बीते 28 अक्टूबर, 2020 को गोंडवाना गणतंत्र पार्टी के संस्थापक हीरा सिंह मरकाम का निधन हो गया। वे 80 वर्ष के थे। यह संयोग ही है कि उनका निधन उनके संघर्ष के साथी रहे आचार्य मोतीरावण कंगाली (2 फरवरी 1949–30 अक्टूबर 2015) के निधन की तिथि से ठीक दो दिन पहले हुआ। गोंड समुदाय के सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनीतिक हक-हुकूक के लिए लड़ने वाली इन दोनों हस्तियों को “हीरा-मोती” की जोड़ी के नाम से जाना जाता था।
1970-80 में सामने आयी हीरा-मोती की जोड़ी
इस देश श्रमण परंपरा को मानने वाले लोगों पर में पहचान और अस्तित्व का संकट हमेशा बना रहा है। इतिहास बताता है कि अनेक श्रमिक समुदायों की संस्कृति, इतिहास और परंपराएं तथाकथित मुख्यधारा के संपर्क में आने के कारण या तो पहचानविहीन हो गयीं या फिर खत्म हो गईं। कोइतूर समुदाय के सभी समूहों को जिनमें भील, मीणा, सहरिया, गोंड़, कोरकू, संथाल, मुंडा, हो, न्यासी, भूमिज, बाल्मीकी, पोया, गारो, ख़ासी, जयंतिया इत्यादि थे, उन्हें सामंती राजाओं और नियंत्रकों ने कभी एक नहीं होने दिया। और जब कभी कोशिश भी की गई तब उन्हें नक्सली और देशद्रोही कह जेलों में डाल दिया गया या मार दिया गया। यही सिलसिला सदियों से चला आ रहा है। इसलिए इस देश का सम्पूर्ण इतिहास इन्हीं कोइतूरों के बगावतों की कहानियों से भरा पड़ा है।
ऐसा ही एक आंदोलन मध्य भारत के बड़े भूभाग पर शुरू हुआ, जिसे गोंडवाना आन्दोलन के नाम से जाना जाता है। इसके जरिए इस इलाके के समस्त कोइतूरों ने गोंडवाना लैंड की मांग की। गोंडवाना का यह आंदोलन ऐतिहासिक और बलिदानों का आंदोलन है जिसकी आज तक सुखद परिणति नहीं हो सकी। इस आंदोलन की शुरुआत 1932 में कुछ जमींदार गोंड़ राज परिवारों और जमींदारों (मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र आदि राज्यों के) ने की थी। वे अपने हक-अधिकारों की सुरक्षा करना चाहते थे। उनके संघर्ष को राजनीतिक क्षेत्रों में कुछ सफलताएं भी मिलीं, लेकिन वे कभी भी अपनी पहचान को अखिल भारत के स्तर पर स्थापित नहीं करवा पाए। कुशल नेतृत्व और पैसे की कमी से यह आंदोलन समृद्ध राजनीतिक दलों के षड़यंत्र का शिकार बनकर कमजोर पड़ता चला गया।
लेकिन 1970-80 के बीच एक बाद फिर से गोंडवाना आंदोलन की आग में धुआं दिखने लगा और आग को हवा देने के लिए कुछ कोइतूर युवा सामने आए। इनमें से ही एक का नाम हीरा सिंह मरकाम और दूसरा मोतीरावण कंगाली था।
ऐसे बढ़ा कोइतूरों का आंदोलन
दादा हीरा सिंह मरकाम का रुझान राजनीति की तरफ था तो दादा मोतीरावण कंगाली धर्म संस्कृति को स्थापित करने में लगे थे। दोनों एक-दूसरे के करीब आए और मिलकर संघर्ष को आगे बढ़ाया। राजनीति में हीरा सिंह मरकाम सफल हो चुके थे और संयुक्त मध्य प्रदेश के पाली तानाखार सीट से 1985-86 में भाजपा के टिकट से चुनाव लड़े और पहली बार मध्यप्रदेश विधान सभा में पहुंचे। हीरा सिंह मरकाम एक प्राइमरी स्कूल के शिक्षक से विधायक बने थे और काफी प्रसिद्धि भी पा चुके थे। दूसरी ओर मोतीरावण कंगाली कोइतूरों के इतिहास, भाषा, संस्कृति और धर्म को समझने में लगे हुए थे। वे तब उतने लोकप्रिय नहीं थे। बाद में हीरा सिंह मरकाम ने गोंडवाना गणतंत्र पार्टी की नीव डाली और मोतीरावण कंगाली ने परदे के पीछे से उन्हें सहयोग दिया। वे सांस्कृतिक और धार्मिक चेतना को जाग्रत करने का कार्य कर रहे थे। मोतीरावण कंगाली चूंकि सरकारी नौकरी में थे इसलिए राजनीतिक रूप से सक्रिय नहीं हो सकते थे। लेकिन दोनों में एक आपसी समझ बन चुकी थी कि बिना धर्म-संस्कृति के सामाजिक चेतना नहीं आएगी और बिना सामाजिक चेतना व एकता के राजनैतिक चुनाव जीता नहीं जा सकेगा।
धीरे-धीरे मोतीरावण कंगाली और हीरा सिंह मरकाम एक-दूसरे के पूरक बन गए। उनके साझा प्रयास से मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र में सोए हुआ गोंडवाना आंदोलन का पुनर्जागरण हो गया । इसके लिए दोनों ने मिलकर कार्य किया और दोनों के काम करने के ढंग को देखकर लोगों को एक नए युग का अहसास हुआ। उनके अंदर उम्मीदें जगीं। लोगों को लगने लगा कि अब उनकी अस्मिता और अस्तित्व की लड़ाई फिर से लड़ी जा सकेगी और वे भी एक सम्मानित नागरिक की तरह इस देश में जी सकेंगे।
मोतीरावण कंगाली के निधन के बाद अकेले हो गए थे हीरा सिंह मरकाम
दोनों ने गोंडवाना में एक नए गोंडवाना आंदोलन को खड़ा कर दिया। इस सफलता के पीछे इसी जोड़ी का सम्मिलित और ईमानदार प्रयास रहा था। वर्ष 2015 में मोतीरावण कंगाली की अकाल मृत्यु से यह जोड़ी टूट गयी और हीरा सिंह मरकाम अकेले पड़ गए। वे काफी निराश हो चुके थे। यह उन्होंने मेरे द्वारा लिए गए एक साक्षात्कार में कहा था।
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वैसे कहने को तो बहुत सारे लोग हीरा सिंह मरकाम के आसपास थे, लेकिन मोतीरावण कंगाली का साथ छूटना उनके लिए एक सदमे से कम न था। वे जानते थे कि धर्म-संस्कृति के आधार के बिना राजनीति की इमारत नहीं खड़ी की जा सकती है। इसलिए अपने अंतिम दिनों में वे धर्म-संस्कृति को बढ़ाने के लिए धार्मिक मंचों पर जाना तेज कर दिया था। उन्होंने समाज को आर्थिक, सामाजिक, शैक्षिक और राजनीतिक रूप से सक्षम बनाने के लिए कई विचार दिए। जिनमें उनका एक मुट्ठी चावल का नारा बहुत प्रसिद्ध हुआ था। अपनी पारंपरिक शिक्षा और संस्कृति के प्रोत्साहन के लिए उन्होंने अपने अंतिम दिनों में गोटुल गणतंत्र की स्थापना की बात रखी थी। वे चाहते थे कि समाज पहले अपने धर्म-संस्कृति को जाने और उसका पालन करे। अपने दम पर तीन लोगों को गोंडवाना गणतंत्र पार्टी के टिकट से मध्यप्रदेश की विधान सभा तक पहुंचाने में कामयाब रहे। यह उनकी उपलब्धियों में से एक है।
बहरहाल, दादा हीरा सिंह मरकाम का जीवन व्यर्थ नहीं गया। लोग भले ही उन्हें राजनीतिक रूप से असफल मानें, लेकिन जो बीज उन्होने बोया था, आज वह पौधा बन गया है। इसका असर 10 सालों में पूरी तरह दिखने लगेगा जब ये पौधे पेड़ का विशाल रूप लेंगे और कोइतूर समाज को फूल, फल और छाया प्रदान करेंगे।
(संपादन : नवल/अनिल/अमरीश)
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