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आदिवासियों के प्रकृति पर्व सरहुल का साहित्य

जर्नादन गोंड बता रहे हैं आदिवासियों के प्रकृति पर्व सरहुल के बारे में। उनके मुताबिक इस पर्व के बारे में गैर आदिवासी साहित्यकारों ने भी लिखा है। लेकिन उनके लेखन का अपना नजरिया है। जबकि आदिवासी साहित्यकारों ने इसके मूल स्वरूप का वर्णन किया है

सरहुल आदिवासियों का प्रमुख पर्व है। पतझड़ के बाद, जब पेड़ पौधे हरे-हरे होने लगते हैं, फूल वाले पौधों की डालियों पर कलियां निकलने लगती हैं। यानी जब पूरी धरती रंग-बिरंगी होकर उल्लास से नाच उठती है, तब त्यौहार मनाया जाना शुरू होता है और  कई दिनों तक चलता है। चैत की तृतीया से शुरू होकर यह पर्व महीने भर चलता है। यह आदिवासी समुदाय का वसंत पर्व है। इसी त्यौहार से आदिवासियों का नया साल शुरू होता है। इस अवसर पर आदिवासी पेड़ों की पूजा करते हैं। आदिवासी इस अवसर पर नाचते गाते हैं। समूह गान से पहाड़ गूंज उठता है।

इस प्रकृति पर्व के संबंध में साहित्य में बहुत कुछ लिखा गया है। इनमें आदिवासियों के अपने साहित्य के अलावा गैर आदिवासियों का साहित्य भी शामिल है। जैसे कालिदास, निराला और नागार्जुन ने भी मुक्त कंठ से इसका उल्लेख किया है। नागार्जुन की एक कविता उरांव समुदाय के पाहन द्वारा किए जाने वाले आह्वान की याद दिला देता है, जो सरहुल के मौके पर खुले मैदान में सैंकड़ो लोगों के बीच में साल वृक्ष की पूजा के समय समूह में गाया जाता है। “वसंत की आगवानी” शीर्षक कविता में नागार्जुन कहते हैं – 

रंग-बिरंगी खिली-अधखिली
किसिम-किसिम की गंधों-स्वादों वाली ये मंजरियॉ
तरुण आम की डाल-डाल टहनी-टहनी ये मंजरियॉ
तरुण आम की डाल-डाल टहनी-टहनी पर
झूम रही हैं….
चूम रही हैं
कुसुमाकर को! ऋतुओं के राजाधिराज को!! 

यहां कवि अकेले वसंत का आह्वान कर रहा है, क्योंकि तत्सम समाज का रचनाकार अकेले रहकर ही रचता और बंचता है, मगर आदिम रंग-गंध वाले इस त्यौहार को पाहन गाता अकेले है लेकिन बोल को दोहराने वाले कंठ सैकड़ों-हजारों की संख्या में होते हैं। चैत शुक्ल तृतीया इस बार 28 मार्च को है। इस दिन से जब झारखंड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा और बंगाल के गोंड, मुंडा, उरॉव, असुर, पहाडिया और बडाइक जैसी प्रमुख जनजातियॉ खूब धूमधाम से इस पर्व को पूरे कहीं पूरे सप्ताह तो कहीं महीने भर मनाएंगी। पाहन अर्थात गांव का धार्मिक प्रमुख महाबली सिंगबोंगा या सर्वशक्तिसाली धर्मेश और आदिवासी महावृक्ष साल की अराधना इस प्रकार करता है, जिसे समूह के सभी लोग दोहराते  जाते हैं – 

मैं हवा बांधता हूं, पानी बांधता हूं,
धरती बांधता हूं
आकाश बांधता हूं
नौ जंगल
दस दिशाएं बांधता हूं
लाख पशु परेवा
सवा जड़ी बूटी बांधता हूं। 

आदिवासियों के सरहुल और मुख्यधारा के समाज का वसंत एक समय में होते हुए भी सांस्कृतिक मान्यतागत अंतर लिए हुए होता है। तथाकथित मुख्यधारा के समाज में आम को पवित्र पेड़ और फल का दर्जा प्राप्त है। इसकी पत्तियों से लेकर टहनियां तक हवन में इस्तेमाल की जाती हैं। इसके विपरित साल का पेड़ आदिवासी समुदायों में साथी, संगाती, गोतिया, महामानव और रक्षक के रूप में याद किया जाता है। हम यह भी देखते हैं कि तथाकथित मुख्यधारा का समाज बगीचों की देखभाल करता है, जिसमें फलदार पेड़ लगे होते हैं। आम्रकुंज श्रृंगार प्रेमियों के लिए आश्रय स्थल होते हैं। सनातन परंपरा में वसंत को कामदेव कहा गया है। थोड़ा गौर करने पर पाते हैं कि भारतीय आदिवासीयेत्तर समाज में इस ऋतु को कामोत्सव के रूप में मनाया जाता भी रहा है।  कामोत्तेजक महोत्सव होने के कारण इसे ऋतुओं का राजा अर्थात ऋतुराज कहा गया है। कालिदास ने ऋतुसंहार में इसे “सर्वप्रिये चारुतर वसंते” और गीता उपदेश के दौरान कृष्ण ने स्वयं को “ऋतुनां कुसुमाकरा:”कहा है।

सरहुल के मौके पर समूह नृत्य

वसंत ऋतु में प्रकृति हरी-भरी हो जाती है। तापमान प्रेमानुकुल हो जाता है। अर्थात कामनाओं के लिए समुचित मौसम होने के कारण फागुल और होली (स्त्री दहन) जैसे त्यौहारों को दरकिनार कर उन पर भी कामनाओं और श्रृंगारिकता का अतिव्यापन कर दिया जाता है और “बुढ़वा भी देवर लगने लगता है”। काम-आकुलता का महिमामंडन संस्कृत साहित्य के साथ-साथ मध्यकालीन साहित्य में भी खूब हुआ है। रीतिकालीन कवि देव ने बहुत तबियत से ऋतुराज का वर्णन किया है। प्रस्तुत है उनके “कवित” की कुछ पंंक्तियां – 

डार द्रुम पलना बिछौना नव पल्लव के, सुमन झिंगुला सोहै तन छवि भारी दै।
पवन झूलावै, केकि-कीर बतरावै देव, कोकिल हलावै हुलसावै कर तारि दै।।
पुरित पराग सों उतारो करै राई नोन, कंजकलि नायिका लतान सिर सारि दै।
मदन महीप जू को बालक वसंत ताहि, प्रातहि जगावत गुलाब चटकारी दै।। 

वसंत की ऐसी मांसल श्रृंगारिकता सरहुल में नहीं पाई जाती है। सरहुल वन रक्षा के लिए प्रण लेने वाला त्यौहार है। इस पक्ष में हंसते, गाते, नाचते आदिवासी समुदाय के लोग जंगल की रक्षा का प्रण करते हैं और बड़े पैमाने पर साल, गुलर, बांस, तेंदु और चीड़ के पेड़ों को रोपते हैं तथा बड़े पेड़ों को पूजते हैं। हम जानते हैं कि ये सभी पेड़ विसाल होते हैं और धरती के जैव मंडल को ऑक्सीजन से भर देते हैं। आदिवासी जीवनदाई पेड़ों को अपना पुरखा मानते हैं। इसीलिए सरहुल पूरखौती गीतों का भी त्यौहार है। और आदिम लगाव के कारण वन रक्षा और सुरक्षा के लिए जान तक देने के उदाहरण सिर्फ आदिवासी समुदाय में पाया गया है। भारत और दुनिया को रौशनी दिखाने वाला चिपको आंदोलन भी एक आदिवासी औरत गौरा देवी द्वारा शुरू किया गया और संचालित भी किया गया था। इस आंदोलन को एक कुमाऊ गीत से बल मिला, जो इस प्रकार है  – “माटू हमारू, पानी हमारू, हमरा ही छाया और यह बन भी। पितरो नौ लागी बन, हमुनही ता बचाऔं भी।” 

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अर्थात मिट्टी हमारी, पानी हमारा, छाया हमारी, यह जंगल भी हमारा है। हमारे पुरखों ने जंगल को लगया है। हम अपने पुरखों की थाती को जान देकर बचाएंगे। कहने की जरूरत नहीं कि इस आंदोलन ने क्या-क्या किया। अर्थात इस आंदोलन के बाद ही इस देश में पर्यावरण संकट पर परिचर्चाओं का दौर शुरू हुआ और संसद तक को इस विचार करना पड़ा। इसी आंदोलन के प्रभाव से भारत का वन मंत्रालय अस्तित्व में (1980) में आया। अब इस मंत्रालय का नाम पर्यावरण, वन एवं जलवायु मंत्रालय (1985) कर दिया गया है। इस गौरा देवी और आंदोलन पर एक स्वतंत्र लेख जरूरत है, जो फिर कभी। 

पर्यावरण सुरक्षा और सजगता का आदिम पर्व है सरहुल, जिसमें हरे–भरे पेड़ों की पूजा की जाती है और कामना की जाती है कि धरती की हरियाली बनी रहे। सरहुल के गीत वन पूजा के गीत हैं। 

सरहुल शब्द विन्यास इसका अर्थ स्वयं बता देता है। जैसे सर का अर्थ साल और हुल का मतलब पर्व या आंदोलनात्कमक उत्सव। जैसा ऊपर चर्चा किया गया कि जहां मुख्यधारा आम की पूजा करता है, वहीं आदिवासी समाज साल वनों की पूजा करता है। इन पेड़ों का बौद्ध धर्म से भी संबंध है। बुद्ध संप्रदाय में साल वृक्षों की पूजा की जाती है। बताया जाता है कि जब बुद्ध का देहांत हुआ, तब वे दो साल वृक्षों की छाया में आराम कर रहे थे। 

इसके अलावा आदिवासियों के लिए इस पेड़ का सामाजिक और आर्थिक महत्व भी है। यह एक बहुपयोगी पेड़ है। इसकी लकड़ी से लेकर फल-फूल, पत्ता और छाल सब कुछ काम आता है। छाल का उपयोग धूपबत्ती के रूप में होता है। फूल की सब्जी बनती है। फल खाया जाता है। पत्ती से पत्तल और ढांकने वाली चीजें बनाई जाती हैं। बीज से तेल निकाला जाता है और लकड़ी घर बनाने और जलाने के काम आती है। इसीलिए ‘सरना बुरही’ (मुंडा, कुरुख, ओरांव और असुर आदिवासियों का धर्म) धर्म में साल की पूजा ‘सर्जनशील औरतों के समूह’ जो आदिवासियों को बच्चों की तरह से सहायता करती हैं, के रूप में की जाती है। 

इस तरह आदिवासी समुदाय के लिए साल और महुआ के पेड़ दो जरूरी पेड़ हैं। महुआ की पूजा वे लोग भौतिक कारणों से करते हैं मगर साल की पूजा के पीछे कुछ मिथकीय और कुछ ऐतिहासिक कारण हैं। एक मान्यता यह है कि धरती कन्या है, जो बढ़कर जब विवाह योग्य हो जाती है तो उसकी शादी सूरज से की जाती है। शादी के पहले सूरज अपनी प्रिया धरती से प्रणय निवेदन करता है और खूब सारा धूप धरती पर उड़ेलता है, जो सूरज की ओर से धरती के लिए प्यार है। धूप के आने से धरती प्रसन्न हो जाती है और उसका रोम-रोम धन-धान और ऐश्वर्य से लद जाता है। इस अवसर पर पाहन (गॉव का पुजारी) साल के पेड़ से फूल लेकर धरती का श्रृंगार करता है और धरती का हाथ उसके वर अर्थात सूरज को सौंपता है। मान्यता यह भी है कि जब तक सरहुल अर्थात धरती का विवाह और साल वृक्ष की पूजा संपन्न नही हो जाता तब तक आदिवासी समुदाय के लोग नए फसल को चखते नहीं हैं, क्योंकि सारे फसल पर धरती और सूरज का हक माना जाता है। इसी पर्व से शिक्षा ग्रहण करते हुए आदिवासी समुदाय में कन्या पक्ष से दहेज लेने की परंपरा विकसित नहीं हो पाई। असुर समुदाय के लोग इस अवसर पर नाचते हैं और कुछ इस भाव का गीत गाते हैं- 

मांदर की थाप
हड़ियां
झूमर और सरई फूल
आया प्रकृति पर्व सरहुल।
सरई का सुगंध
जंगल-जंगल
ओने-कोने
और खेत – खलिहान
सब मस्ती में मग्न
उल्लास भक्ति और प्रेम
आस्था के रंग हजार
प्रकृति का संग
हवा-पानी का उमंग
धरती और आकाश का रंग
रंग – रंग के फल-फूल
आया प्रकृति पर्व सरहुल। 

– (अलोका की कविता की पंक्तियां जो कथाक्रम, अक्टूबर –दिसंबर-2011, में छपी थीं। कुछ शब्दों को बदल दिया गया है।) 

सरहुल को लेकर कई कथाएं भी कही जाती हैं। उरांव समुदाय में केकड़ा और मछली की कथा बहुत प्रचलित है। यह समुदाय मानता है कि धरती और साल के पहले केकड़ा और मछली आए। केकड़ा ही समुद्र से माटी निकाल कर धरती का निर्माण किया और मछली ने उसको सहयोग दिया, इसलिए ये दोनों प्राणी हमारे आदि पुरखे हैं। 

यही वजह है कि आदिवासियत, सरना धर्म और सिंगबोंगा को महत्व देते हुए झारखंड और छत्तीसगढ़ राज्य ने साल वृक्ष को राज्य वृक्ष का दर्जा दिया है। 

(संपादन : नवल)

लेखक के बारे में

जनार्दन गोंड

जनार्दन गोंड आदिवासी-दलित-बहुजन मुद्दों पर लिखते हैं और अनुवाद कार्य भी करते हैं। ‘आदिवासी सत्ता’, ‘आदिवासी साहित्य’, ‘दलित अस्मिता’, ‘पूर्वग्रह’, ‘हंस’, ‘परिकथा’, ‘युद्धरत आम आदमी’ पत्रिकाओं में लेख ,कहानियां एवं कविताएं प्रकाशित। निरुप्रह के सिनेमा अंक का अतिथि संपादन एवं आदिवासी साहित्य,संस्कृति एवं भाषा पर एक पुस्तक का संपादन। सम्प्रति इलाहाबाद विश्वविद्यालय के हिंदी व आधुनिक भारतीय भाषा विभाग में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं।

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