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पंजाब में अकाली दल-बसपा गठबंधन : दल मिले, दिल नहीं

नए कृषि कानूनों से जाट-सिक्ख खफा हैं और उनके गुस्से का खामियाजा शिरोमणि अकाली दल को भुगतना पड़ रहा है। पंजाब की एक-तिहाई आबादी दलित है। इसके बाद भी पिछले 25 वर्षों में बसपा राज्य में हुए चुनावों में कोई खास कमाल नहीं दिखा सकी है, बता रहे हैं रौनकी राम

शिरोमणि अकाली दल (एसएडी) पंजाब की सिक्खों की धार्मिक विरासत वाली पार्टी है। हाल में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) और एसएडी में गठबंधन हुआ है। सनद रहे कि बसपा का जन्म पंजाब में ही हुआ था, जहां की एक-तिहाई आबादी दलित है, परंतु उसे चुनावी सफलता उत्तर प्रदेश में मिली। इस समय एसएडी और बसपा दोनों विपरीत राजनैतिक परिस्थितियों का सामना कर रहे हैं। एसएडी के लिए अपनी सिक्ख विरासत को बचाए रखना कठिन हो गया है। सिक्खों की पार्टी होने के बावजूद वह अपने मूल समर्थकों – राज्य के किसानों, जिनमें से बहुसंख्यक जाट-सिक्ख हैं – के साथ खड़ी नहीं रही और इसका परिणाम उसे भुगतना पड़ रहा है। दूसरी ओर बसपा अपने जन्मस्थान में अपना अस्तित्व बचाए रखने की लड़ाई लड़ रही है।

एसएडी, राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) का हिस्सा थी। जिस वक्त सरकार ने अनावश्यक जल्दी में और कोविड महामारी के कहर के बीच संसद से तीन विवादास्पद कृषि विधेयक पारित करवाए थे, उस समय भी एसएडी सरकार का हिस्सा थी। इसके कारण एसएडी को अपने समर्थकों के गुस्से का सामना करना पड़ा। पंजाब के दलित मुख्यतः भूमिहीन खेतिहर मजदूर हैं, परंतु उन्हें भी लगा कि कृषि कानून उनके हित में नहीं हैं। इस तरह भूस्वामी किसान और भूमिहीन दलित खेतिहर मजदूर एक साथ कृषि कानूनों के खिलाफ उठ खड़े हुए। यहां यह महत्वपूर्ण है कि जाति और वर्ग दोनों संदर्भों में उनके हित परस्पर विरोधाभासी हैं। इसके बावजूद दोनों कृषि कानूनों के मामले में एकमत और एकजुट हो गए हैं। किसानों के आंदोलन को पंजाब के खेत मजदूर संगठनों का भरपूर समर्थन हासिल हुआ। इस आंदोलन ने जातिगत विभाजनों से ऊपर उठकर किसानों और मजदूरों को एक किया। यह इससे पहले कभी नहीं हुआ था। एसएडी को लगा कि किसान-मजदूर राजनैतिक एकता पंजाब में होने वाले विधानसभा चुनावों में उसके प्रदर्शन को गंभीर रूप से प्रभावित कर सकती है.। इसलिए उसने चतुराई दिखाते हुए बसपा से समझौता कर लिया। अब उसे उम्मीद है कि इससे उसे पंजाब की विशाल अनुसूचित जातियों की आबादी का समर्थन हासिल हो जाएगा।

पंजाब में अनुसूचित जातियों की सबसे बड़ी जनसंख्या दोआब क्षेत्र में है – अर्थात जालंधर, नवाशहर, कपूरथला और होशियारपुर आदि जिलों में। इसके पहले एसएडी ने कृषि कानूनों के मुद्दे को लेकर भाजपा के नेतृत्व वाले एनडीए से अपने संबंध तोड़ लिए थे।

गत 12 जून, 2021 को घोषित यह गठबंधन कितना प्रभावी होगा, इस बारे में एसएडी और बसपा के नेतृत्व और कार्यकर्ताओं में एक राय नहीं है। अकाली समर्थक मानते हैं कि राज्य की आबादी के एक-तिहाई अनुसूचित जातियों का समर्थन उनकी पार्टी को एक नया राजनैतिक जीवन देगा। परंतु अनुसूचित जाति के लोग इस गठबंधन से बहुत प्रसन्न नहीं हैं। एसएडी के अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल और बसपा के गैर-दलित महासचिव सतीशचंद्र मिश्रा, जो पार्टी प्रमुख मायावती के काफी नजदीक बताए जाते हैं, द्वारा इस गठबंधन की औपचारिक घोषणा के तुरंत बाद इस गठबंधन के खिलग असंतोष भी सामने आ गया। यह विडंबना ही है कि एसएडी के अध्यक्ष जिस समय इस गठबंधन की औपचारिक घोषणा कर रहे थे, उस समय राज्य में बड़ी आबादी वाले अनुसूचित जाति से बसपा का एक भी नेता नहीं मिला।

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बसपा की पंजाब इकाई के पदाधिकारियों ने उनकी पार्टी और एसएडी के बीच सीटों के बंटवारे पर अपनी निराशा जाहिर की। इस समझौते में न केवल बसपा को एसएडी के पूर्व सहयोगी भाजपा से कम सीटें दी गईं हैं वरन् उसे वे सीटें भी नहीं मिलीं हैं, जिनमें उसके उम्मीदवारों ने विधानसभा और लोकसभा चुनावों में अपेक्षाकृत बेहतर प्रदर्शन किया था। एसएडी-भाजपा गठबंधन में भाजपा को 23 सीटें दी गईं थीं, जबकि नए गठबंधन में बसपा को 20 सीटें दी गईं।[1] पार्टी के नेताओं ने अपने शीर्ष नेतृत्व से मांग की कि सीटों के बंटवारे में संशोधन किया जाए ताकि फिल्लौर, बंगा, आदमपुर और छब्बेवाल जैसी आरक्षित सीटें बसपा के हिस्से में आ सकें।[2] फिल्लौर, बंगा और आदमपुर सीटों का प्रतिनिधित्व वर्तमान में एसएडी के विधायक कर रहे हैं, जो पूर्व में बसपा से जुड़े थे। ये सीटें पंजाब के दोआब क्षेत्र की उन सीटों में शामिल हैं, जिनमें बसपा अपनी विजय की उम्मीद कर सकती है। सन् 2019 के लोकसभा चुनाव में इन तीनों विधानसभा क्षेत्रों में बसपा को एसएडी से ज्यादा वोट हासिल हुए थे। पंजाब की बसपा इकाई के कार्यकर्ताओं ने चार अन्य विधानसभा क्षेत्रों (शामचौरासी, छब्बेवाल, गढ़शंकर और बालाचोर) को बसपा को आवंटित न किए जाने पर भी निराशा व्यक्त की, क्योंकि इन सीटों पर भी बसपा को अच्छा जनसमर्थन हासिल हुआ था। इसके अलावा बसपा को कुछ ऐसी सीटें – अमृतसर उत्तर, अमृतसर मध्य, पठानकोट, बस्सी पठाना और पायल – आवंटित की गई हैं, जिनमें पिछले विधानसभा चुनाव में पार्टी को एक हजार वोट भी हासिल नहीं हुए थे। पंजाब में 34 सीटें अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित हैं, परंतु इनमें से केवल 8 सीटें ही बसपा को आवंटित की गई हैं।

अभी यह कहना मुश्किल है कि यह गठबंधन बना रहेगा या नहीं और अगर हां तो कितने सुचारू ढंग से काम करेगा। इस संदर्भ में जमीनी स्तर की सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक परिस्थितियों पर नजर डालना उचित होगा। पंजाब में जाट सिक्खों और दलितों की आबादी लगभग बराबर है। परंतु कृषि भूमि पर स्वामित्व के लिहाज से उनके बीच गहरी खाई है। बहुसंख्यक जाट-सिक्ख भूस्वामी हैं, यद्यपि उनमें भी जमीन के आकार के आधार पर कई तबके हैं। इसके विपरीत, अधिकांश दलित खेतिहर मजदूर हैं, जो जाट-सिक्खों के खेतों में काम करते हैं। यह आर्थिक असमानता उनके बीच की जातिगत खाई को और गहरा करती है। पंजाब के ग्रामीण इलाकों में अनुसूचित जाति के लोग सामाजिक और भौगोलिक दृष्टि से अलग-थलग बस्तियों में रहते हैं। इन बस्तियों के नाम भी अपमानजनक हैं। जैसे कि दोआब में उन्हें चमारली, मालवा में थाथी और माझा में वहरा कहा जाता है। ये तीनों पंजाब के भौगोलिक-सांस्कृतिक क्षेत्र हैं। जाट सिक्ख अन्य चार वर्णों की जातियों के साथ गांव की मुख्य बस्ती में रहते हैं। यह दुःखद, परंतु सत्य है कि गांवों में अनुसूचित जातियों और जाटों के आराधना स्थल और यहां तक कि श्मशान घाट तक अलग-अलग होते हैं।

इस जातिगत विभाजन के चलते इस बात की बहुत कम संभावना है कि अनुसूचित जातियों के मत थोक में एसएडी को मात्र इसलिए हस्तांतरित हो जाएंगे क्योंकि इस पार्टी का मायावती के नेतृत्व वाली बसपा से गठबंधन है। इसके अतिरिक्त अन्य राज्यों की तरह पंजाब में भी अनुसूचित जातियों के लोग एकमत नहीं हैं। वे 39 जातियों में बंटे हैं और इन जातियों की अनेक उप-जातियां भी हैं। इसके अलावा वे अलग-अलग धर्मों में आस्था रखते हैं और कुछ धर्मों से परे पंथों, जिन्हें डेरे कहा जाता है, से जुड़े हैं। अलग-अलग जातियों, धर्मों और डेरों में बंटे दलित राज्य की अलग-अलग राजनैतिक पार्टियों और सामाजिक-सांस्कृतिक संगठनों से जुड़े हुए हैं। अतः इस बात की बहुत कम संभावना है कि दलित एकमत होकर एसएडी-बसपा गठबंधन को अपना वोट देंगे। इसी तरह सिक्ख भी पंजाब कांग्रेस, जिसका नेतृत्व भी एक सिक्ख के हाथ में है, और अन्य अकाली दलों से जुड़े हुए हैं। सिक्खों के मत केवल एसएडी को मिलते हैं यह मानना गलत होगा।[3] ऐसे दलित भी हैं जो बसपा से इसलिए नाराज थे क्योंकि उसने अपने संस्थापक कांशीराम की विरासत को संभालकर नहीं रखा। बसपा से अपने मोहभंग के चलते वे एसएडी से जुड़ गए थे और अब जबकि एसएडी ने बसपा से गठबंधन कर लिया है, वे एसएडी से भी अपना नाता तोड़ लेंगे। इसी तरह बसपा को भी एसएडी से जुड़ने की कीमत अदा करनी पड़ सकती है। उसके कई समर्थक केवल राजनैतिक स्वार्थ की पूर्ति के लिए किए गए इस गठबंधन से खफा हैं। यह सोच कम या ज्यादा उन सभी उपसमूहों और जातियों के लोगों की हो सकती है जिनके समर्थन की उम्मीद में यह गठबंधन किया गया है। अतः इस बात की खासी संभावना है कि दो वोट बैंकों को एक साथ जोड़ने के लिए किया गया यह गठबंधन परस्पर संदेहों और अविश्वास की भेंट चढ़ जाए।

बसपा प्रमुख मायावती और शिरोमणि अकाली दल के अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल

बहरहाल, यह पहली बार नहीं है कि एसएडी और बसपा में गठबंधन हुआ है। दोनों पार्टियां सबसे पहले 1996 में साथ आईं थीं। उन्होंने पंजाब की 13 लोकसभा सीटों पर मिलकर चुनाव लड़ा था। एसएडी ने अपने हिस्से की 9 में से 8 सीटें जीती थीं और बसपा ने 4 में से 3। तत्कालीन बसपा प्रमुख कांशीराम, बसपा के तीन विजेताओं में से एक थे। उन्होंने होशियारपुर (आरक्षित) लोकसभा क्षेत्र से जीत हासिल की थी। परंतु यह गठबंधन लंबे समय तक नहीं चल सका, क्योंकि एसएडी के तत्कालीन अध्यक्ष प्रकाश सिंह बादल ने भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र की अटलबिहारी वाजपेयी सरकार को समर्थन देने का एकतरफा निर्णय ले लिया था। उस समय कांशीराम ने प्रकाश सिंह बादल पर गठबंधन को तोड़ने का आरोप लगाते हुए उन्हें ‘मनुवादी’ बताया था।[4] इसके बाद कांशीराम ने सर्वहिंद शिरोमणि अकाली दल (टोहरा) के साथ चुनावी समझौता किया और इस गठबंधन ने 2002 के पंजाब विधानसभा चुनाव में एसएडी की हार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। सन् 2016 में कांशीराम की जयंती पर नवांशहर में एक विशाल आमसभा को संबोधित करते हुए मायावती ने एसएडी-भाजपा सरकार को ‘दलित-विरोधी’ बताया था।[5]

तब से सतलुज में बहुत पानी बह चुका है। सन् 1997 में बसपा के शिंगाराराम साहुंगरा ने गढ़शंकर विधानसभा सीट पर विजय प्राप्त की थी। इसके अलावा पिछले 25 सालों में बसपा, पंजाब में एक भी विधानसभा या लोकसभा सीट नहीं जीत सकी है। पिछले पांच विधानसभा चुनावों (1997, 2002, 2007, 2012 व 2017) में उसे प्राप्त मतों का प्रतिशत 13.28 और 1.59 के बीच रहा है।[6] (6) केवल 1992 के विधानसभा चुनाव में उसे उल्लेखनीय सफलता प्राप्त हुई थी। तब वह पहली बार विधानसभा चुनाव में उतरी थी और इस चुनाव का एसएडी ने बहिष्कार किया था। बसपा को 16.68 प्रतिशत वोट प्राप्त हुए थे और उसने 9 सीटें जीती थीं। इसके बाद से वह कभी इतनी या इससे अधिक सीटें नहीं जीत सकी है। पिछले (2017) विधानसभा चुनाव में बसपा की बुरी गत बनी थी। उसकी पंजाब इकाई के पूर्व अध्यक्ष अवतार सिंह करीमपुरी के अलावा पार्टी के अन्य सभी 110 उम्मीदवारों ने अपनी जमानत तक गंवा दी थी। उसे इतिहास में सबसे कम (1.59 प्रतिशत) वोट प्राप्त हुए थे। सन् 2012 के विधानसभा चुनाव में उसका प्रदर्शन कुछ कम खराब था। उसे 4.3 प्रतिशत वोट मिले थे और उसके 117 में से 109 उम्मीदवारों की जमानतें जब्त हो गईं थीं। यद्यपि अनुसूचित जातियां पंजाब की आबादी का एक तिहाई हैं, परंतु उनमें इतने विभाजन हैं कि बसपा की पंजाब में एक बड़े राजनैतिक खिलाड़ी के रूप में उभरने की महत्वाकांक्षा पूरी नहीं हो सकी है। उर्पयुक्त जटिल कारकों के चलते यह कहना मुश्किल है कि एसएडी-बसपा गठबंधन से दोनों पार्टियों का भला होगा या दोनों का सत्यानाश। सन् 2022 में राज्य में होने वाले विधानसभा चुनाव के नतीजे ही इस प्रश्न का उत्तर दे पाएंगे।

[1] आठ दलित बहुल दोआब इलाके से, सात मालवा इलाके से और पांच माझा इलाके से

[2] सिंह आई. पी. “एसएडी टाई-अप चीयर्स बीएसपी कैडर्स, बट ‘क्वालिटी’ ऑफ सीटस वेक्सिस देम”. द टाईम्स ऑफ इंडिया, 14 जून 2021. दिनांक 14 जून 2021 का ‘द ट्रिब्यून’ भी देखें.

[3] कुमार आशुतोष. “पंजाब इज इन ए बेड नीड ऑफ पालिटिकल लीडरशिपः विल आपटिक्स रीप डिवीडेन्टस? ‘द वायर’, 14 जून 2021 https://thewire.in/politics/will-optics-reap-dividends-in-a-punjab-in-bad-need-of-political-leadership (14 जून 2021 को देखा गया)

[4] अवस्थी, सुरिंदर “काशी फार्मलाइसिस पोल एलायंस विथ टोहरा ग्रुप”, द टाईम्स ऑफ इंडिया, 1 जुलाई 1999.

[5] कोहली जतिंदर “बीएसपी टू गो इट अलोन इन 2017 पंजाब पोल्सः मायावती इन नवाशहर”. हिन्दुस्तान टाईम्स, 15 मार्च 2016. https://www.hindustantimes.com/punjab/no-alliance-will-fight-2017-punjab-polls-alone-mayawati-in-nawashahr/story-xvgQ1XSbk8oJZC656XmF2J.html (14 जून 2021 को देखा गया)

[6] गोपाल, नवजीवन “एक्सप्लेन्ड: वाय एसएडी इज काउटिंग ऑन इट्स एलायंस विथ बीएसपी फॉर ए कमबैक”. द इंडियन एक्सप्रेस, 14 जून, 2021. https://indianexpress.com/article/explained/why-sad-is-counting-on-its-alliance-with-bsp-for-a-comeback-7356346/lite/ (14 जून 2021 को देखा गया)

(अनुवाद अमरीश हरदेनिया, संपादन : नवल)


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लेखक के बारे में

रौनकी राम

रौनकी राम पंजाब विश्वविद्यालय,चंडीगढ़ में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर हैं। उनके द्वारा रचित और संपादित पुस्तकों में ‘दलित पहचान, मुक्ति, अतेय शक्तिकरण’, (दलित आइडेंटिटी, इमॅनिशिपेशन एंड ऍमपॉवरमेंट, पटियाला, पंजाब विश्वविद्यालय पब्लिकेशन ब्यूरो, 2012), ‘दलित चेतना : सरोत ते साररूप’ (दलित कॉन्सशनेस : सोर्सेए एंड फॉर्म; चंडीगढ़, लोकगीत प्रकाशन, 2010) और ‘ग्लोबलाइजेशन एंड द पॉलिटिक्स ऑफ आइडेंटिटी इन इंडिया’, दिल्ली, पियर्सन लॉंगमैन, 2008, (भूपिंदर बरार और आशुतोष कुमार के साथ सह संपादन) शामिल हैं।

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