“राजनीति में हिस्सा न लेने का एक दंड यह भी है कि अयोग्य लोग आप पर शासन करते हैं”– प्लेटो (महान राजनीतिक विचार)
राजनीतिक विचारक रहे प्लेटो की यह उक्ति महत्वपूर्ण हैं। खासकर तब और भी अधिक जब राजनीति में पीछे छूट गए लोगों की भागीदारी का सवाल हो। पसमांदा समाज ऐसा ही समाज है, जो कई कारणों से पीछे छोड़ दिया गया।
देश मे जब जब पसमांदा समाज की बात होती है या उसकी भागीदारी का ज़िक्र होता है तो कई सवाल यूँ ही खड़े हो जाते हैं कि कब, क्या और कैसे? ये सवाल जायज़ भी हैं क्योंकि देश क़रीबन 18 करोड़ मुस्लिम समाज की 85 फीसदी पसमांदा मुस्लिम आबादी अगर आज सवाल उठा पा रही है तो कैसे? यह विमर्श किन लोगों ने शुरू किया था? पसमांदा आंदोलन का आरंभ कैसे हुआ था?
वर्तमान के संदर्भ में इन प्रश्नों का उत्तर आवश्यक है ताकि इस समुदाय को लेकर देश में शुरू हुए पहल को गति मिल सके।
जब पसमांदा समाज के लोगों की राजनीतिक भागीदारी का सवाल सामने आता है तो जेहन में अब्दुल क़य्यूम अंसारी (1 जुलाई, 1905-18 जनवरी, 1973) का नाम सबसे पहले आता है। जब देश भर में “दो राष्ट्र” को लेकर गहमागहमी थी तब जिन्ना खुद को मुसलमानों के नेता के रूप में खुद को पेश कर रहे थे। उन्हें माना भी यही जा रहा था कि वह मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करते हैं। लेकिन मुसलमानों की ओर से उठ रही आवाजों में एक आवाज़ ऐसी थी जिसमें जिन्ना का खुला विरोध था। यह आवाज अब्दुल कय्यूम अंसारी की थी, जिन्होंने न सिर्फ जिन्ना के “दो राष्ट्र” मसौदे को ठुकराया था, बल्कि खुलेआम जिन्ना का विरोध करते हुए कांग्रेस को खुलकर समर्थन भी दिया था।
बिहार के डेहरी-ऑन-सोन में जन्में अब्दुल क़य्यूम अंसारी ने जब समाज को देखना चाहा तो उस वक़्त समाज अंग्रेजों के ज़ुल्म और अत्याचार का मारा था। बहुत कम उम्र ही में इन्होंने राष्ट्रीय कांग्रेस के बैनर तले अंग्रेज़ी सरकार का विरोध करना शुरू कर दिया। असहयोग आंदोलन में गांधी और तमाम राजनेताओं के साथ उन्होंने भी आंदोलन किया और केवल 16 साल की उम्र में उन्हें जेल भी जाना पड़ा।
वर्ष 1938 के दौरान अब्दुल क़य्यूम अंसारी ने मुस्लिम लीग के खिलाफ एक नई राजनीतिक पार्टी “मोमिन कॉन्फ्रेंस” बनाई थी। अब्दुल क़य्यूम अंसारी के राजनीति में आने की दास्तान बहुत रोचक है।
अली अनवर की ‘मसावात की जंग’ में इसका उल्लेख कुछ यूं किया गया है – “बकौल खालिद अनवर अंसारी (क़य्यूम साहब के बड़े बेटे) उन्होंने एक बार अपने अब्बा से पूछा कि वह चुनावी राजनीति में कैसे आए? उन्होंने बताया कि 1938 में पटना सिटी क्षेत्र की सीट के लिए उपचुनाव होने वाला था। उन्होंने सोचा क्यों न इस सीट से अपनी किस्मत आजमाई जाए। इस सीट के लिए उम्मीदवार तय करने हेतु बाहर से कई मुस्लिम लीग के नेता भी आये थे। स्थानीय नेता तो थे ही। पटना सिटी के नवाब हसन के घर पर प्रत्याशियों से इसके लिए दरखास्त ली जा रही थी। वह [अब्दुल कय्यूम अंसारी] भी दरखास्त देने वहां गये। दरखास्त जमा कर अभी वह दरवाजे तक लौटे ही थे कि अन्दर से कहकहे के साथ आवाज आयी कि अब जोलाहे भी एमएलए बनने का ख्वाब देखने लगे। इतना सुनना था कि वह फौरन कमरे के अन्दर गये और कहा कि ‘मेरी दरखास्त लौटा दीजिए, मुझे नहीं चाहिए आपका टिकट।’”
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इस घटना को जैसे घटित ही इसलिए होना था ताकि अब्दुल क़य्यूम अंसारी सक्रिय रूप से राजनीति में आयें। मोमिन कॉन्फ्रेंस के उम्मीदवार के रूप में 1946 के चुनाव में उन्होंने जीत हासिल किया और पसमांदा समाज से आने वाले बिहार के पहले मंत्री भी बने।
पसमांदा आंदोलन के दूसरे इतिहास पुरुष हैं मौलाना अली हुसैन (15 अप्रैल, 1890-6 दिसम्बर, 1953)। उन्हें आसिम बिहारी के नाम से भी जाना जाता है। अब्दुल कय्यूम अंसारी के जैसे ही उन्होंने भी न सिर्फ मुल्क की आजादी के लिए जंग में हिस्सा लिया बल्कि मुसलमानों में पिछड़ों और अति पिछड़ी कौमों की आवाज़ भी बनने का काम किया।। उन्हें पसमांदा आंदोलन की बुनियाद डालने वाला माना जाता है। कलकता में मामूली सी नौकरी करने के साथ ही वह जंग-ए-आजादी और गरीब-मजलूम लोगों के लिए सियासत में भी सक्रिय थे। इसलिए सिर्फ 24 साल की उम्र में ही 1914 में मौलाना आसिम ने दारुल मुज़ाक़रा (चर्चा स्थल) आरंभ किया था, जो ज़िला नालंदा के मोहल्ला खाँसगंज में था। यहां उन्होंने एक पुस्तकालय का आगाज भी किया था। उनका मकसद था कि पसमांदा समाज के बच्चे पढाई-लिखाई के साथ ही उन सवालों पर बहस में भाग लें जो उनसे जुड़े थे।
इसके बाद जमीयतुल मोमिनीन नामक संगठन बनाने का श्रेय भी मौलाना आसिम को ही जाता है जो उन्होंने 1920 में शुरू किया था और इसके पहले अधिवेशन में मौलाना आज़ाद जैसे नेताओं ने हिस्सा लिया था।
मौलाना अली हुसैन ने उस गैर बराबरी को देखा था जो अक्सर अशराफ मुसलमान पसमांदा समाज के लोगों के साथ किया करते थे। इसी वजह से उन्होंने पसमन्दा समाज की तमाम जातियों को आगे बढाने या जोड़ने का भरपूर प्रयास जारी रखते हुए आवाज़ उठाई और “मोमिन गजट” नामक पत्रिका में उनके विमर्श और चिंतन को बहुत ज़िम्मेदारी के साथ उठाना शुरू किया। वर्ष 1930 में मुस्लिम लेबर फेडरेशन और 1931 में बोर्ड ऑफ मुस्लिम वोकेशनल एंड इंडस्ट्री क्लासेज शुरू करते हुए कामगार मुस्लिमों को समस्याएं और उनकी चिंताओं को जाना समझा और उसे लिखा भी था। उनकी इन्हीं कोशिशों का नतीजा यह रहा था कि बाद के कई चुनावों में “मोमिन कॉन्फ्रेंस” के बहुत से लोग चुनाव जीत कर आए और पसमांदा समाज तथा उनके सवालों को लेकर विमर्श राष्ट्रीय स्तर तक पहुंचा।
(संपादन : नवल)
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