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कोरोना : सबसे अधिक बहुजन प्रभावित, फिर भी क्यों मौन हैं बहुजन प्रतिनिधि?

लॉकडाउन के दौरान एक ओर प्रवासी मजदूर, जिनमें बहुलांश दलित, पिछड़े और आदिवासी समुदायों के हैं, तमाम दुख झेल रहे हैं, वहीं इन समुदायों के जनप्रतिनिधि मौन धारण किए हुए हैं। डॉ. योगेंद्र मुसहर का विश्लेषण

कोरोना के मद्देनजर देश में 25 मार्च 2020 से लागू लॉकडाउन के दौरान प्रवासी मजदूरों ने वह सब कुछ झेला, जो कतई उनके हिस्से में नहीं आना था। काम-धंधे बंद होने और अचानक चौतरफा मची अफरातफरी के माहौल में अव्यवस्था उस समय चरम पर पहुंच गई जब सरकार की तरफ से उनकी मदद के लिए कोई पहल नहीं की गई। हालत यह हो गई कि प्रवासी मजदूर अपनी जान हथेली पर रखकर पैदल ही अपने घरों के लिए निकल पड़े। इस दौरान वे दुर्घटनाओं के शिकार भी हुए। इन सबके बीच सरकारी तंत्र अकर्मण्य बना रहा। लेकिन लोकतांत्रिक तरीके से निर्वाचित जनप्रतिनिधिगण भी चुप रहे। वे चुपचाप  प्रवासी मजदूरों की दुर्दशा देखते रहे। इनमें वे जनप्रतिनिधि भी शामिल हैं जो उन्हीं वंचित समुदायों से आते हैं, जिनसे देश के बहुलांश मजदूर हैं। इस लेख में इन्हीं परिस्थितियों की पड़ताल की गई है। 

पारंपरिक मीडिया और सोशल मीडिया के जरिए प्रवासी मजदूरों की दुर्दशा को देश भर में देखा गया।  हजारों लोग पैदल ही अपने बाल-बच्चों के साथ अपने गांव/शहर को निकल पड़े। हजारों किलोमीटर की यात्रा कर प्रवासी मजदूर अपने पैतृक गांव पहुंचते रहे। कई लोगों ने रास्ते में दम तोड़ दिया। एक बच्चा एक ट्राली बैग पर सो रहा है और उसकी मां उस बैग को खींच रही है।  प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक और सोशल मीडिया में प्रवासी मजदूरों की दुर्दशा की दिल दहला देनी वाली खबरें आती रहीं। दिल्ली का आनंद विहार रेलवे स्टेशन हो या सूरत शहर – अनेक स्थानों पर लाखों की संख्या में प्रवासी मजदूर कई दिनों तक अपने घर जाने के इंतज़ार में डटे रहे। हद तो तब हो गई जब 16 प्रवासी मजदूरों को एक मालगाड़ी ने 8 मई की सुबह लगभग 5:20 बजे महाराष्ट्र के औरंगाबाद जिले में कुचल दिया (द इंडियन एक्सप्रेस, 8, मई  2020)। एक और बड़ी घटना यूपी के औरैया जिला में 16 मई 2020 को घटित हुई। इस दुर्घटना में दो ट्रकों की टक्कर में 26 प्रवासी मजदूरों की जान चली गई। (द हिन्दू, 16 मई 2020) 

इंसान मजबूरी में या तो टूट जाता है या कुछ ऐसा कर जाता है जैसा पहले कभी नहीं हुआ हो। दुर्घटना के शिकार एक पिता को उसकी 13 साल की लड़की साइकिल पर बिठाकर गुरुग्राम (गुड़गांव), हरियाणा से 1,200 किलोमीटर दूर दरभंगा, बिहार अपने घर ले लाई। (बीबीसी हिन्दी, 20 मई 2020 ) 

किन समुदायों के हैं प्रवासी मजदूर?

यहां एक तथ्य का पड़ताल करना अपरिहार्य है कि आखिर ये लोग कौन हैं? ये लोग समाज के किस हिस्से से आते हैं? वे इस कदर असहाय क्यों हैं? ऐसा क्यों है कि चंद दिनों की काम बंदी के कारण उन्हें सड़क पर आना पड़ा? निश्चित रूप से ये लोग समाज के वंचित, दबे कुचले, बहिष्कृत और पिछड़े तबके से आते हैं। इसमें से अधिकांश अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति एवं पिछड़े वर्ग के हैं। ये भारतीय समाज के हाशिए के लोग हैं। यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी कि उन्हें जानबूझ कर मुख्यधारा में शामिल नहीं होने दिया गया। इंडिया माइग्रेशन नाऊ के एक अध्ययन के अनुसार, वंचित जातियों और जनजातियों  के 9.3 करोड़ लोग गरीबी के कारण और अवसरों के अभाव में दूसरे क्षेत्रों में प्रवास करने पर मजबूर हैं। (बिज़नेस स्टैंडर्ड, 26 जनवरी, 2020)

बेसहारा रहे बहुजन प्रवासी मजदूर (इनसेट में केंद्रीय मंत्री अर्जुन मुंडा, रामविलास पासवान, सपा सांसद अखिलेश यादव व बसपा प्रमुख मायावती

देशपांडे और उनके साथियों (2004) के एक अध्ययन के अनुसार गरीबी का घनत्व/अनुपात अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जातियों में सबसे ज्यादा है। इस बात की पुष्टि जर्नल ऑफ सोशल इन्क्लूशन स्टडीज द्वारा 2011-12 के आंकड़ों के आधार पर किए गए एक अध्ययन से भी होती है, जिसमें पाया गया  कि अनुसूचित जाति और जनजाति समुदाय के प्रवासी देश के सबसे गरीब हैं। अरविंद पनगरिया और विशाल मोरे (2013) के एक अध्ययन के अनुसार, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, पिछड़ा वर्ग और उंची जातियों में गरीबों का प्रतिशत क्रमश: 43.0,  29.4, 20.7 और 12.5  है। इन तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि प्रवासी मजदूरों में अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और पिछड़े वर्ग के लोगों की बहुलता है। 

अकर्मण्य बना रहा सरकारी तंत्र

सरकारों के स्तर पर वह पहल नहीं की गई जिसकी दरकार थी। मजदूरों को सकुशल उनके घर पहुंचाने  में सरकारें नाकाम रहीं। प्रवासी मजदूरों ने सब कुछ देखा, समझा और यह जाना कि उन्हें आत्मनिर्भर बनना चाहिए। सरकारें उनके लिए कुछ खास करने वाली नहीं है। इसलिए उन्होंने पैदल ही अपने घर जाने का फैसला किया। उनके सफर में कठिनाइयों का अम्बार था। सफर में कभी-कभार कोई वाहन मिल भी जाता तो वाहन चालक मजदूरों से मनमाना किराया वसूलने का प्रयास करते। जिन मजदूरों के पास कुछ बचा-खुचा होता तो वे वाहन चालक को देकर अपने सफर को आसान करने की कोशिश करते। 

हाथ पर हाथ धरे रहे निर्वाचित “माननीय”

असल सवाल यह है कि जनता द्वारा सीधे चुने गए जनप्रतिनिधियों ने इस महा त्रासदी में प्रवासी मजदूरों के लिए क्या किया? क्या वे जनता के बीच गए? क्या इस विपत्ति मे जनता के लिए उन्होंने अपने स्तर पर कुछ किए? क्या उन्होंने जनता को यह विश्वास दिलाने का प्रयास किया कि दुख की इस घड़ी में वे उनके साथ हैं? इन्हीं सब प्रश्नों की इस लेख में पड़ताल करने की कोशिश की गई है। उसके पहले यह जानना बेहद जरूरी है कि जनता द्वारा सीधे चुने गए प्रतिनिधि कौन हैं और जनता के प्रति उनकी जिम्मेदारियां क्या हैं? 

यह भी पढ़ें :प्रवासी बहुजन मजदूरों को भूखा रख किस जुर्म की सजा दे रही हैं सरकारें?

जनता द्वारा सीधे चुने हुए लोकसभा सदस्यों की कुल संख्या 542 है। सभी राज्यों एवं केंद्रशासित प्रदेशों के विधानसभा सदस्यों की कुल संख्या 4106 है (भारतीय चुनाव आयोग)। इसमें विधान परिषद सदस्यों की संख्या शामिल नहीं है। 

भारतीय संविधान के 91वें संशोधन, 2003 के अनुसार केंद्रीय मंत्री परिषद में प्रधानमंत्री को मिलाकर कुल मंत्रियों की संख्या लोकसभा के कुल सदस्यों के 15 प्रतिशत से ज्यादा नहीं हो सकती। इस आधार पर केंद्र में कुल मंत्रियों की संख्या 81 होती है। तीनों प्रकार के मंत्री – यानी कैबिनेट,राज्य और उपमंत्री – मंत्री परिषद के सदस्य होते हैं। इसका अर्थ यह है कि 458 लोकसभा सदस्यों को मंत्री पद की ज़िम्मेदारी नहीं दी गई है। यही व्यवस्था राज्य के स्तर पर भी लागू है। कुछ प्रदेशों जैसे दिल्ली में मंत्री परिषद के लिए विशेष प्रावधान हैं। एक मोटा-मोटी गणना करने पर सभी राज्यों एवं केंद्रशासित प्रदेशों की विधानसभाओं के कुल सदस्यों में से 616 मंत्री पद पर हैं। बाकी बचे 3,490 विधानसभा सदस्यों पर मंत्री पद की ज़िम्मेदारी नहीं है। ऐसे लोकसभा और विधानसभा सदस्यों की कुल संख्या 3,948 है, जिन्हें मंत्री पद की ज़िम्मेदारी नहीं दी गई है। 

539 सांसदों में 475 करोड़पति, फिर भी नहीं ली कोई खोज-खबर

कहने का मतलब यह कि वे सभी निर्वाचित जनप्रतिनिधि, जिनके पास प्रत्यक्ष तौर पर कोई जिम्मेदारी नहीं है, निष्क्रिय बने रहे। जबकि वे चाहते तो अपने-अपने स्तर पर प्रवासी मजदूरों के लिए बहुत कर सकते थे। सबसे महत्वपूर्ण योगदान तो यह होता कि वे अपने-अपने स्तर से आवाज उठाते और सरकार का ध्यान आकृष्ट कराते। विधायक अपने स्थानीय क्षेत्र विकास निधि का प्रयोग इन मजदूरों के सफ़र को आसान बनाने के लिए कर सकते थे। वे इतना तो अवश्य ही कर सकते थे कि अपने-अपने संसदीय/विधानसभा क्षेत्र के मजदूरों की खोज-खबर लेते। ज्ञातव्य है कि 539 लोकसभा सदस्यों में से 475 करोड़पति हैं। इस प्रकार 17 वीं लोकसभा में 88 प्रतिशत सदस्य करोड़पति हैं (द एसोसिएसन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफार्म्स-एडीआर, 2019)। इनमें से कुछ तो राजघरानों से ताल्लुक रखते हैं जिनके पास अथाह संपत्ति है। तो संसाधन की कमी को बहाना नहीं बनाया जा सकता। 

भारत में स्थानीय शासन संस्थाओं जैसे पंचायतों और नगरपालिका में भी जनता द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों की संख्या लोकसभा और विधानसभा सदस्यों की कुल संख्या से कई गुणा ज्यादा है तो फिर उनसे भी सवाल किया जाना चाहिए कि कोरोना महामारी में जनता के कितना काम आ रहे हैं? 

खैर, कोरोना त्रासदी के दौरान, इन जनप्रतिनिधियों के अपने संसदीय/विधानसभा क्षेत्र में नहीं जाने के कई कारण गिनाए जा सकते हैं। शायद ये लोग केंद्र और राज्य सरकार के सामाजिक दूरी बनाए रखने के निर्देशों का पालन कर रहे थे। परन्तु इसके पर्याप्त प्रमाण हैं कि आंध्रप्रदेश, मध्यप्रदेश, कर्नाटक आदि जैसे राज्यों में अनेक जनप्रतिनिधियों ने लॉकडाउन के नियमों की खूब धज्जियां उड़ाई। एक ने तो अपने जन्मदिन पर 100 से ज्यादा लोगों का जमावड़ा भी किया था। 

डॉ. आंबेडकर ने कहा था – समाज का कर्ज चुकाना जरूरी

इस पूरे प्रकरण में सबसे निराश करने वाली बात यह है कि आदिवासी, दलित और पिछड़े वर्ग से आने वाले जनप्रतिनिधियों ने भी प्रवासी मजदूरों के लिए कोई उल्लेखनीय पहल नहीं की। सड़कों पर बेहाल प्रवासी मजदूरों का अधिकांश हिस्सा इसी तबके से ताल्लुक रखता है जिसकी  चर्चा ऊपर की गई है।  आदिवासी, दलित और पिछड़ा वर्ग तो साधन सम्पन्न नहीं रहा है। यह वर्ग सामाजिक और आर्थिक असमानताओं का भुक्तभोगी रहा है। इन समुदायों के जनप्रतिनिधि तो  उस समुदाय की पीड़ा को महसूस कर सकते थे जिनसे वे आते हैं। ये लोग इतना खुदगर्ज कैसे हो सकते हैं? 

बहरहाल, दलित, आदिवासी और पिछड़े वर्गों के जनप्रतिनिधियों का यह रवैया डॉ. आंबेडकर की ‘समाज का कर्ज’ उतारने की अवधारणा पर गहरा कुठाराघात है। खेद के साथ कहना पड़ता है कि इन लोगों ने भी अन्य जनप्रतिनिधियों की भांति इस त्रासदी में अपना न्यूनतम योगदान दिया और सामाजिक दूरी बनाए रखने में सफल रहे।

(संपादन : नवल/अनिल/अमरीश)

लेखक के बारे में

योगेंद्र मुसहर

लेखक एम.जे.के. कॉलेज, बेतिया (बिहार) में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं

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