वर्ष 2014 से भारत पर हिंदुत्व की विचारधारा का संपूर्ण नियंत्रण है। दिल्ली में नरेंद्र मोदी और अमित शाह तथा नागपुर में मोहन भागवत एवं दत्तात्रेय होसबले व राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के अन्य नेता, सत्ता में आने के बाद से राष्ट्रवाद की एक अजीबोगरीब विचारधारा को लागू कर रहे हैं। सैद्धांतिक स्तर पर हिंदुत्व की विचारधारा अपने धार्मिक, भाषाई और राष्ट्रवादी लक्ष्यों को ‘हिंदू-हिंदू-हिंदुस्तान’ के रूप में परिभाषित करती आई है। ‘हिंदू-हिंदू-हिंदुस्तान’ प्रथम दृष्टया एक समावेशी राष्ट्रवादी लक्ष्य लगता है। ऐसा बताया जाता है कि यह विचारधारा बहिष्करण की शिकार रहीं जातियों और समुदायों, बशर्ते वे हिन्दू हों, को अध्यात्मिक प्रणाली, शैक्षणिक संस्थानों में किसी विशिष्ट भाषा में शिक्षण और राष्ट्रीय संसाधनों से वंचित नहीं करती। कहने की ज़रुरत नहीं कि यह विचारधारा मुसलमानों और ईसाईयों को ‘अलग’ मानती है।
हिंदुत्व की विचारधारा में यकीन रखने वाली ताकतें बड़े उद्योपतियों और औद्योगिक घरानों के समर्थन से सत्ता में आईं हैं। ये कुबेरपति, 1990 के दशक के मध्य में भारतीय अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के बाद से ही शिक्षा के व्यवसाय में उतर गए। वे स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय स्थापित करने लगे। इसके लगभग एक दशक बाद, हरियाणा के सोनीपत में राज्य सरकार ने निजी शैक्षणिक संस्थाओं को आवंटित करने के लिए बड़े पैमाने पर ज़मीन खरीदी। इस परियोजना को राजीव गांधी एजुकेशन सिटी का नाम दिया गया। इसी जमीन पर सबसे महंगे निजी अंग्रेजी माध्यम के विश्वविद्यालय अस्तित्व में आए, जिनके बारे में यह कहा गया कि ये विश्व-स्तरीय उच्च शिक्षा उपलब्ध करवाएंगे। वहां अब अशोका यूनिवर्सिटी और ओ.पी. जिंदल ग्लोबल यूनिवर्सिटी हैं, जिन्हें मानविकी और विज्ञान के कथित रूप से सबसे बेहतरीन विश्वविद्यालय बताया का रहा है। इन विश्वविद्यालयों में आरक्षण की व्यवस्था नहीं है, जबकि सरकारी विश्वविद्यालयों द्वारा संविधान के प्रावधानों के अनुरूप आरक्षण दिया जाता है।
इन निजी विश्वविद्यालयों का चरित्र और प्रकृति जवाहरलाल नेहरु विश्वविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, हैदराबाद केंद्रीय विद्यालय और अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय आदि से काफी अलग है, क्योंकि इन्हें केंद्र सरकार के शिक्षा संबंधी कानूनों और नियमों का पालन नहीं करना होता है।
निजी विश्वविद्यालय अपना पाठ्यक्रम स्वयं विकसित करते हैं और वे अपने विद्यार्थियों को परिष्कृत ब्रिटिश-अमेरिकन अंग्रेजी में पढ़ाते है ताकि वे वैश्विक बाज़ार में नौकरियों के लिए प्रतिस्पर्धा कर सकें। कैंपस में अध्यापक और विद्यार्थी अंग्रेजीदां वातावरण में रहते हैं। अपनी-अपनी क्षेत्रीय भाषाओं में पढ़े पहली पीढ़ी के शिक्षित गरीब दलित, आदिवासी और ओबीसी इन परिसरों में घुस भी नहीं सकते।
जेएनयू, दिल्ली विश्वविद्यालय और हैदराबाद विश्वविद्यालय भी गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करते हैं, परंतु ऐसे वातावरण में, जिसमें क्षेत्रीय भाषाओं में शिक्षित, पहली पीढ़ी के युवा भी धीरे-धीरे वहां की शिक्षा और अंग्रेजी भाषा से सामंजस्य बैठा लेते हैं। निजी विश्वविद्यालयों में ऐसा वातावरण नहीं होता। हमें यह समझना चाहिए कि हमारे नागरिक समाज, जहां से विद्यार्थी आते हैं, की तुलना अमरीका या इंग्लैंड के समाज से नहीं की जा सकती। भारत को अपनी तुलना चीन से करनी चाहिए, यद्यपि वहां की राजनैतिक व्यवस्था यहां से बहुत भिन्न है।
अगर हम उत्कृष्ट सरकारी विश्वविद्यालयों को कमज़ोर करेंगे और निजी क्षेत्र में उच्च शिक्षा को प्रोत्साहन देंगे तो इससे निर्धन वर्ग का कुंठाग्रस्त हो जाना निश्चित है। केंद्रीय विश्वविद्यालयों में हिंदुत्व राष्ट्रवादी, हिंदी और अपने ‘विशुद्ध राष्ट्र-केंद्रित हिंदुत्व पाठ्यक्रम’ को बढ़ावा दे रहे हैं। रीढ़ की हड्डी से वंचित शिक्षाविदों को इन विश्वविद्यालयों का कुलपति नियुक्त किया जा रहा है। आश्चर्य नहीं कि वे पूरे जोशो-खरोश से केंद्र सरकार को प्रसन्न करने के लिए उसका वैचारिक एजेंडा विश्वविद्यालयों पर लाद रहे हैं।
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सरकारी शैक्षणिक संस्थानों को कमज़ोर करना और विदेशी बाज़ारों के लिए धनिकों की संतानों को तैयार करने के लिए निजी संस्थानों को प्रोत्साहित करना राष्ट्रवाद नहीं है। भारत ऐसा देश नहीं है जहां चीन और जापान की तरह क्रमशः मेंडेरिन या जापानी जैसे कोई एक गैर-अंग्रेजी भाषा, राष्टभाषा हो। सार्वजनिक शैक्षणिक संस्थानों में पठन-पाठन के माध्यम के रूप में अंग्रेजी का विरोध और निजी संस्थाओं में इस भाषा के खुलकर उपयोग की इज़ाज़त खतरनाक है क्योंकि इसके कारण भारत में अंग्रेजी एक नई संस्कृत बन जाएगी – एक ऐसी भाषा, जिस पर केवल चुनिंदा लोगों का अधिकार होगा। शूद्र, दलित और आदिवासी बुद्धिजीवी शिक्षण के माध्यम और पाठ्यक्रम पर हिन्दुत्ववादी शक्तियों द्वारा की जा रही राजनीति के खतरे को समझने की स्थिति में नहीं है। शैक्षणिक संस्थाओं द्वारा भी इसका प्रतिरोध नहीं किया जा रहा है।
हिंदुत्व की विचारधारा से अस्तित्व में आए बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में अब अधिकांश कक्षाएं हिंदी में ली जाती हैं और स्नातक और स्नातकोत्तर विद्यार्थी हिंदी या अंग्रेजी में परीक्षा दे सकते हैं। परंतु अधिकांश विद्यार्थी हिंदी में परीक्षा देते हैं और अपने शोध प्रबंध भी हिंदी में ही प्रस्तुत करते हैं। इस विश्वविद्यालय ने पिछले 30-40 वर्षों में देश को बहुत कम ऐसे बुद्धिजीवी दिए हैं, जो हमारी शैक्षणिक प्रणाली पर कोई ख़ास प्रभाव डाल सके हों। इसके विपरीत, जेएनयू व दिल्ली और हैदराबाद विश्वविद्यालयों ने हमें अनेकानेक उत्कृष्ट विद्वान, नौकरशाह और राजनेता दिए हैं। अगर इन विश्वविद्यालयों का स्तर गिराने का क्रम जारी रहा तो जल्दी ही ये विश्वविद्यालय भी साधारण तथाकथित राष्ट्रवादी विश्वविद्यालय बन कर रह जाएंगे।
यह दिलचस्प है कि हिन्दुत्ववादी उद्योग, कृषि और शिक्षा के क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर निजीकरण के हामी हैं। औद्योगिक अर्थव्यस्था के निजीकरण पर उनका जोर सर्वज्ञात है। वे नए कानून बनाकर कृषि का भी निजीकरण करने का प्रयास कर रहे हैं, जिसका किसानों की ओर से कड़ा विरोध हो रहा है। उच्च शिक्षा के निजीकरण की उनकी नीति का देश के भविष्य पर गंभीर प्रभाव पड़ेगा। शिक्षा मंत्रालय और विश्वविद्यालय अनुदान आयोग विपरीत दिशाओं में काम कर रहे हैं। निजी शैक्षणिक संस्थानों को वैश्विक (राष्ट्रवादी नहीं) बनने की इज़ाज़त दी जा रही है और सरकारी विश्वविद्यालयों को निम्न कोटि के ‘विशुद्ध राष्ट्रवादी’ संस्थान बनने की ओर ढकेला जा रहा है। वैश्वीकृत दुनिया में इस तरह की क्षेत्रीय शिक्षा प्रणाली, गरीब आदिवासियों, दलितों और ओबीसी की आगे बढ़ने से रोकेगी और ज्ञान की दृष्टि से उनका स्तर निम्न बना रहेगा।
केंद्रीय विश्वविद्यालयों के ढांचे, पाठ्यक्रम, शिक्षण के माध्यम आदि पर भारत सरकार का पूर्ण नियंत्रण रहता है। उनमें जोर वैश्विक मानकों या प्रतिस्पर्धात्मक होने पर नहीं रहता। हिंदू राष्ट्रवाद का जोर प्राचीन हिंदू (भारतीय नहीं) ज्ञान पर है और उसका लक्ष्य है अंग्रेजी माध्यम से और विदेशी ज्ञान के शिक्षण को बंद करवाना। उदाहरण के लिए, राजनैतिक विचारधाराओं के पाठ्यक्रम में यूरोपीय विचारधाराओं को हटाकर उनके स्थान पर वेदों और उपनिषदों को शामिल किया जा रहा है। बौद्ध विचारों को तो शामिल किया ही नहीं जाता।
जेएनयू और दिल्ली विश्वविद्यालय जैसे विश्वविद्यालयों में भी जोर विद्यार्थियों के अंग्रेजी बोलने और लिखने के कौशल को बढाकर उन्हें विश्व स्तर पर प्रतिस्पर्धा करने के योग्य बनाना नहीं होता। इसकी जगह, उन्हें हिंदी और हिंदुत्व तक सीमित करने का प्रयास होता है। चीन भी शैक्षणिक मसलों में इतना तंग दिमाग नहीं है।
हाल में अशोका विश्वविद्यालय से प्रताप भानु मेहता के त्यागपत्र पर हुए विवाद से यह पता चलता है कि शैक्षणिक उत्कृष्टता के लिए जाने जाने वाले शिक्षक जेएनयू और दिल्ली विश्वविद्यालय जैसे केंद्रीय विश्वविद्यालयों को छोड़कर, निजी विश्वविद्यालयों में जा रहे हैं क्योंकि उन्हें लगता है कि शिक्षा के प्रति उनके वैश्विक दृष्टिकोण को वहां अधिक सराहना और तरजीह मिलेगी। परंतु जो शीर्ष अकादमिक, प्रतिष्ठित सरकारी विश्वविद्यालयों को छोड़कर निजी विश्वविद्यालयों में जा रहे हैं, उन्हें अपने निर्णय पर पुनर्विचार करना चाहिए। निजी विश्वविद्यालयों में गरीब, माध्यम वर्ग और दमित तबकों के विद्यार्थियों का प्रतिनिधित्व न होने से वे भारत की आम जनता के हित में काम नहीं करते। कम से कम मेरी राय में केवल धनी वर्ग के विद्यार्थियों को पढाना, किसी को बौद्धिक संतोष नहीं दे सकता।
(अनुवाद: अमरीश हरदेनिया, संपादन : नवल)
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