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मैंने भी ‘चमरासुर’ लिखकर अभिव्यक्ति का खतरा उठाया है : शमोएल अहमद

हालत यह है कि हम विरोध भी नहीं कर सकते हैं। तुरंत देशद्रोह का मुकदमा कर दिया जाएगा। मुक्तिबोध ने कहा था कि हमें अभिव्यक्ति के खतरे उठाने ही होंगे। मैंने भी ‘चमरासुर’ लिखकर अभिव्यक्ति का खतरा उठाया है। यह उपन्यास मैं नहीं लिखता तो मेरा जीना मुश्किल था। पढ़ें हिंदी-उर्दू के प्रसिद्ध लेखक शमोएल अहमद से युवा समालोचक अरुण नारायण का यह साक्षात्कार

[लिखित व अलिखित इतिहास व मौजूदा दौर के हालात पर शमोएल अहमद का उपन्यास ‘चमरासुर’ इन दिनों में सुर्खियों में है। इस उपन्यास में अहमद ने केंद्रीय पात्र के रूप में एक ऐसे नायक को विजेता के रूप में प्रस्तुत किया है जो वंचित समाज से आता है। इस उपन्यास के रचनाकार शमोएल अहमद का जन्म 4 मई, 1943 को बिहार के भागलपुर में हुआ। वे हिंदी व उर्दू के उन लेखकों में हैं, जिन्होंने बहुत कम लेकिन बहुत ही महत्वपूर्ण लिखा है। वर्ष 2003 में उन्होंने अभियंता पर से अवकाश ग्रहण किया। ‘बगूले’, ‘सिंगारदान’, ‘अलकम्बूस की गर्दन’, ‘अनकबूत’, ‘कूच-ए-कातिल की तरफ’ उनकी कहानियों के संकलन हैं। वहीं उनके उपन्यासों में ‘नदी’, ‘महामारी’, ‘गिर्दाब’ और ‘चमरासुर’ उनके प्रकाशित उपन्यास हैं। ‘ऐ दिल ए आवारा’ उनकी संस्मरण की पुस्तक है और ‘कैक्टस के फूल’ उनकी आलोचना पुस्तक। संप्रति पटना और हैदराबाद में उनका रहना होता है। पढ़ें, युवा समालोचक अरुण नारायण से शमोएल अहमद की खास बातचीत का संपादित अंश]

इन दिनों आप क्या लिख रहे हैं?

इन दिनों मैं अंधेरे की गर्त में हूं। जो स्थिति देश की है उसकी पीड़ा बहुत कष्टदायक है। इस पीड़ा से उबरने के प्रयास में कुछ कहानियां मैंने लिखीं जैसे– ‘कसाब की महबूबा’, ‘मोर के आंसू’, ‘घर वापसी’ आदि।

क्या आपको लगता है कि इन कहानियों का प्रभाव पाठक वर्ग या साहित्यिक समाज पर होता है?

कोई प्रभावकारी स्थिति नहीं बनती। और कोई लेखक यह सोचकर लिखता भी नहीं है कि मेरी रचना प्रभाव डाले समाज के उपर, लेकिन लिखना उसकी मजबूरी है। हर ईमानदार रचना अपने परिवेश की विसंगतियों के खिलाफ एक विरोध दर्ज करती है। लेखक को निरंतर विरोध दर्ज करते रहना चाहिए।

आप अपने नये उपन्यास ‘चमरासुर’ के कारण सुर्खियों में हैं। इस उपन्यास को लिखने की प्रेरणा आपको कहां से मिली? उसकी रचना प्रक्रिया क्या रही है?

इधर पांच सालों में दलितों, अल्पसंख्यकों के उपर जुल्म बहुत बढ़ गए। अल्पसंख्यकों को तो हाशिये पर ही ला दिया गया। बहुत आश्चर्य और दुख की बात है कि कम उम्र की बच्चियों का भी रेप होता है और रेपिस्ट के समर्थन में जुलूस निकलता है। हाथरस में जिस दलित बच्ची का रेप हुआ उसके मां-बाप को अंतिम संस्कार भी करने नहीं दिया गया। चूंकि रेपिस्ट दबंग जाति के थे, इसलिए कोई कार्रवाई भी नहीं हुई। जम्मू कश्मीर के कठुआ में एक मुसलमान लड़की का रेप हुआ और उस रेपिस्ट के समर्थन में एक राजनीतिक पार्टी ने जुलूस निकाला। यानी फासीवाद ने अपने पंजे देश की छाती पर गाड़ दिये हैं, जिससे इंसानियत भी छटपटाती है, समाज भी छटपटाता है और लेखक मूक बना आंखों में आंसू लिए देखता रहता है। हालत यह है कि हम विरोध भी नहीं कर सकते हैं। तुरंत देशद्रोह का मुकदमा कर दिया जाएगा। मुक्तिबोध ने कहा था कि हमें अभिव्यक्ति के खतरे उठाने ही होंगे। मैंने भी ‘चमरासुर’ लिखकर अभिव्यक्ति का खतरा उठाया है। यह उपन्यास मैं नहीं लिखता तो मेरा जीना मुश्किल था।

नारी मनोविज्ञान पर केंद्रित आपने ‘नदी’ और ‘गिर्दाब’ जैसे दो उपन्यास लिखे। दोनों में क्या फर्क है?

नदी में हमने नारी मनोविज्ञान को दर्ज किया है। वहीं गिर्दाब में पुरुष मानसिकता की तफ्तीश की है।

शमोएल अहमद

अपने आरंभिक जीवन के बारे में बताइए?

मेरा जन्म भागलपुर शहर में हुआ। पिता जमील अहमद खान मजिस्ट्रेट थे। आरंभिक पढ़ाई-लिखाई पिता के तबादले के कारण कई जगहों से हुई। मैट्रिक गया से 1958 में किया। मैं इंजीनियरिंग पढ़ना नहीं चाहता था लेकिन उस समय इंजीनियर सामाजिक प्रतिष्ठा वाला पद था। मेरे पिता ने मुझे इंजीनियरिंग पढ़ने पर मजबूर किया। फिर भी मेरे अंदर का जो साहित्यकार था, वह अभिव्यक्ति के रास्ते तलाश करता रहा और इंजीनियर होकर भी मैं इंजीनियर नहीं रहा। मैं मुख्य अभियंता के पद पर भी पहुंचा, लेकिन अभियंता का कोई गुण मुझमें पैदा नहीं हुआ। साहित्य रचना में ही मेरी मुक्ति थी। मैंने बहुत कम लिखा है, लेकिन मैंने जो देखा-भोगा, जिस यथार्थ को मैंने जीया है, उसको अपनी रचनाओं में सामने लाने की कोशिश की है।

आप के उपर आरोप लगते रहे हैं कि आप देहजनित कहानियां ज्यादा रस लेकर लिखते हैं? इसपर आप क्या कहेंगे?

मुझे हैरत है कि सेक्स से रचनाकारों या साहित्यकारों को विरक्ति क्यों है। आदमी ने सेक्स का नामनिहाद नैतिकता का जहर देकर मारने की कोशिश की है। लेकिन सेक्स मरा तो नहीं, जहरीला होकर जिंदा है। मेेरी कहानियां आदमी के अंदर फैले इसी जहर को उजागर करती है और पाठक तिलमिला उठता है।

यह भी इलजाम आप पर लगते रहे हैं कि आप मंटो बनने की कोशिश करते रहे हैं?

मुझे कुत्ते ने नहीं काटा है कि मैं मंटो बनने की कोशिश करूं। बड़ा रचनाकार होने से अच्छा है मौलिक रचनाकार हुआ जाए। मौलिकता अपने आप में बड़ी होती है। हर आदमी अपनी जगह अनूठा है। वह जो है अगर वह हो गया तो बड़ी बात होगी। मैं मंटो हो गया तो बड़ी बात नहीं होगी, मैं शमोएल अहमद हो गया तो बड़ी बात होगी। मंटो के मसायल और थे हमारी और हैं। मंटो ‘खोल दो’ लिख सकते थे, ‘सिंगारदान’ नहीं।

आपने ‘बर्फ में आग’, ‘ऊंट’, ‘जेहार’, ‘मिसरी की डली’ आदि कहानियां लिखी हैं, जो किसी भी सुचितावादी समाज की एक तरह से एक्स-रे रिपोर्ट कही जा सकती है। इन कहानियों को लेकर उर्दू समाज में किस तरह की प्रतिक्रियाएं रही हैं?

‘ऊंट’ की प्रतिक्रिया बहुत तीखी हुई, क्योंकि उसमें एक मौलाना की यौन कुंठाओं का जिक्र था। उर्दू पाठक ने यह अच्छा नहीं समझा कि मैं मौलाना को बेनकाब करूं। उर्दू पाठक इल्जाम लगाते हैं कि मेरी रचनाओं में सेक्स को लेकर लज्जत है। मैं कहता हूं अगर आप लज्जत की कहानियां लिख रहे हैं तो लज्जत होनी ही चाहिए। ये ऐसा ही है कि एक युवक की शादी हो, पत्नी से सुहागरात तो मनाओगे, लेकिन लज्जत नहीं उठाओगे। उर्दू पाठक लज्जत को गुनाह समझता है और मैं बेगुनाह लज्जत का कायल नहीं हूं।

आप उर्दू व हिंदी दोनों भाषाओं में समान रूप से सक्रिय लेखन करते रहे हैं। दोनों भाषाओं की कहानियों में आपको क्या फर्क महसूस हुआ?

अंतर तो है। उर्दू कहानी कला व शिल्प पर जोर देती है और हिंदी कहानी कथा के मूल तत्व पर जोर देती है। उर्दू कहानी में शिल्प के स्तर पर बहुत कलात्मक प्रयोग किये गए हैं, हिंदी कहानियों में भी इसके लक्षण नजर आते हैं। कृष्णबलदेव वैद और उदय प्रकाश का शिल्प आम कहानियों से हटकर है। हिंदी कहानी में राजनीतिक चेतना का रंग गहरा होता है। उर्दू कहानियां मानवीय संबंधों पर ज्यादा जोर देती हैं। वहां भी राजनीतिक सजगता है, लेकिन वहां उनकी अपनी समस्या ज्यादा है। मसलन सांप्रदायिक दंगा उर्दू कहानियों का एक रूझान है और उर्दू में सेक्स को भी तरक्कीपसंद रूझान समझा गया है। राजनीतिक और सामाजिक विसंगतियों के खिलाफ उर्दू और हिंदी कहानियां कंधे से कंधे मिलाकर चल रहे हैं।

विभाजन को लेकर दोनों ही भाषाओं में प्रचुर मात्रा में कहानियां लिखी गईं। दोनों में क्या फर्क आपको दिखता है?

आजादी के आसपास हिंदी उर्दू में यथार्थवाद का दौर शुरू होता है। इस दौर में अहमद नदीम कासमी और यशपाल की पीढ़ी ने अपनी कहानियों के माध्यम से सामाजिक विसंगतियों की तरफ इशारा किया था। यशपाल की ‘धर्मयुद्ध’, अहमद नदीम कासमी की ‘जूता’, विष्णु प्रभाकर की ‘धरती अब भी घूम रही है’ और सुहैल अजीमाबादी की ‘अलाव’ इसकी मिशाले हंैं।

उर्दू केे पटना के साहित्यिक परिदृष्य का आपका अनुभव जानना चाहूंगा?

पटना एक ‘स्कूल आफ थाॅट’ की हैसियत रखता है। पहले उर्दू के रचनाकार यहां जो थे, एक-दूसरे से मिलते थे और उन्हें अपनी रचनाएं सुनाते थे। उस दौर में अहमद यूसूफ नुमाया कथाकार थे। उनके घर पर गोष्ठी भी होती थी। उसके बाद 1970 के आसपास नई पीढ़ी उभरती है, जिसमें अब्दुस्मद, शौकत हयात, अली इमाम और हुसैनुल हक नुमाया कथाकार हुए। लेकिन यह दौर जदीदियत का दौर था, जिसमें कहानी से पात्र गायब होने लगे थे। कहानी में समाज की जगह व्यक्ति ने ले ली थी। व्यक्ति, व्यक्ति की तन्हाई, तन्हाई का दुख, टूटती हुई कदरें और हरास होते मूल्य कहानी के विषय हुआ करते थे। 1980 के बाद फिर उर्दू कहानी पटना में अपनी डगर पर वापस लौटती है। वही कथाकार जो प्रतीकात्मक कहानियां लिख रहे थे, वे अब सीधा बयानियां पर उतर आये। आज का उर्दू अदीब अपने खोल में बंद है। वह मिलना-जुलना पसंद नहीं करता। गोष्ठी की रवायत भी खत्म हो गई। चिंता की बात यह है कि नई नस्ल पैदा नहीं हुई। हिंदी में भी कमोबेश इसी तरह का माहौल रहा। हिंदी की नई पीढ़ी में रचनाकार पैदा हो रहे हैं, लेकिन उर्दू में नहीं मिलेंगे।    

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

अरुण नारायण

हिंदी आलोचक अरुण नारायण ने बिहार की आधुनिक पत्रकारिता पर शोध किया है। इनकी प्रकाशित कृतियों में 'नेपथ्य के नायक' (संपादन, प्रकाशक प्यारा केरकेट्टा फाउंडेशन, रांची) है।

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