बहस-तलब
इधर के वर्षों में विचार का उत्प्रेरक बिन्दु समाज का अंतिम मनुष्य नहीं रहा। वंचित और उत्पीड़ित मनुष्य नहीं रहा बल्कि स्टेब्लिशमेंट और उस पर काबिज लोग हो गए हैं। अधिक से अधिक उस मध्यमवर्ग से यह उत्प्रेरणा निकलती है जो इस स्टेबलिशमेंट में या तो शामिल है या इसका उपभोक्ता है। अब समाज का अंतिम व्यक्ति या तो प्राकृतिक विभीषिकाओं का शिकार होने के बाद या दुर्घटनाओं में मारे जाने के बाद याद आता है या चुनावी रैलियों में भीड़ की ज़रुरत पड़ने पर। जबकि अमीरी एक विमर्श है। टाइम मैगज़ीन या फ़ोर्ब्स की सूची में अम्बानी या अडाणी के किसी एक पायदान पर आ जाने पर देश का मीडिया और मध्यवर्ग गर्व से फूल जाता है लेकिन भूखमरी, बेरोजगारी और उत्पीड़न की शिकार जनता पर उसे अब शर्म नहीं आती। यह वास्तव में एक वर्ग-विभाजन है जो इस बात की ओर संकेत करता है कि मालिक-वर्ग और उसकी कोख से पैदा हुआ मध्यवर्ग अब अपने दृष्टिकोण और विचारों की तोप से जनसाधारण या वंचित व्यक्तियों और समाजों को बड़े कौशल और बेरहमी से ध्वस्त करने में लगा है। उनकी धारणाएं बिल्कुल पुख्ता और रणनीति बिलकुल तय है कि जो भी समाज या वर्ग हमारे औचित्य को सवाल के घेरे में खड़ा करे, उसे बदनाम और नष्ट कर देना चाहिए। अब वे जितनी सहानुभूति गाय, कुत्ते और मोर आदि से रखते हैं उसका सहस्रांश भी मेहनतकश वर्ग के साथ नहीं रखते। उजाड़े जा रहे लोगों से उसको कोई सहानुभूति नहीं होती। सेना, अर्द्धसैनिक बलों और पुलिस के उत्पीड़ितों के प्रति उनकी कोई सहानुभूति नहीं होती। इसलिए हमारे सामने धार्मिक कट्टरता, उन्माद और आतंकवाद से लेकर जन-विक्षोभ और नक्सलवाद तक सब एक ही चीज बनाकर पेश की जाती है। और सबके सफाए के लिए एक ही हथियार का इस्तेमाल किया जाता है – बन्दूक के बल पर दमन। इसी तरह फंडामेंटलिज्म के नाम पर दुर्भाग्य से हमारे देश में जिस धार्मिक कट्टरता और उन्माद की आलोचना की जाती है वह एकतरफा है। लेकिन इस्लामिक फंडामेंटलिज्म की ही तरह हिन्दू फंडामेंटलिज्म की आलोचना नहीं होती, जो हमारे लिए सबसे खतरनाक है।
ऐसे में एक मुख्यधारा रेखांकित करना और सबको उसमें शामिल करना एक सदिच्छा तो हो सकती है लेकिन वह केवल भावुक सदिच्छा ही है। जब तक स्थितियों की सही समझ और जनता के सही हालात का ज्ञान नहीं होगा तब तक न सही आलोचना पैदा होगी और न ही किसी मुख्यधारा की परिकल्पना वास्तविक होगी। सभी धर्मों का एक रूढिवादी पहलू होता है और दूसरा उदार पक्ष होता है। रूढिवादी पक्ष अत्यंत शुद्धतावादी और कट्टर होता है जबकि उदार पक्ष काफी जनोन्मुखी दिखाई देता है। हालांकि उसके भी निहितार्थ कम खतरनाक नहीं हैं। लेकिन हमें यह जान लेना चाहिए कि यह कट्टरता और उदारता किसके लिए है? उदाहरण के लिए हिन्दू रूढिवादिता को देखिए। इसका कट्टर पक्ष क्या है? सदियों पहले, जब इस्लाम का उदय नहीं हुआ था, हिन्दू धर्म में वर्ण-व्यवस्था और जाति का विकास हो चुका था। ब्राह्मण अपने को सबसे शुद्ध, सबसे ऊंचा और सबसे महत्वपूर्ण – ब्रह्मा के सिर या मुख से पैदा हुआ और ज्ञान का प्रतीक साबित कर चुका था। ज्ञान और मंत्र पर केवल ब्राह्मण का एकाधिकार था। तथाकथित स्वर्ग भी ब्राह्मण का था और वही ब्रह्मर्षि हो सकता था। विश्वामित्र सिर पटक-पटककर मर गए लेकिन ब्राह्मणों ने न उनके भेजे नहुष को सदेह स्वर्ग जाने दिया और ना ही उन्हें ब्रह्मर्षि स्वीकार किया। इसका अर्थ है, स्वर्ग, भले ही वह काल्पनिक हो, पर ब्राह्मण अपना एकाधिपत्य रखते थे। यह विचार कितनी कट्टरता से लागू किया गया था इसका उदाहरण हमें मनुस्मृति जैसी पुस्तकों में मिलता है, जिसे कतिपय ब्राह्मण आज भी भारत के संविधान से अधिक महत्व देते हैं। यहां तक कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी भारतीय संविधान को नहीं मानता लेकिन मनुस्मृति को मानता है। उस मनुस्मृति में स्पष्ट आदेशित था कि यदि भूल से भी शूद्र के कान में मंत्र पड़ जाए तो उसके कान में पिघला हुआ सीसा डाल देना चाहिए। शूद्र तपस्या न करे या महान धनुर्धर न बन सके यह मंतव्य रामायण में शम्बूक और महाभारत में एकलव्य के रूप में देखा जा सकता है। स्त्रियों के प्रति रवैये में भी इसे देख लीजिए। ऐसी कट्टरता की सूची और भी लम्बी हो सकती है लेकिन मुख्य बात यह है कि हिन्दू धर्म की नींव ही शूद्रों के श्रम की बेतहाशा लूट, असमानता और अन्याय की जमीन पर खड़ी है। इस नींव की पुख्तगी के लिए लाखों कपोल-कल्पित कहानियां और मिथक गढ़े गए। लोग इन सबका रहस्य जान न जाएं इसलिए तथाकथित विश्व गुरु ब्राह्मण ने शूद्रों को शिक्षा से हर हाल में दूर रखने की कोशिश की। शूद्र की शिक्षा को लेकर ब्राह्मणवादी कट्टरता को आज भी देखा जा सकता है। इस प्रकार हिन्दू फंडामेंटलिज्म को हम देखते हैं कि वह जातीय सोपानों पर मौजूद समुदायों को अलग-अलग स्तर के अधिकार देता है लेकिन सबसे निचले पायदान पर मौजूद शूद्र को सब तरफ से वंचना और नफरत का केंद्र बनाता है। दीगर धर्मों में भी जातिवाद और कुलीनता के अवशेष दिखते हैं लेकिन वे हिन्दू धर्म से अधिक खतरनाक कभी नहीं रहे। वे कभी भी दैहिक, दैविक और भौतिक प्रताड़नाएं देकर अपने ही धर्म के सबसे बुनियादी और श्रमशील हिस्सों का अपरिमित शोषण नहीं करते। पिछले दिनों जाट सिक्खों ने लुधियाना के पास फगवाड़ा में दलित सिखों का रास्ता रोक दिया। लन्दन में एक दलित ग्रंन्थी को गोली मार दी गयी और अनेक दूसरे प्रकार से प्रताड़ित किये गए। इसके पीछे कारण यह है कि सिक्ख धर्म की जड़ें हिंदू जातिवाद से अभी भी नाभिनालबद्ध है। मैं भी अनेक उदाहरणों का भुक्तभोगी हूं। सच तो यह है कि गुरु घर में एक ही लंगर में छकने के बावजूद गुरुओं की जाति का विवरण हर गुरूद्वारे में सीसे में मढ़ा हुआ मिल जाएगा। भले ही ग्रन्थ साहिब में रैदास, कबीर, दादू, तुकाराम और चोखामेला की वाणियां संग्रहित हों लेकिन सिख धर्म के सारे महान तथाकथित कुलीन अथवा ऊंची जातियों से आते हैं।
धर्म के उदार और मानवीय पक्षों का मसला भी घालमेलपूर्ण है। धर्मों ने वर्ग-विभाजन की खाई को इस प्रकार झुठलाया है कि उसके मानवीय और प्रगतिशील पक्ष हमेशा संदिग्ध बने रहे। भारत में दंगों के समय भाईचारे के लिए भले ही कहा जाता रहा हो कि ‘मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना’, लेकिन क्या दंगे कभी गैर-धार्मिक भी हुए हैं। धर्म के प्रति वाम राजनीति में जो उदासीनता देखने को मिलती है, उसके कई कारण हैं। एक तो वाम राजनीति के शिखर-पुरुष हमेशा ब्राह्मण या दूसरी सवर्ण जातियों के लोग रहे हैं। चूंकि वे अपने धर्मों की सम्मानित और ऊंची जातियों से आते थे, इसलिए प्रगतिशील तो हो जाते थे क्योंकि यह आसान था। लेकिन सच्चे आलोचक या नेता नहीं हो पाते थे क्योंकि उनकी दृष्टि जहां तक जाती थी, सब बढ़िया दिखता था। उन्हें उस गुलामी, अपमान या पीड़ा का कभी अहसास ही नहीं रहा जो शूद्र को सहज था। वे सामाजिक रूप से हिकारत और वंचना के कभी शिकार नहीं रहे और ना ही कभी मनुष्यता के लिए सच्चे अर्थों में संवेदनशील रहे इसलिए वे धर्मों के बोझ तले कराहती जनता के दुःख-दर्द को नहीं समझ पाए और मार्क्स के उस मूलमंत्र को महज़ एक जुमले की तरह इस्तेमाल करते रहे कि धर्म जनता के लिए अफीम की तरह है लेकिन इस अफीम के दुष्प्रभावों को काटने के लिए कोई रणनीति नहीं बना पाए और धीरे-धीरे जनता के बीच से विलुप्त होते चले गए।
यह बात आज इसलिए भी बार-बार जांचने की जरूरत है कि क्या कम्युनिस्टों के सर्वहारा, शूद्रों से अलग हैं? अगर हैं तो शूद्र अपनी मुक्ति का मार्ग कम्युनिज्म में क्यों खोजें? और अगर कम्युनिज्म के नेता शूद्रों की आकाँक्षाओं और आवश्यकताओं के अनुरूप उन्हें दैविक गुलामी से मुक्त करने के लिए धर्म की इस अफीम को जड़ों से उखाड़कर नहीं फेंकते तो उन्हें सर्वहारा का नेता कहलाने का क्या हक़ है?
हर धर्म अपने जन्म से ही कुछ खास नियमों को लेकर चलता है और ये नियम आलोचना और संदेह से परे बताए जाते रहे हैं। बुद्ध कहते थे कि अगर मेरी बात से सहमत न हो तो उसे मत मानना। हिन्दू धर्म में बहुदेववाद की स्वीकृतियां देखकर लगता है कि इसमें कभी कोई तर्क रहा ही नहीं है। वेदों के प्रति कट्टरता का आलम यह था कि कान में सीसा ही डालने का प्रावधान था। लेकिन हिन्दू धर्म में कट्टरता का सबसे खतरनाक रूप है वर्ण और जाति-व्यवस्था। और इन बातों को आजीवन स्वीकारते चले जाना। इस्लाम में शंका या प्रश्न के लिए कोई गुंजाइश ही नहीं है बल्कि पैगम्बर के ऊपर अंधविश्वास ही मुसलमान की सच्चाई की पराकाष्ठा है। ईसाइयों और सिक्खों में भी अपने-अपने ढंग की कट्टरता है लेकिन केवल हिन्दू धर्म में ही इस कट्टरता का इस्तेमाल अपने ही धर्म के लोगों से नफरत करने में होता है। वर्ण और जाति के वर्चस्व को कायम रखने और अपने अन्यायों को जारी रखने के लिए इस कट्टरता का वीभत्स इस्तेमाल किया जाता है। जब तक इन चीजों की आलोचना नहीं होगी और इन्हें ख़त्म नहीं किया जाएगा तब तक धर्म सभी के लिए हैं और सबके मान-सम्मान की रक्षा करते हैं यह कहना हास्यास्पद होगा।
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शूद्रों की सामाजिक स्थिति जैसी है और जिस तरह का विद्वेषपूर्ण विचार उनके खिलाफ वर्णवादी-जातिवादी समाज ने लगातार फैलाया है उससे शूद्रों ने अपनी धार्मिकता को लगातार बनाए रखा। उनकी धार्मिकता का इस्तेमाल करके फासीवादी ताकतों ने सत्ता हथिया ली। लेकिन दुर्भाग्य की बात यह है कि भारत में सांप्रदायिक मानसिकता वाले लोग जनसाधारण के बीच भारतीय मुसलमानों को आईएस का समर्थक प्रचारित कर रहे हैं। यह प्रचार बहुत खतरनाक है और देश के सबसे श्रमशील हिस्से के प्रति अविश्वास पैदा करने का घृणित अपराध है जो उस अमेरिकापरस्ती का ही एक सबूत है जिसने पहले आतंकवाद को पाला-पोसा और फिर उसके खिलाफ लड़ाई छेड़ी। वास्तव में यह एक विकृत मानसिकता का सबूत है कि किसी समुदाय या धर्म को किसी विशेष अपराध अथवा निर्योग्यता से जोड़ दिया जाय। लेकिन इस समय तेजी से यही सब हो रहा है। क्योंकि अमेरिका ने अपने तमाम प्रच्छन्न हितों के साथ दुनिया में यह प्रचारित करने में कामयाबी हासिल कर ली है कि इस्लाम ही आतंकवाद का जन्मदाता है। इसका अर्थ केवल यह है कि मीडिया का विध्वंसक इस्तेमाल करके हत्यारा और षड्यंत्रकारी ही दूसरे लोगों को हत्यारा और षड्यंत्रकारी घोषित और साबित कर रहा है। भारत में इस प्रचार का फायदा उन्हें मिला है जो शूद्रों की आज़ादी के खिलाफ लगातार काम करते रहे हैं।
असहिष्णुता भारत में कभी कम नहीं थी और इसके पीछे सबसे बड़ा कारण बने-बनाये और थोपे गए विचारों के खिलाफ किसी तर्क का न सुना जाना है। स्त्रियों और शूद्रों के प्रति ब्राह्मणवादी व्यवस्था और पितृसत्ता ने जो धारणाएं बना दीं उनसे बाहर जाने को कभी बर्दाश्त नहीं किया गया। शूद्र सेवा करें और चुपचाप सहें। महिलाएं बच्चा पैदा करें और घर में खप जाएं। इसीलिए भारत में हनुमान मंदिरों की बहुतायत है क्योंकि शक्ति में विराट लेकिन विवेकशून्य सेवक ब्राह्मणवादी व्यवस्था में सबसे महत्वपूर्ण है। मालिक के नाम पर वह जिसके बगीचे का फल खाये उसको तहस-नहस भी कर दे तो ऐसा सेवक सबसे अधिक प्रिय होगा। वह बल-बुद्धि-विद्या देते हुए क्लेश-विकार हरने वाला होता है क्योंकि वह श्रमिक और कामगार है और ब्राह्मणवादी व्यवस्था कर्मठ लोगों की नहीं बल्कि परजीवी और धूर्त लोगों की व्यवस्था है। उसे ऐसे नौकर चाहिए जो तन से इतने बलशाली हों कि कूदकर समुद्र पार कर दें। पहाड़ उखाड़ लें और मालिक की स्त्री को मां मानें जबकि सुरसा आदि को लात से मारें। ऐसे नौकरों का गुणगान सदियों से होता आया है।
ठीक इसी तरह पितृसत्तात्मक व्यवस्था में मां की पूजा होती है क्योंकि एक स्त्री अपने को खपा कर बच्चों को पालती है लेकिन समाज की बाकी स्त्रियां बलात्कार और तिरस्कार झेलने के लिए हैं। बहुत सारी पत्नियां रखना और हिन्दू समाजों में बलात्कार की घटनाओं की बाढ़ का आना इसका एक बड़ा उदाहरण है। कौन नहीं जानता कि पितृसत्ता में स्त्रियों की आज़ादी किस तरह ख़त्म की जाती है। इसीलिए पितृसत्ता के समर्थक भारत को मां मानते हैं। भारत माता! लेकिन वे भारत की सही-सही सीमा और वहां की जनता के दुःख-दर्द से कभी कोई वास्ता नहीं रखते। कितनी विचित्र बात है कि जिन लोगों ने भारत को माता का दर्जा दिया है, उन्होंने कभी इस देश में कोई बुनियादी श्रम नहीं किया। न कभी खेती की और ना ही पशुपालन किया। न ही इमारतें बनाई न रेल लाइन बनायीं और ना ही पुलों का निर्माण किया। बल्कि इन सबकी ठेकेदारी की और श्रमशक्ति को जी भर लूटा। वे लोग जो परजीवी, धूर्त और अपराधी हैं और मानवीय भावनाओं से शून्य हैं, वे भारत को मां कहते हैं और मेहनतकश का खून पीते हैं। भारत में असहिष्णुता का इतिहास बहुत पुराना है। स्कूलों में अध्यापक शूद्र से कहता है कि गाय-भेड़ पालने, जूता सीने, गोबर फेंकने, घास छीलने की जगह पढाई करने क्यों आ गए। घर में पुरुष स्त्रियों से कहता है चींटी को पर निकल आये हैं। बहुत गर्मी चढ़ी है तो ठंडी कर दूंगा। चुपचाप घर में रहो। बहुत बड़ी इंदिरा गाँधी मत बनो। और भी हज़ार ताड़नाएं हैं। यह सहिष्णुता आज किनके खिलाफ काम कर रही है? शूद्रों और स्त्रियों के। उन लोगों, लेखकों और विचारकों के जो शूद्रों और स्त्रियों के पक्ष में खड़े हैं और जो ब्राहमणवाद और पितृसत्ता के सामने चुनौती खड़ी कर रहे हैं। जो अंधविश्वास, पुनर्जन्म और पाखंड के खिलाफ खड़े हैं। नरेन्द्र दाभोलकर, गोविन्द पंसारे, कलबुर्गी और गौरी लंकेश तो केवल कुछ नाम हैं। लेकिन जितने लोग ख़ामोशी से मारे गए उनकी कोई गिनती नहीं है।
आज संसद भारतीय बुर्जुआ के सामने पंगु है। हर विश्वविद्यालय में रोहित वेमुला बनाने पर आमादा नरेंद्र मोदी व उनके सहयोगियों ने हर वाजिब आवाज को अपने विरुद्ध मानकर छात्रों के खिलाफ उत्पीड़न का एक सिलसिला शुरू कर दिया है। हैदराबाद से शुरू हुआ यह सिलसिला दिल्ली, पटना, बनारस हर जगह चल रहा है। लगता है सारे विश्वविद्यालय आरएसएस और भाजपा की बपौती है। सोचिए कि जो लोग आधुनिक शिक्षा और संविधान के खिलाफ सोचते हैं वे ही वैज्ञानिक शिक्षा के केन्द्रों पर काबिज होना चाहते हैं। अनेक तरह की फ़र्जी वीडियोग्राफी करते हुए ज़रख़रीद गुंडों और अपराधियों के माध्यम से देशविरोधी नारे लगवाते बदनाम करते तथा स्वयं को परम देशभक्त साबित करते हुए नरेंद्र मोदी व उनका दल विद्यार्थियों को उत्पीड़ित कर रहा है और जेलों में भर रहा है। यह सब असहिष्णुता का सत्तात्मक रूप है। इसका मतलब है जो यथास्थिति का विरोध करेगा, जो अन्यायपूर्ण कार्रवाइयों की खिलाफत करेगा वह असहिष्णुता का शिकार होगा, लेकिन न्याय और समानता का संघर्ष ख़त्म नहीं होगा।
जहां तक लेखकों/बुद्धिजीवियों की प्रासंगिकता की शिकायत है कि उनकी भूमिका को ख़ारिज किया जा रहा है तो यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि किन बुद्धिजीवियों की? यह एक ऐतिहासिक सच्चाई है कि हर दौर में और हमेशा अनेक तरह के बुद्धिजीवियों की मौजूदगी रही है। एक वे जो सत्ता के प्रति अनुकूलन पैदा करते हैं। कुछ बातों से कुपित रहते हैं लेकिन सांस्थानिक पदों का आनंद लेते हुए सत्ता-विमर्श को जनता-विमर्श बनाने का काम करते हैं। दूसरे वे जो सत्ता से बाहर होते हैं और उनकी आलोचना की तोप का मुंह सत्ता की ओर होता है। वे कुछ खास मुद्दों पर बहुत खास तरह से बोलते हैं और लोगों को लगता है कि जीवन खतरे में हैं। अक्सर ऐसे लोगों को सत्ता कुछ लाभ देकर अपनी ओर मिला लेती है और वे सत्ता का गुण गाकर अपनी भूल को सुधारते हैं। अनेक बुद्धिजीवी ऐसे होते हैं जो सत्ता से पर्याप्त दूरी बनाए रखते हैं और कुछ विशेष करना चाहते हैं। वे अपने अन्दर घुटन महसूस करते हैं और विद्रोह करना चाहते हैं लेकिन दुर्भाग्य से वे बहुत ऊपरी परत को ही खुल्हेर पाते हैं और उसी को बड़ी बात और उपलब्धि मानते हैं। ढेरों बुद्धिजीवी शिक्षा संस्थानों, न्यायालयों और सांस्कृतिक संस्थाओं में शास्त्रीयतापूर्ण ढंग से बुद्धि-विमर्श करते हैं। कुछ बुद्धिजीवी सनसनीखेज होते हैं। वे मानते हैं कि उन्होंने जो सच खोजा है वह अभूतपूर्व है। इसलिए वे अपने इस काम को अच्छी तरह इनाम-इकराम के लायक बना देते हैं। अख़बारों में खबर और मंचों पर माला के आकांक्षी बुद्धिजीवी हर दौर में मिल जाते हैं और मैं मानता हूं कि वे वस्तुतः अपने दौर के आनंद-प्रहरी होते हैं जो लोगों से बताते हैं कि सब कुछ विकसित है। आप में सामर्थ्य हो तो उसे तोड़ लीजिये। मुझे लगता है ऐसे बुद्धिजीवी सत्ताओं द्वारा प्रासंगिक और समय आने पर अप्रासंगिक भी बना दिए जाते हैं। जब इनकी भूमिका ही रेगुलेटेड है तो कितनी महत्वपूर्ण होगी यह सत्ता की सदाशयता पर ही तय है।
लेकिन कुछ बुद्धिजीवी ऐसे होते हैं जो सत्ताओं को पैदा करने वाली और उनके टिकने का आधार देने वाली व्यवस्था की नब्ज़ को पहचानते हैं। सम्पूर्ण सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक संरचना को जानने की कोशिश करते हैं। राजनीति के बुनियादी घटकों को समझने की कोशिश करते हैं। वे धर्म की, जाति की, लिंग की, नस्ल की, क्षेत्र की और रंग की राजनीति को समझते हैं। उनके सामने उत्पीड़ित वर्गों के इतिहास का नक्शा होता है और वे न केवल अपनी विधाओं की सम्यक पहचान करते हैं बल्कि यथार्थ और कला, विमर्श और कर्म का उचित विकास करने का प्रयास करते हैं। वे उपेक्षा, अप्रासंगिकता और बहिष्कार के खतरे उठाते हैं और अपनी भूमिका को अधिक समकालीन बनाते जाते हैं। ऐसे बुद्धिजीवियों को सत्ता कभी पसंद नहीं करती। वह उन पर हमलावर होती है। उन्हें जेलों में डालती है। बदनाम करती है। मारती है। लेकिन सही मायने में उनसे सबसे अधिक डरती है। ऐसे बुद्धिजीवियों की दुनिया में बहुत पुरानी और विराट परंपरा है। सुकरात को जहर पीना पड़ा। बुद्ध को बदनाम किया गया। चार्वाक का सारा साहित्य ही प्रक्षिप्त कर दिया गया। मार्क्स को सारा जीवन गरीबी में गुजारना पड़ा। डॉ. आंबेडकर तो सवर्णों की नज़र में अंग्रेजों के पिट्ठू और देश के गद्दार ही थे। उदाहरणों पर पूरी पुस्तक लिखी जा सकती है लेकिन यह सवाल फिर भी बना ही रहेगा कि क्यों बुद्धिजीवियों की भूमिका कम हो रही है और किन बुद्धिजीवियों की? तब यह साफ़ साफ़ दिखाई पड़ेगा असल में बुद्धिजीवी की भूमिका बढ़ी है। जिन बुद्धिजीवियों को ख़ारिज किया जा रहा है वे निश्चय ही अप्रासंगिक हो चुके हैं। बहुत नामचीन हो जाने और हर जगह पूज्य हो जाने से कोई बुद्धिजीवी प्रासंगिक और समकालीन नहीं हो जाता बल्कि उसे अपने कृतित्व से साबित करना होता है कि वह वास्तव में किन समाजों और जनता का प्रतिनिधि है। भले ही कोई कम चर्चित रहे या लोगों का बहिष्कार झेले लेकिन अगर बुद्धिजीवी समकालीन होगा तो अपने दौर की सही व्याख्या करेगा ही और इसी में उसकी अर्थवत्ता है। सत्ता हमेशा अपने लिए एक बुद्धिजीवी वर्ग पैदा भी करती है जो उसकी आकांक्षाओं को आगे ले जाते हैं लेकिन सच्चा बुद्धिजीवी जमीन में धंसकर भी अपने दौर की आवाज बनता है!
(संपादन : नवल/अमरीश)
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