“संयुक्त राज्य (अमरीका) के सदाचारी जनों को सम्मानार्थ समर्पित जिन्होंने नीग्रो गुलामों को दासता से मुक्त करने के कार्य में उदारता और निष्पक्षता के साथ सहयोग किया और उसके लिए कुर्बानी दी। मेरी हार्दिक इच्छा है कि मेरे देशवासी उनके इस सराहनीय कार्य का अनुकरण करें और अपने शूद्र भाईयों को ब्राह्मणों की दासता से मुक्त करवाने में अपना सहयोग दें।”
महान शूद्र सामाजिक क्रांतिकारी जोतीराव फुले की क्रांतिकारी रचना ‘गुलामगिरी’ का यह समर्पण हमें एक अधूरे काम की याद दिलाता है। यह अधूरा काम अब और महत्वपूर्ण हो गया है क्योंकि स्वतंत्र भारत में ‘शूद्र’ नामक सामाजिक वर्ग विमर्श से विलुप्त हो गया है और ‘ब्राह्मणों की दासता’ को ब्राह्मणवादी राष्ट्रवाद के जरिए प्रणालीगत स्वरूप दे दिया गया है। शूद्र पहचान में ब्राह्मणवाद सामाजिक व्यवस्था को नष्ट करने की क्षमता थी।
आज जब ‘आधुनिकता’ भी ढ़ांचागत असमानताओं को समाप्त करने में असफल सिद्ध हो रही है तब क्या शूद्र चेतना, शूद्रों को एक वैकल्पिक दृष्टि और एक नया भविष्य दे सकती है, विशेषकर उन शूद्र जातियों को जिन्हें सरकार अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) कहती है। आज शूद्र शब्द प्रयुक्त नहीं होता। परंतु जिन जातियों को पहले शूद्र कहा जाता था उन्हें शासकीय संक्षेपाक्षर ‘ओबीसी’ से संबोधित करने से इन उत्पादक जातियों के हालात में कोई परिवर्तन नहीं आया है। प्रश्न यह है कि इतिहास के इस मोड़ पर क्या ये जातियां संगठित होकर द्विजों के हिन्दुत्ववादी वर्चस्व को गंभीर चुनौती दे सकती हैं और उसका मुकाबला कर सकती हैं? इन प्रश्नों के उत्तर के लिए मैं इन दिनों चल रहे किसान आंदोलन की ओर रुख करना चाहता हूं। इस आंदोलन ने देश को यह बताया है कि द्विजों की आरामतलबी की संस्कृति के बरक्स श्रम की संस्कृति क्यों महत्वपूर्ण है। अब तक के अपने शासनकाल में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ-भारतीय जनता पार्टी की सरकार अपने आलोचकों पर देशद्रोही का लेबिल चस्पा करती आई है। और अब तो हालात यहां तक पहुंच गए हैं कि सरकार देश के अन्नदाता किसानों को भी देशद्रोही बता रही है। इसका असली मतलब क्या है?
उपभोक्तावादी हिन्दुत्व दर्शन के पैरोकार, चाहे वे समाज के किसी भी स्तर पर क्यों न हों, कभी उत्पादकता या उत्पादन की बात नहीं करते। सत्ता में आने के बाद भी वे उत्पादन-विरोधी विचारधारा का ही समर्थन करते हैं। उत्पादकता में आस्था इस देश ने हड़प्पा की सभ्यता से विरासत में पाई है, वैदिक सभ्यता से नहीं। ‘वेदवाद’ के अस्तित्व में आने के बाद से उत्पादक केवल शूद्र रहे हैं और द्विज केवल उनके उत्पादों का उपभोग करते आए हैं। शूद्र किसानों को यह अहसास है कि किसी राष्ट्र का निर्माण केवल श्रम को केंद्र में रखने वाली उत्पादकता पर आधारित चेतना से ही हो सकता है। आरामतलबी और गौ-भक्ति से राष्ट्र निर्माण नहीं हो सकता। किसानों को राष्ट्र विरोधी बताकर भाजपा सरकार, दरअसल, अपने राष्ट्रविरोधी और मानवता विरोधी चरित्र को उजागर कर रही है।
हाल में प्रकाशित पुस्तक ‘द शूद्रज : विजन फॉर ए न्यू पाथ’ (पेंगुइन, नई दिल्ली, 2021) में ‘द शूद्र कान्शसनेस’ शीर्षक अध्याय लिखते समय मैंने गैर-ओबीसी और ओबीसी शूद्रों में ‘चेतना की समस्या’ को समझने का प्रयास किया। कुछ शूद्र जातियां, क्षत्रिय पहचान हासिल करने की जद्दोजहद में लगी हुई हैं। वे यह भूल रही हैं कि सबसे निचले वर्ण के रूप में उन्हें कभी सामाजिक, आध्यात्मिक और सांस्कृतिक समानता नहीं दी गई और इस कारण उन्होंने बहुत कष्ट भोगे। परंतु शूद्र जातियों में परस्पर मतभेदों के बावजूद, शूद्र चेतना का उभार असमतावादी हिन्दुत्व विचारधारा का संभावित विकल्प हो सकता है।
फुले की विरासत
किसान और खेतिहर मजदूर (जिनमें भूमिहीन दलित श्रमिक शामिल हैं) एकजुट होकर मांग कर रहे हैं कि राष्ट्र यह स्वीकार करे कि उत्पादक शक्तियां ही देश की रीढ़ हैं और हर कीमत पर उनकी रक्षा होनी चाहिए। इसके विपरीत, भाजपा सरकार मानवीय उत्पादन के तत्व को हर विमर्श से बाहर करने पर उतारू है और ‘स्वतंत्र बाजार’ और उपभोक्तावाद को बढ़ावा देना चाहती है। इससे उत्पादक शक्तियों का शोषण होगा और उत्पादन संबंधों में ऐसे परिवर्तन आएंगे जिनसे अपने जीवनयापन के लिए उत्पादक श्रम पर निर्भर शूद्रों, दलितों और आदिवासियों के जीवन पर गंभीर विपरीत प्रभाव पड़ेगा।
इस नाजुक मोड़ पर जोतीराव फुले का क्रांतिकारी आंदोलन और लेखन हमें यह समझने में मदद कर सकता है कि आरामतलबी और स्वतंत्र बाजार, जिनका हिन्दुत्व के पैरोकार महिमामंडन करते हैं, किस प्रकार उत्पादन पर आधारित आचार-व्यवहार के खिलाफ है – उस आचार-व्यवहार के जो गैर-ओबीसी और ओबीसी शूद्रों के जीवन का अभिन्न हिस्सा है। फुले का जोर ऐसे राजनैतिक सिद्धांतों को अपनाने पर था जो सभी की मुक्ति का साधन बनें।
उदाहरण के लिए, जीवन के सभी क्षेत्रों में द्विज वर्चस्व का विरोध करते हुए फुले ने किसानों के मसले पर भी विचार किया। फुले की दृष्टि में किसान शूद्र-अतिशूद्र थे। उन्होंने किसानों की निर्धनता का विस्तार से विवरण दिया और उनकी स्थिति को बेहतर बनाने के लिए कई उपाय सुझाए। उन्होंने कृषि स्कूलों की स्थापना पर जोर दिया और कहा कि राज्य को कृषि सुधार में महत्वपूर्ण भूमिका निभानी चाहिए। वे कृषि उत्पादन और कृषि संबंधी कार्यों के बारे में वैज्ञानिक जानकारी और शिक्षा दिए जाने के हामी थे और यह भी चाहते थे कि किसानों की संतानों को निःशुल्क स्कूली शिक्षा उपलब्ध करवाई जाए।
अपनी पुस्तक ‘किसान का कोड़ा’ में फुले बताते हैं कि तीन जातियों – कुनबी, माली और धनगर – के लोग मूलतः केवल खेती से अपना जीवनयापन करते थे। बाद में उनमें से कुछ सब्जी उगाने लगे और कुछ मवेशी पालने लगे। अब ब्राह्मणवाद की बारी थी। उसने खेती करने वालों, सब्जी उगाने वालों और मवेशी पालने वालों के बीच विवाह प्रतिबंधित कर दिए और इस प्रकार तीन नई जातियां अस्तित्व में आ गईं। फुले का कहना है कि अतीत में ये तीनों समुदाय एक ही शूद्र कृषक जाति रहे होंगे। उस उदाहरण से पता चलता है कि जाति व्यवस्था ने किस प्रकार शूद्रों को बांटा जिससे भट्टजी-शेठजी (ब्राह्मण और बनिए) उन पर अपना नियंत्रण स्थापित कर सकें।
‘गुलामगिरी’ की भूमिका में फुले पूछते हैं, “जब शूद्रों और अतिशूद्रों की संख्या ब्राह्मणों और बनियों से दस गुना ज्यादा है तब ब्राह्मण उन्हें बर्बाद कैसे कर सके? वे बताते हैं कि किस प्रकार एक ऐसी व्यवस्था निर्मित की गई जिससे शूद्र और अतिशूद्र एक न हो पाएं और उन्हें मानसिक गुलाम बनाया जा सके।
फुले कहते हैं। “एक धूर्त व्यक्ति दस अज्ञानियों को समझा-बुझाकर उनके दिमाग पर काबिज हो सकता है। परंतु यदि इन दस अज्ञानियों की राय एक सी हो तो वे किसी एक व्यक्ति को अपने पर हावी नहीं होने देंगे। अब चूंकि इन दस लोगों की दस अलग-अलग राय होती हैं इसलिए चतुर व्यक्ति को उन्हें मूर्ख बनाने में कोई समस्या नहीं आती। ठीक इसी प्रकार ब्राह्मण कपटपूर्ण और धूर्तता से भरी युक्तियों से शूद्रों व अतिशूद्रों को बांटे रखते हैं।” आरएसएस का शीर्ष नेतृत्व पिछले 96 सालों से यही करता आया है।
फुले लिखते हैं कि “उन्हें (ब्राह्मणों को) यह अच्छी तरह पता था कि वे अपना अस्तित्व और वर्चस्व तभी बनाये रख सकते हैं जब वे शूद्रों और अतिशूद्रों को बांटें और उनके बीच शत्रुता पैदा करें … वे शूद्रों और अतिशूद्रों के श्रम का शोषण करना चाहते थे ताकि न केवल उनका बल्कि उनकी आने वाली पीढ़ियों का भी ऐश्वर्यपूर्ण जीवन सुनिश्चित हो सके… उन्होंने इस समूह के लोगों के खिलाफ शूद्रों के दिमाग में इतना जहर भर दिया कि शूद्र अब उन्हें अछूत मानते हैं…इस तरह ब्राह्मणों ने शूद्रों को विभिन्न जातियों में बांटा, अपने प्रति उनकी वफादारी के आधार पर उन्हें पुरस्कृत या दंडित किया और उन पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया। इस विभाजन के कारण शूद्रों की एकता समाप्त हो गई और वे परस्पर विरोधाभासी सोच रखने लगे। इससे ब्राह्मणों को ठीक वैसी व्यवस्था निर्मित करने का मौका मिल गया जैसी वे चाहते थे। एक प्रसिद्ध कहावत है कि दो की लड़ाई में तीसरे का फायदा होता है. ब्राह्मणों ने शूद्रों और अतिशूद्रों को अलग कर दिया और अब वे शूद्रों की कीमत पर मौज कर रहे हैं।” आरएसएस और भाजपा आज ठीक यही कर रहे हैं। वे शूद्रों, दलितों और आदिवासियों को एक-दूसरे से लड़वा रहे हैं और उन्हें मुसलमानों और ईसाईयों से भी भिड़ा रहे हैं। इस तरह वे सबको बांटकर उन पर शासन कर रहे हैं। कांग्रेस के द्विजों ने भी धर्मनिरपेक्षता के नाम पर यही किया था, यद्यपि वे उस हद तक नहीं गए थे, जिस हद तक भाजपा और संघ जा रहे हैं।
शूद्रों की इस मानसिक गुलामी को देखते हुए वक्त का तकाज़ा है कि उत्पादन के दर्शन को पुनर्जीवित किया जाए क्योंकि वही देश को आगे ले जा सकता है। इस उत्पादक संस्कृति से जुड़ना, उपभोक्तावाद से लोहा लेना और अर्थव्यवस्था, राजनीति और आध्यात्मिकता पर द्विजों के एकाधिकार का मुकाबला करना शूद्र चेतना का भाग है।
अपने पवित्र ग्रंथों के ज़रिये, ब्राह्मणों ने श्रेणीबद्ध असमानता के दर्शन और चेतना को प्रणालीगत स्वरुप दिया। दार्शनिक साहित्य की ताकत और उसके वर्चस्व को समझते हुए डॉ. बी.आर. आंबेडकर अपनी पुस्तक “हू वर द शूद्रज” में लिखते हैं कि हिंदू धर्म ग्रन्थ “ऐसा साहित्य है जिसे केवल ब्राह्मणों ने लिखा है। दूसरे, उसका उद्देश्य गैर-ब्राह्मणों के मुकाबले ब्राह्मणों की श्रेष्ठता और विशेषाधिकारों को बनाए रखना है।”
असमतावादी हिंदुत्व के भौतिक और आध्यात्मिक विमर्श से रचनात्मक तरीके से संघर्ष करने के लिए उत्पादन के दर्शन और चेतना के सम्बन्ध में लेखन और प्रचार आवश्यक हैं। इस सन्दर्भ में वर्तमान किसान आंदोलन शूद्र चेतना के नवीकरण के लिए सांस्कृतिक और राजनैतिक एजेंडा उपलब्ध करवा सकता है। यह एक मौका है जिसका इस्तेमाल कर ओबीसी और गैर-ओबीसी शूद्र, समानता के मूल्य को अंगीकार कर सकते हैं और फिर हिंदुत्व की राजनीति से लड़ने के लिए परंपरागत रूप से दमित वर्गों के साथ एकता स्थापित कर सकते हैं।
अब धोखा नहीं खाएंगे किसान
महिला किसानों, भूमिहीन दलितों और सिक्खों को एक मंच पर ला कर किसानों का आंदोलन ब्राह्मण-बनिया वर्चस्व को चुनौती दे रहा है। गत 14 अप्रैल, 2021 को आंबेडकर जयंती के अवसर पर किसान आंदोलन का चेहरा बन चुके भारतीय किसान यूनियन नेता राकेश टिकैत ने कहा कि इस देश को ‘कंपनी राज’ से बचाया जाना होगा। अपने आंदोलन के पहले दिन से ही प्रदर्शनकारी किसान अरबपति अंबानी-अडानी और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के परस्पर लाभ पर आधारित रिश्तों की खिलाफत करते आ रहे हैं। (ब्राह्मणों और छोटे व्यापारियों की पार्टी भाजपा अब बनिया-ब्राह्मण कुबेरपतियों की पार्टी बन गई है।)
उपभोक्तावाद और पूँजी संचय को बढ़ावा देने वाले ब्राह्मणवादी राष्ट्रवाद की अमानवीयता को उजागर कर रहे किसानों को राष्ट्र-विरोधी ठहरा कर सरकार और समाज के द्विज यह दिखा रहे हैं कि वे उत्पादन-विरोधी हैं। सन 1991 में अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के बाद से उत्पादक वर्गों को भारी नुकसान उठाना पड़ा है और पूँजी का कथित प्रजातांत्रिकरण नहीं हुआ है। इसकी जगह, हम देख रहे हैं कि पूँजी ब्राह्मणों और बनियों के हाथों में सिमट रही है और शहरों और गांवों के बीच की खाई और गहरी हो रही है।
हालिया इतिहास बताता है कि हिंदुत्व की राजनीति किस तरह उत्पादन नीतिशास्त्र को कमज़ोर करती है और उन आंदोलनों को भी जो उत्पादन के पुनर्वितरण की मांग करते हैं। उदाहरण के लिए, सन 1980 के दशक के अंत में भारतीय किसान यूनियन ने उत्तर प्रदेश में किसानों के एक आंदोलन शुरू किया था, जिसकी मांग थी कि राज्य कृषि की बेहतरी के लिए कदम उठाये। परंतु 1990 की दशक की शुरुआत में, राममंदिर आंदोलन ने किसानों के आंदोलन का स्थान ले लिया। संघ परिवार ने इस आंदोलन के लिए जाटों को गोलबंद किया, विशेषकर उन जाटों को किसानों के आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभा रहे थे। इसके चलते, जाट मंडल आयोग द्वारा अनुशंसित आरक्षण व्यवस्था को लागू किये जाने के खिलाफ हो गए। वे मुसलमानों के प्रति भी बैरभाव पालने लगे जिसका प्रदर्शन हमने 2013 के मुज़फ्फरनगर दंगों में देखा।
दूसरी ओर, शूद्रों को भी मंदिर निर्माण के आंदोलन में घसीट लिया गया, जिससे उनका ध्यान अर्थव्यवस्था में उनकी स्थिति से हट गया। उन्हें काफी देर बाद समझ में आया कि वे आर्थिक उदारीकरण के शिकार बन गए हैं। अब हम देख रहे हैं कि जाट ओबीसी दर्जे की मांग कर रहे हैं। ये हैं हिंदुत्व की शक्तियों द्वारा ओबीसी और गैर-ओबीसी शूद्र जातियों को कमज़ोर करने के प्रयासों के कुछ उदाहरण।
किसान आंदोलन के नेता आरएसएस-भाजपा की चालों से वाकिफ है। सन् 1993-94 में जब उत्तर प्रदेश में निम्न और पिछड़ी जातियों ने अपने राजनैतिक अधिकारों के लिए आवाज़ बुलंद की तो हिंदू राष्ट्रवादियों को ‘शूद्र क्रांति’ का डर सताने लगा और उन्होंने अपने समर्थकों से उनके खिलाफ उठ खड़े होने के लिए कहा। इसी तर्ज पर संघ और भाजपा, किसानों के आंदोलन को “जातियों के मोर्चे” बता रहे हैं।
“जातियों के मोर्चे” क्यों नहीं बनेंगे? यदि किसी जाति विशेष को उसके वर्ण के आधार पर कोई एक पेशा आवंटित कर दिया जाता है और फिर वह पेशा खतरे में पड़ जाता है तो आखिर इस स्थिति से उपजा कोई भी आंदोलन उस जाति को गोलबंद क्यों नहीं करेगा? परंतु किसानों का आंदोलन किसी जाति या धर्म तक सीमित नहीं हैं। इसमें जाट, सिक्ख, मुसलमान, दलित और अन्य शामिल हैं। ऐसे में फुले ने ‘गुलामगिरी’ में जो कहा था (दो की लड़ाई में तीसरे का फायदा होता है) के ठीक उलट स्थिति बन जाती है – “जब दो एक हो जाते हैं तो तीसरा हार जाता है”। हिंदुत्व की राजनीति और दर्शन के उत्पादन-विरोधी चरित्र को उजागर कर। शूद्र किसान ठीक यही करने का प्रयास कर रहे हैं।
आंदोलनरत किसानों ने जाति की सीमाओं से ऊपर उठकर जिस तरह की एकता और बंधुत्व का प्रदर्शन किया है वह एक नई शूद्र चेतना के उभार का परिचायक है। यह चेतना श्रम की गरिमा को एक दर्शन का दर्जा देती है – एक ऐसा दर्शन जिसमें वर्चस्ववादी सामाजिक और राजनैतिक रिश्तों को बदल डालने की ताकत है। गणतंत्र दिवस पर विरोध प्रदर्शन के बाद किसानों, विशेषकर जाटों और सिक्खों, को विश्वासघाती बताया गया था। राकेश टिकैत को इससे बहुत धक्का लगा था और यह बात उन्होंने कही भी थी। परंतु इस आरोप से राकेश और उनके भाई के आंदोलन को और अधिक समर्थन मिला।
आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने कुछ समय पहले कहा था कि, “अगर कोई हिंदू है तो वह देशभक्त होगा ही। यह उसका मूल चरित्र और प्रकृति है। कुछ मामलों में हो सकता है कि आपको उसकी देशभक्ति को जागृत करना पड़े परंतु वो (हिंदू) कभी भारत-विरोधी नहीं हो सकता।” किसानों से यह साबित कर दिया है कि “अगर कोई किसान है तो वह राष्ट्र-निर्माता होगा ही। यह उसका मूल चरित्र और प्रकृति है। कुछ मामलों में हो सकता है कि आपको उसकी चेतना को जागृत करना पड़े। परंतु वह (किसान) कभी राष्ट्रद्रोही नहीं हो सकता।”
(अनुवाद: अमरीश हरदेनिया, संपादन : नवल)
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