‘अत्त दीप भव’ के उत्प्रेरक क्रांति पुरुष जोतीराव फुले दलित-शोषित के उत्थान और उनकी स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने वाले महाराष्ट्र के आदि पुरुष हैं।
कोल्हापुर के पास एक पहाड़ी पर महाराष्ट्र के बहुजन समाज के देवता जोतिबा का मंदिर है। ‘जोतबा’ या ‘जोतिबा’ के नाम से विख्यात इस देवता के नाम में मुख्य अंश है –‘जोत’। मराठाओं के कई घरानों में ‘जोत’ कुल देवता हैं। महात्मा जोतीराव फुले (11 अप्रैल, 1827 – 28 नवंबर, 1890) का जन्म जिस दिन हुआ, उस दिन ‘जोतबा’ देवता का उत्सव था, इसलिए उनका नाम रखा गया – ‘जोतिबा’। महात्मा जोतीराव फुले को महाराष्ट्र के लोग आदर, श्रद्धा, सम्मान और स्नेह से ‘जोतिबा’ कहते हैं।
यह अप्रत्याशित नहीं है कि भारत के सामाजिक विकास और बदलाव के आंदोलन में जिन पांच समाज सुधारकों का नाम लिया जाता है, उनमें महात्मा जोतीराव फुले के नाम का शुमार नहीं है। इस सूची को बनानेवाले उच्चवर्णीय समाज के प्रतिनिधि हैं। जोतीराव फुले ब्राह्मण वर्चस्व औैर सामाजिक मूल्यों को कायम रखनेवाली शिक्षा और सुधार के समर्थक नहीं थे। उन्होंने पूंजीवादी और पुरोहितवादी मानसिकता पर हल्ला बोल दिया। उनके द्वारा स्थापित ‘सत्यशोधक समाज’ और उनका क्रांतिकारी साहित्य इसका प्रमाण है। जब ब्राह्मणों ने कहा – “कलयुग आ गया – विद्या शूद्रों के घर चली गयी”, तो फुले ने तत्काल उत्तर दिया – “सच का सबेरा होते ही, वेद डूब गये। विद्या शूद्रों के घर चली गई, भू-देव (ब्राह्मण) शरमा गए।”
सन् 1855 में ऐसे मजदूरों के लिए फुले दंपत्ति ने रात्रि-पाठशाला खोलीं। उस समय अस्पृश्य जातियों के लोग सार्वजानिक कुएँ से पानी नहीं भर सकते थे। अतः सन् 1868 में उनके लिये फुले दंपत्ति ने अपने घर का कुआँ खोल दिया।
महात्मा जोतीराव फुले ने वर्ण, जाति और वर्ग व्यवस्था में निहित शोषण प्रक्रिया को एक-दूसरे का पूरक बताया। उनका कहना था कि राजसत्ता और ब्राह्मण आधिपत्य के तहत धर्मवादी सत्ता आपस में सांठ-गांठ कर इस सामाजिक व्यवस्था और मशीनरी का उपयोग करती हैं। उनका कहना था कि इस शोषण-व्यवस्था के खिलाफ दलितों के अलावा स्त्रियों को आंदोलन करना चाहिए। महात्मा जोतीराव फुले के मौलिक विचार ‘गुलामगिरी’ ‘शेतकरयांचा आसूड’ ( किसानों का प्रतिशोध ) और ‘सार्वजनिक सत्यधर्म’ आदि पुस्तकों में संग्रहित हैं। उनके विचार अपने समय से बहुत आगे थे। आदर्श परिवार के बारे में उनकी अवधारणा है “जिस परिवार में पिता बौद्ध, माता ईसाई, बेटी मुसलमान और बेटा सत्यधर्मी हो, वह परिवार एक आदर्श परिवार है।”
आधुनिक शिक्षा के बारे में फुले कहते हैं– यदि आधुनिक शिक्षा का लाभ सिर्फ़ उच्च वर्ग को ही मिलता है तो उसमें शूद्रों का क्या स्थान रहेगा? गरीबों से कर जमा करना और उसे उच्चवर्गीय लोगों के बच्चों की शिक्षा पर खर्च करना – किसे चाहिए ऐसी शिक्षा?
स्वाभाविक है कि विकसित वर्ग का प्रतिनिधित्व करनेवाले और सर्वांगीण समाज सुधार न चाहनेवाले तथाकथित संभ्रांत समीक्षकों ने महात्मा फुले को समाजसुधारकों की सूची में कोई स्थान नहीं दिया – यह ब्राह्मणी मानसिकता की असलियत का भी पर्दाफाश करता है। सन् 1883 में जोतीराव फुले अपने बहुचर्चित ग्रन्थ ‘शेतकर्यांचा आसूड’ के उपोद्घात में लिखते है –
‘‘विद्या बिना मति गयी, मति बिना नीति गयी
नीति बिना गति गयी, गति बिना वित्त गया
वित्त बिना शूद्र गये!
इतने अनर्थ एक अविद्या ने किये।”
महाराष्ट्र के सतारा जिले में सावित्रीबाई का जन्म 3 जनवरी सन् 1831 को हुआ। सन् 1840 में 9 वर्ष की अवस्था में उनका विवाह पूना के जोतीराव फुले के साथ हुआ। इसके बाद सावित्रीबाई का जीवन परिवर्तन आरंभ हो गया। वह समय दलितों और स्त्रियों के लिए नैराश्य और अंधकार का समय था। समाज में अनेक कुरीतियां फैली हुई थीं और नारी शिक्षा का प्रचलन नहीं था। विवाह के समय तक सावित्रीबाई फुले की स्कूली शिक्षा नहीं हुई थी और जोतीराव फुले तीसरी कक्षा तक पढ़े थे। लेकिन उनके मन में सामाजिक परिवर्तन की तीव्र इच्छा थी। इसलिये इस दिशा में समाज सेवा का जो पहला काम उन्होंने प्रारंभ किया, वह था अपनी पत्नी सावित्रीबाई को शिक्षित करना। सावित्रीबाई की भी बचपन से शिक्षा में रुचि थी और उनकी ग्राह्य शक्ति तेज़ थी। उन्होंने स्कूली शिक्षा प्राप्त की और अध्यापन का प्रशिक्षण लिया।
सावित्री-ज्योतिबा दम्पति ने इसके बाद अपना ध्यान समाज-सेवा की ओर केन्द्रित किया। 1 जनवरी सन 1848 को उन्होंने पूना के बुधवारा पेठ में पहला बालिका विद्यालय खोला। यह स्कूल एक मराठी सज्जन भिंडे के घर में खोला गया था। सावित्रीबाई फुले इस स्कूल का प्रधानाध्यापिका बनीं। इसी वर्ष उस्मान शेख के बाड़े में प्रौढ़-शिक्षा के लिए एक दूसरा स्कूल खोला गया। दोनों संस्थाएं अच्छी चल निकलीं। दबी-पिछड़ी जातियों के बच्चे, विशेषरूप से लड़कियाँ बड़ी संख्या में इन पाठशालाओं में आने लगीं। इससे उत्साहित होकर देख ज्योतिबा दम्पति ने अगले 4 वर्षों में ऐसे ही 18 स्कूल विभिन्न स्थानों में खोले।
सावित्री-ज्योतिबा दम्पति ने अब अपना ध्यान बाल-विधवा और बाल-हत्या पर केन्द्रित किया। उन्होंने विधवा विवाह की परंपरा प्रारंभ की और 29 जून 1853 में बाल-हत्या प्रतिबंधक-गृह की स्थापना की। इसमें विधवाएं अपने बच्चों को जन्म दे सकती थी और यदि शिशु को अपने साथ न रख सकें तो उन्हें यहीं छोड़कर भी जा सकती थीं। इस अनाथालय की संपूर्ण व्यवस्था सावित्रीबाई फुले संभालती थीं और बच्चों का पालन पोषण माँ की तरह करती थीं। उनका ध्यान खेत-खलिहानों में काम करने वाले अशिक्षित मजदूरों की ओर भी गया।
सन् 1855 में ऐसे मजदूरों के लिए फुले दंपत्ति ने रात्रि-पाठशाला खोलीं। उस समय अस्पृश्य जातियों के लोग सार्वजानिक कुएँ से पानी नहीं भर सकते थे। अतः सन् 1868 में उनके लिये फुले दंपत्ति ने अपने घर का कुआँ खोल दिया। सन् 1876-77 में पूना नगर आकाल की चपेट में आ गया। उस समय फुले दम्पति ने 52 विभिन्न स्थानों पर अन्न-छात्रावास खोले और गरीब जरूरतमंद लोगों के लिये मुफ्त भोजन की व्यवस्था की।
ज्योतिबा ने स्त्री समानता को प्रतिष्ठित करने वाली नई विवाह विधि की रचना की। उन्होंने नये मंगलाष्टक (विवाह के अवसर पर पढ़े जाने वाले मंत्र) तैयार किए। वे चाहते थे कि विवाह विधि में पुरुष प्रधान संस्कृति के समर्थक और स्त्री की गुलामगिरी सिद्ध करने वाले जितने मंत्र हैं, वे सारे निकाल दिए जाएं। उनके स्थान पर ऐसे मंत्र हों, जिन्हें वर-वधू आसानी से समझ सकें। ज्योतिबा के मंगलाष्टकों में वधू वर से कहती है – “स्वतंत्रता का अनुभव हम स्त्रियों को है ही नहीं। इस बात की आज शपथ लो कि स्त्री को उसका अधिकार दोगे और उसे अपनी स्वतंत्रता का अनुभव करने दोगे।” यह आकांक्षा सिर्फ वधू की ही नहीं, गुलामी से मुक्ति चाहने वाली हर स्त्री की थी।
कहते हैं कि एक और एक मिलकर ग्यारह होते हैं। जोतीराव फुले और सावित्रीबाई फुले ने हर स्तर पर कंधे से कंधा मिलाकर काम किया और कुरीतियों, अंध श्रद्धा और पारम्पारिक अनीतिपूर्ण रूढ़ियों को ध्वस्त कर गरीबों-शोषितों के हक में खड़े हुए। सन् 1840 से 1890 तक पचास वर्षो तक ज्योतिबा और सावित्रीबाई ने एक प्राण होकर समाज सुधार के अनेक कामों को पूरा किया।
फुले दम्पति संतानहीन थे। उन्होंने 1874 में काशीबाई नामक एक विधवा ब्राह्मणी के बच्चे को गोद लिया, जिसे तब समाज में नाजायज कहा गया था। यशवंतराव फुले नाम से यह बच्चा पढ़लिखकर डाक्टर बना और आगे चलकर फुले दम्पति का वारिस भी। 28 नवंबर 1890 को महात्मा जोतीराव फुले के निधन के बाद सावित्रीबाई ने बड़ी मजबूती के साथ इस आन्दोलन की जिम्मेदारी सम्भाली और सासवड, महाराष्ट्र के सत्य-शोधक समाज के अधिवेशन में ऐसा भाषण दिया, जिसने दबे-पिछड़े लोगों में आत्म-सम्मान की भावना भर दी। सावित्रीबाई का दिया गया यह भाषण उनके प्रखर क्रन्तिकारी और विचार-प्रवर्तक होने का परिचय देता है।
सन् 1897 में जब पूना में प्लेग फैला तब वे अपने पुत्र के साथ लोगों की सेवा में जुट गईं। सावित्रीबाई की आयु उस समय 66 वर्ष की हो गई थी, फिर भी वे निरंतर श्रम करते हुए तन-मन से लोगों की सेवा में लगी रही। इस कठिन श्रम के समय उन्हें भी प्लेग ने धर दबोचा और 10 मार्च 1897 में उनका निधन हो गया।
सावित्रीबाई प्रतिभाशाली कवियित्री भी थीं। इनके कविताओं में सामाजिक जन-चेतना की आवाज पुरजोर शब्दों में मिलाती है। उनका पहला कविता-संग्रह सन 1854 में ‘काव्य फुले’ नाम से प्रकाशित हुआ और दूसरी पुस्तक ‘बावनकशी सुबोध रत्नाकर’ शीर्षक से सन् 1882 में प्रकाशित हुई।
समाज सुधार के कार्यक्रमों के लिये सावित्रीबाई और जोतीराव को कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। पैसे की तंगी के साथ-साथ सामाजिक-विरोध के कारण उन्हें अपने घर परिवार द्वारा निष्कासन को भी झेलना पड़ा, लेकिन वे सब कुछ सहकर भी अपने लक्ष्य के प्रति समर्पित बने रहे। भारत में उस समय अनेक पुरुष समाज सुधार के कार्यक्रमों में लगे हुए थे, लेकिन महिला होकर पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर जिस प्रकार सावित्रीबाई फुले ने काम किया वह आज के समय में भी अनुकरणीय है। आज भी महात्मा जोतीराव फुले और सावित्रीबाई फुले का एक-दूसरे के प्रति औेर एक लक्ष्य के प्रति समर्पित जीवन आदर्श दाम्पत्य की मिसाल बनकर चमकता है।
(संपादन :नवल)
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