करीब 83 वर्ष की उम्र में पूर्व सांसद रामअवधेश सिंह का 20 जुलाई, 2020 को पटना में निधन हो गया। उनका निधन कोविड-19 की वजह से हुई। उनकी पहचान सामाजिक न्याय के लिए लड़ने वाले एक ऐसे योद्धा के रूप में थी, जिन्होंने आगे बढ़कर आरक्षण विरोधियों को तब मुंहतोड़ जवाब दिया था जब 1979 में पटना समेत पूरे बिहार की सड़कों पर तत्कालीन मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर को गालियां दी जा रही थीं। वह रामअवधेश सिंह ही थे जिन्होंने राज्यसभा में विश्वनाथ प्रताप सिंह को मंडल कमीशन रिपोर्ट की अनुशंसा लागू करने संबंधी प्रस्ताव पेश करने पर कहा था – “जियो विश्वनाथ प्रताप सिंह, आपकी कुर्सी भले न रहे, लेकिन इतिहास में आपका नाम जरूर रहेगा”।
रामअवधेश सिंह से मेरा परिचय करीब 8 साल पुराना है। उन दिनों मैं पटना से प्रकाशित दैनिक “आज” में संवाददाता था। मई की दोपहर एक फोन आया कि पूर्व सांसद रामअवधेश सिंह पटना के होटल कौटिल्य में प्रेस कांफ्रेंस करेंगे। उस समय तक मेरे पास केवल इतनी ही जानकारी थी कि रामअवधेश सिंह पूर्व सांसद हैं और एक समय सूबे की राजनीति में प्रभावकारी भूमिका निभाते थे।
प्रेस कांफ्रेंस का समय चार बजे बताया गया था। मैं समय पर पहुंच गया। एक आदमी होटल के मुख्य द्वार पर खड़ा था। उसने बताया कि रामअवधेश बाबू पार्क में बैठे हैं। यह मेरी पहली मुलाकात थी उस इंसान से जिसने आरक्षण के सवाल पर जयप्रकाश नारायण का भी मुखर विरोध किया था। चूंकि मैं अकेला था और अन्य अखबारों के प्रतिनिधि तब तक पहुंचे नहीं थे, इसलिए इस मौके का उपयोग मैंने उनसे उनकी अतीत को जानने के लिए किया। पहला ही सवाल था कि आखिर जयप्रकाश नारायण आरक्षण के विरोधी क्यों थे? आप तो स्वयं समाजवादी हैं फिर आपने उनका विरोध क्यों किया था?
मेरे सवाल सुनकर वे हंसने लगे। कहने लगे कि पहले प्रेस कांफ्रेंस निपटा ली जाए फिर आपके सवालों का जवाब दूंगा। नहीं तो आप प्रेस कांफ्रेंस में मेरे द्वारा उठाए गए सवालों पर खबर लिखने की बजाय आरक्षण के इतिहास पर लिख देंगे। तब तक दो अन्य अखबारों के प्रतिनिधि भी आ गए थे और चूंकि समय करीब पौने पांच हो गया था इसलिए रामअवधेश बाबू ने कहा कि चलिए बातचीत शुरू करते हैं। मामला चौकीदारों और दफादारों का था। उस प्रेस कांफ्रेंस में उन्होंने बताया कि किस तरह बिहार में चौकीदारों का बंधुआ मजदूरों की तरह शोषण हो रहा है। ये पुलिस का हिस्सा होकर भी पुलिसकर्मी नहीं हैं। न तो इन्हें वाजिब वेतन मिलता है और ना ही इनके पास आवश्यक सुरक्षा उपकरण हैं। बस हाथ में एक लाठी है। इसके सहारे ही चौकीदार गांवों में असामाजिक तत्वों से लड़ते-भिड़ते हैं। इस प्रेस कांफ्रेंस में रामअवधेश सिंह ने दस सूत्रीय मांग रखी थी। इनमें सबसे पहला था कि सभी चौकीदारों का स्थायी नियोजन हो। वे थाना प्रभारियों के कृपा पर न रहें।
हम बिहार सरकार के सरकारी होटल के पार्क में थे लेकिन रामअवधेश सिंह ने चाय और बिस्कुट का इंतजाम सड़क किनारे एक दुकान से कराया था। बिस्कुट का नाम था – पारले जी। कहने लगे कि इस होटल की चाय मुझे पसंद नहीं आती। इसमें सोंधापन नहीं होता।
अगले दिन फिर उन्होंने फोन किया। फिर हम दोपहर करीब डेढ़ बजे मिले। स्थान बदल गया था। हम विधायक क्लब परिसर में नंदलाल होटल में बैठे थे। नंदलाल का यह होटल इमरजेंसी के दिनों से चल रहा था। एक तरह से यह आंदोलन का ही हिस्सा था। नंदलाल खुद आंदोलनकारी थे। उनके यहां आंदोलनकारी कार्यकर्ता खाना खाते और पनाह भी पाते थे। इसकी जानकारी भी रामअवधेश सिंह ने ही दी। उनके मुताबिक कई दफ़ा इसी होटल में देर रात तक बैठकें चलती थीं, जिनमें कर्पूरी ठाकुर से लेकर लालू प्रसाद आदि भी शामिल होते थे।
उस दिन बातचीत में रामअवधेश सिंह ने जयप्रकाश नारायण पर जातिवादी होने का आरोप लगाया। उन्होंने कहा कि जयप्रकाश नारायण के कारण पटना का कदमकुआं मुहल्ला एक खास जाति का हो गया है। उनके संगी-साथियों में खास जाति के लोग ही रहते हैं। उनके मुताबिक पिछड़ों को आरक्षण मिले, इस संबंध में मोरारजी देसाई की सरकार द्वारा मंडल कमीशन के गठन से जेपी नाराज थे। यही वजह रही कि रामअवधेश सिंह ने उनका विरोध किया था।
खैर, बाद के दिनों में मेरी मुलाकात रामअवधेश सिंह से नहीं हो सकी। वर्ष 2012 में दिल्ली में रहने के दौरान एक बार उनका फोन भी आया लेकिन समय का समीकरण कुछ ऐसा था कि मुलाकात नहीं हो सकी। उनके निधन की खबर मिली तब उनसे जुड़ी अति संक्षिप्त यादें ताज़ा हो गयीं। कुछ सवाल मेरे सामने थे। बिहार के मूर्धन्य साहित्यकार प्रेमकुमार मणि को फोन किया तब यह जानकारी मिली कि रामअवधेश सिंह न केवल सुलझे हुए राजनीतिज्ञ थे बल्कि प्रतिबद्ध सामाजिक कार्यकर्ता भी थे।
मणि जी ने बताया कि रामअवधेश सिंह ब्राह्मणवाद के मुखर विरोधी थे। वे उन शादियों में नहीं जाते थे जिनमें ब्राह्मणों के द्वारा मंत्र पढ़े जाते थे, गोबर गणेश की पूजा होती थी। यहां तक कि जब मैंने [प्रेमकुमार मणि] उन्हें अपनी शादी का कार्ड दिया तब उन्होंने निराशा व्यक्त की। वह भी तब जब कि मेरे कार्ड में लक्ष्मी-गणेश के चित्र नहीं थे। उनका कहना था कि मुझे ब्राह्मणवादी परंपराओं को त्यागना चाहिए। इसके लिए पहल करनी चाहिए। मणि जी के मुताबिक रामअवधेश सिंह कभी जातिवादी नहीं रहे। वे यादव जाति के थे लेकिन कभी भी उनकी राजनीति के केंद्र में उनकी जाति नहीं रही। वे सभी पिछड़ों के एक होने की बात कहते थे। वे जातिवादी चरित्र वाले तत्कालीन दलित पिछड़े वर्ग के नेताओं की मुखालिफत भी करते थे।
मणि जी ने बातचीत में यह भी बताया कि रामअवधेश सिंह बिहार और इसकी अर्थव्यवस्था को भी बखूबी समझते थे। उन्होंने समान किराया अधिनियम का विरोध किया था। चूंकि वे राजनीति में आने से पहले टाटा में अफसर थे, इसलिए हमेशा कहते थे कि जब तक यह कानून रहेगा तब तक बिहार में औद्योगिक विकास नहीं होगा क्योंकि जिस दर पर बोकारो और धनबाद आदि इलाकों में लोहा मिलता है, यदि उसी दर पर बंबई और अन्य किसी शहर में लोहा मिलेगा तो कोई बिहार में उद्योग क्यों लगाएगा।
मणि जी ने फेसबुक पर अपने शोक संदेश की चर्चा करते हुए बताया कि “बिहार के भोजपुर जिले के एक पिछड़े हुए गांव में 18 जून 1937 को जन्मे रामअवधेश सिंह ने राजनीति में अपने बूते जगह बनाई थी। वे 1969 में समाजवादी पार्टी के उम्मीदवार के रूप में आरा विधानसभा क्षेत्र से चुन कर बिहार विधानसभा आए। 1977 में बिक्रमगंज लोकसभा क्षेत्र से संसद के लिए चुने गए। वे सन 1984 का लोकसभा चुनाव मात्र एक हजार एक सौ वोट से हार गए। 1986 में कर्पूरी ठाकुर की पहल पर उन्हें राज्यसभा का सदस्य चुना गया। 2007 में वह राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग के सदस्य बनाये गए।”
मणि जी लिखते हैं कि “भाई राम अवधेश सिंह से मेरी जान-पहचान 1975 में हुई। इमरजेंसी के दिनों में वे छुप कर प्रोफ़ेसर रामबुझावन बाबू के घर कुछ दिनों तक रहे थे। वहीं परिचय हुआ। 1977 में वे लोकसभा सदस्य हो गए। वे चौधरी चरण सिंह के निकटवर्ती लोगों में एक थे। बिहार में जब कर्पूरी ठाकुर की सरकार बनी और इस सरकार ने जब कांग्रेस नेता मुंगेरीलाल की अध्यक्षता वाले पिछड़ा वर्ग आयोग की सिफारिशों को लागू किया, तब बिहार की राजनीति में एकबारगी कोहराम मच गया। इस लड़ाई को सड़क पर लड़ने के लिए कोई नहीं था । न लालू प्रसाद, न नीतीश कुमार। रामअवधेश सिंह सड़क पर आए। मुझे याद है कि कर्पूरी ठाकुर के समर्थन में जब पहला जुलूस बेली रोड पर निकला तब दो-ढाई सौ से अधिक लोग नहीं थे। फब्तियां और गालियां सुनते हुए यह जुलूस निकला था। रामअवधेश जी चुपचाप निडर भाव से चल रहे थे। उनका निर्देश था कि किसी भी स्थिति में हमारा हाथ नहीं उठना चाहिए। मैं इस बात का साक्षी था कि पूरे जुलूस में कहीं कोई हिंसा नहीं हुई। लेकिन अगले रोज “आर्यावर्त” अख़बार ने लिखा कि “रामअवधेश के नेतृत्व में आर्यावर्त प्रेस पर पथराव किया गया।”
वहीं पुराने समाजवादी डॉ. निहोरा प्रसाद यादव बताते हैं कि रामअवधेश सिंह एकमात्र ऐसे नेता थे जिन्होंने 1979 में विक्रम कुंवर का विरोध किया था। विक्रम कुंवर सीवान के राजपूत थे। तब कर्पूरी जी ने बिहार में मुंगेरीलाल कमीशन की अनुशंसाओं के अनुरूप पिछड़ों के लिए आरक्षण लागू किया था। विक्रम कुंवर ने तब आरक्षण के विरोध में द्विजों का आंदोलन खड़ा किया था जो कर्पूरी जी को गालियां देता था। तब रामअवधेश जी को छोड़कर पिछड़े वर्ग के किसी भी बड़े नेता ने विक्रम कुंवर का विरोध करने का साहस नहीं किया। यहां तक कि दारोगा प्रसाद राय जो कि बिहार के मुख्यमंत्री तक रह चुके थे, ने कह दिया कि लालू प्रसाद को कहो कि वह विक्रम कुंवर बने। नौजवान आगे बढ़ें।
बहरहाल, रामअवधेश सिंह के निधन से पिछड़ों की बुलंद आवाज खामोश हो गई है। उनकी आवाजें अब न तो पटना के सभागारों में सुनाई देगी और न ही दिल्ली के सियासी गलियारों में। लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि उनकी आवाज हमेशा सुनाई देगी जब कभी पिछड़ों के मान, सम्मान और आरक्षण को लेकर कोई बहस होगी।
(संपादन : अमरीश/गोल्डी)
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