ग्राउंड रिपोर्ट
बिहार में 2020 के विधानसभा चुनाव में 17 प्रतिशत की आबादी वाले मुस्लिम समाज का विजन इस बार बिल्कुल साफ है। इनमें पसमांदा और अशराफ दोनों शामिल हैं। राजनीतिक नेतृत्व को लेकर वे किसी दुविधा की स्थिति में नहीं हैं और अपनी मांगों को लेकर भी मुखर हैं। खास बात यह कि उर्दू का विकास, मदरसों की स्थापना, कब्रिस्तान की घेराबंदी, हज हाउस का निर्माण और वक्फ बोर्ड की संपत्ति जैसे पारंपरिक मुस्लिम पहचान वाले मुद्दों से वह अब धीरे-धीरे बाहर निकल रहा है। मुस्लिम समाज सबसे पहले अपने संवैधानिक अधिकारों की सुरक्षा और सत्ता में माकूल नुमाइंदगी चाहता है। रोजी-रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य, पारदर्शी एवं जवाबदेह शासन और विकास ये वह मुद्दे हैं जो सभी के लिए समान है। सभी इसमें बेहतरी और बदलाव के हामी हैं।
हमें भी चाहिए अच्छी शिक्षा और रोजगार
अंग्रेजी साहित्य में एमए कर एमएड की पढ़ाई करने वाले समस्तीपुर के पंजाबी काॅलोनी निवासी 30 वर्षीय युवक हसन अबाद कहते हैं, “चुनाव में मुसलमानों का कोई खास और अलहदा मुद्दा नहीं है। उनकी समस्याएं भी वही हैं जो बिहार के बाकी लोगों की हैं। बिजली, पानी और बहुत हद तक सड़कों की हालत अब ठीक है, लेकिन बढ़ती बेरोजगारी, मजदूरों का पलायन और शिक्षा का गिरता स्तर काफी चिंताजनक स्थिति में है।’’ बेरोजगारी और शिक्षा को लेकर ढेर सारे मुस्लिम नौजवानों की राय हसन जैसी ही है। नौजवान चाहते हैं कि बिहार में उद्योग-धंधे लगे और उन्हें अपने प्रदेश में ही रोजगार मिले ताकि नौकरी के लिए कहीं बाहर न भटकना पड़े।
मुस्लिम महिलाओं के सवाल
पूर्वी चम्पारण के चकिया की बीए की छात्रा शगुफता परवीन दूसरी बार अपने मताधिकार का प्रयोग करेंगी। वह कहती हैं, “महिला सुरक्षा और शिक्षा इस चुनाव में बड़ा मुद्दा है। इस मसले पर सभी दलों को अपना रुख साफ करना चाहिए।” मोहल्ले की दूसरी लड़कियां भी इसे जरूरी सवाल मानती हैं। हालांकि इस मसले पर चुनाव में कोई चर्चा ही नहीं है। न कोई नेता इसपर बात करता है न कोई मतदाता सवाल खड़े करता है। घरेलू महिलाओं के बीच चुनाव को लेकर कोई विमर्श नहीं होता है। उनकी अपनी कोई निजी राय नहीं है, घर का मुखिया जिस दल के उम्मीदवार को वोट देते हैं, महिलाएं भी उन्हें वोट करती हैं। हां, इतना जरूर है कि अब वह मतदान करने में पीछे नहीं रहती हैं।
अपने प्रदेश में सुकून से मिले दो जून की रोटी
मुजफ्फरपुर में सोनवर्षा गांव के निवासी मो. शोएब ग्रेजुएट हैं। वह गल्फ में ड्राइवर की नौकरी करते थे। मार्च के बाद से अब गांव में रहते हैं। शोएब कहते हैं, “समाज में अमन और शांति सबसे ज्यादा जरूरी है। इसके साथ दो वक्त की रोटी भी अपने प्रदेश में मिलती रहे तो और अच्छा है।”
नौकरी छोड़िए, बैंक हमें रोजगार के लिए लोन भी नहीं देता
राजधानी पटना के फुलवारी शरीफ में अपना व्यवसाय करने वाले इकबाल अहमद कहते हैं, “देखिए, रोजगार और विकास कोई मुद्दा नहीं है हमारे लिए। हम तो पंक्चर बनाने, ऑटो चलाने और बिरयानी बेचने वाले कौम हैं। कौन हमारे नौजवानों को नौकरी देता है। बी.टेक और एमबीए किए हमारे नौजवान पटना के फुटपाथ पर चिल्ला-चिल्लाकर सौ रुपये में गमछा बेचने और बिरयानी का ठेला लगाने को मजबूर हैं। हमें तो अपना रोजगार करने के लिए सरकार और बैंक से कर्ज तक नहीं मिलता है। लोन के लिए बैंक इतना कागज मांगता है कि पूरा करना ही मुश्किल है।” इकबाल आगे कहते हैं, “वक्त की नजाकत को समझिए। कयादत (सत्ता) में भागीदारी बढ़ाईये और अपने वजूद को बचाने वालों का साथ दीजिए।”
एनआरसी और सीएए का सवाल भी महत्वपूर्ण
बेगूसराय के चांद अली भी इस चुनाव में मुसलमानों के लिए सबसे अहम मसला एनआरसी को बताते हैं। बेरोजगारी, शिक्षा और स्वास्थ्य उनके लिए इससे गौण मसले हैं। खासकर बुजुर्गाें में एनआरसी के मुद्दे पर अपनी नई नस्लों के भविष्य को लेकर एक अनजाना-सा डर बैठ गया है। उनके माथे की शिकन को साफ तौर पर महसूस किया जा सकता है। वह कहते हैं, “पता नहीं क्या होगा ? सरकारें क्या करेंगी? वह ऐसी सरकार चाहते हैं जो इस मसले को लेकर अलग स्टैंड रखती हो।”
जदयू से नाराजगी की ये हैं बड़ी वजहें
केंद्र सरकार के एनआरसी, तीन तलाक, बाबरी मस्जिद विवाद और कश्मीर में धारा 370 की समापति के मुद्दे पर जदयू ने जिस तरह संसद में सरकार का साथ दिया, इससे प्रदेश के मुसलमानों में जदयू को लेकर काफी नाराजगी है। वह स्पष्ट तौर पर स्वीकार करते हैं कि हम उनके साथ हैं जो देश के संविधान, सेक्यूलर चरित्र, संवैधानिक संस्थानों और हमारे अधिकारों की सुरक्षा को लेकर प्रतिबद्ध हैं। एनआरसी और सीएए कानून के विरोध में जब शाहीन बाग में आंदोलन चल रहा था, उस समय बिहार के भी पटना, मुजफ्फरपुर, दरभंगा और बेगूसराय जैसे जिलों में समानांतर आंदोलन खड़े हो गए थे, जिसमें महिलाओं ने बढ़-चढकर हिस्सा लिया था। नागरिकता के प्रश्न को लेकर बिहार की पढ़ी-लिखी मुस्लिम महिलाएं भी जागरुक दिख रही हैं। मुस्लिम समाज यह भी मानता है कि नीतीश सरकार ने काफी अच्छा काम किया है, लेकिन मुसलमानों को लेकर उनकी नीति स्पष्ट नहीं है। प्रदेश में एनडीए गठबंधन सरकार की अधिकांश लोक कल्याणकारी योजनाओं की मुस्लिम समाज सराहना करता है, लेकिन उसके क्रियान्वयन में आने वाली दुश्वारियों को दूर करने में सरकारी उदासीनता और उपेक्षा से लोग दुःखी हैं।
ओवैसी ठोंक रहे ताल, लेकिन मतदाताओं में उत्साह नहीं
लोग इस बात की भी शिकायत करते हैं कि सियासी पार्टियां आबादी के अनुपात में मुसलमानों को टिकट नहीं देती है। चार प्रतिशत वाले कुर्मी और 6 प्रतिशत आबादी वाले कुशवाहा जब सत्ता पर अपनी दावेदारी कर सकते हैं तो 17 प्रतिशत आबादी वाले मुसलमानों की उपेक्षा क्यों की जाती है? मुसलमानों के मन में यह सवाल इसलिए उठ रहा है क्योंकि प्रदेश में 38 सीटें ऐसी है जहां उनकी आबादी 20 प्रतिशत तक है। जबकि 60 सीटें ऐसी हैं जहां वह किसी भी उम्मीदवार को जीताने या हराने में प्रभावी भूमिका निभाते हैं। यही वजह है कि मुस्लिम बाहुल्य सीमाचल के चार जिलों सहित कुल 50 सीटों पर ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम अपनी दावेदारी पेश कर रही है। हालांकि मुस्लिम मतदाताओं के बीच एआईएमआईएम को लेकर कोई खास उत्साह नहीं दिख रहा है।
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मौजूदा चुनाव में विभिन्न दलों के उम्मीदवारों पर गौर करें तो महागठबंधन ने 34 मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट दिया है। इनमें 11 कांग्रेस, 3 वाम दलों के और शेष राजद के उम्मीदवार हैं। एनडीए गठबंधन में भाजपा ने किसी मुस्लिम चेहरे को मैदान में नहीं उतारा है जबकि जदयू ने अपने खाते से 11 मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट दिया हैं। इनमें चार महिलाएं भी शामिल हैं। 2015 विधानसभा की बात करें तो इसमें कुल 24 मुस्लिम उम्मीदवार चुनकर आए थे। इनमें कांग्रेस के 6, राजद के 11 और जदयू के 5 विधायक थे जबकि एक विधायक भाजपा के थे।
मुसलमानों के समस्याओं और सत्ता में भागीदारी बढ़ाने के सवाल पर इंडियन मुस्लिम रिसर्च फाउंडेशन के चेयरमैन प्रो. फिरोज मंसूरी कहते हैं, “मुस्लिमों की जो समस्याएं दिखाई और बताई जाती है, दरअसल वह एक छदम् समस्याएं और दुषप्रचार है जिसे साजिश के तहत मुसलमानों का बताया और उनपर थोप दिया जाता है। तीन तलाक, बाबरी मस्जिद विवाद, कश्मीर समस्या, एनआरसी और माॅब लिंचिंग जैसे मसलों पर सियासी जमात और उलेमा उन्हें फंसाए रखना चाहते हैं। उनकी वास्तविक समस्या मजबूत लीडरशिप की है। आजादी के 72 साल बाद भी उनका कोई नेता नहीं है। जबतक वह कठमुल्लों के झांसे में रहकर उनकी जेहनी गुलामी करते रहेंगे वह ऐसे ही राजनीतिक तौर पर हाशिए पर पड़े रहेंगे।”
पसमांदा उठा रहे हैं सवाल
हालांकि नेतृत्व के सवाल पर मुसलमान अक्सर अगड़े और पिछड़े में बंट जाते हैं। मुसलमानों की कुल आबादी का 85 प्रतिशत जनसंख्या पिछड़े तबके से ताल्लुक रखती है, जबकि नेतृत्व हमेशा अगड़ों के हिस्से में रहा है। मुस्लिमों में अंसारी बिरादरी सबसे बड़ी ओबीसी आबादी है। किसी सियासी जमात और सरकार में अगर कभी प्रतिनिधित्व मिलता है तो इसी बिरादरी को मिलता है जबकि अंसारी के बाद राईन, मंसूरी और दर्जी की भी अच्छी-खासी आबादी है, लेकिन राजनीति में उनका प्रतिनिधित्व शून्य है। पिछड़े मुस्लिमो की आवाज़ उठाने वाले पटना के रेयाजुद्दीन राईन इसके लिए प्रदेश की टाॅप राजनीतिक नेतृत्व के साथ ही अगड़ी जाति के मुस्लिम नेताओं को जिम्मेदार मानते हैं। वह कहते हैं कि आखिर 72 सालों में मुस्लिम पर्सनल लाॅ बोर्ड, जमीयत उल्मा-ए-हिंद, इमारत-ए-शरीया, मिल्ली काउनसिल, जमात-ए-इस्लामी हिंद और ढेर सारे ऐसे संगठन जो मुसलमानों के हितों के लिए काम करने का दावा करते हैं, उन लोगों ने इस वर्ग की आर्थिक-सामाजिक-शैक्षणिक और सियासी पिछडे़पन की तरफ ध्यान क्यों नहीं दिया?
दलित मुस्लिम समाज के संयोजक और पिछड़ा मुसलमान मामलों के विशेषज्ञ डाॅ. अय्यूब राईन रेयाजुद्दीन की बातों को पुष्ट करते हुए कहते हैं कि मुस्लिम पिछड़ी जातियों में कुछ समूह के हालात बेहद खराब हैं, वह बुनियादी सुविधाओं से भी वंचित हैं। सरकार को उन्हें दलितों की सूची में शामिल करना चाहिए। हिंदू धोबी, नट, बक्खो, मेहतर और पासी को जब सरकार दलित मानती है तो मुसलमानों में इन्हीं धोबी, नट, बक्खो, पासी, कलार, हलालखोर को दलित क्यों नहीं माना जाता है। इनके विकास के लिए सरकार को नियम बदलने होंगे और इन्हें सत्ता में उचित नुमाइंदगी देनी होगी। डाॅ. अय्यूब राईन कहते हैं कि सच्चर कमिटी की सिफारिश में जिन मुसलमानों की हालत दलितों से बदतर बताकर उन्हें विशेष आरक्षण देने की बात कही गई थी, वह इसी श्रेणी के मुसलमान हैं।
बहरहाल, हम पाते हैं कि इस साल राजद ने जहां दो पिछड़े मुसलमानों को टिकट दिया है वहीं जदयू ने 11 में आधी सीटें पिछड़े मुसलमानों को दिया है। जदयू पिछडे वर्ग के मुसलमानों में अली अनवर, डाॅ. एजाज अली और कहकशां परवीन को अपने कोटे से राज्यसभा भेज चुका है। हालांकि नेतृत्व और प्रतिनिधित्व के इन सवालों के बावजूद सेवानिवृत प्रोफेसर मुईनुद्दीन अंसारी कहते हैं कि हमारे बीच आपसी विभाजन है, लेकिन इस बार हम एकजुट होकर अपने अधिकारों का बचाव करेंगे। चुनाव के पहले मुस्लिम धार्मिक एवं सामाजिक संस्थाओं की तरफ से पटना में एक जन घोषणापत्र भी जारी किया गया है जिसमें राजनीतिक दलों से साफ-सुथरी छवि वाले उम्मीदवारों को टिकट देने की मांग की गई है। इसमें कहा गया है कि आज सबसे बड़ी चुनौती लोकतांत्रिक संस्थाओं और धर्मनिरपेक्षता को बचाए रखने की है। मुसलमानों में उनकी नागरिकता छिन जाने का डर भी बैठाया जा रहा है जिसका सभी दलों को विरोध करनी चाहिए।
(यह रिपोर्ट सेंटर फाॅर रिसर्च एंड डायलग ट्रस्ट के बिहार चुनाव रिपोर्टिंग फेलोशिप के तहत प्रकाशित की गई है)
(संपादन : नवल)
(आलेख परिवर्द्धित : 22 अक्टूबर, 2020 09:13 AM)
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