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जातिगत जनगणना से मंडल-2 का आगाज : संजय कुमार

सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाली पार्टियां एवं नेता, पिछले 25-30 सालों में जिनकी दूसरी पीढ़ी आ गई है, जिनके हाथों में लीडरशिप है, जो मानने लगे थे कि उनकी मांग अब पुरानी होने लगी है, उनका फिर से नया जन्म होगा। पढ़ें, सीएसडीएस, नई दिल्ली के निदेशक प्रो. संजय कुमार का यह विशेष साक्षात्कार

सीएसडीएस, नई दिल्ली के निदेशक प्रो. संजय कुमार देश के प्राख्यात चुनावी विश्लेषक हैं। जातिगत जनगणना को लेकर देश भर में उठ रहे सवालों के मद्देनजर फारवर्ड प्रेस के हिंदी संपादक नवल किशोर कुमार से विशेष साक्षात्कार में प्रो. कुमार न केवल जातिगत जनगणना को अहमियत देते हैं बल्कि वे मंडल-2 आंदोलन का आगाज भी बताते हैं। प्रस्तुत है यह विशेष साक्षात्कार

साक्षात्कार

सैफोलॉजी के हिसाब से जातिगत जनगणना का महत्व क्या है?

सैफोलॉजी में आंकड़ों के आधार पर अनुमान लगाया जाता है कि चुनाव में क्या नतीजे आएंगे। किस समुदाय के वोटरों की संख्या कितनी है, किस समुदाय के लोगों ने किनको वोट दिया, किस समुदाय ने बहुत ही कम वोट दिये, यह पता ही न हो कि उनकी आबादी कितनी है – इन सबकी चिंता खासकर होती है। लेकिन सैफोलॉजी अलग-अलग समुदाय के वोटरों का आंकलन सटीक तरीके से उपलब्ध कराने का कार्य करता है। वर्तमान में दलितों और आदिवासियों की मतदाताओं की संख्या उनकी जनगणना होने के नाते हमें जानकारी होती है, लेकिन ओबीसी समुदाय की चर्चा नहीं हो पाती। बिहार, तमिलनाडु और यूपी जैसे कई राज्यों में ओबीसी कितने हैं, इस बात की जानकारी हमें नहीं हो पाती है। इसी तरह उच्च जातियों की संख्या के बारे में भी हमें पता नहीं है। ये आंकड़े सैफोलॉजिकल इंटरप्रेटेशंस या चुनावी नतीजों के अध्ययन के लिए बहुत जरूरी होते हैं। 

क्या जातिगत जनगणना होने पर देश या राज्यों के स्तर पर राजनीतिक समीकरण भी बदलेंगे?

अगर आप पोस्ट मंडल राजनीति को देखें, पूरे भारत की बात न भी की जाए तो भी इससे पूरे उत्तर भारत की राजनीति में जबर्दस्त परिवर्तन आया था। वी.पी. सिंह की सरकार बनी और मंडल कमीशन को लागू किया गया। इसके पश्चात उत्तर भारत में खासकर यूपी और बिहार की सूरत ही बदल गयी। इसके पहले इन राज्यों में उच्च जातियों की राजनीति का पूरी तरह से वर्चस्व था। अब कोई भी पार्टी दोनों राज्यों में ओबीसी को नजरअंदाज कर राजनीति नहीं कर सकती। वे राजनीति भले ही कर लें लेकिन चुनाव में सफल नहीं हो सकते। मैं इसे मंडल-एक कहता हूं। इस दौर में यूपी और बिहार की राजनीति में आमूल-चूल परिवर्तन आया। मुझे लगता है कि अगर जातिगत जनगणना होती है तो दुबारा ओबीसी का मुद्दा सबसे आगे आ जाएगा। जो पार्टियां पोस्ट मंडल पालिटिक्स से उभर कर आयी थीं, जिनका कई सालों से जनता में आकर्षण कम हो रहा था, उनके जनाधार में गिरावट आ रही थी, उन्हें फिर से इस मुद्दे से नया जीवनदान मिल जाएगा।

आज लगभग सभी पार्टियां ओबीसी की जनगणना को लेकर एकमत हैं। पिछड़ा वर्ग का नेतृत्व करने वाली पार्टियां भी जातिगत जनगणना के सवाल को मुखरता से उठा रही है। क्या आज की राजनीति में अगड़ा और पिछड़ा अहम हो गया है। 

पोस्ट मंडल के काल में चुनावी राजनीति अगड़े और पिछड़े में ध्रुवीकृत होती थी। 1990 में जब मंडल कमीशन की रिपोर्ट वी.पी. सिंह ने लागू किया, उस समय ऐसा लग रहा था कि अपर कास्ट की राजनीतिक जमीन उनके पैरों तले खिसक रही है, या उन्हें समय लगेगा कि इस राजनीति पर नियंत्रण पाने में। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। ऊंची जाति की पार्टियां ओबीसी राजनीति का सहारा लेकर आगे बढ़ती हैं। इससे अगड़ों और पिछड़ों में पूरा ध्रुवीकरण हुआ। ये पार्टियां पिछड़ों का सहारा लेकर, उन्हें चैम्पियन के रूप में घोषित करने लगी। इस तरह उन्हें पिछड़े वर्ग के वोटरों पर ध्यान देना पड़ा। अगर हम पोस्ट मंडल पालिटिक्स की बात करें, तो पूरी राजनीति बिहार और यूपी से धीरे-धीरे राजस्थान या हरियाणा की तरफ जाना शुरू हुई। पिछले 30 सालों से अगड़े और पिछड़े की राजनीति चल रही है। अगर पिछड़ी जातियों की जनगणना की जाए तो उन्हें दोबारा नया जीवनदान मिलेगा। पहले से चल रही अगड़े और पिछड़े की राजनीति में धार और पैनापन भी बढ़ेगा। 

जातिगत जनगणना की मांग करने वालों का तर्क है कि जब जातिगत जनगणना में आंकड़े आएंगे, तब पिछड़े वर्गों के विकास के लिए सरकार समुचित योजनायें एवं नीतियों का निर्माण कर सकेगी। इस तर्क में कितना दम है ?

दलितों और आदिवासियों के कल्याण के लिए नीतियां इसी आधार पर बनती हैं कि जनगणना में उन्हें 15 प्रतिशत और 7.5 प्रतिशत बताया गया है। चाहे आरक्षण या छात्रवृत्ति की बात हो, उन्हें सभी सरकारी योजनाओं में लाभ उनके जनसंख्या के आधार पर मिलता है। जब ओबीसी की बात होती है तो उनकी जनगणना नहीं होने के नाते उन्हें सरकारी स्कीमों का लाभ नहीं मिल पाता है। जब मंडल कमीशन को लागू किया गया था तब उनके लिए आरक्षण 27 प्रतिशत पर फ्रीज कर दिया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय दिया कि रिजर्वेशन 50 प्रतिशत की सीमा पार नहीं कर सकता है। इस तरह ओबीसी का रिजर्वेशन 27 पर फ्रीज कर दिया गया। इसके बावजूद भी इस सीमा को हटाने के लिए डिबेट चल रही है। जिस तरह दलित-आदिवासियों को उनकी जनसंख्या के आधार पर आरक्षण मिल रहा है, उसी तरह ओबीसी को भी आरक्षण दिया जाये। अगर जातिगत जनगणना हुई तो ओबीसी के आंकड़े जरूर सामने आएंगे। मुझे लगता है कि जब सरकार की तरफ से ये आंकड़े आ जाएंगे, तब यह मांग दोबारा जोर पकड़ेगी कि ओबीसी की आबादी 40-50 प्रतिशत है तो उन्हें इतना आरक्षण मिलना चाहिए। जिन पार्टियों का जनाधार ओबीसी में हैं, जिन्होंने ओबीसी की राजनीति की है, वे इस मांग को पुरजोर तरीके से देश के पटल पर लाने की कोशिश करेंगे। वे कहेंगे कि भले ही सरकार ने आपको 27 प्रतिशत आरक्षण दिया है, फिर भी आपके साथ अन्याय हो रहा है। न्यायसंगत होगा कि हमें भी दलितों और आदिवासियों की तरह जनसंख्या के आधार पर आरक्षण दिया जाए। अब तो इस तरह की मांग जरूरी उठती दिखाई पड़ती है।

प्रो. संजय कुमार, निदेशक, सीएसडीएस, नई दिल्ली

सुप्रीम कोर्ट ने ही अधिकतम 50 प्रतिशत की सीमा तय कर रखी, जबकि मंडल कमीशन की रिपोर्ट ने 52 प्रतिशत आबादी का अनुमान लगाया था लेकिन ओबीसी को 27 प्रतिशत ही आरक्षण दिया जा रहा है। मान लीजिए ओबीसी की आबादी 60 प्रतिशत जनगणना में हो जाती है तो सुप्रीम कोर्ट के उस निर्णय के अनुसार उसे 30-35 प्रतिशत ही आरक्षण मिलेगा? 

यह कानूनी पहलुओं पर निर्भर करेगा कि उनकी डिमांड तर्कसंगत है या नहीं। लेकिन सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाली पार्टियां एवं नेता, पिछले 25-30 सालों में जिनकी दूसरी पीढ़ी आ गई है, जिनके हाथों में लीडरशिप है, जो मानने लगे थे कि उनकी मांग अब पुरानी होने लगी है, उनका फिर से नया जन्म होगा। वे इस मुद्दे पर काम करेंगे, पूरे देश भर में पार्टियां और उनके नेता उनके इर्द-गिर्द गोलबंद होंगे। राजनीति एक नई दिशा ले सकती है। इसका मतलब ये भी नहीं है कि वर्तमान में ओबीसी की राजनीति नहीं हो रही है। मगर इससे ओबीसी राजनीति में और ज्यादा पैनापन आ जाएगा। उन्हें राजनीति करने का नया प्लेटफॉर्म मिलेगा। हालांकि वे प्लेटफॉर्म पर पहले भी खड़े थे, लेकिन उस पर कमजोर दिखाई देते थे, इस राजनीति पर उनकी पकड़ कमजोर होती दिख रही थी। लेकिन जैसे ही ये आंकड़े आएंगे उनकी पकड़ फिर दोबारा मजबूत होगी। वे जाति के आधार पर आरक्षण की मांग उठायेंगे। देश की बड़ी पार्टियां चाहे उनकी सरकार भी हो इसका विरोध नहीं कर पायेंगे। 

एक पक्ष और भी है कि जातिगत जनगणना के आंकड़े आने पर पिछले तीन-चार दशकों से सत्ता में रहने वाले पिछड़े वर्ग के नेताओं पर भी सवाल उठाया जाएगा कि उन्होंने इस बीच क्या किया

केंद्र या राज्य में जिन पार्टियों को लगेगा कि उनके राजनीति की जमीन पैरों के नीचे से खिसक रही है तो वे इस तरह के जरूर आरोप लगाने की कोशिश करेंगे। क्योंकि इन पार्टियों का जनाधार ओबीसी के आधार पर ही टिका हुआ है। वे उन्हें आईना दिखाने की जरूर कोशिश करेंगे कि आप आईने में अपना चेहरा देख लीजिए कि आपने क्या किया है। आपकी राज्यों एवं केंद्र में भी हिस्सेदारी रही है। लेकिन मुझे लगता है कि इस मुद्दे की काट क्षेत्रीय पार्टियां जरूर निकालेंगीं। वे इस तर्क को लेकर आ सकते हैं कि हमलोगों ने प्रयास किया था लेकिन केंद्र सरकार उदासीन रही, उन्होंने कोई सहानुभूति नहीं दिखाई। हम तो डिमांड कर ही रहे थे। फिर से वाक्-युद्ध, फिर से आरोप-प्रत्यारोप जरूर होगा। अब यहां देखना होगा कि किनका तर्क ज्यादा तर्कसंगत है। 

अगर हम राजनीतिक स्तर पर देखें तो क्या जातिगत जनगणना होने के पश्चात अपर ओबीसी जैसे- यादव, कुर्मी, कुशवाहा में एवं अतिपिछड़ा में प्रतिस्पर्धा शुरू हो जाएगी।

प्रतिस्पर्धा तो पहले ही शुरू हो चुकी है। हर राज्यों में ओबीसी के अंदर बहुत सारी जातियां हैं जो संख्या के तौर पर एवं सामाजिक-आर्थिक दृष्टिकोण से भी दूसरी जातियों से प्रबल दिखाई देती हैं। बिहार में यादव, कुर्मी ओबीसी जातियां दूसरी जातियों से कहीं ज्यादा सम्पन्न हैं। ये जातियां संख्या की दृष्टि से भी बड़े हैं, आर्थिक और राजनीतिक दृष्टि से भी सम्पन्न हैं। यूपी में यादवों की संख्या 10-12 प्रतिशत है और और ये आर्थिक-राजनीतिक दृष्टि से वर्चस्वशाली भी हैं। बीजेपी ने अपने 10 सालों की राजनीति में सत्ता-वर्चस्व प्राप्त ओबीसी जातियों को छोड़कर लोअर ओबीसी एवं अत्यंत पिछड़ी जातियों को गोलबंद करने का कार्य किया है। इसमें उन्हें काफी सफलता भी मिली है। प्रतिस्पर्धा तो पहले से ही अपर ओबीसी एवं लोअर ओबीसी में चल रही है। जैसाकि सैफोलॉजी के बारे में हमने चर्चा की है कि आज से 10-15 साल पहले ओबीसी का वोट किन पार्टियों को जाता है। अब हम इस चर्चा के दूसरे बिंदू पर आते हैं। क्या ओबीसी का वोट गोलबंद है। जब हम इस पर विचार करते हैं तो हमें ओबीसी का वोट गोलबंद दिखाई नहीं पड़ता। अपर ओबीसी ऐसे पार्टियों के साथ खड़े दिखाई देते हैं, जिन पार्टियों के साथ कई दशकों से वे जुड़े रहे हैं। लेकिन जो निन्म ओबीसी हैं, उनका झुकाव बीजेपी की तरफ बढ़ना शुरू हो गया है। पिछले चुनाव को ही देखें तो यह बात निम्न ओबीसी में स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ती है। बीजेपी ने निम्न ओबीसी में पैठ बना ली है।

कुछ लोगों का तर्क है कि अगर संसाधनों के नाते भारत सरकार पिछड़ों की जनगणना नहीं करा सकती है तो क्यों न उच्च जातियों की ही जनगणना करा लें। 

यह तो बहुत ही सिम्पल बात है। आपको जनगणना करने के लिए घर-घर जाना होगा एवं उनसे जाति पूछनी है। वह व्यक्ति चाहे ओबीसी का हो या उच्च जाति का, उसकी संख्या, उसकी जाति की गणना करनी है। इसमें संसाधनों का कोई मामला नहीं है। वैसे भी सेंसस करने वाले सरकारी कर्मचारी घर-घर जाते हैं, दलित-आदिवासी समुदाय के हैं तो उनसे जाति पूछते हैं। ये मामला संसाधन का बिल्कुल ही नहीं है। अगर इस कार्य में कोई समस्या उत्पन्न होती है तो उसे सरकार दूर कर सकती है। जातिगत जनगणना के आंकड़े आने पर ओबीसी की संख्या के आधार पर आरक्षण की मांग जरूर जोर पकड़ेगी। वे नये सिरे से इसकी डिमांड करेगी और पार्टियां इस मुद्दे के इर्द-गिर्द गोलबंद होंगी। जिन पार्टियों का जनाधार अपर कास्ट में ज्यादा है, खासकर हम बीजेपी की बात कर रहे हैं। क्योंकि बीजेपी को हर वर्ग और जाति के लोगों का वोट मिल रहा है। बीजेपी को 2019 के चुनाव में 37 प्रतिशत वोट मिले। लेकिन अनुपात में देखें तो बीजेपी को अपर कास्ट का बहुत ज्यादा वोट मिलता है। तकरीबन 67-68 प्रतिशत उच्च जातियों ने बीजेपी को वोट किया। अगर दलितों में देखेंगे तो लगभग 30-32 प्रतिशत एवं ओबीसी को 40-42 प्रतिशत वोट मिलते हैं। लेकिन बीजेपी को सभी वर्गों का वोट मिल रहा है। उच्च जातियों का झुकाव जिस तरीके से बीजेपी के साथ है, वैसा दूसरे समुदाय या जाति का नहीं है, जब ये आंकड़े सामने आयेंगे, उच्च जातियों एवं ओबीसी की संख्या कितनी हैं, तब तस्वीर दूसरी होगी। अगर ऐसा संदेश जाने लगा कि दूसरी पार्टियां ओबीसी के मुद्दे को ज्यादा प्रबल तरीके से उठाने की कोशिश कर रही हैं तो बीजेपी को नुकसान हो सकता है। इसी बात को लेकर बीजेपी जातिगत जनगणना के मुद्दे को दबाने की कोशिश में है। 

बिहार में तेजस्वी यादव ने वहां के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार से अनुरोध किया है कि अगर भारत सरकार जातिगत जनगणना नहीं कराती है तो राज्य स्तर पर अपने यहां कराये। ऐसी ही पहल तमिलनाडु में एम.के. स्टालिन ने भी की है। आपके हिसाब से क्या यह व्यवहारिक एवं लाभदायक होगा।

बिल्कुल व्यवहारिक होगा। जब सरकार जनगणना कराती है तो तमाम सरकारी स्कूल टीचर या सरकारी कर्मचारी, वे घर-घर जनगणना करने जाते हैं। राज्य सरकार के पास जनगणना कराने के लिए पर्याप्त संसाधन हैं। जगगणना करना कितना लाभदायक होगा? यही प्रमुख सवाल है। राज्य सरकार को इसकी जिम्मेदारी लेनी होगी। उसे अपनी नीतियों में फेर-बदल और परिवर्तन करना होगा। राज्य सरकार यह कर सकती है कि किसको कितना देना है। लेकिन जहां केंद्र सरकार का मामला होगा, लाभ मिल नहीं पायेगा। राज्य सरकार कोई भी जनगणना करा लें, उसका लाभ केन्द्र की स्कीम में नहीं मिलेगा। राज्य सरकार द्वारा कराये गए जनगणना का लाभ राज्य सरकार की स्कीमों में ही मिल सकता है। 

आदिवासियों की जनगणना की भी बात आपने की थी। इसी से जुड़ा हुआ एक सवाल है कि देश भर के आदिवासी मांग उठा रहे हैं कि जनगणना के प्रपत्र में उनके धर्म को भी शामिल किया जाए। जबकि इस मामले में सरकार उदासीन है। आप उनकी मांग को कैसे देखते हैं?

भारत सरकार क्यों उदासीन है, यह बड़ा मुद्दा नहीं होना चाहिए। जब भी जनगणना किया जाता है तो धर्म वाले कालम में उसका उल्लेख कर दिया जाता है। आज कुछ राज्यों के आदिवासी अब एक नये धर्म को मानते हैं, जैसे– झारखंड, उड़ीसा जैसे राज्यों में। वे हिंदू धर्म को नहीं मानते हैं, अलग धर्म को मानते हैं। महाराष्ट्र में देख लीजिए आज बौद्ध धर्म के मानने वाले पहले हिंदू धर्म को मानते थे। बाकी आदिवासियों में क्रिश्चियन और हिंदू धर्म भी हैं। अगर जनगणना की प्रक्रिया को सजगतापूर्व देखें, तो आप पाएंगे की सेंसस के धर्म वाले कालम में आदिवासी नहीं लिखा होता है। मेरे समझ से यह सवाल सरकार से पूछा जाना चाहिए। क्योंकि आज भी उनसे धर्म जरूर पूछा जाता है लेकिन धर्म की जो कैटेगरी है, उसमें सुधार करने की मांग उठानी होगी। 

मेरा यह सवाल सेंसस करने की प्रक्रिया से ही जुड़ा हुआ है। सरकार अपने तरीके से शिक्षक एवं कर्मचारी भेजती है, उनके बारे में ऐसा कहा जाता है कि वे किसी गांव में जनगणना करने जाते हैं तो एक जगह बैठ जाते हैं या गांव के किसी प्रमुख आदमी को पकड़ लिया तो उससे सारी जानकारी ले लेते हैं। इससे कई परिवारों का सेंसस नहीं हो पाता है। दूसरी बात जो उच्च जातियों से जुड़ी है, वे उच्च जातियों में जाते हैं एवं वहीं से सूचनाएं एकत्र करते हैं। इस पूरी प्रक्रिया को बेहतर बनाये जाने के संबंध में आपका क्या कहना है?

निश्चित रूप से ऐसी घटनायें जरूर घट रही होंगी। जनगणना करनेवाले कई बार अपना काम सही तरीके से नहीं करते हैं। मेरा कहना है कि उन्हें अपना दायित्व अच्छे तरीके से निभाना चाहिए। अगर आपको सरदर्द है तो सरदर्द की गोली खाने पर दर्द ठीक हो जाता है। अगर किसी की तबियत ज्यादा खराब है तो उसे तमाम तरह के टेस्ट और दवाईयां देने की जरूरत पड़ती है। इस तरह की घटनायें छिट-पुट ही सही, लेकिन हो रही है। यह सरदर्द की तरह है। लेकिन ऐसा नहीं होना चाहिए। जनगणना करने वाले हर घर में जायें। हर घर में जाकर इस बात का आंकलन करें कि घर में कितने व्यक्ति हैं, उनकी जाति क्या है। अगर ये गलतियां बड़े पैमाने पर दिख रही हों तो सरकार को इस समस्या को सुलझाने के लिए गंभीरता से सोचना चाहिए। मेरी समझ से यह समस्या इतनी भी गंभीर नहीं दिखाई पड़ती। अगर समुद्र का पानी खारा है, उसमें दो-चार बाल्टी मीठा पानी डाल भी दिया जाए तो भी वह जल खारा ही रहेगा। अगर बहुत सारे लोग ऐसा कर रहे हैं तो हमें सचमुच ही इस जनगणना पर प्रश्नचिन्ह लगाने की जरूरत है। लेकिन छिटपुट ऐसी घटनायें होती हैं। इस काम में यह त्रुटि तो है, लेकिन यह पूरी जनगणना को खराब नहीं कर पाएगी। 

आप जातिगत जनगणना को कितना महत्वपूर्ण मानते हैं ?

महत्वपूर्ण है या नहीं यह हमें बाद में पता चलता है। लेकिन मेरा मानना है कि इसमें कोई नुकसान नहीं है। अगर मुझे इस मुद्दे पर निर्णय करना होता, तो इतने कंट्रोवर्सी से बचने के लिए जातिगत जनगणना कराने का निर्णय लेता। हम इसी मुद्दे पर जद्दोजहद करने के बजाय क्यों न जातिगत जनगणना करा लें। सेंसस नहीं करवाने पर लोगों में निःसंदेह तरह-तरह की दुविधायें उत्पन्न होंगी। दलितों, आदिवासियों और ओबीसी की जनगणना करा लेनी चाहिए। वैसे भी जनगणना करने वाले घर-घर जाकर यह पूछते ही हैं। अब हमें उनकी जाति का सेंसस करना है। चाहे वह व्यक्ति ओबीसी का हो या उच्च जाति का हमें समान रूप से जाति का सेंसस करना है। मुझे लगता है इसमें कोई खराबी नहीं है न ही कोई नुकसान है।

(संपादन : इमानुद्दीन/अनिल)


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लेखक के बारे में

नवल किशोर कुमार

नवल किशोर कुमार फॉरवर्ड प्रेस के संपादक (हिन्दी) हैं।

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