कोरोना की महामारी के विकराल रूप धारण करने के बीच देश के सबसे बड़े चिकित्सा संस्थान अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स), दिल्ली से खबर आई है कि वहां की एक दलित महिला डेन्टल सर्जन ने आत्महत्या करने की कोशिश की। कारण जानने पर पता चला कि दलित होने के कारण उसका एक वरिष्ठ साथी डाक्टर उसे परेशान करता था। वह उसे काली बिल्ली कहता और पास से गुजरने पर जातिसूचक टिप्पणियां भी करता। उस महिला डाक्टर ने कई बार इसकी शिकायत भी की, परन्तु प्रशासन ने कोई कदम नहीं उठाया। इससे हताश महिला ने अपनी जान लेने का प्रयास किया।
ठीक इसी प्रकार की घटना पिछले साल पायल तड़वी नाम की आदिवासी डाक्टर के साथ हुई थी। तीन सीनियर सवर्ण डाक्टरों के जातिगत दंशों और प्रताड़ना से परेशान होकर वी.आई.एल. नायर अस्पताल की डाक्टर पायल तड़वी ने आत्महत्या कर ली थी।
आश्चर्य तब होता है जब एक तरफ जहां देश का सर्वोच्च न्यायालय बार-बार आरक्षण की समीक्षा की बात करता है वहीं दूसरी तरफ जाति-आधारित भेदभाव रुकने का नाम नहीं लेता है। एम्स की यह घटना कई सवाल पैदा करती है। क्या देश का सर्वोच्च चिकित्सा संस्थान भी जातिगत भेदभाव से ऊपर नहीं है? जब वहां के डॉक्टर अपने ही सहपाठी साथियों के साथ भेदभाव कर सकते हैं तो वे क्या मरीजों के साथ नही भी ऐसा नहीं करते होंगें? ऐसे में एक चिकित्सा संस्थान, जो मानवीय मूल्यों की सर्वोच्चता पर आधारित होता है, पर शक होना स्वाभाविक है।
इस समय जब पूरा विश्व कोरोना की वैश्विक महामारी की चपेट में है, डाक्टरों और अफसरों के बीच जातिगत भेदभाव का उभरकर सामने आना बीमारी से हमारी लड़ाई को और कठिन बना देगा।
इससे पहले भी भारत कई महामारियों का सामना कर चुका है। ब्रिटिश राज के साथ आधुनिक चिकित्सा हमारे देश में आई और इसके साथ आया महामारियों से लड़ने का वैज्ञानिक तरीका।
बिस्वामॉय पति व मार्क हैरिसन अपनी पुस्तक “दी सोशल हिस्ट्री ऑफ हेल्थ एंड मेडिसीन इन कोलोनियल इंडिया” (2009) में इस बात का जिक्र करते हैं कि भारत में जब भी महामारी आयी तब, और खासकर 19वीं सदी के मध्य से, जाति और धर्म आधारित चिकित्सालयों की बाढ़ सी आ गयी। सेना के अस्पतालों में भी अलग-अलग जातियों के मरीजों के लिए अलग-अलग व्यवस्था की गयी थी। अंग्रेज अफसर लिखते हैं कि ऊंची जाति के लोग निम्न जाति के चिकित्सा सहायकों के हाथों से दवाई नहीं लेते थे। इससे उनका धर्म भ्रष्ट होने का खतरा होता था। सामान्य अस्पतालों में निम्न जाति के लोगों के साथ क्रूरता तथा अपमान के साथ पेश आया जाता था। उच्च जाति के लोगों के लिए सभी अस्पतालों के दरवाजे खुले थे।
डेविड अर्नोल्ड ने अपनी पुस्तक “कॉलोनाइजिंग दी बॉडी” (1979) में बताया है कि प्रारंभ में अस्पतालों को ‘निम्न जाति के संस्थानों’ के रूप में देखा जाता था और इनका सबसे ज्यादा विरोध उच्च जाति के लोगों द्वारा किया जाता था। यह दिलचस्प है कि भारतीय इतिहासकारों द्वारा औपनिवेशिक राज पर देश को धर्म और जाति के आधार पर विभाजित करने का आरोप बार-बार लगाया जाता रहा है। चिकित्सा का परंपरागत पेशा वैद्यों और हकीमों तक ही सीमित था जो जातीय आधार पर इलाज करते थे। आधुनिक चिकित्सा ने प्रारंभ से ही जातिगत बंधन तोड़ने में अहम भूमिका निभाई। औपनिवेशिक काल में चिकित्सा, सार्वभौम विज्ञान के रूप में उभरी। यद्यपि यूरोप वासी जाति व्यवस्था में विश्वास नहीं रखते थे फिर भी वे जाति आधारित अस्पताल बनाने में सहायक बने। इस प्रकार औपनिवेशिक चिकित्सा व्यवस्था में जाति का आविर्भाव हुआ। जहां चिकित्सा व्यवस्था के’ उच्च स्थान, उच्च जाति के लोगों के लिए आरक्षित हो गए वहीं कुछ कार्य निम्न जातियों पर छोड़ दिए गए थे। अधिकांश दाईयां समाज के सबसे निचले तबके से आती थीं। उनके जिम्मे अस्पतालों में भी सबसे नीचे का कार्य दिया गया। मसलन, गंदे कपड़े धोना, पुरईन (जैविक अपशिष्ट) को जमीन में गाड़ना और प्रसूति काल तक माताओं के साथ रहना। इसी तरह नाई तथा धोबी जाति की दाईयों को अस्पतालों में स्थान दिया गया और उनकी संख्या धीरे-धीरे बढ़ती गई। शुरुआत में अस्पतालों में चीरफाड़ के लिए नाई तथा अन्य नीच जातियों जैसे डोम तथा चमार (बिहार, बंगाल) जाति के लोगों से कार्य लिया गया, परन्तु धीरे-धीरे उन पर जाति-आधारित आपत्ति कर उन्हें बाहर कर दिया गया तथा जैसे-जैसे उच्च जाति के डाक्टर शल्य क्रिया को अपनाते गये, इन जातियों को हाशिए पर धकेल दिया गया। आज भी निम्न जातियों के लोग मुर्दाघरों से सड़ी-गली लाशों को चीरफाड़ करते दिख जाएंगे।
उच्च जाति के लोग अस्पतालों में रहना पसंद नहीं करते थे। अस्पतालों का सबसे ज्यादा विरोध उच्च जाति के लोगों के द्वारा किया गया था। अस्पतालों को धर्मपरिवर्तन तथा जातिगत पवित्रता से जोड़ दिया गया। जातिगत गतिरोध को दूर करने के लिए जाति आधारित अस्पतालों की नींव रखी गई। ऐसा ही एक उदाहरण सन् 1885 में दी रॉयल विक्टोरिया हॉस्पीटल फॉर कास्ट एंड गोशा का निर्माण हुआ।[1]
प्रारंभ में औरतें अस्पताल नहीं जाती थीं। मद्रास का “लाइंग इन हॉस्पीटल” जो सामान्य अस्पताल था में सन् 1858 में केवल 33 पेरियाह औरतें, 87 एंग्लो इंडियन, 19 हिन्दू और 18 मुस्लिम औरतों ने इलाज कराया था। अस्पतालों ने औरतों को रोजगार का एक अवसर प्रदान किया था। मद्रास मेडिकल काॅलेज में महिलाओं का प्रवेश 1875 में हुआ।[2] इसमें मुख्यतः यूरोपीय, यूरेशियन, पारसी, इंडियन-क्रिश्चन तथा उच्च हिन्दू जाति के डाक्टर थे। ज्यादातर महिला डाक्टर उच्च जाति की होतीं थीं। 1890 में भारत में 55 महिला डाक्टर थीं, जिसकी संख्या 1920 में 150 तक हो गयी थी। इन उच्च जाति के महिला डाक्टरों को भी अपने परिवार, दोस्तों, रिश्तेदारों तथा समाज से संघर्ष कर आगे बढ़ना पड़ा था।
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प्रारंभ में भारतीय आयुर्वेद डाक्टर शल्य चिकित्सा अथवा सर्जरी से दूर रहते थे और यह कार्य नाई जाति के लोग करते थे।[3] महामारी के दौरान भी सरकार पर धर्म और जाति खत्म करने का आरोप लगाया जाता था। अस्पतालों पर हमले होते थे। 1896 में बम्बई के आर्थर रोड पर स्थित प्लेग अस्पताल पर हमला इसी कारण हुआ था, क्योंकि यह अस्पताल एक स्थानीय समुदाय के द्वारा चलाया जा रहा था। बाल गंगाधर तिलक के पत्र ‘केसरी’ में अप्रैल, 1897 अंक में एक ब्राह्मण की कहानी छपी थी जो अस्पताल में दूध पीकर जिंदा था क्योंकि यहां खाना शूद्रों द्वारा दिया जाता था। पुणे के प्लेग अस्पतालों के खिलाफ कई शिकायतें दर्ज करायी गयीं। फलतः कई अस्पताल बन्द होने के कगार पर आ गये थे। दबाव में आकर मुम्बई के नगर आयुक्त को अक्टूबर 1896 में यह घोषणा करनी पड़ी कि सभी प्लेग प्रभावित लोगों को अस्पतालों में भर्ती किया जाएगा और जातिगत भेदभाव नहीं बरता जाएगा।
महामारियों ने सभी वर्गों के लिए एक सीख छोड़ी थी। यह सीख थी धर्म और जाति को पीछे छोड़ने की। परन्तु कोरोना जैसी भयंकर महामारी के दौर में भी लोग धर्म और जाति से ऊपर नहीं उठ पा रहे हैं। निजामुद्दीन के मरकज के मुसलमानों पर बार-बार कोरोना फैलाने का आरोप लगाया जाता है तो दूसरी तरफ जातिगत भेदभाव के कारण देश के अनेक हिस्सों में क्वारेंटाईन के दौरान उच्च वर्गों द्वारा निम्न जाति के रसोइयों के हाथ का बना खाना खाने से इनकार कर दिया गया है। एक घटना उत्तरप्रदेश के कुशीनगर की है, जहां लोगों ने क्वारेंटाइन के दौरान लीलावती देवी नामक दलित रसोइया के हाथों से खाना खाने से इनकार कर दिया।
भले ही किसी भी बीमारी की जाति नहीं होती परन्तु चिकित्सकों की तो जाति होती है। ऐसे में सावित्रीबाई फुले की कहानी मानवता का पाठ पढ़ाती है। फुले दंपत्ति की अपनी कोई संतान नहीं थी। इस कारण उन्होंने एक बेटा गोद लिया था, जिसका नाम उन्होंने यशवंतराव रखा था। बड़ा होकर वह डाक्टर बना और सावित्रीबाई की इच्छा पूरी करने के लिए उसने पुणे शहर के बाहरी हिस्से में अपना अस्पताल भी बनाया था। वर्ष 1897 में पुणे में प्लेग महामारी के दौरान सावित्रीबाई फुले ने पांडुरंग गायकबाड़ के पीड़ित बच्चे को गोद में उठाकर अस्पताल पहुँचाया और खुद प्लेग की शिकार हो गयीं। इसी प्लेग के कारण उनकी मृत्यु हो गयी। पर उनकी बलिदान के इस कहानी को दुनिया से हमेशा छुपाया गया। दूसरी तरफ झांसी की रानी जैसी नायिकाओं का महिमामंडन किया गया जो अपने गोद लिए बच्चे को पीठ पर बांध कर अंग्रेजों से लड़ती दिखाई गयीं। दलित-बहुजनों की कहानियों के लिए इतिहास के पन्ने अभी भी खाली हैं।
(संपादन : नवल/अमरीश)
[1] अर्नोल्ड डेविड, कोलोनाइजिंग दी बॉडी, स्टेट मेडिसीन एंड एपिडेमिकि डिजीजइन नाइंटींथ सेंचुरी, यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया प्रे, 1993,पृष्ठ 258
[2] वही, पृष्ठ 260
[3] वही, पृष्ठ 251