(अरविन्द जैन सर्वोच्च न्यायालय व दिल्ली उच्च न्यायालय में वरिष्ठ अधिवक्ता हैं। महिलाओं की समाज में दोयम दर्जे की स्थिति और उनके संदर्भ में बने कानूनों की पेंचीदगियों पर आधारित उनकी पुस्तक ‘औरत होने की सजा’ का प्रकाशन 1996 में हुआ। इस किताब के माध्यम से अरविन्द जैन ने महिलाओं के कानूनी अधिकारों व मुद्दों को मुखरता से समाज के समक्ष रखा। इसे हम अपने वेब के पाठकों के लिए श्रृंखला के रूप में प्रकाशित कर रहे हैं। आज की कड़ी में पढ़ें बच्चों पर मां के अधिकारों के बारे में)
औरत होने की सजा
बच्चों पर मां के अधिकार (संरक्षकता) सम्बन्धी, सर्वोच्च न्यायालय का फैसला (गीता) हरीहरन बनाम रिजर्व बैंक आफ इंडिया, जजमेंट टुडे 99 (1) सुप्रीम कोर्ट, 524 दिनांक 17 फरवरी, 1999) क्या सचमुच ‘अभूतपूर्व’ या ‘ऐतिहासिक फैसला’ है? इस ‘स्वागत योग्य’ निर्णय ने ‘आधी दुनिया’ के सुलगते सवालों को सुलझा लैंगिक न्याय (जेंडर जस्टिस) के नए प्रतिमान स्थापित किए हैं या कुछ समय के लिए संवैधानिक संकट टाल दिया है? सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्तियों ने सिर्फ न्याय की जादुई भाषा रची है या वास्तव में ही संवेदना की अन्तर्राष्ट्रीय शब्दावली को दूरगामी अर्थों में परिभाषित किया है? संचार माध्यमों द्वारा निर्णय के सम्पादकीय अभिनन्दनों का असली अभिप्राय जन चेतना का प्रचार-प्रसार है या भ्रामक छवि निर्माण? निःसन्देह न्यायिक विवेक और प्रतिभा ने न्याय किया है परन्तु महत्वपूर्ण और विचारणीय विषय है कि स्त्री को अपने बच्चों की संरक्षकता का समानाधिकार मिला या नहीं? अगर अधिकारों का बराबर बंटवारा नहीं हुआ तो क्या मां के साथ सच में न्याय हुआ है?
एक सम्पादकीय टिप्पणी के अनुसार, ‘‘उच्चतम न्यायालय ने अपने एक ऐतिहासिक फैसले में पिता की ही तरह मां को भी एक नाबालिग बच्चे की स्वाभाविक अभिभावक होने का अधिकार दिया है। अभी तक केवल पिता ही नाबालिग बच्चे के अभिभावक के रूप में मान्य था।’’ मां को ‘अभिभावक होने का अधिकार’ दिया है मगर केवल कुछ अपरिहार्य स्थितियों में ही। इसे समानाधिकार कैसे कहा जा सकता है? फैसले के अनुसार मां, बच्चों के पिता की अनुमति, अनुपस्थिति या शारीरिक-मानसिक अक्षमता की स्थिति में ही संरक्षक बन या बनाई जा सकती है। संरक्षकता प्रमाण पत्र हासिल करने के लिए कोर्ट-कचहरी के सिवा कोई विकल्प नहीं।
खैर, हिन्दू अल्पवयस्कता और संरक्षकता अधिनियम, 1956 की धारा 6 में प्रावधान है कि किसी भी नाबालिग हिन्दू और उसकी सम्पत्ति (संयुक्त परिवार की सम्पत्ति के हित के अलावा) का प्राकृतिक संरक्षक :
(क) लड़के और अविवाहित लड़की की स्थिति में पिता और उसके बाद माता होगी, बशर्ते कि पांच साल तक के बच्चों की अभिरक्षा आमतौर पर मां के पास रहेगी।
(ख) अवैध पुत्र या अवैध अविवाहित पुत्री की प्राकृतिक संरक्षक मां होगी और उसके बाद पिता।
(ग) विवाहित लड़की की स्थिति में उसका प्राकृतिक संरक्षक पति होगा। बशर्ते कि कोई व्यक्ति किसी नाबालिग या प्राकृतिक संरक्षक होने का अधिकारी नहीं होगा (इस धारा के अन्तर्गत) –
(क) अगर वह हिन्दू नहीं रहा है, या
(ख) अगर उसने पूर्ण रूप से संसार छोड़ संन्यास ले लिया है।
स्पष्टीकरण : इस धारा में ‘पिता’ और ‘माता’ की परिभाषा में सौतेले पिता और सौतेली माता शामिल नहीं है।
उपरोक्त प्रावधान के अनुसार, नाबालिग बच्चों का संरक्षक पिता और उसके बाद माता होगी, यहां नाबालिग बच्चों (पुत्र और अविवाहित पुत्री) से अभिप्राय सिर्फ वैध बच्चों से ही है क्योंकि अवैध लड़के या अवैध अविवाहित लड़की की प्राकृतिक संरक्षक मां होगी और उसके बाद पिता (अगर पता चला तो)। यानी वैध पुत्र-पुत्रियां पिता के और अवैध माता के। और हां, विवाहित लड़की (नाबालिग) का प्राकृतिक संरक्षक उसका पति होगा। (भले ही वह भी नाबालिग हो। देश में बाल विवाह अभी भी हर साल होते ही रहते हैं और ऐसे विवाह कानूनन भी मान्य ही हैं। रद्द थोड़े ही समझे जाते हैं।) इस सन्दर्भ में उच्च न्यायालयों से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक की अनेक नजीरें उपलब्ध हैं।
उपरोक्त वैधानिक पृष्ठभूमि में वैध पुत्र-पुत्रियों का प्राकृतिक संरक्षक पिता और उसके बाद माता होगी। प्रावधान में लिखे शब्द ‘एंड आफ्टर हिम’ का अर्थ अभी तक यही समझा जाता रहा है कि ‘उसके जीवन काल के बाद’। यही अर्थ (अनर्थ) इस मुकदमे की बहस का मुख्य मुद्दा भी है और संवैधानिक चुनौती भी। अपीलार्थी स्त्रियों की दलील है कि यह प्रावधान लिंग के आधार पर विभेद है। इसलिए संविधान के अनुच्छेद 14 और 15 का उल्लंघन है। अनुच्छेद 14 के अनुसार, हर व्यक्ति को कानून में समानता और समान कानूनी संरक्षण और मौलिक अधिकार प्रदान किया गया है और अनुच्छेद 15 में प्रबन्ध है कि राज्य किसी भी नागरिक के साथ केवल धर्म, वंश, जाति या लिंग के आधार पर विभेद नहीं करेगा। पिता के जीवन काल तक, अपने ही बच्चों पर मां को कोई अधिकार नहीं देना- लिंग के आधार पर विभेद नहीं तो क्या है?
सर्वोच्च न्यायालय के न्यायमूर्तियों- डा.ए.एस. आनन्द, एम. श्रीनिवासन और उमेश सी. बैनर्जी के सामने बेहद गम्भीर, जटिल और पेचीदा ‘धर्म संकट’ की स्थिति थी। उन्हीं के शब्दों में, ‘‘क्या इस धारा को समझने का यह ढंग सही है और क्या धारा में लिखा शब्द ‘बाद में’ का एकमात्र अर्थ ‘जीवन काल के बाद’ (आफ्टर द लाइफ टाइम) ही है? अगर इस प्रश्न का उत्तर सकारात्मक ‘हां’ दिया जाता है तो इस धारा को असंवैधानिक होने के कारण रद्द ठहराना होगा, क्योंकि निस्सन्देह यह संविधान द्वारा निर्धारित एक सिद्धान्त लैंगिक समानता का उल्लंघन करता है। हिन्दू संरक्षकता अधिनियम 1956 में लागू हुआ था, यानी संविधान बनने के छह साल बाद। क्या संसद की मंशा संवैधानिक सीमाओं का अतिक्रमण करना था या उसने संविधान द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों को अनदेखा किया, जो अनिवार्य रूप से लिंग के आधार पर विभेद पर प्रतिबंध लगाते हैं? हमारे विचार से नहीं। यह स्थापित हो चुका है कि अगर किसी एक संरचना (व्याख्या) से कोई कानून असंवैधानिक हो जाएगा जबकि किसी दूसरी उपलब्ध संरचना (व्याख्या) से संवैधानिक सीमाओं में ही रहता है तो अदालत दूसरी संरचना को प्राथमिकता देगी। इस आधार पर ही यह माना जाना चाहिए कि विधायिका ने संविधान के अनुसार ही कार्य किया है और आमतौर पर अदालतें, वैधानिक प्रावधानों की संवैधानिकता के पक्ष में ही रहती हैं।’’
सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष समस्या यह है कि संरक्षकता सम्बन्धी प्रावधान को न पूर्ण रूप से स्वीकारा जा सकता है और न नकारा जा सकता है, न लिंग के आधार पर विभेद को अनदेखा किया जा सकता है न विभेद को स्वीकार करके प्रावधान को असंवैधानिक घोषित किया जा सकता है। ऐसी दोनों ही स्थितियों के परिणाम जोखिम भरे हैं। एक तरफ संवैधानिक संकट की सम्भावना है और दूसरी तरफ लैंगिक न्याय की पुकार। ऐसे में कानूनी प्रावधान की ‘भाषा के साथ बिना कोई हिंसा किए’ ही रास्ता तलाशना-तराशना जरूरी है। समानाधिकार सम्भव नहीं मगर फैसला लम्बे समय तक ‘सुरक्षित’ रखना भी मुश्किल है। संसद, संविधान और लैंगिक न्याय के बीच बहस में से उठकर नहीं जाया जा सकता। शायद इसीलिए ‘मध्यम मार्ग’ अपनाना उचित समझा गया है। संविधान और संसद की लाज भी बच गई और स्त्रियों के साथ अभूतपूर्व न्याय का तकाजा भी पूरा हो गया। आप कह सकते हैं कि और विकल्प भी क्या था/है?
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उल्लेखनीय है कि न्यायमूर्ति एम.पी. ठक्कर की अध्यक्षता में गठित विधि आयोग की 133वीं रिपोर्ट 22 मार्च, 1990 को राज्यसभा में पेश की गई थी, जिसमें हिन्दू अल्पवयस्कता और संरक्षकता अधिनियम की कुछ धाराओं में संशोधन की सिफारिश की गई है। आयोग ने सुझाव दिया है कि माता-पिता दोनों को ही प्राकृतिक संरक्षक माना जाना चाहिए क्योंकि मौजूदा प्रावधान भारतीय संविधान के अनुच्छेद 15 के विरुद्ध है। आयोग की यह सिफारिश निश्चित रूप से ‘स्वागत योग्य’ है। भले ही इससे महिलाओं को सिर्फ कागजी अधिकार मिल पाए। वह भी तब, जब भारतीय संसद इसे मानकर कानून बना दे। आशंका इसलिए है कि न जाने कितनी ही ऐसी सिफारिशें कानून और न्याय मंत्रालय में पड़ी धूल चाट रही होंगी। इस सुझाव के आधार पर नया कानून बनाना पितृसत्तात्मक समाज की जड़ों में मट्ठा डालना होगा। क्या भारतीय पुरुष पंचायत इसे स्वीकार करेगी?
आश्चर्यजनक है कि सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय में विधि आयोग की सिफारिशों का हवाला तक नहीं है। सम्भव है बहस के दौरान विद्वान वकीलों का ही नहीं न्यायमूर्तियों का ध्यान भी इस ओर न गया हो। अगर निर्णय के समय न्यायमूर्तियों के सामने विधि आयोग की रिपोर्ट रही होती तो हो सकता है निर्णय का रुख कुछ और होता। और कुछ न सही गंभीरतापूर्वक पुनर्विचार और व्यापक बहस तो होती ही। अन्तर्राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य के चक्कर में अक्सर राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य उपेक्षित रह जाता है।
इसी सन्दर्भ में यह जानना भी महत्वपूर्ण है कि संरक्षकता कानून की धारा-7 में प्रावधान है कि बेटा गोद लेने पर बेटे की प्राकृतिक संरक्षकता का हक गोद लेनेवाले पिता और उसके बाद माता को मिलेगा। विधि आयोग ने सलाह दी है कि हिन्दू दत्तकता और भरण-पोषण अधिनियम 1956 की धारा-7 के अनुसार जब बेटा या बेटी दोनों को ही गोद लेने का अधिकार दिया गया है तो संरक्षकता कानून में प्राकृतिक संरक्षकता का हक सिर्फ बेटा गोद लेने के बारे में ही क्यों? बेटी गोद लेने पर भी समान रूप से यह अधिकार होना चाहिए। पर भारतीय समाज में बेटियां गोद लेने का दुस्साहस कितने लोग करते हैं? ‘दुस्साहसियों’ को सजा मिलनी चाहिए, संरक्षकता नहीं।
उस समय भी समाचार पत्रों ने विधि आयोग की इस सिफारिश को खबरों में सिरे से गायब कर दिया। क्या इसलिए कि जब तक भ्रम बना रहे अच्छा है? कहना न होगा कि विधि आयोग की सिफारिशों को समाचार पत्रों ने ‘क्रान्तिकारी’ और ‘महिलाओं को समान अधिकार’ देने के अभूतपूर्व सुझाव के रूप में प्रचारित किया था लेकिन यह प्रचार काफी हद तक भ्रामक था। मुझे लगता है कि स्त्रियों को कुछ भी अधिकार देने या देने की बात तक करने को जरूरत से ज्यादा विज्ञापित किया जाता है ताकि सबको यह अहसास और विश्वास हो सके कि भारतीय हिन्दू समाज, स्त्रियों के प्रति कितना उदार, सहृदय और न्यायप्रिय है।
‘अबलाओं’ को पुरुष समान अधिकारी नहीं- दान और दया का पात्र समझता है। समानाधिकार देने से उसका वर्चस्व न टूट जाएगा, सारे सत्ता समीकरण न बदल जाएंगे। अपने ‘जीवन काल’ में पुरुष (पिता, पति, पुत्र) स्त्री को समानता देने का खतरा उठाने से अभी भी बहुत डरता है। इसलिए आसानी से कुछ भी नहीं देगा या देना चाहता। हिम्मत हो तो आगे बढ़कर छीन लो… हथिया लो। फैसले का विरोध करने के साथ-साथ स्त्री के विरुद्ध खड़ी सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और वैधानिक व्यवस्था के विरोध का फैसला लेना भी जरूरी है। वरना ‘उनका फैसला’ तो संवैधानिक सन्तुलन बचाने-बनाने की ‘इफ’ और ‘बट’ यानी अगर-मगर, किन्तु-परन्तु और यद्यपि-लेकिन के दुश्चक्र में ही फंसा रहेगा या संविधान की सीमाओं पर गश्त लगाता रहेगा।
समानाधिकार के संघर्ष में कानून और न्यायपालिका की भूमिका सीमित ही नहीं, अनिश्चित भी है। पति की ‘अनुपस्थिति’ में पत्नी को ‘कार्यवाहक संरक्षक’ समझने, मानने से मिली राहत (जैसी और जितनी भी) से फिलहाल यह समझना पड़ेगा कि ‘जस्टिस’ का अर्थ सिर्फ ‘जस्ट आईस’ नहीं है। बर्फ पिघलने की शुरुआत का स्वागत है, मगर इसे सत्य या न्याय की विजय कहना कठिन है, क्योंकि अन्याय न होने का अर्थ, न्याय होना भी तो नहीं है।
(संपादन : नवल)
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