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खुली आंखों से देखिए किसानों का आंदोलन, दिखेंगे दलित-बहुजनों के अनसुलझे सवाल

किसानों के सवालों से सरोकार रखने वाले लोगों को थोड़ा आगे बढ़ना पड़ेगा। उन सारे लोगों के सवालों पर विचार करना पड़ेगा जो किसानी से परोक्ष रूप से जुड़े हुए हैं। यानि जो भूमि के मालिक नहीं हैं लेकिन जिनके दम पर ही खेती होती है। ये कौन हैं और इनके सवालों को शामिल किए बगैर किस तरह के किसान आंदोलन की रूपरेखा हाे सकती है। रामजी यादव का विश्लेषण

बहस तलब

जिस तरह इस देश में हजारों फैशन डिजाइनर हैं और जितने किस्म के पोशाक इस देश में बनते हैं और उनको लेकर मध्यवर्ग में जैसी हवस दिखती है, उसे देखकर मेरे मन में अनेक सवाल उठते हैं। लेकिन सबसे बड़ा सवाल उस कहानी की याद से खड़ा होता है जिसमें एक राजा अचानक बहुत उदास रहने लगा था। उसे भीतर से ऐसा लगने लगा कि वह बीमार हो गया है। राजवैद्य ने जी-जान से उसके स्वस्थ्य की जांच की, लेकिन मर्ज की थाह न पा सका। उसने अपनी सारी हिकमतें लगा दी लेकिन राजा ठीक नहीं हुआ। बीमारी के इलहाम ने उसकी उदासी को लगातार गहरा ही किया। दूर दूर से चिकित्सक बुलाये गए लेकिन कोई भी निदान बताने में सफल नहीं हो सका। अंततः एक युवा चिकित्सक आया। भारी जांच-पड़ताल के बाद उसे समझ में आ गया कि राजा वास्तव में बहुत गंभीर बीमारी का शिकार हो गया है। उसे दुखी होने के अहसास की बीमारी हो गई है। इस बीमारी में आदमी ऊपर से स्वस्थ होता है लेकिन भीतर से उसका नैतिक पतन शुरू हो जाता है और वह खाना खाने के पहले अपना वजन नापता है। खाना खाने के बाद वह अपनी ताकत का अंदाज़ा करता है और उसे लगने लगता है कि वह सामने वाले से कम स्वस्थ है। जीवन और स्वास्थ्य के प्रति उसका विश्वास कमजोर पड़ने लगता है और सुख की उम्मीद खत्म हो जाती है। युवा चिकित्सक ने बीमारी तो पकड़ ली लेकिन उसका कोई भौतिक इलाज असंभव था। उसने राजा से कहा कि इलाज तभी संभव है जब राजा स्वयं ढूंढकर दवा लाए। उसने बताया कि आप किसी ऐसे आदमी की कमीज को एक दिन के लिए उधार मांगकर पहन लें जो दुनिया का सबसे सुखी आदमी हो। 

राजा ने भेस बदला और निकल पड़ा। वह बड़े से बड़े अमीर के दरवाजे पर गया और पूछा कि आप क्या सबसे सुखी आदमी हैं? अगर हैं तो कृपया एक दिन के लिए मुझे अपनी कमीज उधार दे दीजिये। हर कोई पहले तो मुस्कराता फिर थोड़ा गंभीर हो जाता क्योंकि राजा सचमुच जान लेना चाहता था कि क्या आप वास्तव में हर तरह से सुखी हैं? तब पता चलता कि सुखी दिखने वाला बिलकुल ही सुखी नहीं था। किसी का दुख था कि उसका व्यापार घाटे में चल रहा है। बैंक का कर्ज बढ़ रहा है। किसी का करोड़ों का शेयर डूब चुका था। किसी का बेटा नालायक हो गया था। गरज यह कि हर दिखाई पड़ने वाले सुख की चमड़ी हटाने पर दुख ही दुख निकले चले आते थे। लेकिन राजा भी हार मानने वाला नहीं था। वह चलता गया और एक दिन एक सिवान से गुजर रहा था। वहां एक आदमी उसे हल जोतता दिखाई पड़ा। वह बैलों को कुछ भी नहीं कह रहा था लेकिन बैल ऐसे चल रहे थे गोया रनवे पर हवाई जहाज चल रहा हो। वह आदमी कभी गा रहा था तो कभी हंस रहा था। राजा को कुतूहल हुआ। वह उसके पास गया और उसका हालचाल पूछने लगा। उस आदमी ने उसे बताया कि उसकी एक गाय बिसुक रही है, इसलिए अब घर में दूध नहीं है लेकिन कोई बात नहीं। दूसरी गाय गाभिन थी। उसके लड़के भी खेती करते हैं। बीवी भी घर का काम करती है। बड़ी मुश्किल से गुजारा होता है लेकिन कोई बात नहीं। जल्दी ही अगली फसल होगी तब सब कुछ ठीक हो जाएगा। राजा की आंखें उम्मीद से चमकने लगीं। उसने उस किसान से पूछा क्या आप दुनिया के सबसे सुखी आदमी हैं? बेशक! किसान ने हंसकर कहा। तब राजा ने उससे निवेदन किया कि क्या आप एक दिन के लिए अपनी कमीज मुझे उधार दे सकते हैं। किसान फिर से हंसा और ठठाकर हंसा – महोदय, एक दिन के लिए क्यों। मैं आपको हमेशा के लिए अपनी कमीज दे देता लेकिन क्या बताऊं। आप यकीन कीजिये। मेरे पास एक भी कमीज नहीं है। यह नगौछी और गमछा ही मेरे सारे आभूषण हैं। अगर आप चाहें तो इनमें से कोई एक दे सकता हूं!

राजा का क्या हुआ पता नहीं लेकिन मैं अभी भी नहीं समझ पा रहा हूं कि देश के हजारों फैशन डिजाइनरों द्वारा डिजाइन किए गए हजारों प्रकार के कपड़ों में से किसानों के पास कितने होंगे? 

ऐसा नहीं है कि यह केवल मैं सोच रहा हूँ कि किसानों के पास कमीज नहीं है। जिन दिनों मध्य प्रदेश के मंदसौर जिले में किसानों के प्रदर्शन पर राज्य सरकार ने गोली चलवाई थी और आधा दर्जन किसान मारे गए थे तो अपने बचाव में सरकार के मंत्रियों ने कहा था कि किसान जींस नहीं पहनते। जींस पहनने वाले किसान हो ही नहीं सकते। सरकार यह अच्छी तरह जानती है कि दिन-रात मेहनत करने वाले इतनी बदहाली में रहते हैं कि वे जींस खरीदने की कूव्वत नहीं रखते। हालांकि अमरीका और यूरोपीय देशों में जींस किसानों का ही पहनावा है लेकिन भारत में यह बड़ा फैशन ब्रांड बन चुका है। और काफी महंगा भी है। शायद इसीलिए मंत्री-विधायक जींस पहने लोगों को किसान नहीं मानते। 

झारखंड के गुमला जिले के बिशुनपुर प्रखंड के सखुआपानी गांव में जानवरों को घर ले जाता आदिवासी किसान (एफपी ऑन द रोड, 2016)

दरअसल, यह उनकी कोई ज्यादती है भी नहीं। यह समझ तो सत्ता की साधारण समझ है। बल्कि वे सदियों से बनी समझ और परंपरा का ही निर्वाह कर रहे हैं। क्या बड़े से बड़ा अध्येता यह कह सकता है कि यह झूठ है? क्या उसे कभी सुखी किसानों की कोई शृंखला इतिहास या साहित्य या जीवन में मिली जो सुखी हो? अब तो इस बात पर ठीक से सोच ही लेना चाहिए कि इस देश का किसान कैसा है और वह कितना सुखी है। क्या वह जींस और डिजायनर कपड़े पहन रहा है? इसके साथ ही इस पर भी सोच लेना चाहिए कि किसान जींस और डिजाइनर कपड़े क्यों नहीं पहन पा रहा है? जबकि इस देश में हजारों डिजाइनर लाखों किस्म के कपड़े हर साल डिजाइन कर रहे हैं। 

जैसा कि एक स्थायी वाक्य है – भारत एक कृषि प्रधान देश है। तो इसका मतलब केवल एक जुमला भर नहीं है। बल्कि यह वाक्य इस बात पर ज़ोर देने की कोशिश है कि कृषि क्षेत्र कितना व्यापक है। किसान एक व्यापक समूह है। भूमि का मालिक तो प्रत्यक्ष किसान है इसलिए उसके आधार पर वह सरकारी अथवा गैरसरकारी आंकड़ों में कृषि की मूलभूत इकाई मान लिया जाता है लेकिन अप्रत्यक्ष अथवा परोक्ष किसानों का एक विशाल समूह है जिनमें दलित, पिछड़ी, अल्पसंख्यकों और आदिवासियों के साथ-साथ विमुक्त जातियों के स्त्री-पुरुषों और बच्चों की बहुत बड़ी संख्या शामिल है। मजे की बात है कि सदियों से इस देश में एक कृषि पदानुक्रम लागू है और उसी क्रम से शोषण के तौर-तरीके भी काम में लिए जाते हैं लेकिन आज तक इसके बारे में कोई विचार नहीं हुआ। अगर आप इन परोक्ष किसानों के बारे में अपनी समझदारी दुरुस्त करना चाहें तो शायद आप समझ सकते हैं कि खेती की दुनिया जितनी व्यापक है, उतनी ही भयावह भी है। इसमें उधार और कर्ज की अंतहीन कहानियां बिखरी मिलेंगी। तब आपको सत्ताधारियों का यह कथन अतिरंजित नहीं लगेगा कि किसान जींस नहीं पहनते। वे एकदम सही कह रहे हैं – इस देश में जब देखिये तब किसान भूखा-नंगा ही हो सकता है। सच यही है कि बरसात में उसकी झोपड़ी चू रही होती है और जाड़े में वह ठिठुरता है। वह फटे-पुराने कपड़ों में ही अपनी इज्जत बचाने की कोशिश करता है। लंगोटी से जींस तक हजारों तरह की विडंबनाएं हैं। बस इतना फर्क है कि जींस कैमरे की निगाह में है और लंगोटी हर निगाह से ओझल है। बेशक जब सत्ताधारियों को जरूरत होती है तो वे लंगोटी को भी एक मानक बना देते हैं। 

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लेकिन बहुत से लोग किसानों के जींस पहनने से इत्तेफाक रखते हैं और वे किसानों की गरीबी और दमन के विरुद्ध सोचते हैं। उन्हें लगता है कि शेयर बाज़ार चाहे जितना उड़ ले लेकिन किसान ही वह व्यक्ति है जो सबके मुंह के लिए अन्न पैदा करता है। जनता का पेट वही भरता है। चाहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कितना भी बुलेट ट्रेन का सपना दिखायें लेकिन किसानों का स्थान कुछ भी नहीं ले सकता। भले ही मुकेश अंबानी भारत या दुनिया के सबसे बड़े अमीर हो जाएं लेकिन किसानों की जगह वह नहीं ले सकते। इस सच को मानने वाले अभी भी बहुत से लोग हैं। वे किसान आंदोलनों के हिमायती हैं और उनकी मांगों का समर्थन करते हैं। उनके बारे में लेख लिखते और मोर्चों में शामिल होते हैं। उनमें अभी संवेदना और अपराधबोध बचा हुआ है। वे आदमी होने की शर्तों को स्वीकारने का साहस रखते हैं। हालांकि बात थोड़ी और खुलनी चाहिए। 

किसानों के सवालों से सरोकार रखने वाले लोगों को थोड़ा आगे बढ़ना पड़ेगा। उन सारे लोगों के सवालों पर विचार करना पड़ेगा जो किसानी से परोक्ष रूप से जुड़े हुए हैं। यानि जो भूमि के मालिक नहीं हैं लेकिन जिनके दम पर ही खेती होती है। अन्यथा क्या होगा कि किसान ही संवेदना और चेतना के केंद्र में रहेगा और बाकी लोग बहिष्कृत भारत बने रहेंगे। यह समझने की जरूरत है कि बिना मानक तय किए हुये हर चीज घालमेल होती रहेगी। किसान भी खेतिहर मजदूरों का शोषक हैं, इस बात को समझना पड़ेगा। वह उनको न्यूनतम मजदूरी नहीं देता। जब भारत में नरेगा (और बाद में मनरेगा) शुरू हुआ तो यह बात सामने आई। न्यूनतम मजदूरी से वंचित खेतिहर मजदूर दूसरे इलाकों में गए। परिणाम यह हुआ कि खेती पिछड़ने लगी। मजदूरों के लिए लोगों के मन में विद्वेष पैदा होने लगा। किसान जब तक मजदूरों का शोषण कर सकता था तब तक उसकी खेती अव्वल थी लेकिन जैसे ही वह शोषण करने से वंचित हुआ, उसकी अर्थव्यवस्था फ्लॉप होने लगी। 

बहुत लंबा समय नहीं हुआ है जब खेतिहर मजदूरों पर जुल्म की ज़िंदा और थर्रा देने वाली कहानियों की इस देश में अंतहीन शृंखला चलती रहती थी। बिहार के जनसंहारों का इतिहास अपने भीतर कई ऐसी ही जटिलताओं को समेटे हुए है। वहां ज़मीनों के मालिकों में बहुत जातीय विविधता नहीं है। और ना ही ज़मीनों को उपजाऊ और हरा-भरा बनाने वालों में ही। अपवाद छोड़ दिया जाय तो सिद्धांततः जातियां वर्ग विभाजन की तरह हैं। बिहार का सवर्ण वहां का सामंत और बुर्जुआ वर्ग है और सैकड़ों दलित और पिछड़ी जातियां सर्वहारा। इसके बावजूद वहां कभी जातीय आधार पर जमीन के विशेषाधिकारों और सामाजिक उत्पीड़न के खिलाफ आवाज नहीं उठाई गई। ज़मीनों के समान बंटवारे का सवाल नहीं उठा। जबकि यह सवाल नदी, जंगल, पहाड़, गांव और शहर, सड़क, विधानसभा और संसद तक उठना चाहिए था। सिर्फ उठना ही नहीं चाहिए था बल्कि अब तक अपने अंजाम तक पहुंच जाना चाहिए था। इसके उलट हुआ यह कि बिहार आज खेतिहर मजदूरों के पलायन का सबसे बड़ा केंद्र है। बिहार के मजदूर हर जगह मिल जाएंगे लेकिन स्वयं बिहार में उनके लिए रोजगार ही नहीं है। पता नहीं ऐसे राज्य में नीतीश कुमार कौन सा सुशासन चला रहे हैं? फिलहाल चिकनी-चौड़ी सड़कों और राजमार्गों वाला तथा मानवीय और प्रकृतिक संसाधनों से भरपूर बिहार में तथाकथित निवेशक पैसा लगाने से डरते हैं क्योंकि उनको लगता है कि यहां स्थानीय दबंगों के चलते अपने उद्योग-धंधे नहीं चला पाएंगे। गौर करने की बात है कि वहां स्थानीय दबंग कौन हैं? जाहिर है ज़मीनों के मालिक लोग। क्या सुशासन चलानेवाला मुख्यमंत्री कभी ऐसे दबंगों की रीढ़ तोड़कर उन्हें इतना मजबूर कर देगा कि वे नए औद्योगिक या खेतिहर बिहार के निर्माण में अड़ंगा न डाल सकें। अथवा वह इनके चरणों में अपना सिर रखकर अपने शासनकाल तक उनकी रक्षा करता रहेगा? यही सवाल कम्युनिस्ट पार्टियों से भी पूछा जा सकता है कि उन्होंने ज़मीनों पर जातीय विशेषाधिकार, वर्चस्व और दलित उत्पीड़न के खिलाफ कोई आवाज क्यों नहीं उठाई? 

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उत्तर प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान की कहानियां बहुत अलग नहीं हैं। बल्कि सच तो यह है कि भारत के दूसरे राज्यों में किसानों और खेतिहर मजदूरों की कहानियां एक दूसरे से एकदम भिन्न नहीं हैं। इनके अंतरसंबंध भले ही बहुत गहरे हों लेकिन इनको देखने की दृष्टि में गहरा भेद है। दलित उत्पीड़न की सारी घटनाएं खेती पर वर्चस्व बनाए रखनेवाली जातियों के व्यवहार से होती हैं। चाहे मजदूरी बढ़ाने का सवाल हो या काम के समय को तय करने की मांग हो। सभी के खिलाफ जमीन का मालिक खड़ा होता मिलता है ताकि उसे कम से कम देकर अधिक से अधिक प्राप्त हो सके। इस प्रक्रिया में जरा भी बदलाव उसकी नज़र में अक्षम्य अपराध है और इस बदलाव के खिलाफ वह पूरी तरह हिंसक और क्रूर हो जाता है। अगर भू-बंदोबस्ती के हिसाब से देखा जाय तो किसान इन इलाकों में महज़ किसान नहीं हैं बल्कि शोषक और उत्पीड़क भी हैं। लेकिन जब किसान की फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य या उसके बकाए अथवा कर्जे की बात होती है तो यह किसान हमें निरीह नज़र आता है और बाकी सारी कहानियां दब जाती हैं। 

इससे भी भयानक बातें गुजरात और महाराष्ट्र जैसे सम्पन्न राज्यों में घटित होती हैं। इन राज्यों में बहुत बड़ी संख्या में घुमंतू और विमुक्त जातियां निवास करती हैं, जिनका जीवन पूरी तरह खेती और वनोपजों पर निर्भर है। लेकिन यहां उनके शोषण और उत्पीड़न के अलग आयाम हैं। किसान उन्हें बुवाई के समय काम देते हैं लेकिन कटाई के समय उनको खेतों के पास भी फटकने नहीं देते क्योंकि उन्हें इस बात का डर होता है कि ये लोग उनकी फसल चुरा ले जाएंगे। किसी गांव में स्थायी काम न होने के कारण ये लोग प्रायः एक जगह से दूसरी जगह जाने और खुले आसमान के नीचे रहने को मजबूर होते हैं। इनके शोषण और उत्पीड़न की कहानियों का कोई अंत नहीं है। ये लोग सत्ता-शासन से जुड़े लोगों के सबसे आसान शिकार तो हैं ही, समाज के प्राथमिक स्तर पर मौजूद लोग भी इनके खिलाफ सोचते और व्यवहार करते हैं। 

इस प्रकार हम देखते हैं कि किसान घुमन्तू और विमुक्त जनजातियों का शोषण करता है जिसका परिणाम यह होता है कि वे बाकी समाजों और प्रशासन की नज़रों में भी अविश्वासनीय बना रहता है। इसका सबसे हृदय-विदारक रूप यह होता है कि ऐसे लोग नए कपड़े भी नहीं पहन सकते। लोगों की निगाह में उनका नए कपड़े पहनने का मतलब कहीं न कहीं से चुराया हुआ होना है। पुलिस कपड़ों की खरीद की रसीद मांगती है और न दे पाने पर मारती-पीटती है और जेल में बंद करती है। 

दिल्ली-हरियाणा के सिंधु सीमा पर आंदोलनरत किसानों के लिए भोजन बनाते मुस्लिम समाज के लोग (फोटो : एफपी)

गुजरात की सात प्रतिशत दलित आबादी के पास एक प्रतिशत से भी कम भू-अधिकार है। लेकिन पूरी दलित आबादी का सत्तर प्रतिशत खेतिहर मजदूर है। घुमन्तू जनजातियों के पास तो बिलकुल भी जमीनें नहीं हैं। ऐसे ही और भी बहुत बड़ा समाज है जिसकी निर्भरता खेती पर है और जिनके बगैर खेती को हरा-भरा नहीं किया जा सकता लेकिन वे जमीन की मिल्कियत से बहुत दूर हैं। ऐसे लोग क्या जींस पहन सकते हैं। अगर सस्ती-मद्दी पहन भी लिया तो किसी मोर्चे में शामिल हो सकते हैं? उन्हें कौन किसान आंदोलन में बुलाएगा? इसलिए मुझे तो लगता है सत्ता-शासन के जो लोग कहते हैं कि जींस पहनने वाले किसान नहीं हो सकते तो यह गजब वाली बात नहीं है। वे किसानों के प्रति संवेदित ही कब रहे हैं? वे तो अधिकतम उस राजा के ही बौद्धिक वंशज हैं जो अपने लिए एक सुखी आदमी की कमीज खोजते हुये एक गरीब-दरिद्र किसान के पास आया और उसे कमीज विहीन पाकर लौट गया। तभी से उन्हें भरोसा हो गया है कि तन पर भले ही कमीज न रहे फिर भी किसान ही सबसे सुखी जीव है। 

असल में भारत में किसानों की पूरी आबादी एक पदानुक्रम के अनुसार मौजूद है। सबसे निचले स्तर पर सर्वहारा किसान हैं जिनकी श्रमशक्ति खरीदकर उन्हें इस हालात में छोड़ दिया जाता है जहां वे केवल विपन्नवत और नरकवत जीवन ही जी सकते हैं। वह समाज के सबसे विच्छिन्न और उपेक्षित हिस्से हैं और आंकड़ों में एक संख्या-समूह मात्र हैं। लेकिन ऊपर आप जितनी सीढ़ियां चढ़ते जाएंगे गुणात्मक रूप से किसानों की स्थिति क्रमशः बेहतर मिलती जाएगी। अंतिम सीढ़ी तक पहुंचते-पहुंचते आप पाएंगे कि किसान केवल किसान नहीं है बल्कि पेटी बुर्जुआ, कुलक और दलाल सबकुछ है। और छत पर रहने वाला तो विधाता है। उसके लिए उपज का होना न होना कोई मायने नहीं रखता क्योंकि उसके सामने विकल्पों की कमी नहीं है। जमीन का स्वामित्व, मुआवजा और व्यवसाय का विशाल क्षेत्र उनके लिए खुला है। खुली आंखों से देखिये तो भारत का किसान एक अबूझ पहेली जैसा लगेगा। वह भू-अधिकार के जिस पदानुक्रम पर मिलेगा वहां वह एक मॉडल जैसा दिखेगा। लगेगा कि भारतीय किसान ऐसा है लेकिन वैसा होगा नहीं। अगले पदानुक्रम पर दूसरा मॉडल नज़र आएगा और लेकिन वास्तव में ऐसा है नहीं। मॉडल बदलता रहेगा और एक स्तर पर समझदारी का रास्ता बंद हो जाता है। इस तरह बौद्धिक निष्कर्षों में भारी घालमेल हो जाता है। 

लेकिन अब संवेदना, चेतना, विचार और व्यवहार को थोड़ा आगे ले जाना पड़ेगा। हो सकता है इस क्रम में पुराने निष्कर्षों और अवधारणाओं की दीवार भरभरा कर गिर जाए लेकिन जाना पड़ेगा। और पुरानी, अप्रासंगिक और अधूरी दीवार तो गिरनी ही चाहिए। बल्कि उसे तो पूरी निर्ममता से गिरा डालना चाहिए। और इस बात पर सोचना चाहिए कि किसानों की समस्या वास्तव में केवल काश्तकार किसानों की समस्या है या पूरी तरह से कृषि की समस्या है? और इसका हल क्या कर्जमाफ़ी या कुछ अन्य सहूलियतों के हो जाने से हो जाएगा? न्यूनतम समर्थन मूल्य मिल जाने से बात बन जाएगी अथवा बात कहीं और भी फंसी हुई है? इसलिए थोड़ा धैर्य से मामले को समझना और सुलझाना चाहिए। सबसे पहले तो कर्ज का मामला ही ले लीजिये। लोग सोचते हैं कि किसान कर्जदार हैं लेकिन कर्ज के आंकड़े इसे झूठ बताते हैं। सरकार किसानों की कर्जदार है। किसानों के ऊपर चौदह लाख करोड़ का कर्ज बताया जाता है। लेकिन सरकार के ऊपर किसानों के बाइस लाख करोड़ निकलते हैं। अगर सरकार किसानों का बकाया काट भी ले लो किसानों के आठ लाख करोड़ निकलते ही निकलते हैं। लेकिन किसानों के सामने सरकार दिवालिया हो जाती है। इसके बरक्स देखिये कि सरकार ने कारपोरेट घरानों के आठ लाख करोड़ से अधिक का कर्ज माफ किया। न कुर्की का आदेश न नीलामी का बंदोबस्त सीधे-सीधे माफी। अब आप पूछ सकते हैं कि किसानों का चौदह लाख करोड़ तो सरकार कर्ज मान रही है और उनकी मेहनत की कमाई आठ लाख करोड़ भी डकारे बैठी है जबकि पूंजीपतियों को आठ लाख करोड़ की माफी दे दी। सवाल उठाना चाहिए कि फिर पूंजीपतियों ने सरकार को क्या दिया? उनकी कमाई कहां गई? जब सरकार को दिया ही नहीं और उनका पैसा देश के किसी काम ही नहीं आया तो फिर इतने बड़े-बड़े कारपाेरेट घराने इस देश में कर क्या रहे हैं? इस सवाल पर आपको सरकार और कारपोरेट गंठजोड़ पर विचार करना होगा। और इस संदर्भ में तथाकथित मध्यवर्गीय करदाता को अपनी समझ दुरुस्त करनी पड़ेगी कि उनके टैक्स से सरकार किसानों का नहीं पूंजीपतियों का भला करती है। संसदीय राजनीति का जो किसानविरोधी खेल चल रहा है वह ऐसे ही नहीं चल रहा है बल्कि षड्यंत्रकारी ढंग से चल रहा है। 

जहां षड्यंत्र होता है वहीं विडंबनाएं भी होती हैं। किसानों की कर्जमाफ़ी कभी भी एजेंडे का सवाल नहीं रहा है बल्कि इसे हमेशा चुनावी ढंग से हल किया जाता रहा है। इसलिए आप किसान की कर्जमाफ़ी के क्रूर मज़ाक को समझिए और उस तंत्र को भी समझिए जो अपनी खाता-बही को दुरुस्त करते हुये किसी की चवन्नी माफ करता है तो किसी की इकन्नी और डिजिटल इंडिया की जयजयकार करते हुये किसी के खाते में एक पैसे जमा कर कर्जमाफ़ी पाये किसानों के आंकड़े में एक संख्या बढ़ा लेता है। पिछले दिनों उत्तर प्रदेश और छत्तीसगढ़ से ऐसे आंकड़े और समाचार आए जो बताते थे कि कर्जमाफ़ी का फायदा उठानेवाले किसानों का भी एक तंत्र है जो कर्जमाफ़ी की प्रकृति को समझ चुका है और भविष्य का आकलन करते हुये अपना कर्ज नहीं चुकाता। अधिकतम ऐसे ही लोगों को कर्ज का फायदा मिलता है। बाकी लोग ठनठनगोपाल रह जाते हैं। उनके दिन शायद ही उस आर्थिक मौसम में पहुंचते हैं जब वे अपने लिए नयी कमीज के बारे में सोचें!

तो फिर घिसे-पिटे तरीकों से कोई राह नहीं निकलती और न निकल सकती है। सही हल के लिए नए रास्ते तलाशने होंगे। संरचनागत बड़ी मछली और छोटी मछली की अवधारणा को तोड़कर आगे बढ़ना होगा। और यह काम किसी सदाशयता से प्रेरित होकर किसान अथवा किसान समूह नहीं करने लगेंगे। बल्कि यह काम वृहत्तर सोच वाले संगठन ही कर सकते हैं। जरूरी नहीं कि किसान-आधार वाले पुराने संगठन ही ऐसा करें। नए संगठन भी बनाए जा सकते हैं। और वे पूरी तरह कामयाब भी हो सकते हैं बशर्ते अपने सिद्धांत-दर्शन और व्यवहार में वे स्पष्ट हों। अभी तक अस्तित्वमान और संघर्षरत पुराने किसान संगठन कतिपय स्तरों पर क्लासिक किसान संगठन जैसे हैं और उनका आधार-क्षेत्र अलग-अलग आर्थिक स्तरों के किसानों के बीच है। बेशक सीमांत, छोटे और मंझोले किसानों के बीच बहुत सारे संगठन काम कर रहे हैं, लेकिन संगठनों का दायरा बढ़ाना पड़ेगा। इतना विस्तृत कि उसमें भूमिहीन और घुमंतू खेतिहर मजदूरों की विशाल आबादी तो शामिल हो ही जाय, परोक्ष रूप से कृषि क्षेत्र से जुड़ी आबादी भी शामिल हो क्योंकि किसान समस्या सम्पूर्ण रूप से कृषि समस्या है और इस रूप में वह जीवन निर्वाह की सबसे बुनियादी समस्या है। वरिष्ठ पत्रकार पी. साईनाथ के शब्दों में कहूं तो ‘कृषि संकट अब केवल जमीन के नुकसान का आंकड़ा नहीं रह गया है। भारत का कृषि संकट अब खेती-किसानी से पार जा चुका है। अब यह समाज का संकट बन चुका है। संभव है कि यह सभ्यता का संकट हो जहां इस धरती पर छोटे किसानों और खेतिहर मजदूरों का सबसे बड़ा समूह अपनी आजीविका को बचाने की जंग लड़ रहा हो।’ 

ऐसी स्थिति में निपट किसानों का समूह न कोई बड़ा सवाल बन पाएगा और ना ही उनकी सांगठनिक ताकत बड़ी बन सकती है। इसके उदाहरण के रूप में कई घटनाएं हमारे सामने हैं। किसानों ने गांवबंदी आंदोलन किया लेकिन उसका प्रभाव बहुत सीमित रहा। किसानों ने दिल्ली में धरना दिया लेकिन निराश होकर लौटे। उन्होने मुंबई की पैदल यात्रा की लेकिन कोई हल नहीं निकला। हर दिन कुछ न कुछ हो रहा है लेकिन किसानों की समस्या का भूत कभी मर नहीं पा रहा है। इसका मतलब यही है कि कहीं न कहीं कुछ ऐसा है जो समस्या को जस का तस रहने दे रहा है। दिल्ली की सीमा पर लाठी-डंडे चलाए गए और नवंबर के आखिरी हफ्ते में बहुत बड़ा किसान सम्मेलन हुआ। अनेक पार्टियों ने हिस्सेदारी की। सैकड़ों किसान संगठन शामिल हुए। दर्जनों नेताओं ने किसानों की तरफदारी की। यह एक शानदार घटना है जिसने फेक न्यूज और माॅब लिंचिंग के दुर्दांत दौर में किसानों की ओर लोगों का ध्यान खींचा है। इसके बावजूद इस बात की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता कि इन मोर्चों को देखकर सरकारें किसानों को तात्कालिक राहत का आश्वासन और मौका लगते ही हर स्तर धोखा नहीं देंगी!

यहां बात परंपरागत समझ से थोड़े अलग तरीके से समझनी होगी जहां अनेक ‘महान’ विद्वान मानते हैं कि किसानी भारत में सामंती उत्पादन-पद्धति है और जब तक इसका विलय अगड़े औद्योगिक उत्पादन में नहीं होगा तब तक सर्वहाराओं की विशाल फौज नहीं बनेगी और बिना फौज के क्रांति नहीं होगी और बिना क्रांति हुए नई दुनिया बन ही नहीं सकती। लेकिन मुझे लगता है इस क्रांति से पहले भी कई क्रांतियां होंगी और उनमें से ही एक है कृषि सर्वहारा क्रांति। सामंतवाद भारत की कृषि-व्यवस्था और किसानों का वर्गशत्रु है। माना जाता है कि मजबूत पूंजीवाद सामंतवाद को ध्वस्त कर देता है लेकिन भारत में ऐसा नहीं हुआ। कुछ बदलते हुए बाजारू सांस्कृतिक व्यवहारों के आधार पर इस बात को खारिज नहीं किया जा सकता कि भारत में लंगड़ा पूंजीवाद है और उसने अपनी बैसाखी के रूप में सामंतवाद का चुनाव किया है। न केवल चुनाव किया है बल्कि उसे अपनी जरूरत के हिसाब से खाद-पानी देता है। और दोनों के गंठजोड़ ने भारतीय कृषि को बुरी तरह लूटा और चौपट किया। कृषि के साथ ही भारत की विशाल कार्यशील आबादी को पंगु ही नहीं बनाया है बल्कि प्रकृति और पर्यावरण को भी तहस-नहस किया है। और जब तक खेती से जुड़ी हुई सम्पूर्ण आबादी इसके खिलाफ एकजुट होकर नहीं लड़ेगी तब तक इनको परास्त नहीं किया जा सकता। सरकारें भी लगातार इन्हीं के पक्ष में काम कर रही हैं। स्पेशल इकोनॉमिक जोन (सेज) बनाने के लिए जमीन लेनी हो या फैक्ट्री के लिए या खदानों के लिए। सरकारों ने बेरहमी से खेती की ज़मीनें छीनी है और पूंजीपतियों के लिए सुविधाओं का अंबार खड़ा कर दिया है। जबकि किसानों को हर बार न्यूनतम समर्थन मूल्य और कर्जमाफ़ी का झुनझुना थमा दिया। उनके बकाए को चुनावी जुमला बना दिया और उनके आंदोलनों को मज़ाक बनाया, नोटिस नहीं लिया और फिर भी वे सड़क से संसद की ओर चले तो उनके आंदोलनों क्रूरता से कुचल दिया। जबकि सरकारों की ज़िम्मेदारी है कि वे किसानों को सुनें और उनकी मांगों को मानें। संसद की जवाबदेही है कि वह किसानों के मुद्दे पर प्राथमिकता से विचार करे। किसानों का ऐसा कोई भी अपराध नहीं है जिनके लिए उनपर लाठी और गोली बरसाई जाय। 

इन स्थितियों को देखते हुये यह जरूरी है कि ज़मीनों के समान बंटवारे का मुद्दा एक केंद्रीय मुद्दा बनाया जाय और भूमिहीन किसानों और खेतिहर मजदूरों को बराबर ज़मीनें दी जाए। बिना किसी मुआवजे के कुलक-किसानों की ज़मीनें ले ली जाएं और यह सुनिश्चित किया जाय ज़मीनों के फर्जी मालिकों के पास काश्त की ज़मीनें न रहें। सरकार मनरेगा के दायरे को विस्तृत करे और काम के दिनों को कम से कम दो सौ अस्सी दिन करे। लेकिन मनरेगा केवल गड्ढे खोदने की परियोजना नहीं होनी चाहिए बल्कि उसे कृषि-उत्पादन से जोड़े जाने की जरूरत है। आंकड़ेबाजी के खेल से बाहर आकर इसे जरूरी श्रमशक्ति में बदलना होगा जो खेती में लगे। विमुक्त और घुमन्तू जनजातियों के संबंध में कई संवैधानिक निर्णय लिए जाने पर बल दिया जाय जिनमें उनके रोजगार और रहवास की गारंटी तो हो ही, उनके प्रति बनी हुई नकारात्मक धारणाओं का उन्मूलन भी हो। सरकारें इन सवालों से बचती रही हैं कि उन्होने ऐसे समुदायों के लिए क्या किया है और अब भी वे भाग ही रही हैं लेकिन यह किसान आंदोलन का बुनियादी मुद्दा होना चाहिए। 

कृषि-क्षेत्र में महिलाओं के श्रम समायोजन की अभी दो ही स्थितियां हैं। एक तो भूमिहीन महिलाएं खेतिहर मजदूर के रूप में काम करती हैं जिन्हें न्यूनतम मजदूरी अभी भी दूर की कौड़ी है। दूसरे काश्तकार किसानों के घरों की महिलाएं पारिवारिक दायित्व मानकर खेती में दिन-रात लगी रहती हैं और उनके पारिश्रमिक को परिवार की सम्मिलित आय मान लिया जाता है। इस तरह उनकी निजी आय कुछ नहीं होती और स्थिति बंधुआ मजदूर की बनी रहती है। गजब नहीं कि ऐसी पारिवारिक संरचना में अपने निजी अधिकार, सहूलियत और आराम की मांग करने पर महिलाएं घरेलू हिंसा की शिकार होती हैं। इन सवालों को भी केंद्र में रखा जाना चाहिए। बिना इसके व्यापक किसान एकता नहीं बनेगी। मुट्ठी भर किसान आंदोलन करेंगे और बदले में वे सरकारी धोखे का शिकार बनेंगे। अगर उपरोक्त मुद्दों को किसान आंदोलन से जोड़ा जाय तो देश की लगभग साठ फीसदी आबादी किसान आंदोलन की ताकत बनेगी। 

अब जरूरी यह है कि किसान संगठन पूंजी के वर्चस्व के खिलाफ किसानों को आगे ले चलें । किसान की सबसे बड़ी हार वहीं शुरू हो जाती है जहां वह बाज़ार के दो तरफा हमले का शिकार होने लगता है। बीज, खाद, खेती के औज़ार से लेकर कीटनाशक तक सबकुछ उसे मुनाफाखोर बाज़ार द्वारा निर्धारित मूल्य पर खरीदना होता है। लेकिन इससे भी बड़ी त्रासदी यह है अपनी उपज को भी वह बाज़ार द्वारा तय किए औने-पौने दामों पर बेचने को अभिशप्त होता है। इसीलिए किसान हर समय न्यूनतम समर्थन मूल्य का मुखापेक्षी है। बाज़ार का निर्मम व्यवहार उसे कर्ज के दलदल में धकेलता है तो न्यूनतम समर्थन मूल्य भी उसका मनोबल तोड़ता है। इसके पीछे कृषि उपज रखने के लिए सरकार की सुनियोजित पॉलिसी न होना है। सरकार ने इस काम को पूरी तरह जमाखोरी व्यवस्था के भरोसे छोड़ दिया है। कृषि-उपज मंडियां, वेयर हाउस आदि निजी प्रबंधन में हैं और अब भारतीय खाद्य निगम को निजी हाथों में देने की तैयारी है। इस तरह किसानों के ऊपर एक निर्मम मुनाफाखोर व्यवस्था लाद दिया है। किसान आंदोलन के सामने इससे लड़ने और जीतने का बड़ा कार्यभार है। और असल संघर्ष तो इसके आगे का है। 

सदियों से किसानों को इतना मजबूर किया गया है कि वह बिना कमीज के भी गाता हुआ कृषि कार्य में लगा है। उसे कमीना और कायर तक बना दिया गया है। फकीर मोहन सेनापति हों या प्रेमचंद या रेणु या कथाकार-इतिहासकार सुभाष चंद्र कुशवाहा जैसे अद्यतन अध्येता हों, सभी के पास ऐसे ही किसानों की शिनाख्त है। बात चाहे कहानी में हो चाहे इतिहास में ज़िंदगी की सच्चाइयां एक हैं। इसीलिए तो राजा को किसान की कमीज की दरकार है और सत्ताओं को उसकी लंगोटी की!

(संपादन : नवल/अनिल)


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रामजी यादव

रामजी यादव एक राजनितिक कार्यकर्ता के रूप में विभिन्न संगठनों में सक्रिय रहे हैं। उन्होंने कानपुर के मिल मज़दूरों और रेलवे कर्मचारियों को संगठित करने में भी भूमिका निभाई। उन्होंने 100 से अधिक वृत्तचित्रों का निर्माण और निर्देशन भी किया है। उनके प्रमुख वृत्तचित्र हैं 'गाँव का आदमी', 'पैर अभी थके नहीं', 'एक औरत की अपनी कसम', 'यादें', 'समय की शिला पर', 'कालनदी को पार करते हुए', 'विकल्प की खोज', 'वह समाज जो जनता का है', 'जलसत्ता', 'द कास्ट मैटर्स', और 'इस शहर में एक नदी थी' आदि। उनकी प्रकाशित कृतियाँ हैं, 'अम्बेडकर होटल', 'खेलने के दिन', 'भारतीय लोकतंत्र' और 'दलित सवाल', 'भारतेंदु', 'ज्योतिबा फुले', 'गिजुभाई', 'रामचंद्र शुक्ल', 'आंबेडकर संचयन'। इन दिनों वे ‘गांव के लोग’ त्रैमासिक का संपादक कर रहे हैं।

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