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महिलाओं के सम्मान के बिना कैसा आंबेडकरवाद?

सवर्णों के जैसे ही अब दलित परिवारों में भी दहेज आदि का चलन बढ़ा है। इसके अलावा पितृसत्तात्मक समाज के जो अवगुण दलित साहित्य में दिखते हैं, वे सब अब इस समाज के लोगों में भी फैलता जा रहा है। सवाल उठा रही हैं ज्योति पासवान

अभी हाल ही में मेरी मुलाकात एक प्रतिष्ठित संस्थान की शोधछात्रा से हुई। उसने स्वयं को आंबेडकरवादी कहा। उसने प्रभावकारी तरीके से बातचीत की। किन्तु एक घंटे के बाद ही उसने जब यह कहा कि उसकी शादी को अभी छ: महीने ही हुए हैं और उसका नौकरीशुदा पति अब गाड़ी की मांग कर रहा है तथा दो दिन पहले ही उसके पति ने सब्जी मंडी में खुलेआम गाली-गलौज की तो मैं चौंक गई। इन घटनाओं को सुनकर भी मुझे इतनी पीड़ा नहीं हुई जितनी तब हुई जब उसने कहा कि यह आम बात है। इतना तो मियां-बीबी में चलता है। मैं इस सोच में पड़ गई कि दलित स्त्री का यह कैसा आंबेडकरवाद है, जो शोषण एवं अत्याचार का समर्थन कर रहा है, जिसमें दहेज जैसी कुप्रथा का भी समर्थन है। 

दलित स्त्रियों की वर्तमान स्थिति को लेकर 2018 में युनाइटेड नेशंस वूमन की तरफ से जारी रपट जारी की गई। रपट का शीर्षक था– ‘टर्निंग प्रॉमिसेस इन्टू एक्शन : जेन्डर इक्वैलिटी इन द 2030 एजेण्डा’ इसके मुताबिक, समाज में वे महिलाएं और लड़कियां अक्सर छूट जाती हैं, जिन्हें लिंग तथा अन्य असमानताओं के आधार पर विविध किस्म की प्रतिकूल परिस्थितियां झेलनी पड़ती हैं। इसकी परिणति उनकी सामूहिक वंचना में होती है। हम देख सकते हैं कि उन्हें एक साथ गुणवत्ता वाली शिक्षा, सम्मानजनक काम, स्वास्थ्य और अन्य सुविधाओं तक सुगमता के मामले में नुकसान उठाना पड़ता है। 

वरिष्ठ पत्रकार सुभाष गाताडे इस रपट का विश्लेषण करते हुए लिखते हैं कि– “इस रिपोर्ट के मुताबिक भारत की औसत दलित स्त्री उच्च जातियों की महिलाओं की तुलना में 14.6 साल पहले कालकलवित होती है। कहा जा रहा है कि “सैनिटेशन की खराब स्थिति और अपर्याप्त स्वास्थ्य सुविधाओं के चलते, जिसकी अधिक मार दलित स्त्रियों पर पड़ती है, उनकी जीवनरेखा कमजोर पड़ती है।”

दलित स्त्रियों के संदर्भ में की गयी इस टिप्पणी को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है। इन सबके बीच एक सच यह कि वर्तमान में दलित स्त्रियां पितृसत्तात्मक शोषण का भी शिकार हो रही हैं। अक्सर दलित लेखक यह कहकर खुश हो जाया करते हैं कि दलित समाज की स्त्रियां अन्य समाज की स्त्रियों की अपेक्षा स्वतंत्र हैं, क्योंकि वे श्रमजीवी हैं, घर के कामों के साथ-साथ वे अपने पति के साथ खेतों के काम में भी सहयोग करती हैं। परंतु मौजूदा परिस्थितियां एकदम से भिन्न हैं। 

दरअसल, आजादी के बाद लागू हुए संविधान में मिले अधिकारों के बल पर दलित समाज के लोग शासन-प्रशासन में अपना प्रतिनिधित्व स्थापित करने में धीरे-धीरे सफल हुए हैं। भले ही यह संख्या अधिकतम ना हो, किन्तु इनकी उपस्थिति नगण्य है, यह कहना गलत होगा। नौकरीपेशा दलित समाज अब मध्यमवर्गीय समाज में परिवर्तित हो चुका है। दलितों ने शिक्षा के क्षेत्र में भी उत्तरोत्तर विकास किया है। परिणामस्वरुप उन्होंने डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, प्रोफेसर, डी.एम. इत्यादि अनेक पदों को सफलतापूर्वक प्राप्त किया है। लेकिन यह दुखद है कि जैसे ही दलितों ने सरकारी पदों को प्राप्त किया उनका मेल-जोल सवर्णों के साथ बढ़ा और वे भी उन कुप्रथाओं के के दलदल में फंस गये। इन कुप्रथाओं में से एक है– दहेज प्रथा। दलित भी अब विवाह के लिए भारी-भरकम दहेज की मांग करने लगे हैं। दहेज मांगने वाले इन दलित युवकों के संदर्भ में अगर विचार किया जाय तो वे इन पदों को हासिल करने के लिए आरक्षण का प्रयोग इस आधार पर करते हैं कि हम सदियों से पीड़ित हैं, हमें शिक्षा जैसे अधिकारों से लम्बे समय से वंचित रखा गया है, आर्थिक अभाव के कारण गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्राप्त करने में हम असमर्थ थे, अत: हमें आरक्षण प्रदान करते हुए छूट प्रदान की जाय। किन्तु वही युवक दहेज की मांग करते हुए यह क्यों भूल जाते हैं कि लड़की के जिस पिता से वह दहेज की मंग कर रहा है, उसके पूर्वजों को भी समाज में सदियों से दबाया गया है। इस तरह दलित समाज में भी दहेज की माँग करने वाले दोहरी चाल चल रहे हैं। एक तरफ तो वे अपना पिछड़ापन दिखाकर नौकरी प्राप्त कर रहे हैं और दूसरी ओर दलित समाज में अपने ऊँचे पद की धौंस पर दहेज की मांग कर रहे हैं। 

दलितों में बढ़ती जा रही हैं दहेज जैसी कुप्रथाओं का चलन

ऐसी परिस्थिति में मध्यवर्गीय दलित पिताओं के पास दो ही उपाय होते हैं। या तो वह अपनी बेटी की शिक्षा के लिए खर्च करे या उसी पैसे से दहेज देकर अपनी बेटी की शादी उच्च पदाधिकारी से कर दे। हालांकि पहला उपाय तो बेटियों के विकास में बढ़ोत्तरी करेगा, किन्तु अगर पिता ने दूसरे उपाय को स्वीकार कर लिया तो वह दिन दूर नहीं जब दलित समाज की स्त्रियां भी सोने के महल में महज एक कैदी ही बनकर रह जाएंगी । 

दरअसल, एकमात्र दहेज ही वह समस्या नहीं है, जिसने दलित समाज को दूषित किया है । पितृसत्ता दलित समाज में इस तरह हावी है कि दलित युवक विवाह के लिए एक ऐसी लड़की का चुनाव करना अधिक पसंद करते हैं, जो उनके साथ-साथ उनके पद ही पूजा करते हुए ना थके। एक उच्च पदाधिकारी पति को पाना वह अपने पूर्वजन्म का फल मानकर स्वंय को उसके पैर की धूल मानकर अपना जीवन बिताये। किन्तु जिस युवती ने भी समाज में अपना एक स्थान बना लिया हो, वह युवती उनके गले से नहीं उतर सकती हैं। उन्हें लगता है कि वे पारिवारिक सुख से वंचित हो जायेंगें, बच्चों के पालन-पोषण में बाधा पहुँचेगी। जबकि यह पितृसत्तात्मक सोच ही है कि बच्चों के पालन-पोषण की जिम्मेदारी के केवल मां की है। अगर वास्तव में ये प्रगतिशील दलित युवक आरक्षण के औचित्य को समझ पाते तो उन्हें डॉ. अम्बेडकर के उद्देश्य का ज्ञान होता कि संवैधानिक अधिकार उन्हें दलित समाज को मुख्यधारा में शामिल करने के लिए दिया गया है। ना कि मुख्यधारा में शामिल हो जाने के बाद अपने ही समाज का शोषण करने के लिए। 

हालांकि इन परिस्थितियों में दलित युवतियों के पास एक उपाय है, जिसे अपनाकर वह अपने विकास के मार्ग को अवरुद्ध होने से बचा सकती हैं। यह उपाय है कि वह अपनी पसंद के अनुसार अपने योग्य वर का चयन करे। किन्तु यहां भी पितृसत्ता हावी है कि जीवन के इस महत्वपूर्ण निर्णय लेने के लिए वह स्वतंत्र नहीं है। यह अधिकार उसके पिता के पास अभी भी सुरक्षित है और उसके पिता पर दकियानूसी प्रथा जाति-प्रथा हावी है, जिसके अनुसार वह अपनी सुशिक्षित बेटी का विवाह नीचे से नीचे कुल या नीचे पद पर चयनित किसी युवक के साथ करने के लिए तैयार है, क्योंकि वह युवक उसी की जाति से है। यह बहुत दुखद है कि एक तरफ जहां हम समाज मे समानता स्थापित करने की मांग कर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर दलित स्वयं कई जातियों और उपजातियों में बँटे हैं। सुशिक्षित दलित युवती की यह पीड़ा का अंत यहीं नहीं होता है कि उसे एक बेरोजगार, उससे नीचे पद पर चयनित व्यक्ति भी उसे स्वीकार नहीं करते हैं और इसका कारण लड़की में किसी अभाव का नहीं है, बल्कि उस लड़के में व्याप्त असुरक्षा का भाव है, जिसकी समाज में स्थापित पितृसत्ता है।  

यह बेहद खतरनाक स्थिति है। अब दलित परिवारों में भी बेटियों को उच्च शिक्षा से वंचित रखा जाने लगा है। उन्हें यह डर सता रहा है कि यदि बेटियां अधिक पढ़-लिख गयीं तो उनके लिए योग्य वर कैसे तलाशेंगे और कैसे दहेज आदि मांगों को पूरा करेंगे। ऐसे में यह अवश्यम्भावी है कि अन्य दलित अभिभावक अपनी बेटियों को उच्च शिक्षा देने से मना करेंगें। अगर ऐसा ही होता रहा तो दलित समाज आज भले ही विकास की पथ पर आगे बढ़ रहा हो, लेकिन यह विकास बाधित हो जाएगा। 

बाबा साहब ने कहा था कि एक शिक्षित स्त्री पूरे समाज को शिक्षित करती है। अगर हमने अपने समाज की स्त्रियों को शिक्षित नहीं किया वे स्वावलम्बी नहीं बनीं तो पिता के द्वारा चयनित धनाढ्य ससुराल उसके लिए यातनागृह भी बन सकता है। 

लड़कियों के कम पढ़े-लिखे होने का प्रभाव तब भी सामने आता है जब किसी कारण वह विधवा हो जाती हैं और पूरी जिम्मेदारी उनके कंधों पर होती है। तब अनुकंपा के आधार पर उन्हें नौकरी तो मिल जाती है लेकिन उनसे चपरासी का काम मसलन झूठे बर्तन धोने और कार्यालय की साफ-सफाई करने को कहा जाता है। योग्य ही समझती है। इस समय दलित पितृसता इतनी आसानी सेअपनी गरिमा की तिलांजलि देने के लिए क्यों विवश हो जाया करती है ?  

हालांकि दलित लेखकों ने स्त्री के साथ किये गये उन अत्याचारों से परिचित तो कराया है, जिसमें तथाकथित सवर्ण समाज ने परम्परा एवं रिवाज के नाम पर उनका शोषण किया। किन्तु दलित लेखकों को अपने विचारों के आयाम को बढ़ाकर यह देखने की आवश्यकता है कि वे कौन सी दकियानूसी परम्पराओं ने दलित समाज में भी अपना स्थान बना लिया है, जिनके कारण उनके अपने समुदाय व वर्ग की स्त्रियां प्रभावित हो रही हैं। यह एक ऐसी परिस्थिति है जिसके कारण दलित नारी विमर्श पृथक विषय के रूप में सामने आ रहा है। ठीक वैसे ही जैसे साहित्य की मुख्यधारा में नारी-विमर्श का आरम्भ हुआ। 

किन्तु एक कमी दलित समाज की स्त्रियों में भी है। उनमें चेतना का अभाव है। कुछ स्त्रियों ने अगर चेतना का विकास भी किया है तो बड़े दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि वह इतना अपूर्ण है कि उसे उन्होंने अपने पहनावे तक ही सीमित रखा है।

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

ज्योति पासवान

दिल्ली विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में एम.ए. ज्योति पासवान काज़ी नज़रुल विश्वविद्यालय, आसनसोल, पश्चिम बंगाल में पीएचडी शोधार्थी हैं

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