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मूकदर्शक नहीं, सहभागी होते हैं आदिवासी : मेघनाथ

आदिवासियों की संस्कृति में समानता की बात होती है। इसे मैं एक उदाहरण देकर समझता हूं। मान लें कि कोई सामंतवादी है। वह कहीं डांस देखने जा रहा है। वह जिसका डांस देख रहा है, वो ना तो उसकी मां है, ना बीवी, ना बहन। वह वहां एक दर्शक है। लेकिन आदिवासी समाज में कोई दर्शक और कोई कलाकार नहीं होता। जो अभी डांस देख रहा है, दर्शक है, लेकिन थोड़ी देर में वह खुद डांस करेगा और तब वह सहभागी भी होगा। प्राख्यात फिल्मकार मेघनाथ भट्टाचार्य से प्रियंका की खास बातचीत

मेघनाथ भट्टाचार्य, देश की उन गिनी-चुनी शख्सियतों में से एक हैं, जिन्होंने कला के माध्यम को विनाशकारी विकास व सामंतवाद के खिलाफ एक हथियार की तरह इस्तेमाल किया है। बीते चार दशकों से झारखंड में बतौर फिल्मकार व सामाजिक कार्यकर्ता वे वंचित व उत्पीड़ित समुदायों के साथ खड़े नजर आते रहे हैं। झारखंड में बनी स्थानीय फिल्मों को अंतरराष्ट्रीय मंच पर पहचान दिलाने में मेघनाथ का अहम योगदान रहा है। उनकी प्रतिबद्धता का अंदाजा इसी बात से लगया जा सकता है कि मुंबई में वर्ष 1953 में जन्मे मेघनाथ ने मायानगरी की चकाचौंध से दूर एक सामाजिक कार्यकर्ता के तौर पर अपने काम की शुरुआत की और झारखंड के होकर रह गए। उन्हें 59वां और 65वां राष्ट्रीय फिल्म फेयर पुरस्कार समेत कई अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। पढ़ें, झारखंड के आदिवासी संस्कृति और उनके विभिन्न पहलुओं पर प्रियंका से उनकी बातचीत का संपादित अंश

आपने अपनी शुरुआत एक सामाजिक-सांस्कृतिक कार्यकर्ता के तौर पर की थी। फिर चाहे वो बांग्लादेशी रिफ्यूजी कैंप हो या पलामू में बंधुआ मजदूरों के लिए काम करना रहा हो। एक सामाजिक कार्यकर्ता से एक फिल्म निर्माता का सफर कैसे शुरू हुआ?

मैं एक सामाजिक कार्यकर्ता हूं। मेरी समाज के प्रति जिम्मेदारी है। फिल्में मेरे सामाजिक कार्यों का ही विस्तार है। मेरी फिल्में भी समाज के मुद्दों को सामने लाती हैं। फिल्मों के जरिए मैंने उन मुद्दों को उठाया, जिन्हें किसी ने नहीं उठाया। वर्ष 1970-80 के दशक में जब मैं सामाजिक कार्यों में लगा था, तब मैने देखा कि आदिवासियों के मुद्दे उस तरीके से नहीं उठाये जा रहे हैं, जैसे उठाए जाने चाहिए। उन्हें टॉप एंगल से दिखाया जा रहा था, जिनका भाव यह होता कि आदिवासी या तो बेचारे हैं या फिर बहुत बदमाश हैं। मुझे लगा कि अपने सिनेमा के जरिये मुझे चीजों को बराबरी के नजरिये से दिखाया जा सकता है। आदिवासियों को समाज में एक स्टिरियो टाइप इमेज [रूढ़िवादी धारणा] से बाहर निकाल कर, असली तस्वीर दिखाने की जरूरत थी। मुझे लगा कि उपनिवेशिक मानसिकता से लोगों को बाहर लाना होगा। फिर चाहे वह फोटाग्राफी के जरिए हो, या फिर लेखन के जरिए मेरे लिए सिनेमा कोई ग्लैमर की चीज नहीं है। 1980 के दशक में जब मैं सामाजिक कार्यकर्ता था, तो मैं राजनीति से तंग आ चुका था। मेरे लिए रोज-रोज की राजनीति करना मुमकिन नहीं था। तब मेरे दोस्तों ने कहा कि मेघनाथ तुम फोटोग्राफी में अच्छे हो, तुम फिल्में क्यों नहीं बनाते। उस समय मेरे लिए भी सिनेमा बस मनोरंजन की चीज थी। वर्ष 1987-88 में मेरे दोस्तों ने डॉक्यूमेंट्री फिल्मों के बारे में बताया। फिर मेरी मुलाकात आनंद पटवर्धन से हुई। फिर मैं तपन बोस से मिला, जिसके बाद सिनेमा के प्रति रुझान बढ़ा। वर्ष 1991 में रांची आने के बाद मैंने इस ओर काम शुरू किया। प्रारंभ में मैंने कोई फिल्म बनाने के बारे में नहीं सोचा था। मैंने अपने नाम से फिल्म 2003 में बनाई, जो थी– ‘डेवलपमेंट फ्लो थ्रू दी बॅरल ऑफ दी गन’। फिल्म के जरिये मैंने देश के समक्ष इन मुद्दों को रखा कि विकास के नाम पर कैसे ग्रामीणों का हक छीना जा रहा है। इसी तरीके से आदिवासी, गरीब-पिछड़ों से जुड़े मुद्दों को राजनीतिक समझ के साथ सामने लाने की कोशिश हमने की। 

आपका जन्म बंबई में हुआ। कलकत्ता और बैंगलोर जैसे बड़े शहरों से आपने शिक्षा ग्रहण किया। उसके बाद झारखंड आए। झारखंड में आपको सबसे ज्यादा किस बात ने आर्कषित किया, जो आपने यही काम करना शुरु कर दिया?

मेरी सोच शुरू से यही रही कि मुझे दमित और वंचित समुदायों के लिए काम करना है। अब दमित और वंचित समुदाय कौन हैं। ये तो दलित हैं आदिवासी हैं। लिंगभेद के नाम पर महिलाएं पीड़ित हैं। तो मुझे इनके लिए काम करना था। झारखंड में जल-जंगल-जमीन की लड़ाई इतनी गहरी थी कि महसूस हुआ कि यहां काम करना जरूरी है। पलामू में बंधुआ मजदूर की समस्या बहुत ज्यादा थी। मैं जब झारखंड आय़ा था, तब मैंने एक गंजी के लिए गरीब आदिवासी को दास बनते देखा है। उस समय महज सवा रुपए की एक गंजी आती थी। लेकिन 10 सालों में वह सवा रुपया 30 रुपए बन जाता था। और उस 30 रुपए के लिए कम से कम पांच सालों के लिए वह आदिवासी जमींदार का दास हो जाता था। मैंने आदिवासी महिलाओं के साथ सामंतों की ज्यादती देखी है। फिर विकास के नाम पर झारखंड के आदिवासियों को ही उनकी जमीन से बेदखल किया जा रहा था, जिसके खिलाफ आवाज उठाना जरूरी था। आदिवासियों की गरीबी दूर करने के नाम पर उनके हक छीने जा रहे थे। यहां फादर स्टेन, पद्मश्री डॉ. रामदयाल मुंडा जैसे लोगों का भी साथ मिला। फिर झारखंड आंदोलन जोरों पर था, उसमें भी मैंने सक्रिय भूमिका निभाई है। लेकिन मैंने नेता बनने के लिए इस आंदोलन में भाग नहीं लिया था। हमारी अपनी सोच थी। हमने समाज के दबे-कुचले लोगों का साथ दिया, उनके लिए काम करने की कोशिश की है।

मध्यकालीन भारतीय इतिहास में आदिवासी संस्कृति, सभ्यता और उनकी उपस्थिति के उतने प्रमाण नहीं मिलते हैं जितना कि अन्य के इसकी कोई खास वजह रही? क्या अंग्रेजों के पहले किसी ने आदिवासियों के जनजीवन को प्रभावित नहीं किया?

किसी के बारे में लिखना भी सामंती सोच की उपज है। आदिवासी समाज एक सामूहिक समाज है। उस सामूहिक समाज में सब एक समान हैं। उनमें एक शिवाजी या एक महाराणा प्रताप नहीं होता है। आदिवासी वामपंथियों की तरह रहते हैं। कोई संकट आने पर सभी मिलकर उसका सामना करते हैं। संकट की घड़ी में आदिवासी अपना एक नेता जरूर चुनते हैं, लेकिन संमस्या के समाधान के बाद वह शख्स फिर आम आदमी की तरह ही रहता है। उसका कोई महिमामंडन नहीं होता। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि आदिवासी समाज में नेतृत्व की कमी रही है। आदिवासी समाज में सामूहिक नेतृत्व की संस्कृति रही है। आदिवासी समाज का राजा भी आम आदमी होता है। इसलिए इसे समझना होगा कि क्यों इतिहासकारों ने आदिवासी समाज के बारे में ज्यादा नहीं लिखा, क्योंकि यहां समानता का समाज रहा औऱ संकट की घड़ी में ये मिलकर काम करते थे। सन् 1700 में जब मुगल शासक आदिवासी राजा दुर्जन साल को गिरफ्तार कर ग्वालियर ले गये। जब दुर्दन साल वहां गये, तब उन्होंने देखा कि राजाओं के क्या ठाठ-बाट होते हैं। उसके बाद यहां के राजा थोड़ा ठाठ-बाट से रहने लगे। 

इसके साथ ही आदिवासी समाज झगड़े-झंझटों में नहीं पड़ना चाहता था। बहुत बार उनलोगों ने अपना हक छोड़ दिया है। उदाहरण के लिए, अंडमान को बनाने वाले झारखंड के आदिवासी मजदूर थे, उन्हें रांचीआइटिस्ट कहा गया। लेकिन लोग वहां आते गये और आदिवासी पीछे हटते गये। इसलिए इतिहास में आदिवासी समाज का बहुत जिक्र नहीं था। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि आदिवासी समाज लड़ने से डरता था, जब जरूरी हुआ तब उन्होंने आवाज उठायी और अपने हक के लिए लड़े भी। आदिवासी समाज में सामंती राजा वाली सोच नहीं थी, इसलिए इतिहास में बहुत वर्णन नहीं दिखता है।

अंग्रेजों के आने के बाद आदिवासी विमर्श सामने आता है और साथ ही उसका विद्रोह भी क्या आप मानते हैं कि इसमें सांस्कृतिक प्रतिरोध के तत्व भी शामिल थे?

आदिवासियों का विद्रोह उनकी संस्कृति के खतरे में आने पर ही ज्यादा होते थे। अंग्रेज तो कम संख्या में भारत आय़े थे, लेकिन स्थानीय लोगों को उन्होंने अपने साथ मिला लिया था। उस समय जमींदारी प्रथा जोरों पर थी। अंग्रेजों ने उसे बढ़ावा दिया। जमींदारी प्रथा के नाम अंग्रेजों को टैक्स चाहिए था, बाकी जमींदारों को जितना अत्याचार करने की छूट थी। अंग्रेज तो ऊपर में थे, लेकिन जमींदार तो आदिवासियों से सीधे जुड़े थे। वर्ष 1830 में मुंडा विद्रोह, 1855 में हूल विद्रोह हुआ। वहीं उन्नीसवीं सदी के अंत में बिरसा मुंडा का विद्रोह होता है। इस तरह के प्रतिरोध सांस्कृतिक होते थे। आदिवासी समाज पर अगर कोई खतरा आया, तो पूरे समाज ने मिलकर उसका सामना किया है। 

आदिवासी समाज के लिए सामूहिक अस्तित्व खतरे में आ जाता है, क्योंकि इनकी कोई सामंतवादी नीति तो है नहीं, ये सामूहिक तौर पर काम करते हैं। तो इन खतरों का इनलोगों ने मिलकर समय-समय पर सामना किया। वैसे भी एक समूह का अलग ताना-बाना होता है, वहीं दूसरे समूह का अपना ताना-बाना है, लेकिन हमेशा एक समूह जब दूसरे को संपर्क में आता है, तो संस्कृति खतरे में पड़ती है। वैसे भी मार्क्सवाद में कहा जाता है कि पृथ्वी का इतिहास वर्ग संघर्ष का इतिहास है और हर वर्ग की अपनी संस्कृति होती है। मार्क्सवाद में कहा जाता है कि, ‘समाज वर्ग में विभाजित है और हर वर्ग का अपना हित है।’ और ये वर्ग सांस्कृतिक तौर पर निर्घारित होते हैं। 

आजादी के बाद आदिवासी विमर्श को लेकर जो बदलाव आया, उसमे जयपाल सिंह मुंडा आदि की बड़ी भूमिका रही लेकिन यह राजनीतिक स्तर पर हुआ बदलाव था सांस्कृतिक और सामाजिक स्तर पर जो बदलाव हुए, उनके बारे में आप क्या कहेंगे?

आजादी के बाद आदिवासियों की हालत में कोई बहुत फर्क नहीं आय़ा। कभी-कभी आजादी आदिवासी समाज के लिए सभी दिशा से डंडा खाने जैसा हो गया। इस समाज के कुछ लोग तो कटाक्ष भी करते हैं कि जिस आजादी की लड़ाई में हम डंडा लेकर कूदे, उसी डंडे पर आज ये लोग झंडा लगाकर घूम रहे हैं। लेकिन हमारा क्या? पलामू के बुजुर्ग से जब मैंने बहुत पहले बात की थी तो वो बताते थे कि गांधी-नेहरू के कहने पर डंडा लेकर आजादी की लड़ाई में कूद गये, लेकिन वे आज भी वहीं हैं। उसी हालात में जी रहे हैं। आदिवासी समाज को आजादी के बाद दरकिनार कर दिया गया। संविधान को पेश करने के दौरान भी बाबा साहेब ने कहा था कि संविधान में बहुत अंर्तद्वंद है। संविधान में आर्थिक समानता, सामाजिक समानता की बात की गयी है। लेकिन समाज में यह समानता नहीं है, इसलिए इस खाई को पाटने की जरूरत होगी। अगर ऐसा नहीं हुआ तो इस संविधान के नियम सतही तौर पर लागू नहीं हो पायेंगे। लेकिन आजादी के 70 सालों के बाद भी इस खाई को पाटा नहीं जा सका है। आज भी दलित-आदिवासी पीड़ित है, पिछड़े हैं।

मेघनाथ भट्टाचार्य, फिल्म निर्देशक व सामाजिक कार्यकर्ता

वर्तमान में यह देखा जा रहा है कि आदिम जनजातियों का अस्तित्व खत्म हो रहा है फिर चाहे वह बिरहोर, असुर हों या कोई और साथ ही उनकी बोलियां और संस्कृतियां भी। क्या इसकी वजह यह ते नहीं कि वे आदिवासी जातियां, जिनकी संख्या अधिक है, उन्होंने तवज्जो नहीं दी? या फिर ये बाहरी अतिक्रमण का शिकार हो रहे हैं

आदिवासी होमोजिनियस [समरूप] नहीं हैं। आप देखेंगे कि संथाली हो, मुंडा हो, उरांव हो, इन आदिवासी समूह में विकास हुआ है। ये समूह शिक्षित हो रहे हैं। पिछले 100 सालों में ये आगे बढ़ रहे हैं, लेकिन उसमें भी समानता नहीं है। कुछ लोग बहुत आगे बढ़ रहे हैं। कुछ अभी भी पूरी तरह से पिछड़े हुए हैं। लेकिन कुछ आदिवासी जनजाति है, जो बेहद पिछड़े हैं, जैसे बिरहोर, असुर, पहाड़िया। ये लोग आज भी शिकारी वर्ग में आते हैं। इन लोगों ने अभी भी खेती को अपनाया नहीं है। 

आदिवासी संस्कृति और परंपराओं को आज के संदर्भ में किस प्रकार से परिभाषित किया जा सकता है

आदिवासियों की संस्कृति में समानता की बात होती है। इसे मैं एक उदाहरण देकर समझता हूं। मान लें कि कोई सामंतवादी है। वह कहीं डांस देखने जा रहा है। वह जिसका डांस देख रहा है, वो ना तो उसकी मां है, ना बीवी, ना बहन। वह वहां एक दर्शक है। एक कंज्यूमर (उपभोक्ता) है। लेकिन आदिवासी समाज में कोई दर्शक और कोई कलाकार नहीं होता। जो अभी डांस देख रहा है, दर्शक है, लेकिन थोड़ी देर में वह खुद डांस करेगा और तब वह सहभागी भी होगा। तो ऐसा है आदिवासी समाज, जहां समानता की बात होती है। वहां चाहे बूढ़ा से बूढ़ा हो या फिर छोटा बच्चा, हर कोई जीवन का आंनद लेता है। आदिवासी समाज का मूल समानता है। आदिवासी समाज अपने पूजा-पाठ में किसी एक के लिए प्रार्थना नहीं करता। वह पूरे समाज की भलाई के लिए प्रार्थना करता है। आदिवासी अपने जीवन को भरपूर जीना जानते हैं। उनके लिए हार-जीत मायने नहीं रखती है। वे कम-से-कम संसाधनों में भी जिंदगी को भरपूर जीना चाहते हैं। हार-जीत जैसे बातें विकासवादी सोच की उपज है। आदिवासी समाज में इसके लिए जगह नहीं है।

यदि कालखंड के हिसाब से बात करें तो इस संस्कृति का उद्गम काल किसे माना जाए और क्यों?

आदिवासी समाज का कैसे उद्गम हुआ है, इसके प्रमाण पूरे तरीके से नहीं हैं। आदिवासी समाज की लिखित परंपरा तो चार-पांच सौ साल पूरानी है, लेकिन इससे पहले तो मौखिक परंपरा थी। हमारे यहां मौखिक परंपरा में आदिवासी परंपरा 6-8 हजार साल पुरानी है। प्री-एग्रीकल्चर स्टेज [कृषि पूर्व कालl] का आदिवासी समाज रहा, जो समानता की बात करता है।

आपने कई फिल्में बनायी हैं। इसमें आदिवासियों से जुड़े मुद्दों से लेकर उनका जीवन तक शामिल रहा है। आपके दिल के करीब कौन सी फिल्म है?

हर सिनेमा की अपनी-अपनी जगह होती है। किसी फिल्म को राष्ट्रीय अवार्ड मिला, किसी को अंतरराष्ट्रीय अवार्ड मिला, इससे कोई फिल्म आपके करीब नहीं होती है। जैसे मेरी फिल्म “गाड़ी लोहरदगा मेल” बैंगलूरू इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में दिखायी गयी, तब एक महिला ने बताया कि उस फिल्म की डीवीडी उनके पास भी है, और उनकी बेटी उस डीवीडी को अपने तकिये के नीचे लेकर सोती थी, ताकि वो सपने में ट्रेन में घूम सके। चाय बगान में काम करनेवाले मजदूरों पर बनी फिल्म ‘कोराराजी’ के प्रदर्शन के दौरान किसी ने मेरे सहायक बीजू टोप्पो को अपनी प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि बहुत दिनों बाद किसी ने अच्छे से रुलाया है। जब लोगों की तरफ से ऐसी प्रतिक्रिया मिलती है, तो ये हर अवार्ड से बढ़कर होते हैं। वैसे ही हमारा गाना “गांव छोड़ब नाही” आज हर वर्ग के लोगों की जुबां पर है। यह मेरे लिए सबसे बड़ा सम्मान है। “नाची से बाची” फिल्म हमने रांची के सेंट्रल यूनिवर्सिटी में दिखायी थी, जिससे प्रेरित होकर एक युवक ने अपना प्रोफेशन तय किया। यह मेरे लिए सबसे बड़ी बात है।

झारखंड में फिल्म निर्माण का क्या भविष्य है?

फिल्में एक तरह की नहीं होती हैं। फिल्म मेंकिंग में देखना होगा कि डॉक्यूमेंट्री की बात हो रही है या कॉमर्शियल फिल्म की। या फिर यहां के सभ्यता-संस्कृति पर फिल्म बना रहे हैं। हमने सोहराय पर, करम पर फिल्म बनायी। सोहराय में आप देखेंगे कि आदिवासी समाज में घर कैसे बनाते हैं। इस तरह के विषयों पर फिल्म बनने से हमारे बच्चे आदिवासी सभ्यता-संस्कृति, अपने पूर्वजों के तौर-तरीके को जान पायेंगे, समझ पायेंगे। लेकिन यहां की सरकार भी व्यवसायिक फिल्मों पर ज्यादा जोर देती है। नेताओं ने पहले से मान लिया है कि डॉक्यूमेंट्री बोरिंग होती है जिन्हें कोई देखना नहीं चाहेगा। आप ये फैसला कैसे कर सकते हैं? पहले कोशिश तो करनी चाहिए। अगर छात्र इसे पसंद नहीं करेंगे तब ना। साथ ही झारखंड में फिल्मों के प्रदर्शन को लेकर सही प्लेटफार्म भी नहीं है। फिल्मों के प्रदर्शन के लिए प्लेटफार्म देना सरकार का काम है।

वर्तमान में आदिवासी फिल्मों का जो स्वरूप है, यदि उसपर मनन करें तो आप कैसा भविष्य देखते हैं

फिल्म, फिल्म होती है। आदिवासी फिल्म कुछ अलग नहीं है। मैंने आदिवासियों से जुड़े मुद्दे उठाये। कोई महिलाओं और उनकी रोजमर्रा से जुड़ी समस्याओं-परेशानियों को दिखा सकते हैं। उतने ही अच्छे से दलित-पीड़ित समाज की समस्या कोई दिखा सकता है। इसकी कोई सीमा नहीं है। ज्वलंत मुद्दे सामने आने चाहिए। बस।

झारखंड फिल्म डेवलपमेंट काउंसिल के बारे में आप क्या कहेंगे?

एक समय में मैं भी इस काउंसिल से जुड़ा रहा। तब की बीजेपी सरकार ने खुद ही मुझे इससे जोड़ा, लेकिन बाद में उन्हें पता चला कि मेरी विचारधारा अलग है, तो उनलोगों ने खुद ही मुझे हटा भी दिया। इससे मुझे फर्क नहीं पड़ा। लेकिन मैं इतना मानता हूं कि जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी फिल्म के इम्पैक्ट को समझते थे। लेकिन आज के राजनेता फिल्म की पहुंच को समझ नहीं पा रहे। आज की सरकार ने तो फिल्म डिविजन को समझिये तो खत्म ही कर दिया है। राज्य की सरकार भी सिनेमा की पहुंच को कम आंक रही है। अगर सरकार सुझाव मांगेगी तो हमलोग देंगे। कम बजट में झारखंड के बच्चे भी बेहतरीन फिल्में बना सकते हैं, और उसे राष्ट्रीय पटल पर पहचान दिला सकते हैं। लेकिन लोगों का जोर फिक्शन फिल्मों पर है। इसलिए चीजें उतनी तेजी से नहीं बढ़ रही हैं, जितनी तेजी से बढ़नी चाहिए।

(संपादन : नवल/अनिल)

लेखक के बारे में

प्रियंका

रांची विश्वविद्यालय से पत्रकारिता में स्नातकोत्तर प्रियंका झारखंड में पिछले एक दशक से विभिन्न मीडिया संस्थानों से संबद्ध रही हैं। इन संस्थानों में देशलाइव टीवी, नक्षत्र न्यूज, कशिश न्यूज और न्यूजविंग डॉट कॉम आदि शामिल हैं।

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