भारत सरकार अखिल भारतीय कोटे के तहत राज्यों के अधीन मेडिकल कालेजों व संस्थानों में स्नातक व परास्नातक कोर्सों में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के अभ्यर्थियों को आरक्षण से अगले शैक्षणिक सत्र यानी 2021-2022 में भी वंचित रखने का खेल चल रहा है। यह हालत तब है जबकि इसके संदर्भ में मद्रास हाईकोर्ट के न्यायादेश के उपरांत भारत सरकार द्वारा गठित विशेषज्ञ कमेटी ने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी है।
पहले सरकार की ओर से कहा गया था कि सरकार रिपोर्ट आने के बाद इसे लागू करेगी। लेकिन अब सरकार कह रही है कि उसने यह रिपोर्ट विधि मंत्रालय के पास विचार-विमर्श के लिए भेजा है। अब वहां से सहमति मिलने के बाद ही इस पर विचार किया जा सकेगा।
लेकिन इन सबके पहले ही सरकार ने अगले शैक्षणिक सत्र यानी 2021-2022 के लिए परास्नातक कोर्सों में प्रवेश की प्रक्रिया आरंभ कर चुकी है।
मसलन, 31 दिसंबर, 2020 को ही नेशनल एग्जामिनेशन बोर्ड द्वारा मास्टर इन डेंटल सर्जरी (एमडीएस) कोर्स में शैक्षणिक वर्ष 2021-22 के लिए नीट द्वारा ली गई परीक्षा का परिणाम घोषित कर दिया गया है। यह भी उल्लेखनीय है कि इसमें ऑल इंडिया कोटे के तहत ओबीसी आरक्षण का प्रावधान नहीं है।
इस मामले में केंद्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग ने स्वास्थ्य सेवाओं के महानिदेशक को सम्मन भेजकर आगामी 7 जनवरी, 2021 को सुनवाई के समय उपस्थित रहने को कहा है।
डीजीएचएस ने खड़े किए हाथ
बात पहले यह कि सरकार किस तरह के बहाने बना रही है। इस संबंध में ऑल इंडिया फेडरेशन ऑफ अदर बैकवर्ड क्लासेस इम्प्लॉयज वेलफेयर (एआईओबीसी) के राष्ट्रीय महासचिव जी. करूणानिधि द्वारा सवाल उठाए जाने पर जो जानकारी सामने आई है, चौंकाने वाली है।
स्वास्थ्य सेवाएं, भारत सरकार के निदेशक (डीजीएचएव) द्वारा बीते 17 दिसंबर, 2020 को भेजे एक पत्र में कहा गया है कि डीजीएचएस की जिम्मेदारी प्रवेश में आरक्षण अधिनियम, 2006 के तहत मानव संसाधन विकास मंत्रालय (अब शिक्षा मंत्रालय) के कार्यालय ज्ञापांक 1-1/2005-यूआईए/847 दिनांक 20 अप्रैल, 2008 में निहित प्रावधानों के अनुसार केवल सीटों का आवंटन करना है।
इसे सीधे शब्दों में समझें तो डीजीएचएस की ओर से यह कहा गया है कि उनका काम तय नियमों के अनुसार सीटों का आवंटन करना है। नियमों में किसी तरह का बदलाव वे नहीं कर सकते।
डीजीएचएस के अनुसार, आरक्षण का सवाल नीतिगत सवाल है जिसमें अंतिम फैसला संसद या सुप्रीम कोर्ट ले सकती है। मेडिकल कॉलेजों व शिक्षण संस्थानों में ऑल इंडिया कोटे के तहत ओबीसी को आरक्षण का मामला (डा. सलोनी कुमारी व अन्य बनाम डीजीएचएस व अन्य) वर्ष 2015 से सुप्रीम कोर्ट में विचाराधीन है।
पहले मद्रास हाईकोर्ट, फिर कमेटी और विधि मंत्रालय के पाले में गेंद
गौर तलब है कि तमिलनाडु में ऑल इंडिया कोटे के तहत ओबीसी को आरक्षण दिये जाने के संबंध में एआईडीएमके बनाम भारत सरकार के मामले में बीते 27 जुलाई 2020 को मद्रास हाई कोर्ट ने केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय को एक कमेटी का गठन करने का निर्देश दिया था।
इस न्यायादेश के आलोक में डीजीएचएस के मुख्य सलाहकार डा. बी. डी. अठानी की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन किया गया ताकि शैक्षणिक सत्र 2021-22 से योग्य ओबीसी (गैर क्रीमीलेयर) अभ्यर्थियों को ऑल इंडिया कोटे के तहत स्नातक व परास्नातक कोर्सों में दाखिले में 27 फीसदी आरक्षण मिल सके।
डीजीएचएस की ओर से यह कबूल किया गया है कि उक्त कमेटी ने अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंप दी है। और डीजीएचएच के मुताबिक अब यह रिपोर्ट विधि मंत्रालय के पास है।
एनबीई का स्पष्टीकरण
वहीं 30 दिसंबर, 2020 को नेशनल बोर्ड फॉर एग्जामिनेशन द्वारा जारी नोटिस के अंतिम हिस्से में जो जानकारी दी गई है, इस पूरे प्रकरण में जिम्मेदारियों को एक-दूसरे पर टालने की पराकाष्ठा का द्योतक है।
नोटिस में कहा गया है कि अगले शैक्षणिक सत्र में ऑल इंडिया कोटे के तहत ओबीसी को आरक्षण देना अब दो बातों पर निर्भर करेगा। या तो यह कि वर्ष 2015 से विचाराधीन मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला क्या आता है और दूसरा यह कि इस मामले में भारत सरकार क्या निर्णय लेती है।
और खेल अभी बाकी है
बहरहाल, इस पूरे मामले में यह तो साफ है कि 27 जुलाई, 2020 को मद्रास हाईकोर्ट द्वारा दिया गया फैसला अब कोई मायने नहीं रखता है। सबकुछ इसी बात पर निर्भर करेगा कि सुप्रीम कोर्ट आखिरी फैसला क्या लेती है। लेकिन उससे बड़ा सवाल तो यही है कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला कब आएगा। यह मामला 2015 से ही विचाराधीन है।
(संपादन : अनिल)
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