प्रत्येक जागरूक व्यक्ति अपने परिवेश के साथ जीवंत रूप से संपर्क में रहता है। एक रचनाकार, जो साधारण मनुष्य की अपेक्षा कहीं अधिक संवेदनशील होता है, वह परिवेश से विच्छिन्न होकर नहीं रह सकता। उसकी प्राथमिक संवेदनाएं परिवेश से ही गृहीत होती हैं। कह सकते हैं कि वह स्थूल जगत से अर्थ आहरण करके ही सृजन की ओर प्रवृत्त होता है। इस प्रकार, रचनाकार की संवेदना अधिकांशतः परिवेश-जन्य होती है। स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी उपन्यास के सशक्त हस्ताक्षर डॉ. राही मासूम रज़ा (1 सितंबर, 1927 – 15 मार्च, 1992) भी अपवाद नहीं हैं। उनकी रचनाओं में उनका परिवेश अपनी समस्त विविधताओं, विशेषताओं, जटिलताओं एवं विद्रूपताओं के साथ झिलमिलाता हुआ प्रतीत होता है। चाहे स्वतंत्रता पूर्व का समय हो अथवा पश्चात का, राही के उपन्यासों में यह सुदीर्घ अवधि अपने समूचे ठाठ के साथ उपस्थित नज़र आती है। इस दौरान घटित होने वाली प्रमुख राजनीतिक घटनाएं, सामाजिक तथा राजनीतिक जीवन को प्रभावित करने वाली परिवर्तनकारी गतिविधियां आदि राही की सूक्ष्म एवं पैनी दृष्टि से बच नहीं पातीं। यही कारण है कि विभाजन, स्वातंत्र्योत्तर भारतीय राजनीति में सांप्रदायिकता के उभार, मोहभंग, आपातकाल, धर्म एवं सत्ता के गठजोड़ आदि विषयों को वे मुखर ढ़ंग से अपने रचना-कर्म में सम्मिलित करते हैं। ध्यानपूर्वक देखा जाए तो एक अन्य विषय भी है जो उनकी लेखनी में समानांतर रूप से अपनी उपस्थिति दर्ज कराती है और वह है जाति का प्रश्न।