कबीर की कविताएँ जातियों के विवरण और विन्यास के माध्यम से अनेक बातें कहती हैं. वे अपने परिवेश में जातियों की सामाजिक स्थिति को बखूबी समझते हुए भक्तिपरक बातें करते हैं. उन्हें जरा भी भ्रम नहीं है कि जातियों की असलियत क्या है? ‘जाति के प्रश्न पर कबीर’ पुस्तक में कबीर से सम्बन्धित उन प्रश्नों पर विचार किया गया है जिनका जुड़ाव ‘जाति’ से है.
इधर के वर्षों में इतिहास के साथ कई तरह के प्रयोग सामने आए हैं. इनमें से कुछ प्रयोग गम्भीर नहीं हैं, मगर ‘आवारा सूचना तंत्र’ इनके प्रचार-प्रसार में सहायक हुआ है. आजकल ऐसी बातें ज्यादा तेजी फ़ैल रही हैं जो सरलीकृत, कल्पित और भावात्मक होती हैं. कट्टरता को वैचारिकी का आधार बनाया जा रहा है. प्रेम से ज्यादा नफरत की बातें पसंद की जा रही हैं. इन सबका असर पड़ा है कि हम अंध राष्ट्रवाद और आत्म-प्रशंसा के अँधेरे बियावान की तरफ बढ़ते जा रहे हैं. मार्ग दिखानेवाले को भटका हुआ बताया जा रहा है. ऐतिहासिक भूमिका निभानेवाले व्यक्तित्वों और विचारों को मज़ाक का विषय बनाया जा रहा है.
यह भी पढ़ें : विश्व पुस्तक मेले में पाठकों की पसंद, फारवर्ड प्रेस की किताबें
ऐसे समय में यह भी कहा जा रहा है कि ‘जाति’ के सवाल या तो मुग़लकाल की देन हैं या ब्रिटिशकाल की! इन दोनों काल-खंडों के पहले भारत में ‘जाति’ से जुड़ी समस्याएँ नहीं थीं या बहुत कम थीं. अंध राष्ट्रवाद प्राचीनता की अँधेरी-अनजानी गुफा में ले जाता है और मनमाना इतिहास खड़ा करता है. इतिहास-दृष्टि की भिन्नता स्वागत-योग्य है, मगर मनमानापन के विरूद्ध हस्तक्षेप जरूरी है!
यह पुस्तक कबीर की लगभग तीन सौ कविताओं को ध्यान में रखकर जाति से सम्बन्धित सवालों पर विचार करती है. ये कविताएँ इस पुस्तक के परिशिष्ट में संकलित भी हैं. कबीर अनेक कारणों से मध्यकाल के बड़े कवि हैं. उन अनेक कारणों में एक कारण यह भी है कि उन्होंने जाति के सवालों को बड़े पैमाने पर उठाया है. जाति के विभिन्न स्तरों के बारे में उन्होंने बात की है. उन्होंने हिन्दुओं के साथ मुसलमानों की जातियों को भी अपने विचार का विषय बनाया है. यह सब करते हुए उनकी वैचारिक परिपक्वता देखते ही बनती है. मुक्तिबोध ने कबीर के सन्दर्भ में जिस ‘आधुनिकता’ की बात की है, उसका एक बड़ा आधार निश्चित रूप से इस तरह की कविताएँ हैं. वे केवल वर्णाश्रम के विरोधी कवि नहीं हैं, वे जातिवाद के केवल भावुक विरोधी नहीं हैं; बल्कि समाज की निर्मिति में जातियों की भूमिका पर विचार करनेवाले कवि हैं. उनकी कविताएँ इस बात का प्रमाण हैं कि जातियों की विविधता औपनिवेशिक युग से बहुत पहले से मौजूद है. इसी सूत्र से हम पीछे की तरफ जाएँ तो कबीर के पूर्वज समानधर्मा कवियों में सिद्धों के यहाँ इस तरह की कविताएँ मिलती हैं. मुसलमानों की सत्ता स्थापित होने के पहले से ही जातियों से सम्बन्धित कविताएँ मिलने लगती हैं. ये कविताएँ हमारे समाज को जाति-आधारित विन्यास के साथ समझने के दस्तावेज प्रस्तुत करती हैं. निर्गुण कवियों को उनकी परंपरा के साथ विस्तृत रूप से पढ़ा जाए तो हम जाति के समाजशास्त्र को समझने के अनेक सूत्र प्राप्त कर सकते हैं. हम यह भी जान सकते हैं कि इस अन्याय के प्रतिरोध की परम्परा भी बहुत पुरानी है.
यह भी पढ़ें : जाति के प्रश्न पर कबीर
दरअसल ऐसी कविताओं को वर्णाश्रम के समर्थन और विरोध के रूप में उद्धृत किए जाते रहने के कारण इनकी उपयोगिता को सीमित कर दिया गया. जातियों को जाति-समूह में बाँटकर देखने के कारण इन कवियों के स्वर की विविधता को ठीक से नहीं देखा जा सका. वर्णाश्रम के विरोध को पहले ब्राह्मण-विरोध और फिर सवर्ण-विरोध के रूप में चिह्नित किया गया. मगर कबीर की कविता इस तरह की भाषा में नहीं लिखी गयी है. वे ब्राह्मण की निंदा जरूर करते हैं, मगर ऐसी निंदा वे कई दूसरी जातियों की भी करते हैं. वे ‘महतो’ और ‘खटिक’ की भी निंदा करते हैं. वे ‘राजपूत’ की निंदा कहीं नहीं करते हैं. कहने का आशय यह है कि जातियों की विविधता को बड़े धैर्य के साथ कबीर ने अपनी कविता में रखा है. वे जाति के आधार पर किसी को छोटा-बड़ा नहीं मानते, मगर जाति-सम्बन्धी भेद-भाव के प्रति पूर्णतः सजग रहते हैं.
सारांश के तौर पर कहा जा सकता है कि कबीर की कविताएँ मध्यकालीन समाज को समझने के लिए एक ऐसी सामग्री उपलब्ध कराती हैं, जिसमें उस युग के ब्योरे भी हैं और दृष्टि भी! इनके बारे बात करते समय विभिन्न सिद्धांतों का ख्याल तो रखना ही चाहिए, मगर इन कविताओं को इन सबसे ज्यादा महत्त्व देना चाहिए. ये कविताएँ ही हमें कबीर की विचार-प्रक्रिया तक ले जा सकती हैं. काव्य-भाषा के भीतर अर्थ की जितनी भंगिमाएँ अन्तर्निहित होती हैं उन सबको समझते हुए कबीर के विचारों तक पहुँचना ज्यादा उचित होगा!
(संपादन : नवल)