बहस-तलब
अमूमन जब इतिहास का सिरा ओझल होने लगता है तब भारतीय ज्ञानीजन और अध्येता पुराणों और वेदों का सहारा लेते हैं। वहीं से अपनी बात को पुख्ता करते हैं। ऋग्वेद के पुरुष सूक्त के दसवें मंडल का उल्लेख करते हैं और इस प्रकार वे भारतीय सामाजिक व्यवस्था के उदय का एक उद्गम बना देते हैं और सारी चीजें, खासतौर से हिन्दू सामाजिक व्यवस्था को इसी आईने में देखा जाता है। इससे बाहर कुछ नहीं है। सारी घटनाएं इसके दायरे में ही घटती हैं। कोई ऋषि (अगस्त्य) टिटिहरी की सहायता करने के लिए समुद्र को पी जाता है और जब बहुत से जलीय जीव-जंतुओं को तड़पते हुए देखता है तब दया से पेशाब करके समुद्र को मुक्त करता है। कहा जाता है कि तभी से समुद्र खारा हो गया। कोई बंदर (हनुमान) बचपन में करीब 15 करोड़ किलोमीटर ऊपर उछलकर सूरज को खा जाता है। न केवल खा जाता है बल्कि महीनों पेट में छिपाए रखता है और जब हाहाकार मचता है तब बाहर निकालता है। यह रहस्य ही है कि उसने निकाला कैसे और शरीर के किस अंग से। सोने को राख़ बना देने का झूठ भी हिन्दू मानस ही पचा सकता है जबकि यह सर्वविदित तथ्य है कि सोना राख़ नहीं हो सकता बल्कि वह जलकर और भी निखर जाता है। कुंदन हो जाता है।
दुर्भाग्य यह है कि सोनार भी यह विश्वास रखते हैं और रामलीलाओं के लिए भरपूर चंदा देते हैं। लेकिन अगर ऐसा होता तो जो महानगरों की बड़ी-बड़ी दुकानों और गली-कूंचे की छोटी-छोटी दुकानों में सोनार बैठे चांदी काट रहे हैं, क्या वह काट पाते? वह तो राख़ हो जाती? अगर सोने की लंका जलकर राख़ हो गई तो उनका भी सोना राख़ हो जाता। यह वास्तव में सबसे बड़ा झूठ है। और यह झूठ हिंदुओं ने पचा लिया। सोनार अपने को जौहरी कहते हैं लेकिन राम मंदिर आंदोलन के लिए चंदा देते हैं। हनुमान को चढ़ावा चढ़ाते हैं। यानि वे एक झूठ को पालते-पोसते हैं। फिर काहेन के जौहरी। वे तो खांटी ठग हैं।
सोचिए कि जिस हिन्दू समाज में ब्राह्मण झूठा किस्सा सुनाकर दान लेता है और बनिया झूठे किस्से सुनकर दान देता है वह समाज गर्त में नहीं गिरेगा तो क्या अमेरिका बनेगा!
लंबे समय से अध्ययन करने के बावजूद मैंने यह पाया कि चेतना, साहित्य और व्यवहार के स्तर पर भारतीय समाज दो स्तरों पर बंटा हुआ है। आदिवासी और गैर आदिवासी। यह विभाजन इतना प्रखर है कि थोड़ा भी गंभीर होकर हम पढ़ेंगे तब साफ-साफ दिखने लगेगा कि सृष्टि, पानी, आग, पेड़, जीवन, मनुष्य, भोजन, जीवन, मृत्यु, स्त्री, पुरुष और व्यवस्था को लेकर इनके बीच बुनियादी फर्क है। यह फर्क पूरी दुनिया में है। आदिवासियों के अध्ययन में यह स्पष्ट तथ्य सामने आने लगेगा कि उन्होंने इतिहास को बांधा नहीं है और उसका काल ऋग्वेद, वेदा-अवेस्ता, बाइबिल, कुरान और ग्रंथ साहब तक नहीं सिमटा हुआ है। वे चमत्कार से नहीं पैदा हुए और न ही उन्होंने प्रकृति से बाहर की किसी अप्राकृतिक गतिविधि से जन्म लिया। मसलन हनुमान की माता के कान में वीर्य जाने से गर्भ ठहर गया। राघव मछली ने हनुमान का पसीना पी लिया तो गर्भवती हो गई और देखते न देखते एक विशाल बच्चा भी पैदा कर दिया। विष्णु ने नाभि से एक कमल का फूल निकाला जिससे ब्रह्मा नामक व्यक्ति पैदा हुआ। स्वयं ब्रह्मा ने अपने मुख, वक्ष, पेट और पैर से चार सन्तानें पैदा की। यह सब घालमेल आदिवासियों के यहां नहीं मिलता। बल्कि उनके यहां प्रकृति से एक वास्तविक रिश्ता दिखता है। पेड़ों, पहाड़ों, जंगलों, नदियों और जीव-जंतुओं से एक सहचर्य है।
इस प्रकार हम देख सकते हैं कि आदिवासियों के यहां प्राकृतिक कथाओं और गैर आदिवासियों के यहां अप्राकृतिक मिथकों की भरमार है। इसके पीछे यह सच है कि तमाम कबीलाई अस्मिताओं के बावजूद आदिवासी एक वास्तविक श्रमजीवी समुदाय रहे हैं। वहां पारिवारिक और सामाजिक श्रम विभाजन के तहत स्पष्ट रूप सबको काम करना अनिवार्य था। इसके बरक्स गैर आदिवासियों के बीच श्रम को लेकर एक वर्ण-विभाजन तय हुआ जिसके तहत श्रम केवल शूद्रों के हिस्से गया जबकि मुनाफा और हरामखोरी ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों ने मिलकर बांट लिया। अब यह समझना बहुत कठिन नहीं होना चाहिए कि जन्म, जीवन व्यवहार और मृत्यु तथा मोक्ष को लेकर गढ़े गए सारे मिथक वर्णव्यवस्था और ब्राह्मणवाद की स्थापना के मिथक हैं। इसका तात्पर्य यह हुआ कि ऋग्वेद से लेकर पुराणों, स्मृतियों आदि से होता हुआ इतिहास तक जो रास्ता आता है वह ब्राह्मणवाद का ही रास्ता है। जबसे ब्राह्मणवाद भारत में स्थापित हुआ उसका इतिहास वेदों से आगे जाने में लंगड़ाने लगता है। जबकि मानवजाति का इतिहास लाखों साल पुराना है।
यह हास्यास्पद ही है कि हिन्दू मिथकों में दूरियों और समय को लेकर तरह-तरह के कयास हैं और आज बहुत से संघी लालबुझक्कड़ उन्हें प्रकाशवर्ष की दूरी में परिभाषित करने में लगे हैं। लेकिन कई बार मुझे समझ में नहीं आता कि जब कॉपरनिकस, ब्रुनो और गैलीलियो से पश्चिम में चर्च को डर लगा। ब्रूनो को जला दिया गया और गैलीलियो को धमका दिया गया तो फिर भारत में आर्यभट्ट और वराहमिहिर जैसे लोगों से ब्राह्मणवाद क्यों नहीं डरा। क्या इन लोगों ने उसके सामने कोई जलता हुआ सवाल नहीं उठाया था? जबकि चार्वाकों और आजीवकों का ब्राह्मणों ने उतना बिगड़ा जितना वे बिगाड़ सकते हैं। उनके नाम बिगाड़े। उनको चारित्रिक रूप से कमजोर साबित करनेवाले किस्से रचे और फैलाए। उन्हें कुपात्र के रूप में चित्रित किया। लेकिन ये दोनों खगोलविज्ञानी अपने तत्सम नामों के साथ विद्यमान हैं और उनका कृतित्व भी संदिग्ध है। कौन से नियम उन्होंने खोजे वह पता नहीं। एक और आदमी का ब्राह्मणों ने बहुत बुरा चरित्रहनन किया। उसका नाम है घाघ। कुछ जगहों पर उसे भड्डरी भी कहा गया है । इस महान और प्रतिभाशाली कवि, खगोल और मौसम के ज्ञाता की कविताओं के कुछ अंश संयोग से बच गए हैं। लेकिन नाम का क्या होगा- घाघ। घाघ किसे कहते हैं- जो शातिर और चालाक हो। जिसके मन की थाह न लगाया जा सके। वह षड्यंत्रकारी भी हो सकता है। एक वैज्ञानिक का इतना बड़ा अपमान। पश्चिम में प्राचीन और मध्यकालीन को भी उसके तमाम सारे रूपों में खोजने और नए-नए संदर्भों में स्थापित करने की परंपरा है, लेकिन भारत में सबकुछ को मटियामेट कर देने का षड्यंत्र लगातार काम करता रहा है। घाघ को ब्राह्मणों ने हींक भर अपमानित और बहिष्कृत किया। उन्होने उनका असली नाम ही गायब कर दिया। और तब भी वे लोकश्रुतियों में बचे रहे। तब उनका चरित्रहरण भी किया। जैसा कि वे कबीर और रैदास का करने का लंबा प्रयास करते रहे हैं। उन्होंने घाघ को ब्राह्मण साबित करने का कैसा कुत्सित प्रयास किया वह देखने की जरूरत है।
मैंने वरिष्ठ मित्र और चिंतक कवि-आलोचक मूलचन्द सोनकर से इस संदर्भ में बात की और द्विमासिक पत्रिका ‘गाँव के लोग’ में छापने के लिए घाघ पर लेख लिखने को कहा। अनेक स्रोतों का गहन शोध करके जो बात रखी, उसे मैं आप सबके सामने रखना चाहूंगा- “घाघ की ज्यादातर कहावतें कृषि से संबंधित हैं। भारत एक कृषि प्रधान देश रहा है और आज भी कमोबेश इसकी यह स्थिति बनी हुई है। कृषि पूरी तरह मौसम पर आश्रित उद्यम है और मौसम के मिजाज का पूर्वानुमान आसान नहीं है। घाघ इसी काम को आसान बनाते हैं। उनकी कहावतें मौसम के बारे में लगभग सटीक भविष्यवाणी करती हैं। इतना ही नहीं, वह विभिन्न फसलों को बोने के लिये जमीन और चक्र का भी निर्धारण करती हैं। अधिक पानी और कम पानी वाली फसलों की बात करती हैं। पशुओं की नस्लों की चर्चा करती हैं। किसानों की घर-गृहस्थी की बात करती हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि घाघ की कहावतें स्वयं उनकी जाति को इंगित करती हैं। कृषि एवं इससे संबंधित उपकरण के निर्माण का कार्य शिल्प कार्य में आता है। यह कार्य केवल शूद्रों को आवंटित है। अन्य तीनों वर्णाें के लिये त्याज्य है। सारे संस्कृत ग्रन्थ ऐसे आदेशों से भरे पड़े हैं। यह स्वयं इस बात का सबूत है कि घाघ शूद्र के अतिरिक्त और कुछ नहीं हो सकते। इसकी पुष्टि में इस तथ्य का भी उल्लेख किया जा सकता है कि घाघ ने जैसी कहावतों की रचना की है वह केवल वही कर सकता है जो जमीनी स्तर पर कृषि के साथ जुड़ा हो जबकि ब्राह्मणों ने इसे अपने लिये त्याज्य घोषित कर रखा है।”
घाघ की कहावतों की न तो कोई टीका उपलब्ध है और न ही अलग से कोई जीवनी। कहावतों की जो पुस्तकें हैं, उन्ही में इनके बारे में थोड़ी-बहुत जानकारी मिलती है। यदि वह ब्राह्मण होते तो पक्का मानिये कि उन्हें आदि मौसम वैज्ञानिक सिद्ध करने की होड़ में टीकाओं की लाइन लग जाती। अब एक नजर घाघ की जीवनी पर डालते हैं।
रामनरेश त्रिपाठी ने अपने द्वारा सम्पादित पुस्तक “घाघ और भड्डरी में” घाघ के काल, स्थान और जाति पर चर्चा की है। अपने निष्कर्षों के पूर्णरूपेण प्रामाणिक होने का दावा भी वह करते हैं लेकिन उनका दावा उनके द्वारा प्रस्तुत चर्चा में ही विरोधाभासी तर्को से टकराता है। उदाहरण के लिये वह घाघ के जन्म का वर्ष संवत् 1753 (सन् 1696) बताते हैं। वह उन्हें दो मुगल बादशाह हुमायूँ और अकबर के दरबार से जोड़कर देखते हैं। रामनरेश त्रिपाठी लिखते हैं- “घाघ पहले-पहले हुमायूँ के राजकाल में गंगापार के रहने वाले थे। वे हुमायूँ के दरबार में गए। फिर अकबर के साथ रहने लगे। अकबर उनपर बड़ा प्रसन्न हुआ। उसने कहा कि अपने नाम का कोई गांव बसाओ। घाघ ने वर्तमान ‘चौघरी सराय’ नामक गांव बसाया और उसका नाम रखा, ‘अकबराबाद सराय घाघ’। अब भी सरकारी कागजात में उस गांव का नाम ‘सराय घाघ’ ही लिखा जाता है।
“सराय घाघ कन्नौज शहर से एक मील दक्खिन और कन्नौज स्टेशन से तीन फर्लांग पश्चिम है। बस्ती देखने से बड़ी पुरानी जान पड़ती है। थोड़ा सा खोदने पर जमीन के अन्दर से पुरानी इंटें निकलती हैं। अकबर के दरबार में घाघ की बड़ी प्रतिष्ठा थी। अकबर ने इनको कई गाँव दिये थे और इनको चौधरी की उपाधि भी दी थी। इसी से घाघ के कुटुम्बी अभी तक चौधरी कहे जाते हैं। सराय घाघ का दूसरा नाम चौधरी सराय भी है।” (पृष्ठ 21)
ऊपर बताया जा चुका है कि घाघ की पैदाइश संवत् 1753 अर्थात् सन् 1696 में हुई मानी गयी है जो अनुमान पर आधारित है। हुमायूँ की मृत्यु 27 जनवरी, 1556 को तथा अकबर की 27 अक्टूबर, 1605 को हुई थी। यह ऐतिहासिक सत्य है अर्थात् घाघ की पैदाइश से 140 वर्ष पूर्व हुमायूँ की और 91 वर्ष पूर्व अकबर की मृत्यु हो चुकी होती है। इस सूचना के बाद और कुछ कहने को शेष नहीं रह जाता यह बताने के लिए कि घाघ हुमायूँ या अकबर के समकालीन नहीं थे, लेकिन इससे बात पूरी नहीं होगी। दो बातें और अविश्वसनीय हैं जिन्हें इंगित करना जरूरी है। अकबर के दरबार में टोडरमल जैसे भू-विशेषज्ञ और रहीम जैसे सशक्त कवि थे। ऐसी स्थिति में घाघ का एक कृषि कवि के रूप में इन दरबारियों के बीच अपनी जगह बनाना विशेष गुण-सम्पन्न होने की मांग करता है। इतना ही नहीं, अकबर इन्हें कई गांव देते हैं और चौधरी की उपाधि भी। मुझे इस बात पर संदेह है कि अकबर के द्वारा चौधरी का खिताब भी दिया जाता था लेकिन यह कोई बहुत महत्वपूर्ण मुद्दा नहीं है। महत्वपूर्ण मुद्दा यह है कि अकबर द्वारा इतना महत्व देने के बावजूद किसी भी इतिहासकार ने घाघ का संज्ञान नहीं लिया। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि रामनरेश त्रिपाठी अपनी इस स्थापना में खरे नहीं उतरते।
घाघ की जाति को भी लेकर त्रिपाठी जी पूर्ण आश्वस्त हैं। वह कन्नौज के उपरिलिखित पुरवे, चौधरी सराय में उनके वंशजों को खोज निकालने का दावा करते हैं। उनका कहना है कि ये दूबे हैं। उन्हीं के शब्दों में- “ऊपर कहा जा चुका है कि घाघ दूबे थे। इनका जन्मस्थान कहीं गंगापार में कहा जाता है। अब उस गांव का नाम और पता इनके वंशजों में कोई नहीं जानता। घाघ देवकली के दूबे थे और सराय घाघ बसाकर अपने उसी गांव में रहने लगे थे। उनके दो पुत्र हुए-मार्कंडेय दूबे और धीरधर दूबे। इन दोनों पुत्रों के खानदान में दूबे लोगों के बीस-पच्चीस घर अब उस बस्ती में हैं। मार्कंडेय दूबे के खानदान में बच्चू लाल दूबे और विष्णुस्वरुप दूबे तथा धीरधर दूबे के खानदान में रामचरण दूबे और श्रीकृष्ण दूबे वर्तमान हैं। ये लोग घाघ की सातवीं या आठवीं पीढ़ी में अपने को बतलाते हैं। ये लोग कभी दान नहीं लेते। इनका कथन है कि घाघ अपने धार्मिक विश्वासों के प्रति बड़े कट्टर थे। और इसी कारण उनको अंत में मुगल दरबार से हटना पड़ा था, तथा उनकी जमींदारी का अधिकांश जब्त हो गया था।
“इस विवरण से घाघ के वंश और जीवन-काल के विषय में सन्देह नहीं रह जाता। मेरी राय में अब घाघ-विषयक सब कल्पनाओं की इतिश्री समझनी चाहिये। घाघ को ग्वाल समझने वालों अथवा वराहमिहिर की संतान मानने वालों को भी अपनी भूल सुधार लेनी चाहिए।” (पृष्ठ 22)
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सवाल यह है कि क्या एक भूल को दूसरी भूल से सुधारा जा सकता है? जीवनकाल की तरह वंशज वाली थ्योरी भी इतनी लचर है कि यह तर्क की कसौटी पर एक पल के लिये भी नहीं ठहर सकती। यदि इस थ्योरी की परत-दर-परत उधेड़ी जाये तो यह स्वयं नतमस्तक हो जाएगी, लेकिन मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं है। बहरहाल मैं ग्वाल और वराहमिहिर की अवधारणा पर चर्चा करूंगा जिसका उल्लेख त्रिपाठीजी ने स्वयं किया है। उन्होंने कपिलेश्वर झा के इस कथन को उद्धृत किया है- “पूर्व काल में वराहमिहिर ज्योतिषाचार्य अपना ग्राम सौं राजाक ओहि ठाम जाइत रहथि, मार्ग में साँझ भय गेलासे एक ग्वारक ओतय रहला। ओ गोआर बड़े आदर से भोजन कराय हिनक सेवार्थ अपन कन्याक नियुक्त कयलक। प्रारब्धवश रात्रि में ओहि गोपकन्या से भोग कयलन्हि। प्रातः काल चलवाक समय में गोप-कन्या के उदास देखि कहलथिन्ह जे यहि गर्भ से अहाँके उत्तम विद्वान् बालक उत्पन्न होएत ओ कतोक वर्षक उत्तर एकबेरि एत पुनः हम आएब, इत्यादि धैर्य दय ओहि ठाम से बिदा भेलाह।” (पृष्ठ 20)
यद्यपि यह कहकर कि यह “कथा भड्डरी के संबंध में प्रचलित है” त्रिपाठीजी ने अपना बचाव करने की कोशिश की है लेकिन वह भूल गये कि भड्डरी पर उन्हाेंने अलग से चर्चा की है। यदि यह कथा भड्डरी के बारे में प्रचलित है तो इसे वहीं शामिल करना चाहिये था।
इसी विषय पर निम्न टिप्पणियां भी ध्यातव्य है।
श्रीयुत वी.एन. मेहता, आई.सी.एस. अपनी “युक्तप्रान्त की कृषि सम्बन्धी कहावतें” में लिखते हैं-
“‘घाघ’ नामक एक अबाहीर की उपहासात्मक कहावतें भी स्त्रियों पर आक्षेप के रूप में हैं।’’ (पृष्ठ 20)
रायबहादुर बाबू मुकुन्दरलान गुप्त “विशारद” अपनी “कृषि-रत्नावली” में लिखते हैं-
“कानपुर जिलान्तर्गत किसी गांव में संवत् 1753 में इनका जन्म हुआ था। ये जाति के ग्वाला थे। 1780 में इन्होंने कविता की मोटिया नीति बड़ी जोरदार भाषा में कही।” (पृष्ठ 20)
मैंने ‘शिव सिंह सरोज’ के आधार पर कविता-कौमुदी-प्रथम भाग में लिखा था-
“घाघ कन्नौज, निवासी थे। इनका जन्म संवत 1753 में कहा जाता है। ये कब तक जीवित रहे, न तो इसका ठीक-ठीक पता है और न इनका या इनके कुटुम्ब ही का कुछ हाल मालूम है।” (पृष्ठ 20-21)
पिलग्रिम्स पब्लिशिंग वाराणसी से प्रकाशित पुस्तक ‘‘घाघ भड्डरी” की भूमिका में इसके सम्पादक देव नारायण द्विवेदी ने भी घाघ की पैदाइश का वर्णन इस प्रकार किया है- “घाघ और भड्डर एक ही थे या दो, इस विषय में मतभेद है। इसलिये हम अपने पाठकों को इस विवादग्रस्त विषय में डालना नहीं चाहते। कहावतें दोनों की ही एक ही शैली की दिखायी पड़ती हैं। हमारा अनुमान है कि घाघ और भड्डर ये दोनों नाम एक ही व्यक्ति के हैं। कहावतों में बहुत जगह ऐसा आया भी है कि ‘कहें घाघ सुनु भड्डरी’, ‘कहें घाघ सुनु घाघिनी’ आदि। भड्डरी या घाघिनी उसकी स्त्री को कहते थे। भड्डर की उत्पत्ति के सम्बन्ध में किंवदन्ति है कि इनकी माता अहिरिन थी और पिता ब्राह्मण ज्योतिषी। ज्योतिषीजी को कोई ऐसा मुहूर्त दिखायी पड़ा कि यदि उस मुहूर्त में कोई स्त्री गर्भ धारण करेगी तो उसके गर्भ से त्रिकालदर्शी विद्वान बालक उत्पन्न होगा। ज्योतिषीजी उस सुयोग से लाभ उठाने के लिये वहां से चल पड़े, क्योंकि उनकी स्त्री उन दिनों उनके साथ नहीं थी। वह रास्ते में ही थे कि वह मुहूर्त आ गया। उन्होंने देखा कि अब तो अपनी स्त्री के पास समय से पहुंचना असम्भव है। इसलिये वह बड़े चिन्तित हुए। इतने ही में उन्हें एक स्त्री दिखायी पड़ी। ज्योतिषी ने उससे अपना मन्तव्य प्रकट किया। स्त्री राजी हो गयी। उसने गर्भ धारण किया। समय आने पर उसके गर्भ से बालक उत्पन्न हुआ, जिसका नाम भड्डर पड़ा।” (पृष्ठ VII-VIII)
रामनरेश त्रिपाठी की अवधारणा का खंडन भी द्विवेदीजी के इस कथन से हो जाता है- “कुछ लोगों का मत है कि घाघ का जन्म संवत् 1753 में कानपुर जिले में हुआ था। मिश्रबन्धु ने इन्हें कान्यकुब्ज ब्राह्मण माना है पर यह बात केवल कल्पना प्रसूत है। यह कब तक जीवित रहे इसका ठीक-ठीक पता नहीं चलता।” (वही पृष्ठ X)
घाघ की पैदाइश को लेकर उक्त दोनों अन्तर्कथाओं में समानता होने के बावजूद द्विवेदी की कथा बेवकूफियों का पर्याय है। जिस विशेष मुहूर्त का पता ज्योतिषी महाराज ने अपनी विद्या के बल पर लगाया था, उस मुहूर्त में न जाने कितने बच्चे पैदा हुए होंगे, यह तय बात है। दूसरे, उसको यह क्यों पता नहीं चला कि उस विशेष मुहूर्त में वह अपनी स्त्री के पास पहुंच कर उसके साथ संसर्ग स्थापित कर लेगा अथवा नहीं? तीसरे, रास्ते में मिली स्त्री जिसने उसके मन्तव्य को बिना ना-नुकुर के स्वीकार कर लिया, क्या वह वेश्या थी, क्योंकि अच्छे चाल-चलन वाली स्त्री उस ब्राह्मण ज्योतिषी का मुंह इस प्रस्ताव पर नोंच लेती। चौथा, इस कथा का स्पष्ट अर्थ यह है कि उस तथाकथित मुहूर्त का प्रभाव केवल उस स्त्री पर पड़ने वाला था, जिसके साथ वह ब्राह्मण ज्योतिषी सम्भोग करता। यह सीधे-सीधे ब्राह्मण की कामुकता का मामला बनता है। संस्कृत ग्रन्थों में अनेकानेक आख्यान ब्राह्मणों की कामुकता को केन्द्र में रखकर गढ़े गये हैं जो अन्ततोगत्वा ब्राह्मणों को चरित्रहीन साबित करते हैं। इस लेख में उनपर अलग से चर्चा करने की आवश्यकता नहीं हैं।
घाघ ब्राह्मण नहीं थे इसकी पृष्टि रामनरेश त्रिपाठी की बातों से ही होती है। यदि वह घाघ के पूरी तरह ब्राह्मण होने के प्रति आश्वस्त होते तो वराहमिहिर की कथा का उल्लेख ही न करते। इसके अलावा अपनी भूमिका में उन्होंने पराशर के कृषि सम्बन्धी श्लोकों को घाघ पर वरीयता दी है और किसी लाल बुझक्कड़ को उनसे होड़ लेते हुए बताया है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि कोई भी घाघ को जाति के धुंध से बाहर नहीं निकाल सका।
ब्राह्मण स्थायी रुप से इस हीनग्रंथि का शिकार है कि वह सर्वश्रेष्ठ है। उसके अलावा और कोई योग्य नहीं हो सकता। यह एक तरह का मनोरोग है। इसका इलाज है लेकिन वह इलाज कराना नहीं चाहता। वह जानता है कि इससे उसके वर्चस्व का किला ढह जाएगा। इस किले की अचूक सुरक्षा कि लिये उसने पूरे समाज के कार्य एवं व्यवहार को जातिवार बांटकर उसपर धर्मशास्त्र का मुलम्मा चढ़ा रखा है। किसी की मजाल नहीं कि धर्मशास्त्र के विरुद्ध जाकर बोले। इस प्रकार ब्राह्मण एकाधिकारी वर्चस्ववाद का नियंता हो गया है। उसके सभी कुकृत्य शास्त्रसम्मत बना दिये गये हैं। वह किसी भी स्त्री का भोग करने के लिये स्वतंत्र है। इसी शब्द का प्रयोग रामनरेश त्रिपाठी भी करते है जब वह कहते हैं- “प्रारब्धवश गोपकन्या से भोग कयलन्हि” (पृष्ठ 20) इतनी पतित और चरित्रहीन जाति को अन्य समाज के लोगों द्वारा सर्वश्रेष्ठ मान लेना किसी अबूझ पहेली से कम नहीं है।
लेकिन मेधा किसी जाति विशेष की मोहताज नहीं होती। अन्य जातियों में हमेशा से मेधावी व्यक्ति पैदा होते रहे हैं। ऐसे लोगों ने हमेशा से ब्राह्मणों में बेचैनी पैदा की है। इससे उनकी स्वयं के लिये घोषित सर्वश्रेष्ठ एवं योग्यतम होने की अवधारणा खंडित होने लगती है। वे येन-केन प्रकारेण ऐसे व्यक्ति को ब्राह्मण सिद्ध करने में जुट जाते है। इसके लिये कोई न कोई ब्राह्मण उस व्यक्ति की कल्पित मां से संम्भोग करने के लिय ढूंढ़ लिया जाता है और चूंकि कलम पर इन्हीं की बपौती है, इसलिए मनमाना दस्तावेजीकरण करके उसको सच भी साबित कर देते हैं। घाघ भी अन्य अनेक अब्राह्मण विद्वानों की तरह इसी कुत्सित चाल के शिकार हैं।
मेरा अपना मानना कि घाघ ब्राह्मण नहीं थे। इससे भी अधिक कटु सत्य यह है कि वह किसी ऐसी शूद्र महिला के गर्भ से भी नहीं पैदा हुए थे जिसके साथ किसी ब्राह्मण ने संसर्ग किया था। मैं यह बात इस आधार पर कह रहा हूं कि पूरा संस्कृत वाङ्मय ब्राह्मणों के यौनाचार से भरा पड़ा जहां आसानी से स्त्रियों के समर्पण के आख्यान हैं। व्यवहार में यह संभव नहीं है। स्त्रियां उच्छृखल नहीं हो सकतीं। यह यहां के मूल निवासियों को बदनाम करने का षड्यंत्र है। घाघ किसान की ही किसी जाति में पैदा हुए होंगे। प्रबल संभावना इस बात की है कि वह जाति के अहीर ही थे। इन पर प्रमाणिक शोघ करने का दायित्व हमारा बनता है। विश्वास है कि इस लेख को पढ़कर कोई शोधार्थी अवश्य आगे आएगा।
घाघ का इतिहास बहुत पुराना नहीं प्रतीत होता। वह तीन-चार सौ साल का हो सकता है लेकिन इन तीन-चार सौ सालों में हमारा एक हीरा मिट्टी में मिला दिया गया है। मुझे एक बात समझ में आती है कि हमारी कहानियों का विराट स्रोत उन दायरों से बाहर है और वह प्राकृतिक और मानवीय इतिहास के लाखों वर्षों में छिपा है। वह हमारी उन पवित्र कथा-प्रणालियों से हम तक आती है जिसे आदिवासियों ने किसी न किसी रूप में सुरक्षित रखा हुआ है। वेदों और पुराणों के संदर्भों से आने वाले सारे मिथक झूठे गप्प और ब्राह्मणवाद के हथियार है। इनसे लड़ने के लिए हमारे महान पूर्वजों कबीर, रैदास, जोतीराव फुले, पेरियार, डॉ. आंबेडकर, रामस्वरूप वर्मा, ललई सिंह यादव, चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु, महाराज सिंह भारती ने हमारे सामने वैचारिक और सांस्कृतिक युद्ध का मैदान सजा दिया है। हमारी भूमिकाएं कहां हैं? जान लेना चाहिए!
(संपादन : नवल)
(आलेख परिवर्द्धित : 22 अक्टूबर, 2020 09:18 AM)
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