“दुनिया के अन्य देशों की तरह ही भारतीय समाज को भी सामाजिक स्तरीकरण से जूझना पड़ा। इसी के परिणाम स्वरूप वर्ण की उत्पत्ति हुई और शारीरिक श्रम को मानसिक श्रम से नीचा स्थान दिया गया। यह विडंबनापूर्ण है कि भारत में धर्म की सत्ता को सबसे ऊपर रखा गया। इसका परिणाम देश आज फासीवाद के रूप में भुगत रहा है। जोतीराव फुले पहले ऐसे वैचारिक और जमीनी लड़ाका थे, जिन्होंने धर्म की अवैज्ञानिकता को न सिर्फ नकारा अपितु दलित महिला और बहुजन समाज को इसके बरअक्स नए जीवन मूल्य और दर्शन से लैश किया।” यह बातें हिंदी के प्रसिद्ध लेखक और ‘कथांतर’ पत्रिका के संपादक डॉ राणा प्रताप ने कही। बीते 27 नवंबर, 2021 को जोतीराव फुले के परिनिर्वाण दिवस की पूर्व संध्या पर आयोजित इस गोष्ठी का आयोजन किसान एकता मंच की पहल पर पटना के आंबेडकर भवन में किया गया।
फुले की रचना ‘किसान का कोड़ा’ पर केंद्रित इस बातचीत में राणा प्रताप ने विस्तार से धर्म की सत्ता, उस पर प्रगतिशील आंदोलन और हिंदी नवजागरण की चुप्पी, शिक्षा और बहुजन समाज की यथास्थिति पर निगाह डाली। राणा प्रताप ने कहा कि देश में जितने भी आंदोलन हुए हैं, वहां कृषक समुदाय ने सबसे अधिक शहादतें दी हैं।
राणा प्रताप ने कहा कि फुले, आंबेडकर और पेरियार ने जीवन के पथ को ज्ञान की तरफ मोड़ने का मार्ग प्रशस्त किया। भारतीय दर्शन की चर्चा करते हुए उन्होंने कहा की धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष जीवन के चार लक्ष्य बतलाए गए हैं। बाद में यही सामाजिक प्रतिष्ठा के प्रतीक बन गए। धर्म की सत्ता को सबसे ऊपर रखने का मकसद भी हर तरह के यथास्थितिवाद को बनाये रखना था। गैलीलियो ने धर्म की इस सत्ता से मुठभेड़ की लेकिन हिन्दुस्तान में यही नहीं हो पाया। यहां नवजागरण में भी धर्म की सत्ता से सहायता ली गई, इससे टकराया नहीं गया। यहां का प्रबुद्ध तबका इसे बनाये रखने में ही अपना हित देखता था। धर्म को चुनौती देने का आंदोलन यूरोप में बहुत मजबूती से उभरा।
फुले ने अपने संगठन के माध्यम से लोगों के जीवन स्तर को उन्नत करने के लिए जो काम किये, वे आधुनिक भारत के निर्माण में मील के पत्थर साबित हुए हैं। उन्होंने ताकीद किया कि बच्चों के शिक्षक भी बहुजन समाज के होने चाहिए। किसानों की चर्चा करते हुए राणा प्रताप ने स्पष्ट कहा कि कारपोरेट ने छोटे किसानों और छोटे उद्योग चलाने वालों को समूल नष्ट कर डाला है इसी का परिणाम है कि छोटे छोटे किसान श्रमिक मजदूर बन गए और छोटे उद्योग चलाने वालों के एजेंट बनकर रह गये। उन्होंने जोर देकर कहा कि बदले हुए परिप्रेक्ष्य में आर्थिक राजनीतिक कार्यक्रमों के साथ ही धार्मिक पाखंड के समानांतर आंदोलन करने की जरूरत है।
एक्टिविस्ट महेंद्र सुमन ने कहा कि कृषि का क्षेत्र इतना अधिक उपेक्षित किया जाता रहा है कि पूरे भारत में कम उत्पादकता और इनकम वाला क्षेत्र होकर रह गया है, इसलिए इस पर निर्भर लोग इससे निजात चाहते हैं। फुले की चर्चा करते हुए सुमन ने कहा कि वे भी चाहते तो 1857 की क्रांति में राष्ट्रवाद का झंडा बुलंद कर लेते लेकिन उनकी प्राथमिकता में अशिक्षित जमात और महिलाएं रही और उन्हीं की जीवन दशा में बदलाव के लिए उन्होंने सत्यशोधक समाज के माध्यम से काम किया।
युवा शोधार्थी सचिन ने किसान आंदोलन और वर्तमान शिक्षा पद्धति में आमूल परिवर्तन की बात कही और बतलाया कि हमारे यहां शिक्षा का जो मॉडल कायम है उस पर आज भी ब्राह्मणवादी और यूरोपीय मॉडल का प्रभाव खत्म नहीं हुआ है।
सेवा संगठन के संयोजक राकेश यादव ने बतलाया कि किसान आंदोलन और जाति जनगणना का सवाल अहम रहा है। उन्होंने आगाह किया कि किसान आंदोलन की जीत क्षणिक है हमें इस आंदोलन की सीमाओं से बाहर निकालना होगा तभी उसका कोई सार्थक हल निकल पाएगा।
एक्टिविस्ट अरविंद यरवदा ने कहा कि सामाजिक न्याय को लेकर हमारी संसद न्यायपालिका और संविधान सभा भी बहुत निष्पक्ष नहीं रहे। उन्होंने कहा कि ओबीसी आरक्षण के क्रियान्वयन में इतनी बाधाएं खड़ी की गई कि उसे लागू होने में भी 40 साल लग गए। वहीं आर्थिक आधार पर आरक्षण बगैर किसी आयोग कमेटी के न सिर्फ संसद से पास हो गया शीघ्र लागू भी हो गया। किसान नेता सच्चिदानंद प्रभात ने कहा कि आज शिक्षित किसानी की जरूरत है। कर्पूरी ठाकुर के जीवनीकार डा दिलीप कुमार ने कहा कि फुले ने अपने समय में दलित और बहुजन समाज के बारे में जो चिंताएं प्रकट कीं उसे जमीन पर उतारने की जरूरत है।उन्होंने कहा कि किसानों को पशुपालन संबंधी प्रशिक्षण हम-सब को भी देते रहना चाहिए।
इस संगोष्ठी का संचालन इस रपट के लेखक ने स्वयं किया। संगोष्ठी में मनीष रंजन, मणिलाल, रंजन कुमार गुप्ता, रवीन्द्र राम, गौतम, विजय चौधरी, अरुण मुसहर और नसीम अहमद अंसारी आदि लोगों ने भी अपने विचार व्यक्त किये।
(संपादन : नवल)
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