वर्ष 2016 में एक नौजवान ने देश भर के लोगों का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया था, जब उसने “भीम आर्मी” नाम का संगठन बना कर बहुत तेज़ी से आगे बढ़ते हुए अपना एक अलग स्थान दलित-बहुजन युवाओं के बीच स्थापित कर लिया था। वह दलितों पर होने वाले अत्याचारों को लेकर मुखर था। इतना कि वहखुलेआम तमाम मीडिया और सरकारों को “मनुवादी” कहा करता था। लेकिन आज जब उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने हैं, वह परिदृश्य से गायब है। इस नौजवान का नाम है चंद्रशेखर आजाद।
चंद्रशेखर ऐसे कभी नहीं रहे। वर्ष 2020 में उन्होंने एक राजनीतिक दल “आजाद समाज पार्टी” की स्थापना भी की। जब उन्होंने यह कदम उठाया तब सियासी गलियारे में हलचल मची कि चंद्रशेखर बहुजन समाज पार्टी की प्रमुख मायावती को चुनौती देंगे। इस संदर्भ में चंद्रशेखर चुनावी गंठजोड़ बनाने की प्रयास करते हुए भी दिखे। लेकिन अब वे पूरे परिदृश्य से गायब हैं। ऐसे में एक सवाल उठता है कि जो चंद्रशेखर केवल संघर्ष कर लोगों को इंसाफ दिला सकते हैं, वे राजनीति नहीं कर सकते?
हालांकि चंद्रशेखर ने प्रयास बहुत किये हैं। मसलन, 2020 में बिहार विधानसभा चुनावों में उनकी पार्टी ने पप्पू यादव की जन अधिकारी पार्टी के साथ गठबंधन किया और चुनाव लड़ा। लेकिन न तो कुछ उनके हाथ आया और ना ही कुछ पप्पू यादव के। वहीं उत्तर प्रदेश की बुलंदशहर विधानसभा सीट पर हुए उपचुनाव में भी चंद्रशेखर ने अपना प्रत्याशी उतार दम आजमाया, लेकिन उनके प्रत्याशी को केवल 15 हज़ार वोट मिले।
चंद्रशेखर के समर्थक और आज़ाद समाज पार्टी के पश्चिमी यूपी के प्रभारी हाजी मो. सबील कहते हैं कि “मीडिया के लोग नहीं चाहते हैं कि पिछड़ों और दलितों की आवाज़ उठे। हमारी पार्टी लगातार बूथ स्तर पर मेहनत कर रही है। पिछले हफ्ते ही हमारी पार्टी ने करीबन 30 से 35 हज़ार लोगों से मिलकर आने वाले चुनावों की तैयारी मेरठ में की है।”
वे आगे कहते हें कि “हम लोग थोड़े-थोड़े लोगों से बिना पोस्टर, बैनर और भीड़ के मिल रहे हैं क्योंकि हम जानते हैं कि हमारा दल अभी कुछ दिनों पहले बना है और हम अपने संगठन को मजबूत कर रहे हैं। आज हम जिस स्थिति में हैं उसमें हमारा संगठन बूथ लेवल से लेकर विधानसभा तक और राज्य स्तर तक बहुत मज़बूत हो चुका है। हर विधानसभा और हर ज़िलें में हमारे कार्यकर्ता है और आज हम यूपी विधानसभा का चुनाव लड़ने के लिए पूरी तरह से सक्षम हैं।”
चंद्रशेखर परिदृश्य से गायब क्यों हैं, के जवाब में वे कहते हैं कि “चंद्रशेखर कहीं गायब नहीं हैं। 25 दिसंबर को हरियाणा के हिसार में एक दलित युवक की मृत्यु के मामले चंद्रशेखर जी पूरे दिन उनके परिवार के साथ रहे।आप इससे पहली हाथरस में पीड़िता का मुद्दा देख लीजिए। ये सब कुछ बताने के लिए काफी है कि हम और हमारी पार्टी जनता के बीच लगातार कार्य कर रही है। हम लोग यही मुद्दे लेकर जनता के बीच यूपी 2022 चुनावों में जायेंगें। रही बात चंद्रशेखर आज़ाद जी के राजनैतिक तौर पर कमज़ोर होने की तो 10 साल पहले यही बात केजरीवाल के लिए भी कही गई थी।”
हाजी मो. सबील के दावों के विपरीत फिलहाल चंद्रशेखर आज़ाद के लिए राहें इतनी आसान नजर नहीं आ रही हैं। उत्तर प्रदेश में एक साथ उनसे जुड़े कई पूर्व विधायक और बड़े नेता उन्हें छोड़ गए हैं। मसलन, मो. ग़ाज़ी, जिन्हें पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष पद का दावेदार माना जा रहा था, वेबसपा के बढ़ापुर विधानसभा के प्रत्याशी बन गए हैं। वहीं अपने ऊपर लगी “रासुका” से चर्चा में आये मेरठ के बदर अली भी अब समाजवादी पार्टी में शामिल हो चुके हैं।
दरअसल, चंद्रशेखर की आज़ाद समाज पार्टी जिन मुद्दों पर राजनीति कर रही है, वह बसपा के समान ही है, जिसका दलित-बहुजन वोटरों पर पहले से प्रभाव है।
हालांकि स्वयं बसपा की जमीन भी सिमटती नजर आ रही है। चंद्रशेखर ने यह बार-बार कहा कि “मायावती रास्ते से भटक गई हैं” और दलित वोटरों के बीच खुद को एक विकल्प के रूप में प्रस्तुत किया।
वहीं बसपा समर्थक चंद्रशेखर के कथन को यह कहकर खारिज करते हैं कि उनके पास कोई जनाधार नहीं है। वहीं राजनीतिक विश्लेषक यह मानते हैं कि यदि अखिलेश यादव की पार्टी के साथ चंद्रशेखर की पार्टी का गठबंधन हो जाता तो यह मुमकिन था कि वह इस चुनाव के अहम चेहरा होते। लेकिन चूंकि ऐसा नहीं हुआ है तो चंद्रशेखर के पास परिदृश्य से गायब रहने के अलावा कोई विकल्प नहीं है।
दरअसल, अपने संगठन (भीम आर्मी) के बल पर ज़रूर चंद्रशेखर आज़ाद ने सुर्खियां बटोरी थीं, लेकिन उसे वह चुनावी राजनीति में उपयोग के लायक नहीं बना सके हैं। वहीं बसपा रालोद-सपा गठबंधन और भाजपा के खिलाफ अपने प्रत्याशी उतार रही है।
बहरहाल, चुनावी राजनीति से तटस्थता के कारण ही चंद्रशेखर अब मीडिया और दलित समाज के लिये शायद उतने महत्वपूर्ण नहीं रहे हैं, जितने कि वे पहले थे।
(संपादन : नवल/अनिल)
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