ मौजूद’ हैं. नवयुवकों को ‘सम्भोग इच्छा का दौरा’ पडऩा भी ‘स्वाभाविक’ है और ‘सौम्यता और नैतिकता के पाठ भूल जाना भी। तेरह साल कोर्ट-कचहरी के दौरान युवकों ने कितनी ‘बदनामी और मानसिक पीड़ा’ झेली होगी ? तेरह में ग्यारह साल तो सर्वोच्च न्यायालय में ही लग गए। हाँ ! यही सब सचमुच ‘बहुत स्वाभाविक’ है। ‘वेरी नेच्युरल’, यू नो
बचपन से बलात्कार : हत्या
जुम्मन खान बनाम उत्तर प्रदेश राज्य[50] एकमात्र निर्णय है, जिसमें छह वर्षीया लडक़ी (सकीना) के साथ बलात्कार के बाद हत्या के अपराध में फाँसी की सजा हुई। गवर्नर और राष्ट्रपति द्वारा रहम की अपील रद्द होने के बाद सुप्रीम कोर्ट द्वारा भी पुनर्विचार याचिका या रिट पिटीशन रद्द की गई। इस दुर्भाग्यपूर्ण मुकदमे में 26 जून, 1983 को करीब चार बजे जुम्मन मियाँ ने अपने पड़ोसी यूसुफ खाँ की पत्नी दुल्हे खान बेगम से प्रार्थना की कि वह अपनी बेटी सकीना को उसके साथ बाजार भेज दे, वह उसके लिए आइसक्रीम लाना चाहता है। बेगम ने बिटिया जुम्मन के साथ भेज दी और खुद सो गई। घंटे-भर बाद उठी तो देखा बेटी अभी तक नहीं आई। पहले उसने सोचा शायद बाहर बच्चों के साथ खेल रही होगी। लेकिन समय बीता तो वह घबराई। इधर-उधर देखने के बाद जब सकीना नहीं मिली तो वह खुद जुम्मन के घर पहुँची लेकिन वहाँ ताला लगा मिला। पति आए करीब सात बजे तो अड़ोस-पड़ोस में बच्ची ढूँढ़ते रहे, पर बच्ची होती तो मिलती। मामला सुन-सुनकर भीड़ इकट्ठी हो गई। जब यूसुफ खान दोबारा जुम्मन के घर जा रहे थे तो पड़ोसी ने बताया कि करीब साढ़े चार बजे उसने सकीना को एक हाथ में आइसक्रीम लिये, जुम्मन की उँगली पकड़े घर में घुसते हुए देखा था। दूसरे ने बताया कि वह जुम्मन के घर के आगे से गुजर रहा था तो उसने घर के अन्दर से आती बच्ची के रोने की आवाज सुनी थी। उत्तेजित भीड़ जुम्मन के घर पहुँची और दरवाजे के सुराख से टॉर्च जलाकर देखा तो अन्दर चारपाई पर बुर्के में लिपटी बच्ची की लाश पड़ी थी। दरवाजा तोडक़र भीड़ अन्दर पहुँची तो पाया कि लाश सकीना की ही थी, जिसके शरीर पर काफी चोटों के निशान मौजूद थे।
आगरा के जिला एवं सत्र न्यायाधीश ने जुम्मन को फाँसी का हुक्म दिया। उच्च न्यायालय ने भी फैसले की पुष्टि करते हुए कहा, ”अपराधी के जघन्य और अमानुषिक कृत्यों को देखते हुए वह किसी प्रकार की नरमी का अधिकारी नहीं है। उसने सोच-समझकर छह साल की बेबस बच्ची के साथ बलात्कार किया है और गला घोंट कर हत्या करने तक गया है। उच्च न्यायालय के फैसले के विरुद्ध जुम्मन ने सुप्रीम कोर्ट में विशेष अनुमति याचिका दायर की। सुप्रीम कोर्ट ने 20 मार्च, 1986 को याचिका खारिज करते हुए ऐतिहासिक निर्णय सुनाया, ”जहाँ अपराध समाज के विरुद्ध हो, वहाँ ऐसे गम्भीर मामलों में मृत्युदंड की सजा न देना विशेषकर हत्या के ऐसे मामलों में जो अत्यन्त नृशंसता के साथ किए गए हों, भारतीय दंड संहिता की धारा 302 जो (फाँसी की सजा का प्रावधान करती है) को शून्य में बदलना होगा।। अदालत का यह कर्तव्य है कि अपराध की गम्भीरता के अनुसार उचित सजा के निर्णय सुनाए। सामाजिक आवश्यकता और सम्भावित अपराधियों को रोकने के लिए भी एकमात्र उचित सजा जो अपराधी जुम्मन को मिलनी चाहिए, वह मृत्युदंड के अलावा और कुछ भी नहीं हो सकती, क्योंकि उसने अपनी कामपिपासा शान्त करने के लिए, एक निर्दोष बच्ची की भयंकर तरीके से कलंकपूर्ण हत्या का अपराध किया है।
जुम्मन ने 12 अप्रैल, 1986 को गवर्नर से रहम की अपील भी की जो 18 फरवरी, 1988 को रद्द हो गई। राष्ट्रपति ने भी रहम की अपील 10 जून, 1988 को ठुकरा दी। 15 जुलाई, 1988 को दूसरी रहम की अपील की गई। इसके बाद 10 नवम्बर, 1988 को फिर सुप्रीम कोर्ट में एक रिट दाखिल की गई, जिसमें मृत्युदंड की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी गई और फिलहाल के लिए मृत्युदंड रुकवा दिया गया। इस याचिका को भी सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्तियों ने 30 नवम्बर, 1990 को मानने से इनकार कर दिया। जुम्मन के विद्वान वकील श्री आर.के . जैन (जो मृत्युदंड के कट्टर विरोधी हैं) की सारी दलीलें सुनने के बाद न्यायमूर्तियों को सजा घटाने का कोई उचित आधार या तर्क नजर नहीं आया। कैसे आता ? लेकिन दुखद तथ्य यह है कि जुम्मन खान के बाद भी मासूम बच्चियों के साथ बलात्कार के बाद हत्या के मामलों को ‘दुर्लभतम में दुर्लभ’ नहीं माना गया। अनेक फैसले इसका प्रमाण हैं।
राजकीय महाविद्यालय, सुनाम के प्रोफेसर गुरपाल सिंह अपनी पत्नी मनजीत कौर और करीब दो वर्षीया बेटी मल्हार के साथ अपनी भानजी की शादी के अवसर पर चुघे कलाँ (पंजाब) गए हुए थे। शादी के अगले दिन 21 मार्च, 1991 को मल्हार, हरचेत सिंह की गोदी में रही थी। हरचेत सिंह (उम्र 29 साल) गुरपाल सिंह के जीजा कश्मीरा सिंह का मित्र था जो घर अक्सर आता रहता था। दूल्ला-दुल्हन के जाने के बाद गुरपाल सिंह और उनकी पत्नी ने जब मल्हार की तलाश की तो आसपास कहीं नहीं मिली। काफी ढूँढऩे के बाद जब वे खेत में पहुँचे तो देखा कि हरचेत सिंह दो वर्षीया मल्हार के साथ बलात्कार कर रहा है। उन्हें देखकर हरचेत सिंह भाग खड़ा हुआ। मल्हार के पास पहुँचे तो वह खून से लथपथ दम तोड़ चुकी थी।
पुलिस-थाना-कोर्ट-कचहरी-गवाहों के बयान और वकीलों की बहस सुनने के बाद भटिंडा के सत्र न्यायाधीश ने हरचेत सिंह को बलात्कार के जुर्म में उम्रकैद और दो हजार रुपया जुर्माने और हत्या के जुर्म में फाँसी और दो हजार रुपया जुर्माने की सजा सुनाई। लेकिन पंजाब व हरियाणा उच्च न्यायालय के माननीय न्यायमूर्ति श्री जय सिंह शेखो और ए.एस. नेहरा ने अपील में फाँसी की सजा रद्द करके सिर्फ आजीवन कैद का फैसला50 सुनाते हुए कहा, ”सजा के सवाल पर बहस सुनने के बाद, हम महसूस करते हैं कि यह केस ‘दुर्लभतम में दुर्लभ की श्रेणी में नहीं आता है। अतएव माननीय न्यायमूर्तियों ने फाँसी की सजा देने से मना कर दिया था। दिल्ली उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने भी राज्य बनाम अतरू रहमान[51] में फाँसी की सजा की पुष्टि नहीं की थी। हालाँकि अभियुक्त ने छह साल की बच्ची के साथ बलात्कार करने के बाद उसकी हत्या कर दी थी। जुम्मन खान के मामले में[52] सुप्रीम कोर्ट का निर्णय यहाँ लागू नहीं होता। (जिसे सेशन जज ने आधार माना है) क्योंकि ”उस केस में जुम्मन ने पहले से सोच-समझ और पूरी तैयारी के साथ बेबस बच्ची के साथ बलात्कार किया था, गला घोंटकर हत्या की थी। प्रस्तुत मुकदमे में मृतक (मल्हार) की मृत्यु बलात्कार के कारण पीड़ा, खून बहने व सदमे से हुई है जो आमतौर पर मृत्यु के लिए काफी है। अपराध कामपिपासा शान्त करने के लिए किया गया था। पहले से दोनों पक्षों के बीच कोई दुश्मनी नहीं थी। ऐसा लगता है कि अपीलार्थी में कामपिपासा इतनी अधिक बढ़ गई थी कि उसे आदमी के रूप में जानवर बना दिया था।
दो साल की बच्ची के साथ 29 वर्षीय नौजवान आदमी बलात्कार करेगा तो निश्चित ही है कि बच्ची जिन्दा कैसे बचेगी ? कामपिपासा शान्त करने के लिए, दो साल की बच्ची के साथ ऐसा कुकर्म ? इससे अधिक घृणित और जघन्यतम अपराध और क्या होगा ? जब इसे घृणित और ‘जघन्यतम अपराध’ मान लिया जाता है तो यह कहने का क्या अर्थ है कि यह ‘दुर्लभतम में दुर्लभ’ मामला नहीं है। आदमी जब जानवर (भेडिय़ा) हो जाए तो उसे आजीवन कैद में रखने का मतलब सजा देना है और ऐसे भेडिय़ों को जेल में सुरक्षित रखना ? दिल्ली प्रशासन बनाम पन्नालाल उर्फ पंडितजी उर्फ बन्ना उर्फ सरदार में दो वर्षीय नीतू के साथ बलात्कार और हत्या के अपराध में सत्र न्यायाधीश श्री एम.एम. अग्रवाल ने फाँसी की सजा सुनाई मगर उच्च न्यायालय के न्यायमूर्तियों (श्रीमती सुनन्दा भंडारे और अनिलदेव सिंह) ने उम्रकैद में बदल दिया। हालाँकि निर्णय में स्वीकार किया गया है कि ”दो साल की बच्ची को एक विकृत पुरुष की हवस का शिकार होते देखना, बेहद घृणास्पद है। बेबस बच्चों से बलात्कार के कँपा देनेवाले अपराध, सचमुच कानून द्वारा निर्धारित अधिकतम दंड के अधिकारी हैं लेकिन[53]… मृत्युदंड को आजीवन कैद और आजीवन कैद को दस साल कारावास में बदलना यह प्रथम और अन्तिम फैसला नहीं है। सत्र-न्यायमूर्तियों ने अधिकांश मामलों में सजा कम की है, जिसका व्यापक स्तर पर असर हुआ है। प्राय: हर मामले में अपील दायर की जाती है। अपील मंजूर होने पर जमानत होने की सम्भावना और फैसला होने तक आजादी से इनकार नहीं किया जा सकता। अपील का फैसला होने में (पाँच से बीस साल तक) तो समय लगेगा। लगता ही है।
रियासत बनाम उत्तर प्रदेश, छह साल की गुडिय़ा के साथ बलात्कार के बाद नृशंस हत्या की भयावह कहानी है। गुडिय़ा हरिजन बाप बदलू की बेटी का नाम है, जिसकी रियासत ने 31 जनवरी, 1991 को गन्ने के खेत में बलात्कार के बाद उस समय हत्या कर दी। जब सारे देश में हर्षोल्लास के साथ रविदास जयन्ती मनाई जा रही थी। हरिद्वार के जिला व सत्र न्यायाधीश श्री जे.सी. गुप्ता ने रियासत को मृत्युदंड सुनाया लेकिन इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति श्री एस.के. मुखर्जी और जे. पी. सेमवाल ने फाँसी की सजा रद्द करके उम्रकैद की सजा सुनाते हुए कहा, ”बलात्कार करने के बाद अपीलार्थी ने हत्या की है। हत्या पहले से सोचकर, योजनाबद्ध या संकल्प के साथ नहीं की गई। हत्या मात्र अधीरता या इस भय के बाद की गई कि कहीं मृतक भेद न खोल दे। अपराधी एक नौजवान व्यक्ति है और गुडिय़ा के साथ बलात्कार करने के बाद अपने आपे में नहीं रहा और उसी बीमार मानसिक स्थिति में उसने हत्या कर दी। यह कर्म एक प्रकार की मानसिक विक्षिप्तता की तरफ ले जाता है। हत्या के मामले में आमतौर पर सजा उम्रकैद होती है। विशेष मामलों में निर्णय के कारण लिखकर मृत्युदंड भी दिया जा सकता है। अपीलार्थी उम्रकैद की सजा भुगत सकता है और उसे भविष्य में ऐसा अपराध करने का मौका नहीं मिलेगा।[54] विनोद बनाम राज्य में 11-12 साल की रेणु के साथ प्रेमदत्त ने शिव मन्दिर, अलीगढ़ में बलात्कार किया और उसके बाद हत्या। सत्र न्यायाधीश ने हत्या के लिए फाँसी की सजा सुनाई मगर उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति श्री गिरधर मालवीय और ए.बी. श्रीवास्तव ने फाँसी की सजा को आजीवन कारावास में बदलते हुए कहा, ”हमें लगता है कि यह केस फाँसी की अधिकतम सजा की माँग नहीं करता। अपीलार्थी जिसकी उम्र सिर्फ बाईस साल थी, ऐसा लगता है कि मृतका को अपने साथ हत्या करने के लिए नहीं, बल्कि अपनी हवस पूरी करने के लिए ले गया था। हम महसूस करते हैं कि ‘न्याय का उद्देश्य’ अपराधी को उम्रकैद की सजा से पूरा हो जाएगा।[55]
सिद्दिक सिंह बनाम महाराष्ट्र[56] में 26 वर्षीय, फौजी जवान द्वारा चार महीने की बच्ची के अपहरण,बलात्कार और हत्या (लाश अन्धे कुएँ में) के मामले में भी सजा उम्रकैद ही रही। हालाँकि न्यायमूर्तियों ने स्वीकारा, ”हमारे लिए इससे अधिक जघन्य बलात्कार की कल्पना तक करना कठिन है। निर्णय में जुम्मन खान का उल्लेख तक नहीं है। बच्चियों से बलात्कार और हत्या के अनेक ऐसे मामले हैं जिनमें अभियुक्त को सन्देह का लाभ देकर बाइज्जत बरी किया गया है। पाँच वर्षीया सुकुमारी के साथ बलात्कार और हत्या के अपराध के एक मामले में मुजरिम को रिहा करते हुए सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति श्री एस. रतनावेल पांडियन और के. जयचन्द्रा रेड्डी ने कहा, ”हम सचेत हैं कि एक गम्भीर और संगीन अपराध हुआ है, लेकिन जब अपराध का कोई सन्तोषजनक प्रमाण न हो तो हमारे पास अभियुक्त को सन्देह का लाभ देने के अलावा कोई विकल्प नहीं है, इसलिए इस मुकदमे में हम ऐसा करने को विवश हैं[57]। चौदह वर्षीया लडक़ी माड़ी के साथ बलात्कार के बाद हत्या के एक और मामले में मृत्युदंड को आजीवन कारावास में बदलते हुए सर्वोच्च न्यायालय के विद्वान न्यायमूर्ति श्री जी.टी. नानावती ने लिखा है, ”लेकिन उपलब्ध साक्ष्य उच्च न्यायालय द्वारा मृत्युदंड के कारणों को उचित नहीं ठहराते। साक्ष्यों से यह नहीं लगता कि अभियुक्त ने माड़ी को अचानक पकड़ लिया था और वह एकदम विवश थी। उसने अपनी सलवार पूरी तरह से उतार रखी थी जो शायद आवश्यक नहीं थी अगर वह केवल निवृत्त होने गई थी। घटनास्थल पर कोई पाखाना नहीं मिला। अगर उस पर इस प्रकार अचानक हमला हुआ था (जैसा कि उच्च न्यायालय ने माना है) तो वह पहले ही चिल्लाती न कि अपीलार्थी द्वारा बलात्कार शुरू करने के बाद….उसने अपनी सलवार ही नहीं उतारी हुई थी, बल्कि कुर्ता भी गर्दन पर चढ़ाया हुआ था….परिस्थितियाँ बताती हैं कि सम्भवत: आरम्भ में वह स्वयं भी अपीलार्थी को कुछ हद तक आजादी ले लेने के प्रति अनिच्छुक नहीं थी।
अपीलार्थी अपनी काम-इच्छा नहीं रोक पाने के कारण लडक़ी की अनिच्छा के बावजूद आगे बढ़ गया। इस पर लडक़ी ने प्रतिवाद किया और शोर मचाना शुरू किया। लडक़ी को शोर मचाने से रोकने के लिए अपीलार्थी ने सलवार उसके गले में बाँध दी जिससे उसकी दम घुटने से मृत्यु हो गई।[58] माननीय न्यायमूर्ति के अनुसार लडक़ी कुछ हद तक ‘छेड़छाड़’ के लिए तो उत्सुक थी मगर सम्भोग के लिए राजी नहीं थी। अगर यह सच माना जाए तो उसे सलवार उतारने की क्या जरूरत थी ? चौदह वर्षीया लडक़ी की सहमति या असहमति का प्रश्न उठाना व्यर्थ है। बिना सलवार उतारे बलात्कार कैसे होता ? क्या अभियुक्त कुर्ता ऊपर नहीं कर सकता ? लडक़ी को चुप कराने के लिए सलवार से गला घोंटा गया है। बलात्कार और हत्या का उद्देश्य और कारण ‘कामपिपासा या हवस शान्त करना और विक्षिप्त या मानसिक बीमारी मानते हुए सजा कम करते निर्णयों से क्या ‘न्याय का लक्ष्य पूरा हो रहा है ? हो जाएगा ? सजा कम करने के लिए अगर अपीलार्थी की उम्र महत्त्वपूर्ण है, तेा अधिकतम दंड के लिए बलात्कार और हत्या की शिकार बच्ची की उम्र और अपराध की जघन्यता को कैसे भुलाया जा सकता है ? बच्चों से बलात्कार घृणित और जघन्यतम अपराध हैं, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि वयस्क महिलाओं से बलात्कार कम घृणित हैं।
न्याय का लक्ष्य
‘न्याय का लक्ष्य‘ या ‘उद्देश्य‘ पूरा हो या न हो, पुरुषों की हवस या कामपिपासा तो पूरी हो ही रही है। बच्चियों से बलात्कार में बढ़ोतरी का एक मुख्य कारण यह भी है कि युवा लड़कियाँ, बच्चियों की अपेक्षा अधिक विरोध कर सकती हैं, चीख सकती हैं और शिकायत कर सकती हैं। बलात्कारी पुरुष सोचता है–बच्चियाँ बेचारी क्या कर लेंगी ? विशेषकर जब बलात्कार घर में पिता, भाई, चाचा, ताऊ या अन्य रिश्तेदारों द्वारा किया गया है। अक्सर कम उम्र की बच्चियाँ बलात्कार के कारण मर जाती हैं। हत्या और बलात्कार के अधिकांश मामलों में अभियुक्त बरी हो जाता है या सजा कम करवा पाने में सफल क्योंकि लडक़ी गवाही के लिए अदालत के सामने नहीं होती। ऐसे में हो सकता है (होता है) कि अदालत की सहानुभूति मृतक ‘गुडिय़ा’, ‘मल्हार’ या ‘रेणु’ की बजाय बलात्कारी बटोर ले जाए। सजा के सवाल पर न्यायमूर्तियों के मानवीय दृष्टिकोण से न्याय का लक्ष्य, पूरा हो जाएगा–कहना कठिन है। लगभग सत्तर साल पहले लाहौर उच्च न्यायालय के न्यायमूर्तियों ने चेतावनी देते हुए कहा था कि ”औरतों पर हिंसा के अपराध के साथ, जो स्वयं अपनी रक्षा करने की स्थिति में नहीं हैं, सख्ती से निपटना पड़ेगा। यह अत्यन्त दुखद स्थिति होगी, अगर अपराधियों को यह सन्देश मिलता है कि औरतों के साथ हिंसा या बलात्कार करना कोई गम्भीर मसला नहीं है। और अगर वे अपेक्षाकृत कम कारावास की सजा भुगतने के लिए तैयार हों, तो वे हमेशा अपनी पाशविक कामनाओं को शान्त कर सकते हैं।[59] यानी, कम सजा की सम्भावना, हिंसक अपराधों को शान्त कर सकते हैं।56 यानी, कम सजा की हिंसक अपराधों को बढ़ावा देती है। देती रहेगी। एक और न्यायमूर्ति के शब्दों में सजा कम करने का अर्थ ”असुरक्षित लड़कियों को समाज में भेडिय़ों के सामने छोड़ देना ही होगा।[60] क्या ‘मानवाधिकार’ सिर्फ खूँख्वार अपराधियों के लिए ही हैं ? अपने बचाव में बालिग स्त्री को तो हत्या करने का कानूनी अधिकार है, मगर अबोध बच्चियाँ क्या करें ?
इसी सन्दर्भ में इमरतलाल के मामले में मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के एक न्यायमूर्ति की विवशतापूर्ण टिप्पणी है, ”जब बलात्कार का अपराध सिद्ध हो जाए और वह भी छोटी उम्र की बच्ची के साथ तो ऐसे में अपराध की सजा कठोरता से दी जानी चाहिए। अपराधी को सिर्फ तीन साल कैद की सजा देने का अर्थ उसे ‘पिकनिक पर भेजना है। राज्य सरकार ने सजा को चुनौती नहीं दी है, इसलिए सजा बढ़ाई नहीं जा सकती।[61] राज्य सरकार द्वारा ‘सजा को चुनौती’ न देने के कारण, अब तक न जाने कितने अपराधियों को ‘पिकनिक’ पर भेजना पड़ा है। कानूनी नियमों से बँधे न्याय की मजबूरी है। राज्य सरकार द्वारा सजा को चुनौती न दिए जाने के कारण अपराधी की सजा बढ़ाई नहीं जा सकती मगर घटाई जा सकती है। सजा कम करने का कारण, कभी अपराधी की ‘उम्र’ है तो कभी ‘नौकरी छूट जाना’ या ‘सामाजिक अपमान और बदनामी’ कुछ फैसलों की शुरुआत, ‘अधम, घृणित, जघन्य, भयावह, पाशविक वगैरह-वगैरह’ से होती है। फिर पाशविक इच्छाओं, यौनशुचिता, प्रतिष्ठा, गरिमा, सम्मान, नैतिकता और सामाजिक मान-मर्यादा का पाठ पढ़ाती कुछ नजीरों में बेहतरीन भाषा के नमूने। अन्य में ”यद्यपि अभियुक्त का अपराध बेहद घृणित और तिरस्कार योग्य है, लेकिन हम इसे अधिकतम सजा के लिए उपयुक्त नहीं मानते और दस वर्ष कारावास की वैकल्पिक सजा में बदल रहे हैं।[62] क्योंकि अधिकतम सजा ‘दुर्लभतम में दुर्लभ’ मामलों में ही दी जानी चाहिए। स्कूल हेडमास्टर द्वारा दस वर्षीया बालिका से बलात्कार की इस घटना ने ‘गुरु-शिष्य के सम्माननीय सम्बन्धों को कलंकित किया है। लेकिन आजीवन कारावास की अधिकतम सजा ‘उचित’ नहीं हो सकती। न्यूनतम सजा से ही न्याय का लक्ष्य पूरा हो जाएगा।
रामरूपदास बनाम राज्य के उपरोक्त मामले में विद्वान न्यायमूर्ति ए. पासायत और एम. पटनायक के निर्णय में सर्वोच्च न्यायालय के फैसलों की ‘भाषा का जादू’ भी देखा जा सकता है और ‘जादुई भाषा’ का कमाल भी। पूरा निर्णय उधार की भाषा में इस प्रकार लिखा गया है कि मुझ जैसे अनेक कानून के विद्यार्थी आश्चर्यचकित रह जाए। आधे से ज्यादा निर्णय में तो सर्वोच्च न्यायालय की नजीरों का उल्लेख तक नहीं किया गया। लगता है, न्यायमूर्तियों की मौलिक और अप्रकाशित रचना है। क्या ऐसे ही ‘न्याय की भाषा’ विकसित और समृद्ध होगी? जाहिर है, कैसे हो सकती है? स्त्री के विरुद्ध हिंसा के प्रति सहानुभूति और संवेदना की भाषा को टुकड़ों में काट-बाँट कर नहीं देखा जा सकता। परिपूर्णता में देखना होगा। यहाँ सर्वोच्च न्यायालय की नजीरों से आतंकित, न्यायिक विवेक सिर्फ विकल्प ढूँढ़ता दिखाई देता है। अपराध, अपराधी, तथ्यों, स्थितियों को, न्याय की तुला पर तौलते हाथ काँपते नजर आते हैं। क्यों?छह वर्षीया बालिका शिवानी के साथ पैंसठ वर्षीय वृद्ध पुरुष द्वारा बलात्कार के अपराध को जघन्यतम करार देते हुए भी, दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति श्री पी.के. बाहरी और एस.डी. पंडित ने सजा के सवाल पर कहा, ”इस घटना के बाद अभियुक्त की पत्नी की मृत्यु हो गई है। वह तब से अब तक जेल में है। बहुत बूढ़ा है। आंंशिक लिंगच्छेदन किया है। सहवास का केवल प्रयास किया है और बालिका के गुप्तांगों को बहुत ज्यादा नुकसान नहीं पहुँचा है। इन परिस्थितियों पर विचार करने के बाद हम, उम्रकैद की सजा कम करके दस साल कारावास में बदल रहे हैं।[63] अपराध संगीन है लेकिन…
आरोप झूठा है : गवाह ‘खतरनाक‘
एक अन्य मामले में छह वर्षीया मंजू के साथ मई, 1988 में बलात्कार का प्रयास किया गया। सत्र न्यायाधीश ने मई, 1990 में तीन साल कैद और 500 रुपए जुर्माना किया। लेकिन पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के विद्वान न्यायमूर्ति ने जनवरी, 1994 में गवाहों के बयान में विसंगतियों के आधार पर केस को झूठा मानते हुए, अभियुक्त को सन्देह का लाभ देकर बरी कर दिया। न्यायमूर्ति ने कहा, ”मंजू स्वयं बच्ची है और वह गवाहों की उस ‘खतरनाक श्रेणी’ में आती है, जिन्हें आसानी से उनके माता-पिता या बुजुर्ग, अपने निजी स्वार्थों के लिए, बेबुनियाद आरोप लगाने के लिए बहका सकते हैं। रिपोर्ट में मात्र पाँच घण्टे की देरी को अस्वाभाविक मानते हुए न्यायमूर्ति ने लिखा, ”यह तथ्य स्पष्ट तौर पर दर्शाता है कि अपीलार्थी को फँसाने के लिए काफी समय उपलब्ध था।[64] बच्चे गवाह नहीं हो सकते, उनकी गवाही ‘खतरनाक’ है। उन्हें बहकाना आसान है और ‘निजी स्वार्थों’ के लिए, माँ-बाप ‘बेटी से बलात्कार’ का ‘झूठा आरोप’ भी लगा सकते हैं। बदलते भारतीय समाज की संरचना को समझने के लिए, ऐसे निर्णय वास्तव में ही ‘उल्लेखनीय हैं। विशेषकर समाजशास्त्र के विद्यार्थियों के लिए। इसके विपरीत नौ वर्षीया रेखा के साथ बलात्कार के मामले में अभियुक्त ने अपने बचाव में तर्क दिया कि आपसी रंजिश की वजह से उसे सबक सिखाने के लिए झूठे मुकदमे में फँसाया गया है। कलकत्ता उच्च न्यायालय के
न्यायमूर्ति श्री जे.एन. होरे और ए. राजखोवा ने कहा, ”आपसी रंजिश का तर्क एक दुधारी तलवार की तरह है जो दोनों तरफ से काटती है…हमें लगता है कि इस बात की बहुत कम सम्भावना है कि अभियुक्त को ऐसे अपराध के झूठे इल्जाम में फँसाया गया हो, जिससे लडक़ी की प्रतिष्ठा और भविष्य प्रभावित होते हों और छोटे से आपसी झगड़े की वजह से सामाजिक दाग लगता हो।[65] ऐसे घृणित अपराध में झूठे अपराध लगाना सम्भव है या नहीं, इसका सही जवाब बेटी के माँ-बाप ही दे सकते हैं।
एक और मामले में चौबीस साल के नवयुवक ने दस साल की स्कूल जाती लडक़ी के साथ, गन्ने के खेत में बलात्कार किया। अभियुक्त के वकीलों ने अपील में कहा, ”अभियुक्त की सही पहचान नहीं हुई है। रिपोर्ट देरी से दर्ज कराई गई है और अभियुक्त चौबीस वर्षीय नौजवान है, जिसके पास ‘उज्ज्वल भविष्य’है। इसलिए सजा कम करने में नरम रुख अपनाया जाए। लेकिन उच्च न्यायालय के विद्वान न्यायमूर्ति श्री राधाकृष्ण राव ने कहा, ”यह एक भयंकर अपराध है जो सुबह आठ बजे, दिन-दहाड़े दस साल की मासूम बच्ची के साथ किया गया। यह उस लडक़ी का जीवन भर पीछा करता रहेगा। रहम का कोई कारण नहीं है। रिपोर्ट दर्ज कराने में देरी के तर्कों को रद्द करते हुए न्यायमूर्ति ने लिखा है, ”विशेषकर बलात्कार और छेड़छाड़ के मामलों में औरतें या उनके सम्बन्धी स्वाभाविक रूप से थाने में रपट दर्ज कराने से पहले दो बार सोचते हैं। गाँवों में यह और अधिक होता है, क्योंकि इससे पीडि़ता के परिवार की प्रतिष्ठा और इज्जत जुड़ी हुई है।[66] गाँव के खेत में बेरहमी से बलात्कार के एक और केस में दस वर्षीया लडक़ी के साथ बलात्कार करनेवाले बीस वर्षीय युवक के वकीलों ने बहस में कहा, ”गाँव में पार्टीबाजी की वजह से लडक़ी के बाप ने अभियुक्त को गलत मुकदमे में फँसाया है। लेकिन उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति ने अपने निर्णय में लिखा, ”कोई भी आदमी इस हद तक नीचे नहीं गिरेगा कि वह पार्टीबाजी की वजह से अपनी नाबालिग बेटी के भविष्य को, बलात्कार के आरोप लगाकर दाँव पर लगा दे। न्यायमूर्ति श्री डी.जे. जगन्नाथ राजू की यह टिप्पणी भी महत्त्वपूर्ण है, ”खेत की रखवाली के लिए भेजी गई लडक़ी के साथ बहुत ही अमानवीय ढंग से बलात्कार किया गया है। इस तरह के अभियुक्त के साथ किसी भी प्रकार की सहानुभूति नहीं दिखाई जा सकती। याद रखना चाहिए कि ग्रामीण इलाकों में अकेली औरतें खेतों में कृषि-कार्य करती हैं। अगर इस प्रकार के अभियुक्तों के साथ ढंग से व्यवहार नहीं किया गया तो खेतों में अकेली काम करनेवाली औरतों की कोई सुरक्षा या संरक्षा ही नहीं रह जाएगी।[67]
छोटी उम्र की बच्चियों के साथ बलात्कार के मामलों में कुछ न्यायमूर्तियों की भाषा अपेक्षाकृत संयमित और संवेदनात्मक है। परन्तु कुछ निर्णय पढ़ते हुए, अभी भी लगता है कि न्यायमूर्ति सिर्फ कानून और न्याय की भाषा ही जानते हैं। दस-बारह साल की बच्ची के अपहरण और बलात्कार के एक मामले में उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति श्री जी.एस.एन. त्रिपाठी डॉक्टरी रिपोर्ट का पोस्टमार्टम करते हुए कहते हैं, ”तो मैं कह सकता हूँ कि लडक़ी काफी लम्बे समय से सम्भोग की आदी थी और ”मैं सिर्फ इतना ही कहना चाहता हूँ कि यह एक भ्रष्ट चरित्र की लडक़ी थी और बिना अन्य प्रमाणों के, सिर्फ उसका बयान सजा सुनाने के लिए पर्याप्त नहीं है।[68] ऐसी भ्रष्ट चरित्र की लडक़ी के आरोपों को ‘विश्वसनीय’, कैसे माना जा सकता है? ‘विद्वान सत्र न्यायाधीश को फौजदारी कानून का बिलकुल कुछ ज्ञान ही नहीं था। वरना…ऐसे बेबुनियाद मुकदमे में सजा सुनाता। सजा देने का अधिकार नहीं उच्च न्यायालय के माननीय न्यायमूर्तियों द्वारा लिखी कानून और न्याय की ऐसी ‘मानवीय’, ‘संवेदनशील’ और नैतिक संस्कारों में बँधी भाषा के बीच, मुझे दिल्ली की जिला अदालत के एक युवा मजिस्टे्रट श्री राजकुमार चौहान द्वारा सुनाया एक फैसला अक्सर याद आ जाता है। आठ वर्षीया चन्दा के साथ, उसके अपने पिता द्वारा अप्राकृतिक मैथुन के मामले की वर्ष भर में सुनवाई समाप्त करने के बाद, मजिस्टे्रट चौहान ने अपने अविस्मरणीय निर्णय में लिखा कि ”इस मुकदमे की सुनवाई के दौरान मुझे हमेशा अहसास होता रहा कि मैं स्वयं कटघरे में खड़ा हूँ। चन्दा द्वारा अपने पिता के विरुद्ध लगाए गम्भीर (पवित्र) आरोप, सचमुच आश्चर्यचकित करनेवाले थे और पिता का अपराध बेहद घृणित। लडक़ी की माँ सरस्वती की आँसू-भरी चीखों और इस आत्मलाप को सुनने के बाद मेरा हृदय और आत्मा तक आहत ही नहीं, बल्कि लहूलुहान हो गए कि अगर मुझे सपने में भी खयाल आ जाता कि मेरा पति ऐसा दुष्कर्म करेगा तो मैं उसके बच्चों की माँ ही नहीं बनती।
मजिस्टे्रट चौहान ने अपने निर्णय में संयुक्त परिवारों के विघटन, औद्योगिकीकरण से लेकर एकल परिवारों में पुरुष वर्चस्व की ऐतिहासिक और सामाजिक पृष्ठभूमि का उल्लेख करते हुए लिखा है कि न्यायाधीश की भूमिका तो शुरू ही तब होती है, जब खेत की मेड़ ही घास खा चुकी होती है। खैर अभियुक्त को पूर्ण रूप से दोषी मानते हुए श्री चौहान ने अपना फैसला मुख्य दंडाधिकारी को भेजा, जिन्होंने अभियुक्त को छह वर्ष सश्रम कारावास की सजा सुनाई। इसके विरुद्ध अभियुक्त ने सत्र न्यायाधीश के यहाँ अपील दायर की और फिर जमानत पर छूट गया। कोई नहीं जानता कि ऐसी अपीलों का अन्तिम फैसला कब होगा। क्या होगा ? यहाँ यह बताना जरूरी है कि भारतीय दंड संहिता की धारा 377 (अप्राकृतिक मैथुन) की सुनवाई का तो अधिकार मजिस्टे्रट को है लेकिन उसे तीन साल कैद से अधिक सजा सुनाने का अधिकार नहीं है। जबकि इस अपराध के लिए अधिकतम सजा आजीवन कारावास या दस साल कारावास और जुर्माना निर्धारित की गई है या तो ऐसे मामलों की सुनवाई का अधिकार सत्र न्यायाधीश को होना चाहिए या फिर मजिस्टे्रट को सुनवाई का ही नहीं, सजा देने का भी अधिकार हो। वरना…उचित न्याय कठिन है।
बहस दोबारा होऽऽ
नन्दकिशोर रथ बनाम नन्दा उर्फ अनन्त सोहरा वह अन्य[69] में 30 जनवरी, 1985, रात आठ बजे, गाँव रंभा, जिला कटक में आठ साल की लडक़ी चम्पीना गाँव में कथक देखने जा रही थी कि रास्ते में अभियुक्त उसे पकडक़र घर ले गया और बलात्कार किया। खून से भीगी पैंट पहने लडक़ी घर पहुँची तो जाकर माँ को बताया। रात करीब नौ बजे पिता घर लौटे तो माँ-बेटी दोनों बैठी रो रही थी। डॉक्टरी रिपार्ट के अनुसार भी बलात्कार प्रमाणित हुआ लेकिन सत्र न्यायाधीश ने अभियुक्त को बाइज्जत बरी कर दिया और कहा कि ”सिर्फ लडक़ी के बयान के आधार पर सजा नहीं दी जा सकती और बयान की पुष्टि अन्य प्रमाणों से नहीं हो रही है। 1986 में सत्र न्यायाधीश के निर्णय के विरुद्ध लडक़ी के पिता ने उड़ीसा उच्च न्यायालय में पुनर्समीक्षा याचिका दायर की। सुनवाई के बाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति श्री बी. गोपालास्वामी ने मुकदमे के तथ्यों, गवाहों और प्रमाणों के साथ सर्वोच्च न्यायालय के अनेक फैसलों के आधार पर निर्णय दिया कि सहायक सत्र न्यायाधीश का निर्णय गलत तर्क और न्यायिक दृष्टिकोण की कमी का परिणाम है जो कानून की निगाह में उचित नहीं ठहराया जा सकता। सत्र न्यायाधीश ने अभियुक्त को छोडक़र गम्भीर गलती की है और यह मानना भी गलत है कि पीडि़त लडक़ी की गवाही की पुष्टि के लिए अन्य प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं। चार साल बाद 14 अगस्त, 1990 को न्यायमूर्ति गोपालास्वामी ने मुकदमा, सत्र न्यायाधीश को दोबारा बहस सुनने तथा कानून के अनुसार शीघ्र-अति-शीघ्र निर्णय करने लिए वापस भेज दिया। इसके बाद क्या (न्याय) हुआ कहना कठिन है।
कर्नाटक राज्य बनाम महाबलेश्वर जी नामक[70] मामले में अभियुक्त की उम्र अठारह साल और बलात्कार की शिकार लडक़ी पलाक्षी की उम्र पन्द्रह साल थी। लडक़ी नवीं कक्षा की छात्रा थी। 3 अक्टूबर, 1977 को दोपहर दो बजे के करीब लडक़ी स्कूल से लौट रही थी तो अभियुक्त उसे पकडक़र पास के जंगल में ले गया, जहाँ उसने जबर्दस्ती बलात्कार किया। लडक़ी ने अपनी माँ और भाई को बताया कि अभियुक्त ने जंगल में ले जाकर जबर्दस्ती उसे ‘बरबाद’ किया है। गिरफ्तारी के बाद मुकदमे की शुरुआत होने से पहले ही पलाक्षी ने आत्महत्या कर ली और इसका लाभ मिला अभियुक्त को क्योंकि सत्र न्यायाधीश और उच्च न्यायालय ने पीडि़ता (लडक़ी) की गवाही न होने की स्थिति में सन्देह का लाभ देते हुए अभियुक्त को बलात्कार के अपराध से बरी कर दिया। हालाँकि चोट पहुँचाने के अपराध में सिर्फ चार महीने कैद की सजा सुनाई। राज्य सरकार द्वारा 1979 में दायर सुप्रीम कोर्ट में विशेष अनुमति याचिका की सुनवाई के बाद न्यायमूर्ति श्री एस. रतनेवल पांडियन और एम.एम. पंछी ने कहा कि ”सिर्फ इस कारण से कि पीडि़ता की मृत्यु हो गई है और वह गवाही के लिए उपलब्ध नहीं है। अभियुक्त को बरी नहीं किया जा सकता अगर अभियुक्त के अपराध को प्रमाणित करनेवाले अन्य साक्ष्य उपलब्ध है। सर्वोच्च न्यायालय ने उपलब्ध साक्ष्यों के आधार पर अभियुक्त को बलात्कार के अपराध का दोषी पाते हुए पाँच साल कैद की सजा सुनाई। यह दूसरी बात है कि राज्य सरकार द्वारा दायर 1979 की याचिका का फैसला 15 मई, 1992 तक सर्वोच्च न्यायालय के विचाराधीन पड़ा रहा।
बेटी से बलात्कार : ‘क्षणिक उत्तेजना
अब्दुल वहीद बहादुर अली शेख बनाम महाराष्ट्र राज्य[71] वह मुकदमा है जिसमें एक बाप ने खुद अपनी ही सात साल की बेटी प्रवीण के साथ 21 दिसम्बर, 1985 की रात बलात्कार किया। अदालत में बाप के बचाव के लिए वकीलों ने बार-बार सात साल की बेटी से ही पूछा कि वह चीखी क्यों नहीं ? चिल्लाई क्यों नहीं? शोर क्यों नहीं मचाया? वही ‘बलात्कार’ का अनिवार्य कर्मकांड। वही फिल्मी सीन और वह नहीं तो बलात्कार हुआ कहाँ ? हर सम्भव कोशिश यह प्रमाणित करने की कि उसने अपराध नहीं किया, जबकि सारे सबूतों और गवाहों के चेहरों पर अपराध साफ दिखाई दे रहा था। 1988 में सत्र न्यायाधीश ने बलात्कार के अपराध में उम्रकैद की सजा सुनाई लेकिन अपील में बम्बई उच्च न्यायालय के माननीय न्यायमूर्ति श्री एस.एम. दाऊद और एम.एफ. सलदाना ने 16 जनवरी, 1992 को आजीवन कारावास की सजा घटाकर 10 साल कैद कर दी। हालाँकि उच्च न्यायालय के न्यायमूर्तियों ने लिखा है, ”इस मुकदमे में सत्र न्यायाधीश ने काफी सख्त, गम्भीर दृष्टिकोण अपनाया है और हमारे विचार से ऐसा ठीक ही किया है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि यौन अपराध अपीलार्थी द्वारा अपनी ही नाबालिग बेटी के साथ किया गया है। यह कारण काफी हद तक अपराध की संगीनता को बढ़ाता है और हमारे विचार से सख्त सजा की ही नहीं, बल्कि कड़ी सजा की माँग करता है…
अपीलार्थी के वकील ने सजा कम करने के लिए एक तर्क यह भी दिया कि ”इस केस को उन केसों के बराबर नहीं समझना चाहिए, जिसमें बेबस औरतों व बच्चों पर हवस पूरी करने के लिए क्रूर ताकत का इस्तेमाल किया गया हो। तथ्यों के आधार पर ज्यादा-से-ज्यादा इसे क्षणिक उत्तेजना का अपराध माना जा सकता है। दूसरी तरफ सरकारी वकील का कहना था कि बाप द्वारा अपनी ही नाबालिग सात साल की बेटी के साथ बलात्कार से ज्यादा घृणित और जघन्य अपराध और क्या होगा? इसलिए अपराधी को अधिकतम सजा दी जानी चाहिए। न्यायमूर्तियों ने लिखा है, ”हम स्वीकार करते हैं, जैसा कि विद्वान सरकारी वकील ने दर्शाया है कि यह अपराध जघन्य भी है और क्रूरतापूर्ण भी लेकिन यह भी आवश्यक है कि स्थितियों का सम्पूर्ण जायजा लेकर ही निर्णय करना चाहिए। अपीलार्थी झुग्गी में रहता है, उसकी गरीबी ने उसे ऐसे कठिन हालात में डाल दिया है कि वह छोटी-सी जगह में रहने को विवश है। इसे अनदेखा नहीं किया जा सकता। रिकॉर्ड बताता है कि उसकी पत्नी उसे तीन साल पहले ही छोडक़र चली गई थी। अपीलार्थी समाज के सबसे निर्धन वर्ग का व्यक्ति है। शिक्षा से पूर्ण रूप से वंचित होने के कारण संघर्षपूर्ण जीवन व्यतीत करते हुए, उसे सामान्य बोध तक का अवसर नहीं मिल पाया… रिकॉर्ड पर ऐसा कोई तथ्य नहीं है कि अपीलार्थी की यौन अपराध करने की कोई पृष्ठभूमि हो. यहाँ तक कि दुर्व्यवहार तक नहीं। दूसरी तरफ हम देखते हैं कि हालाँकि उसकी पत्नी उसे छोड़ गई है या फिर भी वह नाबालिग बच्चों को तैयार करके स्कूल भेजता है, खाना बनाता है या होटल से लाता है, सारा दिन काम करता है। कभी-कभी उनके लिए खिलौने लाता, जेबखर्च देता और रात को आकर खाना बनाता था। यह वे परिस्थितियाँ हैं जो हमें यह मानने के लिए कहती हैं कि अपीलार्थी की दयनीय स्थिति के कारण, उससे हुई ये क्षणिक भूल थी।
एक तरफ अपराध सख्त से सख्त सजा की माँग करता है दूसरी तरफ ऐसे कारण हैं जो हमें ‘उचित सीमा’ में रहने को विवश कर रहे हैं. काफी ध्यान से विचार करने के बाद, हमारे विचार से दस साल कैद की सजा उचित और काफी रहेगी. क्या यहाँ ‘इनसैस्ट की ‘थियरी’ नहीं दी जा रही? परिस्थितियों का विवरण बलात्कार की वैधता बताने के लिए दिया जाता है। यह अक्सर होता है, होता रहा है। पिछले कुछ सालों में पिता द्वारा अपनी ही बेटी (या सौतेली बेटी) के साथ बलात्कार या यौन शोषण और उत्पीडऩ के अनेक मामलों ने अदालत का दरवाजा खटखटाया है। इन मामलों में पिता किसी झुग्गी-झोंपड़ी में रहनेवाला अनपढ़ या निर्धन व्यक्ति नहीं। 1994 में गृह मंत्रालय के ‘अंडर सेके्रटरी’ के. सी. जाखू एंड पार्टी के विरुद्ध बलात्कार, अप्राकृतिक मैथुन, यौन शोषण और उत्पीडऩ और अपहरण का केस दर्ज हुआ था। इसमें जाखू की छह वर्षीय बेटी का आरोप था कि उसके पिता उसे दफ्तर ले जाते। दफ्तर से अपने दोस्तों व महिला मित्रों के साथ होटल। वहाँ वे शराब पीते, ब्लू फिल्म देखते और सामूहिक सम्भोग करते। उसके पिता उसे भी शराब पिलाते, कपड़े उतारते और अँगुली योनि व गुदा में डाल देते। घर में भी रात को माँ व बहनों को बेहोश करने के बाद मुख मैथुन करते-करवाते। सत्र न्यायाधीश ने सब अप्राकृतिक मैथुन और मर्यादा भंग करने सम्बन्धी आरोप तो लगाए लेकिन बलात्कार का मुकदमा चलाने से इनकार कर दिया। इस निर्णय के विरुद्ध लडक़ी की माँ सुदेश जाखू ने उच्च न्यायालय में याचिका दायर की।
अदालती ‘आशा और विश्वास‘
मगर दिल्ली उच्च न्यायालय के विद्वान न्यायमूर्ति श्री जसपाल सिंह ने अपने निर्णय68ए में दुनिया-भर के सन्दर्भ, शोध और निर्णयों का हवाला देते हुए कहा कि लिंगच्छेदन बलात्कार के अपराध की अनिवार्य शर्त है। निर्णय के अन्त में दिशा-निर्देश देते हुए माननीय न्यायाधीश ने गम्भीरतापूर्वक लिखा, ”बाल यौन शोषण अत्यन्त गम्भीर और नुकसानदेह अपराधों में से एक है। इसलिए सत्र न्यायाधीश को चाहिए कि वह इस केस को संवेदनशीलता से चलाएँ और यह भी सुनिश्चित करें कि मुकदमे की कार्यवाही न्यायसंगत हो। उन्हें ध्यान रखना चाहिए कि कोई भी ऐसा सवाल न पूछा जाए जो पेचीदा या उलझानेवाला हो…न्यायमूर्ति का यह निर्णय, सचमुच अनेक कारणों से पढऩे योग्य है। एक जगह तो न्यायमूर्ति आत्मनिरीक्षण करते हुए कहते हैं, ”इट इज आपलिंग टू वाच द डैथ एगनी ऑफ ए होप। मिस्टर जेटली वांटेड मी टू पुश फॉरवर्ड द ? टू द फ्यूचर्स फ्रंटलाइंस। टू हिम, परहैप्स, आई रिमेन एन ओल्ड गार्ड हैंकरिंग डाउन इन द बंकर्स ऑफ टै्रडिशन। अखबारों में ‘बेटी से बलात्कार’ की खबरें प्राय: प्रकाशित होती ही रहती हैं। कभी प्राइवेट कम्पनी में मैनेजर (सुब्रतो राय) द्वारा अपनी अठारह वर्षीय बेटी से बलात्कार, कभी मध्यमवर्गीय (राजकुमार) द्वारा चौदह वर्षीय पुत्री के साथ बलात् सम्भोग, कभी स्कूटर ड्राइवर (अश्विनी सहगल) द्वारा आठ वर्षीय बेटी की ‘इज्जत बर्बाद और कभी पिता व भाई दोनों ने मिलकर सोलह वर्षीय बहन-बेटी को अपनी हवस का शिकार बनाया। लड़कियाँ सम्बन्धों की किसी भी छत के नीचे सुरक्षित नहीं।
भारतीय समाज में भी अमानवीयकरण इस कदर बढ़ गया है कि ऐसी खौफनाक दुर्घटनाओं की लगातार पुनरावृत्ति रुकने की सम्भावनाएँ समाप्त या लगभग शून्य हो गई हैं। अधिकांश मामलों में इसका एक मुख्य कारण पति-पत्नी के बीच तनाव, लड़ाई-झगड़ा या अलगाव है, दूसरा कारण है, बेटा न होने का दुख। बेटियाँ अपने ही घर में, अपने ही पिता, भाई या सम्बन्धियों के बीच भयभीत, आतंकित और असुरक्षित हो जाएँ तो उसे न सम्मान से जीने का कोई रास्ता नजर आता है और न गुमनाम मरने का। बलात्कार की संस्कृति के सहारे पितृसत्ता अजर, अमर नजर आती है। नारायण इराना पोतकंडी बनाम महाराष्ट्र68बी में सात वर्षीया बच्ची के साथ बलात्कार के मामले में माननीय न्यायमूर्ति श्री एम. एस. वैद्य ने सजा के सवाल पर कहा है कि जब कानून में न्यूनतम सजा दस साल निर्धारित की गई है तो किसी भी आधार पर सजा कम करना न्यायोचित नहीं। मुकदमे के निर्णय में उल्लेख किया है, ”अन्त में, दोनों पक्षों के वकीलों ने कहा कि बालिका-बलात्कार के मामले लगातार बढ़ रहे हैं, विशेषकर इस क्षेत्र में। यह बताया गया कि जिला अदालतों द्वारा इस प्रकार के मामलों में बच्चों की गवाही और अन्य साक्ष्यों सम्बन्धी कानूनी प्रावधान या आदेशों का सही ढंग से अनुपालन नहीं किया जाता है कि भविष्य में अदालतें इस प्रकार के मामलों में सर्वोच्च न्यायालय और गुजरात उच्च न्यायालय के फैसलों के अनुसार ही कानून और प्रक्रिया का प्रयोग करेंगे। हम उम्मीद ही कर सकते हैं कि ‘आशा और विश्वास’ भरे ऐसे दिशा-निर्देश सर्वोच्च न्यायालय के सत्र न्यायालय वाया उच्च न्यायालय शीघ्र समय से पहुँच जाएँगे।
इतनी सख्त सजा न्यायोचित नहीं
उल्लेखनीय है कि कम उम्र की लड़कियों के साथ बलात्कार करनेवाले युवक की उम्र अगर पच्चीस साल से अधिक नहीं है तो अधिकांश मामलों में, इसी आधार पर न्यायमूर्तियों ने सजा कम की है। कुछ मामलों में तो इतनी कम कि पढ़-सुनकर आश्चर्य होता है। उदाहरण के लिए अभियुक्त की उम्र बाईस साल है और वह कोई पेशेवर अपराधी नहीं है। इसलिए चार साल कैद की सजा घटाकर दो साल की जाती है।[72] अपराध के समय अभियुक्त की उम्र सोलह साल थी। इसलिए सजा घटाकर पच्चीस दिन कैद की जाती है, जो वह पहले ही भुगत चुका है।[73] अभियुक्त इक्कीस वर्षीय नौजवान है, जिसे पाँच साल कैद की सजा दी गई है। सात साल मुकदमा चलता रहा और अभियुक्त आठ महीने कैद काट चुका है। ऐसी हालत में उसकी सजा आठ महीने की काफी है। हाँ, कम सजा के बदले में एक हजार रुपया जुर्माना देना पड़ेगा।[74] अभियुक्त की उम्र सिर्फ सत्रह-अठारह साल है। बलात्कार के अपराध में तीन साल कैद और एक हजार रुपए जुर्माने की सजा घटाकर सात महीने कैद करना उचित है, जो वह पहले ही काट चुका है। जुर्माना देने की कोई जरूरत नहीं।[75]
अभियुक्त की उम्र सोलह से अठारह वर्ष के बीच है। सजा में उदारता का अधिकारी है। पाँच साल कैद की सजा घटाकर ढाई साल करना न्यायोचित है। ढाई साल कैद में वह पहले ही रह चुका है।[76] अभियुक्त की उम्र सोलह साल और बारह साल की बच्ची से बलात्कार की सजा कैद। अपराधियों के प्रति मानवीय दृष्टिकोण को देखते हुए। एक साल कारावास और एक हजार रुपए जुर्माना[77]। उम्र बाईस साल और नौ वर्षीया बालिका से बलात्कार की सजा सात साल कैद। बहुत हिंसा की है मगर गुप्तागों पर कोई चोट नहीं। सजा कम करके पाँच साल जेल। ‘न्याय का उद्देश्य’ पूरा हो जाएगा।[78] दस साल की लडक़ी के साथ बलात्कार के अपराध में सत्रह वर्षीय युवक की सजा पाँच साल से कम करके चार साल कैद करने से भी ‘न्याय का लक्ष्य’ पूर्ण हो जाएगा[79]। अभियुक्त की उम्र मुश्किल से तेरह साल है। दो वर्षीया बच्ची के साथ बलात्कार की सजा चार साल कैद से घटाकर, एक साल कैद और दो हजार रुपए जुर्माना किया जाता है। लम्बी कैद की सजा अभियुक्त को कठोर अपराधी बना देगी। जुर्माना वसूल हो जाए तो रकम हर्जाने के रूप में लडक़ी की माँ को दे दी जाए। बाल अपराधियों के मामलों में समसामयिक अपराधशास्त्र के अनुसार मानवीय दृष्टिकोण अपनाना अनिवार्य।[80]
किशोरों को जेल या सुधार-गृह
बच्चियों से बलात्कार के मामलों में किशोरों और ‘टीन एजर’ युवकों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। पन्द्रह वर्षीय युवक द्वारा सात वर्षीया बच्ची के साथ बलात्कार के अपराध में सत्र न्यायाधीश ने दस साल कैद और पाँच सौ रुपए जुर्माने की सजा सुनाई। लेकिन उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति ने 1990 में अपील स्वीकार करते हुए कहा, ”अभियुक्त को जेल भेजने का अर्थ, इसे खूँखार अपराधी बनाना होगा। किशोर न्याय अधिनियम, 1986 और दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 361 के अनुसार किशोर अपराधियों को जेल में नहीं, बल्कि सुधार-गृहों में रखा जाना चाहिए। अभियुक्त को तीन साल के लिए आन्ध्र प्रदेश ब्रोस्टल के स्कूल में भेजने के आदेश देते हुए न्यायमूर्ति ने जुर्माना वापस करने के भी आदेश दिए। अभियुक्त के वकील ने सजा कम करवाने का एक तर्क यह भी दिया था कि ”लडक़ा होटल में काम करता है और वयस्क यात्रियों को ‘ब्लू फिल्म’ व अन्य यौन क्रीड़ाएँ करते हुए देख-देखकर स्वयं भी अनुभव करने की इच्छा के फलस्वरूप ऐसा अपराध करने को उत्प्रेरित हुआ होगा। यह उसे छोड़ देने के लिए कोई उचित बहाना नहीं है, पर सजा के सवाल पर विचारणीय अवश्य है। बचाव पक्ष के वकील ने न्यायमूर्ति ओ. चिन्नप्पा रेड्डी द्वारा लिखी एक पुस्तक की भूमिका से दोहराया, ”आपराधिक कानून का उद्देश्य सिर्फ अपराधियों को पकडऩा, मुकदमा चलाना और सजा देना ही नहीं है, बल्कि अपराध के असली कारणों को भी जानना है। कानून का अन्तिम ध्येय अपराधियों को सिर्फ सजा देना ही नहीं है। जब भी, जहाँ सम्भव हो उन्हें सुधारना भी है।[81]
उपरोक्त निर्णय के विपरीत इसी उच्च न्यायालय के न्यायमूर्तियों ने कुछ साल पूर्व 1984 में कहा था–
”सर्वज्ञात तथ्य है कि इधर कमजोर वर्ग, उदाहरण के लिए स्त्रियों पर अपराधों की संख्या बेतहाशा बढ़ रही है और ऐसे अपराधों को रोकना एक समस्या बन गई है। अब यह राष्ट्रीय बहस का मुद्दा है कि औरतों पर बढ़ रहे हिंसक अपराधों को रोकने के लिए क्या उपाय किए जाएँ। अगर अपराधियों को ‘प्रोबेशन ऑफ अफेंडर्स एक्ट’ की लाभदायक धाराओं के अन्तर्गत ऐसे अपराधों में भी छोड़ दिया जाएगा तो यह निश्चित रूप से औरतों के विरुद्ध अपराधों को बढ़ावा देना ही होगा। यही नहीं, निर्दोष बच्चियों के विरुद्ध ऐसे अपराधों को रोकना एकदम असम्भव हो जाएगा। अगर ऐसे अपराधों को रोका नहीं गया तो सामाजिक सन्तुलन व औरतों के स्वतंत्रतापूर्वक आने-जाने के लिए ही धमकी बन जाएगा और समाज की सुरक्षा के लिए भयंकर खतरा।[82] नि:सन्देह सामाजिक परिप्रेक्ष्य से परे हटते ही, न्यायमूर्ति की आँखों के सामने भ्रामक मिथ और मानसिक मकडज़ाल छाने लगता है। गवाहों, साक्ष्यों, रिपोर्टों, दस्तावेजों और स्थितियों के बीच तकनीकी विसंगतियाँ और अन्तर्विरोध अनेक प्रकार से दिशाभ्रमित करते हैं। डॉक्टरी रिपोर्ट, पुलिस जाँच में घपले, सालों बाद गवाही में स्वाभाविक भूल, बचाव पक्ष के वकीलों द्वारा गढ़े तर्क (कुतर्क), नई-पुरानी हजारों नजीरें और वर्षों फैसला न होने (करने) का दबाव या
अपराधबोध, यानी सब अभियुक्त के पक्ष में ही होता रहता है। जब तक सन्देह से परे तक अपराध सिद्ध न हो, अभियुक्त को निर्दोष माना जाएगा और पूरी व्यवस्था उसे बचाने में लगी रहती है।
परिणामस्वरूप अधिकांश (96 प्रतिशत) अभियुक्त बाइज्जत रिहा हो जाते हैं या सन्देह का लाभ पाकर मुक्त। जिन्हें बचाव का कोई (चोर) रास्ता नहीं मिल पाता, वे अपराधी भी किसी-न-किसी आधार पर न्यायमूर्ति से रहम की अपील मंजूर करवा ही लेते हैं। सजा कम करने के अनेक ‘उदारवादी’ निर्णय उपलब्ध हैं। सजा बढ़ाने के फैसले अपवादस्वरूप ही मिल सकते हैं। कुछ मामलों में तो न्यायमूर्तियों द्वारा सजा कम करने का एकमात्र कारण है। सालों से अपील की सुनवाई या फैसला न होना। अब इतने साल बाद सजा देने से भी क्या लाभ ? संसद द्वारा बनाए सम्बन्धित कानूनों की भाषा और परिभाषा दोनों ही आमूल-चूल संशोधन माँगती है। मगर विधि आयोग द्वारा संशोधन की सिफारिशों पर राष्ट्रीय बहस बाकी है। कानूनी लूपहोल या गहरे गड्ढों के रहते यौन हिंसा की शिकार स्त्री के साथ न्याय असम्भव है। अक्सर यह कहा जाता है कि कानून तो बहुत बने/बनाए गए हैं लेकिन उनका पालन सही ढंग से नहीं हो रहा है। काफी दार्शनिक अन्दाज में यह भी बार-बार सुनने में आता है कि सिर्फ कानून बनाने से समस्या का समाधान नहीं हो सकता, नहीं होगा। समाधान के लिए समाज में जागरूकता, स्त्रियों में चेतना और पुरुष मानसिकता में बदलाव अनिवार्य है। बिना शिक्षा के यह सब कैसे होगा ? सभी को शिक्षित करने योग्य संसाधन ही नहीं हैं और ऊपर से देश की जनसंख्या लगातार बढ़ती जा रही है। ऐसे में विधायिका या न्यायपालिका या कार्यपालिका भी क्या कर सकती है ?
विकल्प की तलाश
दिल्ली के अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश श्री एम.एम. अग्रवाल ने 24 अगस्त, 1990 को जगदीश प्रसाद को साढ़े तीन वर्षीया ममता के साथ बलात्कार के अपराध में आजीवन कारावास की सजा सुनाई। 5 सितम्बर, 1990 को यह भी निर्देश दिया कि ”जब तक संसद ऐसे मामलों में अनिवार्य बन्ध्याकरण का कानून नहीं बनाती, मुझे लगता है कि जघन्य अपराध के अपराधियों को स्वैच्छिक रूप से बन्ध्याकरण के लिए प्रोत्साहित करने की कोई शुरुआत की जानी चाहिए, ताकि ऐसे लोगों को जेल में बन्दी रखने के बजाय उनका कुछ लाभ/उपयोग उनके परिवारवाले उठा सकें। इसलिए मैं ऐसा निर्णय ले रहा हूँ कि अपराधी जगदीश स्वेच्छा से बन्ध्याकरण का ऑपरेशन, सरकारी अस्पताल से करवा ले (उच्च न्यायालय दिल्ली की पूर्व-सहमति से) तो उसकी कैद की सजा माफ मानी जाएगी।
कानून और न्याय के ऐतिहासिक प्रथम ‘क्रान्तिकारी’ फैसले की बहुत दिनों तक राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में चर्चा (बहस) होती रही। होनी ही थी। निर्णय के खिलाफ अपील में उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति श्री पी.के. बाहरी ने पाया कि इस मामले में पुलिस के जाँच अधिकारियों ने शैतानीपूर्वक गड़बडिय़ाँ (घपले) की हैं। हालाँकि सत्र न्यायाधीश ने इनकी खूब प्रशंसा की है। बच्ची के योनिद्वार की झिल्ली थोड़ी फटी हुई पाई गई लेकिन यह जरूरी नहीं है कि ऐसा अपीलार्थी द्वारा लिंगच्छेदन के कारण हुआ हो। सर्वज्ञात है कि इतनी छोटी बच्ची के गुप्तागों पर हलका-सा भी दबाव पडऩे से झिल्ली फट सकती है। ऐसा लगता है कि अभियुक्त अपनी हवस के कारण लडक़ी से बलात्कार करना चाहता था। मगर लडक़ी के माँ-बाप के मौके पर पहुँचने के कारण कर नहीं पाया। अभियुक्त बलात्कार करने का अपराधी नहीं, बल्कि बलात्कार का प्रयास करने का अपराधी है।
अपीलार्थी की सजा भारतीय दंड संहिता की धारा 376 की अपेक्षा, धारा 511 के तहत बदली जाती है। वह साढ़े सात साल कैद की सजा पहले ही काट चुका है। अब उसे रिहा कर दिया जाए। बन्ध्याकरण के विषय में न्यायमूर्तियों का विचार था, ”विद्वान सत्र न्यायाधीश ने स्वेच्छा से बन्ध्याकरण का आदेश देकर ठीक नहीं किया। ऐसा आदेश पूर्णतया गैर-कानूनी है, क्योंकि उच्च न्यायालय के नियमों में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है। न्याय मौजूदा कानून के आधार पर ही किया जाना चाहिए। कानून में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है कि अगर बलात्कार का अपराधी स्वेच्छा से बन्ध्याकरण करवा ले तो कानून द्वारा निर्धारित न्यूनतम सजा अदालत द्वारा माफ की जा सकती है। वही सजा दी जानी चाहिए जो कानून निर्माताओं (संसद) ने निर्धारित की है। अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश को ऐसा प्रस्ताव, जो कानून के अनुसार नहीं है, देने से, अपने आपको रोकना चाहिए था।[83]
विद्वान सत्र न्यायाधीश द्वारा बन्ध्याकरण (कॉस्टे्रशन) के आदेश का असली उद्देश्य अभियुक्त के परिवार को लाभ पहुँचाना है या अपराधी का ‘पुरुष चिह्न’ (लिंग) नष्ट करके अपमानित करना ? ऐसा करके वे कोई ‘नई शुरुआत’कर रहे हैं या महान् भारतीय संस्कृति की न्याय व्यवस्था के अतीत में लौट रहे हैं ? कॉस्टे्रशन का अर्थ बन्ध्याकरण या बधिया करना है और बधिया सिर्फ बैल या बकरे जैसे जानवारों को ही किया जा सकता है। पुरुषों को बधिया नहीं किया जा सकता। हाँ, नसबन्दी हो सकती है लेकिन उससे सम्भोग क्षमता पर क्या असर पड़ेगा? खैर…उच्च न्यायालय के न्यायमूर्तियों द्वारा ऐसे आदेश को गैर-कानूनी ही ठहराया जाएगा। इसे कानून और न्याय-सम्मत कैसे ठहराया जा सकता है? अब तो न ऐसा कोई नियम है और न कानून। बलात्कार का अपराध भले ही ‘जघन्यतम और क्रूरतम’ माना जाता हो, लेकिन सजा सख्त या कठोर होने की बजाय ‘मानवीय’ और ‘न्यायोचित’ ही होनी चाहिए, होती है। अपराधी पितृसत्तात्मक समाज की गन्दगी या कूड़ा है, लेकिन आखिर है तो उसी का उत्तराधिकारी। स्वयं अपने पुत्रों को ‘नपुंसक’ या ‘पौरुषहीन’ होने की सजा कैसे दे? सत्ता पर पूर्ण नियंत्रण के लिए ‘बलात्कार का भय’ या ‘आतंक’ भी तो बनाए रखना जरूरी है। वरना ‘पुरुष वर्चस्व’ ही समाप्त हो जाएगा। वैसे भी ‘सभ्य समाज’ में ऐसी सजा देना बर्बर और अमानवीय ही माना जाएगा। नहीं, ऐसे विकल्प समस्या का समाधान नहीं।
महान भारतीय संस्कृति
इस सन्दर्भ में सिर्फ इतना और कि प्राचीन भारत में समान जाति की स्त्री के साथ बलात्कार करने पर पुरुष की सम्पूर्ण सम्पत्ति छीनकर, उसके गुप्तांग काटकर उसे गधे पर चढ़ाकर घुमाया जाता था। मगर हीन-जाति की स्त्री के साथ बलात्कार में उपर्युक्त दंड का आधा दंड ही दिया जाता था। यदि स्त्री उच्च वर्ग की होती थी तो अपराधी के लिए मृत्युदंड था और सम्पत्ति छीन ली जाती थी। स्त्री के साथ धोखे से सम्भोग करने पर पुरुष को सम्पूर्ण सम्पत्ति से वंचित करके उसके मस्तक पर स्त्री का गुप्तांग चिह्नित करके नगर से निष्कासित कर दिया जाता था….बृहस्पति ने नीची जाति के पुरुष द्वारा उपभोग की गई उच्च जाति की निर्दाेष स्त्री को भी मृत्युदंड देने की व्यवस्था दी है। याज्ञवल्क्य और नारद के अनुसार, जब कोई व्यक्ति किसी अविवाहित कन्या की इच्छा के विरुद्ध उससे सम्बन्ध रखता था तो उस व्यक्ति की दो अँगुलियाँ काट ली जाती थीं, किन्तु कन्या के उच्चवर्णी होने की स्थिति में उस व्यक्ति की सम्पत्ति छीनकर उसे मृत्युदंड दिया जाता था। कौटिल्य ने इस सन्दर्भ में कुछ भेद किए हैं। जो पुरुष स्वजाति की अरजस्वला कन्या को दूषित करे, उसका हाथ कटवा दिया जाए अथवा चार सौ पण दंड दिया जाए। यदि कन्या मर जाए तो पुरुष को प्राणदंड दिया जाए। रजस्वला हो चुकी कन्या की स्थिति में पुरुष की मध्यमा व तर्जनी अँगुलियाँ काट दी जाएँ अथवा दो सौ पण दंड दिया जाए और कन्या का पिता, जो भी क्षतिपूर्ति चाहे, उसे प्राप्त कराई जाए…वेश्या से बलात्कार का दंड बारह पण व दंड से सोलह गुना शुल्क गणिका को देने का नियम था। माता, मौसी, सास, भाभी, बुआ, चाची, ताई, मित्र-पत्नी, बहन, बहन-सी मित्र, पुत्रवधू, पुत्री, गुरु-पत्नी, सगोत्र, शरणागत, रानी, संन्यासिनी, धाय, ईमानदार स्त्री एवं उच्चवर्गी स्त्री के साथ सम्भोग करनेवाले पुरुष का गुप्तांग काट दिया जाता था।[84]
बलात्कारी को मृत्युदंड
कुछ माह पूर्व गृहमंत्री लालकृष्ण आडवाणी ने भी ‘हवाई घोषणा’ की थी कि उनकी सरकार बलात्कार के अपराधियों को मृत्युदंड देने का कानून बनाएगी। इस बयान की गम्भीरता, राजनीतिक भाषा और सम्भावना को समझने के लिए सिर्फ यह जान लेना काफी होगा कि सर्वोच्च न्यायालय कई बार यह कह चुका है कि मृत्युदंड सिर्फ हत्या के ‘दुर्लभतम में दुर्लभ’ मामलों में ही दिया जाना है। परिणामस्वरूप आज तक दहेज हत्या या वधूदहन के एक भी मामले में फाँसी नहीं दी गई है। ऐसे जिन मामलों में फाँसी की सजा सुनाई भी गई थी, उन्हें उच्च न्यायालयों या सर्वोच्च न्यायालयों के न्यायमूर्तियों ने आजन्म कैद में बदल दिया। इसी प्रकार बच्चों से बलात्कार और हत्या के मामलों में भी (सिवा जुम्मन खान (1991) अपराधी को फाँसी की बजाय) उम्रकैद की सजा ही सुनाई गई है। ऐसी स्थिति में (सिर्फ) बलात्कार के अपराधी को मृत्युदंड कैसे दिया जा सकेगा ? अगर बलात्कारी के लिए मृत्युदंड का प्रावधान भी बन जाए, तो क्या वैधानिक और न्यायिक दृष्टिकोण भी बदला जाएगा ? संसद में बैठे पुरुष प्रतिनिधि क्या ऐसा कानून बनने देंगे ? ‘सहमति’ और ‘बदचलनी’ के कानूनी हथियारों का क्या होगा ? दहेज हत्याओं में मृत्युदंड का प्रावधान समाप्त करके, उम्रकैद का कानून (धारा 304-बी) बनाने वाली ‘पुरुष पंचायत’ बलात्कार के अपराधियों को सजा-ए-मौत देने का कानून बनाएगी ? कैसे ? कब ? विशेषकर जब दुनिया भर में मृत्युदंड समाप्त करने की बहस और मानवाधिकारों का शोर हो।
जीने का मौलिक अधिकार
”बलात्कार एक ऐसा अनुभव है, जो पीडि़ता के जीवन की बुनियाद को हिला देता है। बहुत सी स्त्रियों के लिए इसका दुष्परिणाम लम्बे समय तक बना रहता है, व्यक्तिगत सम्बन्धों की क्षमता को बुरी तरह से प्रभावित करता है, व्यवहार और मूल्यों को बदल आतंक पैदा करता है। (डब्ल्यू यंग, रेप स्टडी, 1983) सर्वोच्च न्यायालय के विद्वान न्यायमूर्ति श्री एस. सगीर अहमद और आर.पी. सेठी ने अपने एक ऐतिहासिक निर्णय (दिनांक 28 जनवरी, 2000) में कहा है कि किसी भी स्त्री के साथ बलात्कार मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है। सरकारी कर्मचारियों द्वारा किए गए दुष्कर्ष के लिए केन्द्र सरकार को भी जिम्मेवार ठहराया जा सकता है। विशेषकर हर्जाना अदा करने के लिए भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के अन्तर्गत भारतीय ही नहीं, विदेशी नागरिकों को भी जीवन और स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार प्राप्त है। सर्वोच्च न्यायालय के इस अभूतपूर्व निर्णय के निश्चित रूप से बहुत दूरगामी परिणाम होंगे। यौन हिंसा की शिकार स्त्रियों के मुकदमों में, अतीत के अनेक विवादास्पद फैसलों को देखते हुए, इसे सचमुच ‘न्यायिक प्रायश्चित्त या ‘भूल सुधार’ भी कहा जा सकता है। पुलिस हिरासत में पुलिसकर्मियों द्वारा बलात्कार के विचाराधीन मामलों में यह निर्णय अनेक नए आयाम जोडऩे की महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। हालाँकि कुछ संविधान विशेषज्ञ अधिवक्ताओं का कहना है कि हर्जाने के आदेशों से पहले, अपराध प्रमाणित होना अनिवार्य है। यदि इस तर्क को सही मानें तो समस्या वहीं की वहीं अटकी रह जाएगी। अपराध प्रमाणित होने में तो लम्बा समय लगेगा और सम्भव है कानूनी तकनीकियों के जाल में उलझ जाए।
संक्षेप में उपरोक्त मुकदमे के तथ्यों के अनुसार बांग्लादेश की नागरिक हनुफा खातून के साथ हावड़ा रेलवे स्टेशन के यात्री निवास में कुछ रेलवे कर्मचारियों ने सामूहिक बलात्कार किया। हनुफा खातून को 26 फरवरी, 1998 को हावड़ा से अजमेर जाना था।।बलात्कार की दुर्घटना के बाद कलकत्ता उच्च न्यायालय की एक वकील चन्द्रिमा दास ने रेलवे बोर्ड के अध्यक्ष से लेकर पुलिस अफसरों और केन्द्र सरकार तक के विरुद्ध एक याचिका उच्च न्यायालय में दायर की, जिसमें हर्जाने के अलावा कुछ आवश्यक दिशा-निर्देश देने की माँग भी की गई थी। सुनवाई के बाद उच्च न्यायालय ने केन्द्र सरकार को आदेश दिया कि पीडि़ता को दस लाख रुपया बतौर हर्जाना अदा करे। उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध अध्यक्ष रेलवे बोर्ड ने सुप्रीम कोर्ट में विशेष अनुमति याचिका दायर की, जिसे बहस सुनने के बाद खारिज कर दिया गया। सर्वोच्च न्यायालय में सरकारी वकीलों द्वारा प्रस्तुत तर्कों में मुख्य तर्क यह था कि हनुफा खातून भारतीय नागरिक नहीं, बल्कि विदेशी है, इसलिए रेलवे हर्जाना देने के लिए जिम्मेवार नहीं है। यह भी कहा गया कि कर्मचारियों द्वारा किए गए अपराध के लिए रेलवे या केन्द्र सरकार को जिम्मेवार नहीं ठहराया जा सकता। बहस के दौरान सरकारी वकीलों ने दलील दी कि यह कुछ व्यक्तियों द्वारा किया गया अपराध है, जिसके लिए उन पर मुकदमा चलाया जाएगा और उन्हें दोषी पाए जाने पर दंडित भी किया जा सकता है और जुर्माना भी वसूला जा सकता है, लेकिन रेलवे या केन्द्र सरकार को जिम्मेवार नहीं ठहराया जा सकता। विद्वान वकीलों ने चन्द्रिमा दास द्वारा दायर याचिका की वैधता पर भी सवाल उठाते हुए कहा कि वकील साहिबा को ऐसी याचिका दायर करने का कोई कानूनी अधिकार नहीं, परन्तु सरकारी महाधिवक्ता के तमाम तर्कों को रद्द करते हुए माननीय न्यायमूर्तियों ने विशेष अनुमति याचिका खारिज कर दी।
विद्वान न्यायमूर्तियों ने सरकारी अफसरों और पुलिसकर्मियों द्वारा किए गए दुष्कर्मों के मामलों में पीडि़तों को हर्जाना देने सम्बन्धी अनेक महत्त्वपूर्ण नजीरों का हवाला दिया है। इनमें रुदुल शाह (1983), भीमसिंह (1985), सहेली (1980), इन्द्र सिंह (1995) डी.के. बसु (1997), कौशल्या (1998) से लेकर मंजू भाटिया (1998) तक शामिल हैं। जनहित याचिकाओं और उनमें प्रबुद्ध समाजसेवी वकीलों की भूमिका को रेखांकित करते हुए निर्णय में बहुत से उदाहरण दिए गए है। मौलिक अधिकार और विदेशी नागरिकता के सवाल पर न्यायमूर्तियों ने मानवाधिकारों से लेकर स्त्रियों के विरुद्ध हिंसा सम्बन्धी अन्तर्राष्ट्रीय प्रस्तावों तक का विस्तार से उल्लेख करते हुए कहा कि न्यायाधीशों और वकीलों को मानवाधिकरों के अन्तर्राष्ट्रीय न्यायशास्त्र के प्रति जागरूक और सचेत रहना चाहिए, विशेषकर महिलाओं के सुरक्षा सम्बन्धी मानवाधिकारों से। न्यायमूर्तियों ने अपने निर्णय में अनवर बनाम जम्मू-कश्मीर (1971) का जिक्र करते हुए कहा कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20, 21 और 22 में प्रदत्त मौलिक अधिकार सिर्फ भारतीय नागरिकों को ही उपलब्ध नहीं, बल्कि विदेशी नागरिकों को भी उपलब्ध हैं। बलात्कार को मौलिक अधिकार का उल्लंघन घोषित करनेवाले निर्णय (बौद्धिसत्व बनाम सुभद्रा चक्रवर्ती, 1996) को सही ठहराते हुए निर्णय में कहा गया है। ”बलात्कार सिर्फ एक स्त्री के विरुद्ध अपराध नहीं बल्कि समस्त समाज के विरुद्ध अपराध है। यह स्त्री की सम्पूर्ण मनोभावना को ध्वस्त कर देता है और उसे भयंकर भावनात्मक संकट में धकेलता है, इसलिए बलात्कार सबसे अधिक घृणित अपराध है। यह मूल मानवाधिकारों के विरुद्ध अपराध है और पीडि़ता के सबसे अधिक प्रिय अधिकार का उल्लंघन है, उदाहरण के लिए जीने का अधिकार जिसमें सम्मान से जीने का अधिकार शामिल है।
माननीय न्यायमूर्तियों ने अपने फैसले में लिखा कि हनुफा खातून इस देश की नागरिक नहीं है लेकिन फिर भी उसे संविधान द्वारा प्रदत्त जीने के मौलिक अधिकार प्राप्त हैं। सम्मान से जीने का उसे भी उतना ही अधिकार है, जितना किसी भारतीय नागरिक को। विदेशी नागरिक होने के कारण उसके साथ ऐसा व्यवहार नहीं किया जा सकता जो मानवीय गरिमा के नीचे हो और न ही उन सरकारी कर्मचारियों द्वारा शारीरिक हिंसा की जा सकती है, जिन्होंने उसके साथ बलात्कार किया। यह उसके मौलिक अधिकार का हनन है। परिणामस्वरूप यह राज्य की संवैधानिक जिम्मेवारी है कि उसे हर्जाना अदा करे। उच्च न्यायालय के निर्णय में कोई कानूनी खामी नजर नहीं आती। रेलवे बोर्ड और केन्द्र सरकार के बचाव में विद्वान महाधिवक्ता ने एक और दलील यह दी कि कर्मचारियों के कार्यों के लिए राज्य को केवल तभी जिम्मेवार माना जा सकता है, जब उन्होंने यह कार्य आधिकारिक उत्तरदायित्व निभाते हुए किया हो। चूँकि बलात्कार को उनका आधिकारिक दायित्व नहीं कहा जा सकता, इसलिए केन्द्रीय सरकार हर्जाना अदा करने के लिए जिम्मेवार नहीं, लेकिन न्यायमूर्तियों ने जवाब में लिखा, ”यह तर्क पूर्णतया गलत है और इस न्यायालय द्वारा सुनाए फैसलों के विपरीत। सरकारी वकीलों ने अपने पक्ष में जिस विवादास्पद नजीर (कस्तूरी लाल रुलिया राम जैन बनाम उत्तर प्रदेश, 1965) का हवाला दिया। उसके बारे में न्यायमूर्तियों ने कहा कि न्यायालय ने अपने बाद के फैसलों में उस निर्णय को कभी सही नहीं माना। हम भी उसे मानने के लिए बाध्य नहीं। वह एक अर्थहीन (व्यर्थ) नजीर सिद्ध हो चुकी है।
2000 एपैक्स डिसीजन (खंड एक) सुप्रीम कोर्ट, पृ. 401-21 में प्रकाशित, चेयरमैन रेलवे बोर्ड एंड अदर्स बनाम श्रीमती चन्द्रिमा दास के फैसले को पढ़ते हुए महसूस होता है कि राज्य (रेलवे बोर्ड या केन्द्र सरकार) के विद्वान वकील भी ठीक उसी तरह सरकार का बचाव कर रहे हैं, जैसे बचाव पक्ष का कोई वकील अपने किसी खूँखार अपराधी को बचाने के लिए करता है। सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष सरकारी वकीलों के प्राय: सभी तर्क (कुतर्क) बेहद हास्यास्पद नजर आते हैं। वर्षों से स्पष्ट कानूनी प्रस्थापनाओं से बेखबर और ‘ओवर रूल्ड’ नजीरें पेश करते हुए इन या ऐसे सरकारी अधिवक्ताओं से मानवाधिकारों और लैंगिक न्याय की अवधारणाओं से सचेत होने की अपेक्षा करना व्यर्थ है। आश्चर्यजनक है कि राजसत्ता भी अदालत में पेशेवर अपराधी की तरह मुकदमेबाजी करती दिखाई पड़ती है। समझ नहीं आता कि आखिर केन्द्रीय सरकार किसे बचाना चाहती है/थी ? अपराधी कर्मचारियों को दस लाख रुपया हर्जाना ? बलात्कार के गम्भीर मामले में पीडि़त स्त्री (और वह भी विदेशी नागरिक) के साथ, केन्द्र सरकार का पूरा व्यवहार एकदम अवांछनीय प्रतीत होता है। महिला कल्याण के नाम पर करोड़ों रुपया खर्च करने और स्त्री हितैषी बननेवाली सरकार अदालत में इतनी असंवेदनशील और अतार्कि क कैसे हो जाती है ? क्यों? क्या यही है ‘राष्ट्रीय गरिमा’ और ‘नारी सम्मान’ का ढिंढोरा पीटनेवाले नायकों का असली चेहरा।
इन प्रश्नों को सिर्फ अदालती, कानूनी या न्यायिक दृष्टि से पढऩा-समझना काफी नहीं। राज्य के स्तर पर एक व्यापक परिप्रेक्ष्य और सत्ता और आम नागरिक (विशेषत: स्त्री) के बीच अन्तर्सम्बन्धों को ध्यान में रखते हुए विचार करना होगा। ऐसे मामलों में सरकार की प्रतिष्ठा का कम, राष्ट्र की न्याय व्यवस्था की प्रतिष्ठा का ध्यान अधिक है।
कहना न होगा कि सर्वोच्च न्यायालय के उपरोक्त निर्णय से न्यायिक संस्थाओं के प्रति शेष-अशेष जन आस्थाएँ खंडित होने से तो बची रहीं, साथ ही अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर देश के कानून और न्यायिक विवेक का भी प्रतिबिम्ब सामने आया। यह अलग बात है कि यौन हिंसा के अन्य मामलों में इससे स्त्रियों को कितना लाभ मिलता है। इतना अवश्य कहा जा सक ता है कि यह निर्णय लैंगिक न्याय की दिशा में एक प्रगतिशील कदम ही नहीं बल्कि मील का पत्थर सिद्ध हो सकता है। मानवाधिकार सिर्फ ‘मुठभेड़’ में मारे गए आतंकवादियों के लिए ही नहीं, यौन हिंसा का शिकार स्त्रियों के पक्ष में भी परिभाषित होना जरूरी ह।। अगर सरकारी संस्थाओं में भी जीवन सुरक्षा उपलब्ध नहीं, तो हजारों विदेशी पर्यटक ‘भारत भ्रमण’ पर क्यों आएँगे ?
और अन्त में…आत्मरक्षा
यशवन्त राव बनाम मध्य प्रदेश राज्य[85] में अभियुक्त पर आरोप था कि उसने 5 अप्रैल, 1985 को लखन सिंह नाम के व्यक्ति की कुदाली से हत्या की है। सत्र न्यायाधीश ने अभियुक्त को हत्या का अपराधी तो नहीं माना लेकिन गम्भीर चोट पहुँचाने के अपराध में एक साल कैद की सजा सुनाई। मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने अपील में यह सजा अब तक भुगती जेल की सजा में बदल दी, जिसके विरुद्ध अभियुक्त ने सर्वोच्च न्यायालय में विशेष अनुमति याचिका दायर की। सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति श्री कुलदीप सिंह और योगेश्वर दयाल ने 4 मई, 1992 को अपने अभूतपूर्व ऐतिहासिक फैसले में लिखा है कि अभियुक्त को अपने बचाव का अधिकार है, जो इस मामले में भी लागू होता है, जब अभियुक्त की पन्द्रह वर्षीया बेटी के साथ मृतक बलात्कार कर रहा था। न्यायमूर्तियों ने कहा कि अभियुक्त के बचाव में सबसे पहले पुलिस में दर्ज रपट है, जिसमें अभियुक्त ने शिकायत की है कि उसकी नाबालिग बेटी छाया घर के पिछवाड़े शौच के लिए गई थी, जहाँ मृतक ने उसे पकड़ लिया और शोर सुनकर वह वहाँ पहुँचा तो मृतक अपने बचाव में भाग खड़ा हुआ था। इस तरह वह दीवार के टकराया और पथरीली जमीन पर गिरकर जख्मी हो गया। सत्र न्यायाधीश का विचार था कि नाबालिग लडक़ी, जिसकी उम्र पन्द्रह साल है, अपनी सहमति से जब लखन सिंह के साथ सम्भोग कर रही थी तब अभियुक्त ने उसे चोट पहुँचाई है। लडक़ी खुद लखन सिंह को घर से बुलाकर लाई थी। अभियुक्त ने अपनी बेटी को लखन सिंह के साथ सम्भोग करते देखा तो उसने उत्तेजना व गुस्से में मृतक पर हमला कर दिया।
सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में उल्लेख किया है कि अभियुक्त ने अपने बचाव के अधिकार का तर्क सत्र न्यायाधीश के सामने भी रखा था। लेकिन सत्र न्यायाधीश ने सिर्फ इतना ही ध्यान दिया कि अभियुक्त ने चोट उत्तेजना और गुस्से में पहुँचाई है। इससे आगे मामले की जाँच नहीं की। इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि सम्भोग सहमति से हो रहा था या बिना सहमति के। तथ्य यह है कि छाया की उम्र पन्द्रह साल थी और लखन सिंह द्वारा किया कृत्य भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 376 उपधारा 6 के अन्तर्गत बलात्कार ही माना जाएगा। पंचनामे से स्पष्ट है कि बलात्कार का प्रयास या सम्भोग पूरा नहीं हुआ था और इसी बीच अभियुक्त ने मृतक पर वार किया था। मेडिकल रिपोर्ट के अनुसार भी मृत्यु कुदाली से चोट लगने की वजह से नहीं हुई है, बल्कि ‘लीवर’ फटने से हुई है। कारण कुछ भी हो, बचाव का अधिकार अभियुक्त को तब भी है जब कोई उसकी बेटी के साथ बलात्कार कर रहा हो। सर्वोच्च न्यायालय का यह निर्णय महत्त्वपूर्ण कहा जा सकता है क्योंकि कानूनी अधिकारों के बारे में अनभिज्ञ माँ-बाप अक्सर ऐसे मौके पर बलात्कारी को खुद कुछ कहने-सुनने या मारने-पीटने की बजाय थाने में जाकर शिकायत करते हैं। शायद डर भी लगता है कि कहीं खुद ही कानून के जंजाल में न फँस जाएँ। परन्तु इस निर्णय से स्पष्ट है कि बेटी, बहू या बहन या किसी रिश्तेदार के साथ बलात्कार होता देखकर, बलात्कारी की हत्या तक कर देने में भी ‘बचाव का अधिकार’ (राइट ऑफ प्राइवेट डिफेंस) एक कानूनी अधिकार भी है और बलात्कारियों से निपटने का हथियार भी।
स्त्रियाँ स्वयं अपने बचाव में हथियार उठाने के कानूनी अधिकार का प्रयोग कर सकती हैं। दिल्ली में अभी कुछ दिन पहले एक चौदह वर्षीया लडक़ी ने बलात्कार का प्रयास करनेवाले व्यक्ति की हत्या कर दी थी। नि:सन्देह उसे अपने बचाव में हत्या करने का अधिकार मिलेगा। बलात्कारी कानूनी प्रक्रिया में सजा से बच सकता है। लेकिन जिस दिन औरतें खुद हथियार उठा लेंगी, उसे कोई नहीं बचा सकता। दरअसल भेडिय़ों के समाज में बच्चियों को असुरक्षित और निहत्था छोडऩे के बजाय उन्हें जूड़ों कर्राटे और गोली, गँड़ासा, दराँती चलाना सीखने या सिखाने की जरूरत है और यह भी बताने की जरूरत है कि अपनी सुरक्षा में, अपने बचाव में की गई हत्या भी कोई अपराध नहीं है।
(संपादन : नवल)
सन्दर्भ :
[1] महावीर बनाम राज्य 55 (1994) दिल्ली लॉ टाइम्स 428
[2] सिद्धेश्वर गांगुली बनाम पश्चिम बंगाल, ए. आई. आर. 1958 सुप्रीम कोर्ट, 143
[3] ए. आई. आर. 1927 लाहौर 858
[4] ए. आई. आर. 1928 पटना 326
[5] ए. आई. आर. 1963 पंजाब 443
[6] 1963 क्रिमिनल लॉ जर्नल 391
[7] 4 ऑल इंडिया क्रिमिनल डिवीजन 469
[8] 1991 क्रिमिनल लॉ जर्नल 939
[9] वही, पृ. 942
[10] रफीक बनाम उत्तर प्रदेश (1980) सुप्रीम कोर्ट केसस 262
[11] ए. आई. आर. 1923 लाहौर 297
[12] ए. आई. आर. 1980 सुप्रीम कोर्ट 559
[13] 23 क्रिमिनल लॉ जर्नल 475
[14] ए. आई. आर. 1924 लाहौर 669
[15] ए. आई. आर. 1927 रंगून 67
[16] ए. आई. आर. 1934 कलकत्ता 7
[17] ए. आई. आर. 1935 लाहौर 8
[18] ए. आई. आर. 1939 रंगून 128
[19] ए. आई. आर. 1944 नागपुर 363
[20] ए. आई. आर. 1947 इलाहाबाद 393
[21] ए. आई. आर. 1949 कलकत्ता 613
[22] ए. आई. आर. 1949 इलाहाबाद 710
[23] ए. आई. आर. 1950 लाहौर 151
[24] ए. आई. आर. 1950 नागपुर 9
[25] ए. आई. आर. 1952 सुप्रीम कोर्ट 54
[26] ए. आई. आर. 1955 पटना 3245
[27] पडरिया बलात्कार कांड में न्यायाधीश ओ.पी. सिन्हा का फैसला
[28] ए. आई. आर. 1977 सुप्रीम कोर्ट 1307
[29] ए. आई. आर. 1970 सुप्रीम कोर्ट 1029
[30] ए. आई. आर. 1973 सुप्रीम कोर्ट 343
[31] तुकाराम बनाम महाराष्ट्र (ए. आई. आर. 1979 सुप्रीम कोर्ट 185)
[32] फूलसिंह बनाम हरियाणा (ए. आई. आर. 1980 सुप्रीम कोर्ट 249)
[33] भोगिन भाई हिरजी भाई बनाम गुजरात (ए. आई. आर. 1983 सुप्रीम कोर्ट 753)
[34] ए. आई. आर. 1989 सुप्रीम कोर्ट 937
[35] ए. आई. आर. 1990 सुप्रीम कोर्ट 538
[36] ए. आई. आर. 1981 सुप्रीम कोर्ट 361
[37] महाराष्ट्र बनाम चन्द्रप्रकाश केवलचन्द जैन ए.आई.आर. 1990 सुप्रीम कोर्ट 658
[38] ए. आई. आर. 1927 लाहौर 772
[39] छिद्दा राम बनाम दिल्ली प्रशासन, 1992 क्रिमिनल लॉ जर्नल 4073
[40] ए. आई.आर. सुप्रीम कोर्ट 658
[41] 1992 क्रिमिनल लॉ जर्नल 715
[42] ए. आई. आर. 1962 मद्रास 31, ए. आई. आर. 1991 सुप्रीम कोर्ट 207
[43] 1992 क्रिमिनल लॉ जर्नल 1666
[44] 1988 क्र्रिमिनल लॉ जर्नल 3044
[45] 1988 (4) आर. सी. आर. (क्रिमिनल) 600
[46] 1988 (4) आर. सी. आर. (क्रिमिनल) 207
[47] 1988 (3) आर. सी. आर. (क्रिमिनल) 692
[48] 1991 क्रिमिनल लॉ जर्नल 2859
[49] 1994 क्रिमिनल लॉ जर्नल 248
[50] 1994 क्रिमिनल लॉ जर्नल 1529
[51] 1983 (2) ऑल क्रिमिनल लॉ रिपोर्ट 844
[52] 1991 क्रिमिनल लॉ जर्नल 439
[53] 1993 क्रिमिनल लॉ जर्नल 852
[54] 1993 क्रिमिनल लॉ जर्नल 2834
[55] विनोद कुमार बनाम राज्य, 1994 क्रिमिनल लॉ जर्नल 2360
[56] 1993 क्रिमिनल लॉ जर्नल 2919
[57] जहरलाल दास बनाम उड़ीसा राज्य 1991 क्रिमिनल लॉ जर्नल 1809
[58] कुमुदी बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, (1999) एस.एल.टी. 636
[59] ए. आई. आर. 1929 लाहौर 584
[60] 1977 क्रिमिनल लॉ जर्नल 556
[61] 1987 क्रिमिनल लॉ जर्नल 557
[62] रामरूपदास बनाम राज्य, 1993 क्रिमिनल लॉ जर्नल 1000
[63] जगदीश प्रसाद बनाम राज्य, 58 (1995) दिल्ली लॉ टाइम्स 740
[64] बलवान सिंह बनाम हरियाणा राज्य, 1994, क्रिमिनल लॉ जर्नल 2810
[65] रामचित राजभर बनाम पश्चिम बंगाल, 1992 क्रिमिनल लॉ जर्नल 372
[66] नाला रामबाबू बनाम आन्ध्र प्रदेश राज्य, 1992 क्रिमिनल लॉ जर्नल 324
[67] वी. लक्ष्मी नारायण बनाम पुलिस निरीक्षक, 1992 क्रिमिनल लॉ जर्नल 334
[68] ओमी उर्फ ओमप्रकाश बनाम उत्तर प्रदेश राज्य, 1994 क्रिमिनल लॉ जर्नल 155
[69] 1991 क्रिमिनल लॉ जर्नल 835
[70] 1992 क्रिमिनल लॉ जर्नल 3786
[71] 1993 क्रिमिनल लॉ जर्नल 977, 1994 क्रिमिनल केसस 56
[72] फूलसिंह चंडीगढ़ क्रिमिनल केस 163
[73] 1979 राजस्थान क्रिमिनल केस 234
[74] 1979 राजस्थान क्रिमिनल केस 234
[75] 1979 राजस्थान क्रिमिनल केस 56
[76] 1978 राजस्थान क्रिमिनल केस 426
[77] 1977 (2) राजस्थान क्रिमिनल केस 157
[78] 1976 (1) राजस्थान क्रिमिनल केस 310
[79] 1976 राजस्थान क्रिमिनल केस 258
[80] काकू बनाम हिमाचल प्रदेश ए. आई. आर. 1976 सुप्रीम कोर्ट 1991
[81] रीपिक रविन्द्र बनाम आन्ध्र प्रदेश, 1991 क्रिमिनल लॉ जर्नल 595
[82] इप्पिती श्रीनाथ राव बनाम आन्ध्र प्रदेश 1984 क्रिमिनल लॉ जर्नल 1294
[83] जगदीश बनाम दिल्ली राज्य 57 (1955) दिल्ली लॉ टाइम्स 761
[84] प्राचीन भारत में न्याय व्यवस्था, नताशा अरोड़ा
[85] 1992 क्रिमिनल लॉ जर्नल 2779