बिहार विधानसभा चुनाव में मतदान का पहला चरण बीते 28 अक्टूबर, 2020 को संपन्न हो गया। कोरोना के खौफ के बीच 54.35 फीसदी मतदाताओं ने अपने मताधिकार का उपयोग किया, जो वर्ष 2015 में हुए विधानसभा चुनाव की तुलना में करीब डेढ़ फीसदी अधिक है। अगले चरण में 94 विधानसभा क्षेत्रों में 3 नवंबर को मतदान होगा। इस बीच बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने पश्चिम चंपारण के वाल्मीकिनगर विधानसभा क्षेत्र में चुनाव सभा को संबोधित करने के दौरान आबादी के अनुसार आरक्षण का मसला उठाया है। इसके पहले यह मुद्दा न तो एनडीए ने उठाया और ना ही राजदनीत महागठबंधन ने। नीतीश कुमार द्वारा अपनी रणनीति में यह बदलाव राजद नेता तेजस्वी यादव द्वारा सरकारी नौकरी का मुद्दा उठाने के बाद किया गया है।
वर्तमान में बिहार में आरक्षण
गौरतलब है कि वर्तमान में बिहार सरकार के अधीन नौकरियों में अनुसूचित जनजाति के लिए एक फीसदी, अनुसूचित जाति के लिए 15 फीसदी, अति पिछड़ा वर्ग के लिए 21 फीसदी, पिछड़ा वर्ग के लिए 12 फीसदी और गरीब सवर्णों के लिए 10 फीसदी आरक्षण है। इनमें 35 फीसदी क्षैतिज आरक्षण महिलाओं के लिए है। इसके अलावा एक फीसदी आरक्षण विकलांगजनों के लिए है।
दस लाख नौकरियों और 85 फीसदी बिहारी मूल के लिए आरक्षण का असर
दरअसल, अभी तक इस विधानसभा चुनाव में महागठबंधन के नेता तेजस्वी यादव मुद्दों के मामले में एनडीए पर भारी पड़ रहे हैं। इसका प्रमाण यह है कि उनकी रैलियों में जनसैलाब देखा जा रहा है तो दूसरी ओर एनडीए के नेताओं को निराशा झेलनी पड़ी है। एनडीए की ओर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अब तक हुई छह रैलियों में ही लोग बड़ी संख्या में जुटे। जबकि नीतीश कुमार को एक तरफ भीड़ नहीं जुटने के संकट से जूझना पड़ रहा है तो दूसरी तरफ उनकी सभाओं में लोग तेजस्वी जिंदाबाद के नारे लगा रहे हैं।
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इस लिहाज से देखें तो तेजस्वी यादव द्वारा पढ़ाई, कमाई, दवाई और सिंचाई का नारा दिए जाने तथा सरकार बनने पर पहली कैबिनेट की बैठक में दस लाख युवाओं को नौकरी देने संबंधी घोषणा का असर दिख रहा है। उन्होंने बिहार की नौकरियों में 85 फीसदी आरक्षण बिहारियों को देने संबंधी वादा भी किया है। उनके इन घोषणाओं के आलोक में एनडीए पहले तो यह कहकर खारिज करता रहा कि दस लाख युवाओं को नौकरी नहीं दी जा सकती है। सूबे के उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी ने कहा कि इसके लिए प्रत्येक वर्ष करीब 52 हजार करोड़ रुपए राशि की आवश्यकता होगी, जिसका प्रबंध करना बिहार सरकार के बूते के बाहर की बात है। इस क्रम में उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि बिहार सरकार के खजाने में इतना पैसा नहीं है कि इस राशि का अतिरिक्त बोझ उठाया जा सके।
चुनावी मझधार में नीतीश को आई आरक्षण की याद
लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के दौरे के ठीक पहले भाजपा ने अपने संकल्प पत्र में 19 लाख युवाओं को रोजगार देने का उल्लेख किया। इससे तेजस्वी यादव के मुद्दे को मजबूती मिली तो दूसरी ओर नीतीश कुमार बैकफुट पर आ गए। उन्होंने भी अपनी सभाओं में तेजस्वी यादव की घोषणा के संदर्भ में वित्त की कमी से जुड़े सवाल उठाए थे। उन्होंने अब आबादी के आधार पर आरक्षण का मामला उठाया है।
कमाई, दवाई, पढ़ाई और सिंचाई का मुद्दा भी सामाजिक न्याय का मुद्दा
बिहार के वरिष्ठ साहित्यकार व चिंतक प्रेमकुमार मणि बताते हैं कि “नीतीश कुमार द्वारा आबादी के आधार पर आरक्षण की बात कहे जाने का मतलब यह है कि वे अब फिर से कोटा की राजनीति करना चाहते हैं। वे मौजूदा राजनीति को फिर से पीछे ले जाना चाहते हैं। अलग-अलग जातियों को उनकी आबादी के आधार पर आरक्षण मिले, यह लड़ाई पहले से रही है। नीतीश कुमार को बताना चाहिए कि उन्होंने इसके लिए क्या किया। वर्तमान में तेजस्वी यादव ने कमाई, दवाई, सिंचाई और पढ़ाई का सवाल उठाया है। यह सवाल भी सामाजिक न्याय से जुड़े सवाल हैं। जिन 10 लाख नौकरियों की बात तेजस्वी यादव ने की है, उसमें सभी को नौकरियां मिलेंगी। फिर चाहे वे महिलाएं हों, दलित हों, अति पिछड़े हों या फिर ऊंची जातियों के हों। और यह कि सरकारी नौकरियों में आरक्षण का प्रावधान पहले से है तो यदि नौकरियां मिलेंगीं तो सभी को तय कोटे के आधार पर ही दी जाएगी। इसलिए नीतीश कुमार जो अभी कह रहे हैं, वह सबसे बड़े मुद्दे को डिरेल करने का प्रयास है। जो कि अब संभव नहीं है। बिहार की जनता जाग चुकी है।”
दरअसल, 2005 से लेकर 2015 तक हुए विधानसभा चुनाव में नीतीश कुमार की सफलता के पीछे जो मुद्दे महत्वपूर्ण रहे, उनमें अधोसंरचनात्मक विकास और विधि-व्यवस्था महत्वपूर्ण रही। यह सवाल अब भी महत्वपूर्ण बना हुआ है और नीति आयोग की हालिया रिपोर्ट में बिहार के फिसड्डी होने की बात सामने आने के बाद नीतीश कुमार इन मुद्दों के बारे में बोलने का अधिकार खोते जा रहे हैं। इस बीच मुंगेर में दशहरा के मौके पर पुलिस की गोलीबारी ने उनकी स्थिति को और विषम बना दिया है। इस घटना में एक 17 वर्षीय किशोर की मौत पुलिस की गोली से हो गई। इसके अलावा एक दर्जन लोग घायल हुए हैं।
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के. सी. त्यागी का टिप्पणी से इनकार
तो क्या उपरोक्त कारणों से नीतीश कुमार को आबादी के आधार पर आरक्षण का सवाल उठाना पड़ रहा है? यह पूछने पर जदयू के राष्ट्रीय महासचिव के. सी. त्यागी ने फारवर्ड प्रेस से बातचीत में कहा कि आबादी के आधार पर आरक्षण संबंधी बयान मुख्यमंत्री जी द्वारा दिया गया है। इस संबंध में वे कोई टिप्पणी नहीं कर सकते।
पन्द्रह साल में पहल क्यों नहीं की?
इस संबंध में राजद के नेता व नीतीश सरकार में मंत्री रहे श्याम रजक का कहना है कि “नीतीश कुमार से यह पूछा जाना चाहिए कि उन्होंने पहले यह मुद्दा क्यों नहीं उठाया। उन्हें यह भी बताना चाहिए कि बिहार में आबादी के अनुरूप आरक्षण मिले, इसके लिए बीते 15 वर्षों में उन्होंने कोई पहल क्यों नहीं की। वे तो एनडीए के साथ थे। चाहते तो केंद्र सरकार पर दबाव बना सकते थे कि वह संसद में विधेयक के माध्यम से यह प्रावधान करे। तो जब उनके पास समय था तब उन्होंने कुछ नहीं किया। नीतीश कुमार अब हताश और निराश हो चुके हैं। साथ ही जातिगत जनगणना के सवाल को लेकर नीतीश कुमार को स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए।”
सनद रहे कि जाति-आधारित जनगणना की मांग को लेकर देश भर में बहुजन संगठनों द्वारा आंदोलन चलाए जा रहे हैं। इसके पीछे तर्क यह है कि जातिगत जनगणना के बाद ही यह स्थापित हो सकेगा कि वर्तमान में किस जाति के कितने लोग हैं तथा उनकी शैक्षणिक व सामाजिक स्थिति क्या है। वर्तमान में देश में जो आरक्षण की व्यवस्था है, उसका आधार 1931 में हुए जातिगत जनगणना है।
दरअसल, 2015 में हुए विधानसभा चुनाव में आरक्षण एक मुख्य मुद्दा बन गया था। तब आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने आरक्षण संबंधी कानून की समीक्षा करने की बात कही थी। इसके खिलाफ लालू प्रसाद ने अभियान चलाया था। तब नीतीश कुमार महागठबंधन की ओर से सीएम पद के उम्मीदवार थे। उन्होंने भी अपने संबोधनों में आरक्षण में छेड़छाड़ किए जाने पर एनडीए को चेताया था।
बहरहाल, नीतीश कुमार द्वारा अब आरक्षण का सवाल उठाए जाने का कोई असर होगा, इसके आसार फिलहाल नहीं दिख रहे हैं। वैसे यह देखना दिलचस्प होगा कि यदि यह मुद्दा बनता है तो तेजस्वी यादव की तरफ से क्या पहल होती है। वजह यह कि पिछले वर्ष लोकसभा चुनाव के पहले उन्होंने राज्य में आरक्षण की सीमा 70 फीसदी करने संबंधी बात कही थी।
(संपादन : अनिल/अमरीश)
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