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श्रमण परंपरा का अनूठा त्यौहार है दीपावली

दीपावली श्रमण परंपरा का उत्सव है जो छत्तीसगढ़, गुजरात, झारखंड, बिहार व उत्तर प्रदेश सहित देश के एक बड़े हिस्से में मनाया जाता है। लेकिन इसे ब्राह्मण परंपरा में रंग दिया गया है। बता रहे हैं संजीव खुदशाह

दुनिया भर में अधिकांश पर्व-त्यौहार कृषि-आधारित हैं। ये स्थानीय मौसम से भी जुड़े होते हैं। भारत के अधिकांश पारंपरिक त्‍यौहार भी इसका अपवाद नहीं हैं। दीपावली भी ऐसा ही एक पर्व है जो ख्ररीफ फसल की कटाई के बाद मनाया जाता है। खास बात यह कि भले ही इस पर्व को द्विजों के ग्रंथों में उल्लेखित कथा-कहानियों से जोड़ दिया गया हो लेकिन इसका संबंध बहुजनों से है।

मुझे स्मरण है कि 1978 में, जब मेरी उम्र करीब पांच साल थी, दीपावली के दिन मैं अपने पिता से प्रश्न कर बैठा कि हम यह त्यौहार क्यों मनाते हैं।  तब पिताजी ने सहज रूप से इसका जवाब दिया कि “बेटा, दीपावली के आसपास धान की फसल या तो पकने को होती है या पक चुकी होती है। इस समय एक खास तरह का कीड़ा, जिसे माहूर भी कहते हैं, फसल को नुकसान पहुंचाता है। ये कीड़े आग की ओर आकर्षित होते हैं। इसलिए कृषकों ने एक दिन यानी कार्तिक अमावस्या को सामूहिक रूप से दिए जलाने का फैसला किया ताकि ज्यादा से ज्यादा कीड़े मर जाएं और फसल को कीड़ों से बचाया जा सके। इसलिए यह उत्सव अमावस्या को मनाया जाता है। यह एकमात्र ऐसा उत्सव है जो अमावस्या को मनाया जाता है। शेष उत्सव पूर्णिमा को मनाये जाते हैं।”

काल्पनिक कहानियों से नहीं जुड़ा है यह उत्सव

मुझे याद है कि उस समय हमारे घर में दीपावली पर लाई-बताशों के सामने दीप जलाकर तथा धान की झालर[1] से घर सजा कर पूजा की जाती थी। उस समय तक गांव के लोग लक्ष्मी पूजा या राम के वनवास से लौटने की कथा से अपरिचित थे। छत्‍तीसगढ़ के बिलासपुर जिले में स्थित हमारा घर दो तरफ से धान के खेतों से घिरा था। इस कारण धान की फसल को नुकसान पहुंचाने वाले कीड़े हमारा जीना मुहाल कर देते थे। दिन भर तो ठीक रहता। लेकिन जैसे ही शाम ढलती ये कीड़े उड़कर घरों में जल रही रोशनी की ओर आ जाते और वहीं ढेर हो जाते। वे पके हुए भोजन में भी गिरते। काफी परेशानी होती थी इन कीड़ों से। दीपावली के दिन दियों की सामूहिक रोशनी के बाद इनका प्रकोप कम हो जाता था। हम (छत्‍तीसगढ में) दीपावली को देवारी कहते थे और आज भी वहां इसे इसी नाम से जाना जाता है।

दीपावली के लिए दीये रंगती एक महिला

इस उत्सव में आज भी लाई-बताशे एवं स्थानीय पकवानों की केंद्रीय भूमिका रहती है। इसके पहले घरों की साफ-सफाई की जाती है। यह उत्सव व्यक्तिगत व सामुदायिक स्तर पर साफ-सफाई का पर्व है। लेकिन इसे द्विजों ने काल्पनिक धार्मिक कथा-कहानियों से जोड़ दिया है।

विभिन्न राज्यों में दीपावली के बहुजन संदर्भ

गुजरात में नमक व्यवसाय अर्थव्यवस्था के केन्द्र में है इसलिए वहां के कृषक नमक को साक्षात धन का प्रतीक मानते हैं। दीपावली के दिन नमक खरीदना व बेचना शुभ माना जाता है। वहीं उत्तराखंड के थारू आदिवासी अपने मृत पूर्वजों की स्मृति में दीपावली मनाते हैं। जबकि हिमाचल प्रदेश में कुछ जनजातियों के लोग इस दिन यक्ष की पूजा करती हैं। इसी प्रकार, मध्‍यप्रदेश के बुंदेलखंड क्षेत्र में इस दिन खास तौर पर लाई-बताशे के साथ ग्‍वालन की पूजा की जाती है। जबकि ओडिशा के ग्रामीण अंचल में दीवाली जैसा कोई त्यौहार नहीं मनाया जाता है। लेकिन यहां एक फसल आधारित त्यौहार इसी समय या इसके आसपास मनाया जाता है, जिसका नाम नुआखाई है। इस त्यौहार का दिन धान की फसल के पकने के हिसाब से अलग-अलग होता है।

झारखंड के आदिवासी दीपावली को सोहराय भी कहते हैं। यह एक प्रकृति पूजा है। झारखंड के आदिम जनजाति असुर समुदाय के लोग सोहराय के एक दिन बाद भैंसासुर की पूजा करते हैं। बिहार के मगध इलाके में भी दीपावली को सोहराय कहा जाता है।

[1] धान से बनी हुई कलात्‍मक झालर जिसे स्‍थानिय भाषा में चिरई चुगनी भी कहा जाता है।

(संपादन : नवल/अमरीश)


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लेखक के बारे में

संजीव खुदशाह

संजीव खुदशाह दलित लेखकों में शुमार किए जाते हैं। इनकी रचनाओं में "सफाई कामगार समुदाय", "आधुनिक भारत में पिछड़ा वर्ग" एवं "दलित चेतना और कुछ जरुरी सवाल" चर्चित हैं

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