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जयपाल सिंह मुंडा, जिन्होंने कहा था– मुझे आदिवासी होने पर गर्व है

संविधान सभा के सदस्य के रूप में जयपाल सिंह मुंडा ने कहा कि–“मैं उन लाखों लोगों की ओर से बोलने के लिए खड़ा हुआ हूं, जो सबसे महत्वपूर्ण लोग हैं, जो आजादी के अनजान लड़ाके हैं, जो भारत के मूल निवासी हैं, और जिनको बैकवर्ड ट्राईब्स, प्रीमिटव ट्राईब्स, क्रिमिनल ट्राईब्स और न जाने क्या-क्या कहा जाता है। परन्तु मुझे अपने जंगली [आदिवासी] होने पर गर्व है।” स्मरण कर रहे हैं डॉ. रवि महेंद्र

मारंग गोमके जयपाल सिंह मुंडा (3 जनवरी, 1903 – 20 मार्च, 1970) पर विशेष

आबादी के लिहाज से भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतान्त्रिक देश है। भारतीय लोकतंत्र की खूबसूरती यहां की विविधताएं हैं। भारत में विभिन्न धर्मों, भाषाओं, वर्गों, व जातियों के लोग रहते हैं। इन लोगों में सबसे वंचित आदिवासी समुदाय के लोग हैं, जो भारत की जनसंख्या का लगभग 9 प्रतिशत हैं। आज जो भी सुविधाएं आदिवासियों को देश में मिली हैं, उनमें सबसे बड़ा योगदान आदिवासी नेता जयपाल सिंह मुंडा का है। कृतज्ञ आदिवासी उन्हें पूरे सम्मान के साथ मारंग गोमके की उपमा देते हैं। 

जयपाल सिंह मुंडा का जन्म 3 जनवरी, 1903 को रांची के पास खूंटी जिले के पाहन टोली गांव में हुआ। इनके पिता का नाम अमरु पाहन व माता का नाम राधामणी था। इनकी शुरूआती शिक्षा रांची के सैंट पॉल स्कूल से हुई। वहां के प्रधानाचार्य ने आगे की शिक्षा के लिए उन्हें इंग्लैंड भेजा। ऑक्सफोर्ड के सेंट जॉन्स कॉलेज से स्नातक की और वहीं से अर्थशास्त्र में एम. ए. किया।

जयपाल सिंह मुंडा जी बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। इंग्लैंड में ऊंच शिक्षा के साथ-साथ हॉकी में भी उन्होंने हाथ आजमाया। इसमें उन्हें बड़ी सफलता भी मिली। वर्ष 1928 के एम्सटर्डम ओलम्पिक खेलों में ब्रिटिश भारतीय हॉकी टीम की कप्तानी की। इस टीम ने सवर्ण पदक जीता। इसी के साथ 1928 में ही इन्होंने भारतीय सिविल सेवा की परीक्षा पास की, जो कि आजादी के बाद भारतीय प्रशासनिक सेवा बन गया। वे पहले भारतीय आदिवासी थे, जिन्होंने इस परीक्षा को पास किया था। लेकिन ओलम्पिक में जाने के कारण वे अपना प्रशिक्षण पूरा नहीं कर पाए, इसलिए भारतीय सिविल सेवा को बीच में ही छोड़ दिया। इसके बाद जयपाल मुंडा भारत वापिस आ गए। 1934 में गोल्ड कोस्ट (घाना) अफ्रीका के कॉलेज में प्रिंसिंपल रहे। वर्ष 1936 में बीकानेर रियासत में वह विदेश मंत्री भी रहे। इसके बाद 1937 में रामकुमार कॉलेज, रायपुर में वे प्रिंसिंपल रहे। 

इसी बीच उन्होंने अपने जीवन में बड़ा परिवर्तन किया और सबकुछ छोड़कर आदिवासी समुदाय के उत्थान के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया। वर्ष 1938 में उन्होंने आदिवासी महासभा का गठन बिहार में किया। इसका मुख्य उद्देश्य आदिवासियों को मुख्य धारा में शामिल कराना था। इसके लिए मुंडा ने सबसे पहले अलग राज्य की माँग ब्रिटिश सरकार के सामने उठाई, जिसमें बिहार, बंगाल व मध्य प्रांत के कुछ हिस्सों को मिलाकर वृहत झारखंड की अवधारणा शामिल थी। वे लगातार आदिवासियों के लिए संघर्ष करते रहे। 

वर्ष 1946 में जब संविधान सभा के लिए चुनाव हुए तो जयपाल सिंह मुंडा भी सदस्य चुने गए। संविधान सभा में आदिवासी, दलित, व पिछड़े सदस्यों की कुल संख्या 33 थी। इसके अलावा 12 महिलाएं भी संविधान सभा के लिए चुनी गई थीं। आबादी के लिहाज से ये दोनों संख्याएं बहुत कम थीं। इसीलिए वंचित समुदायों के सदस्यों की जिम्मेदारी भी बड़ी महत्वपूर्ण थी। 

जो काम दलितों के लिए डॉ. आंबेडकर ने संविधान में अधिकार दिलाकर किया, वही काम जयपाल सिंह मुंडा ने आदिवासियों के लिए किया। संविधान सभा के सदस्य के रूप में अपने पहले ही भाषण में उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा कि–“मैं उन लाखों लोगों की ओर से बोलने के लिए खड़ा हुआ हूं, जो सबसे महत्वपूर्ण लोग हैं, जो आजादी के अनजान लड़ाके हैं, जो भारत के मूल निवासी हैं, और जिनको बैकवर्ड ट्राईब्स, प्रीमिटव ट्राईब्स, क्रिमिनल ट्राईब्स और न जाने क्या-क्या कहा जाता है। परन्तु मुझे अपने जंगली [आदिवासी] होने पर गर्व है।” 

संविधान सभा की बैठक मे जवाहरलाल नेहरू की ओर से पेश उद्देश्य प्रस्ताव का समर्थन करते हुए जयपाल सिंह मुंडा ने कहा था– “एक जंगली ओर आदिवासी होने के नाते संकल्प की जटिलताओं में हमारी कोई विशेष दिलचस्पी नहीं है, लेकिन हमारे समुदाय का कॉमन सेन्स कहता है कि हर किसी ने आजादी के लिए संघर्ष की राह पर एक साथ संघर्ष किया है। मैं सभा को कहना चाहूँगा की अगर कोई इस देश में सबसे ज्यादा दुर्व्यवहार का शिकार हुआ तो हमारे आदिवासी लोग है। इनकी पिछले हजारों सालों से उपेक्षा हुई है और इनके साथ अपमानजनक व्यवहार हुआ है।” 

मारंग गोमके जयपाल सिंह मुंडा (3 जनवरी, 1903 – 20 मार्च, 1970)

जयपाल सिंह मुंडा को प्रांतीय संविधान समिति की एक उप-समिति का सदस्य बनाया गया। उन्होंने संविधान समिति द्वारा अनुसूचित जनजाति शब्द का इस्तेमाल करने का बार-बार विरोध किया और आखिर मे वो सभा के कार्य को छोड़ कर बिहार वापस आ गए। वे चाहते थे कि संविधान मे ‘आदिवासी’ शब्द का इस्तेमाल हो।

परन्तु भारतीय संविधान मे के. एम. मुंशी व मावलंकर के कारण अनुसूचित जनजाति शब्द का इस्तेमाल किया गया। लेकिन आदिवासियों के हितों का ध्यान रखते हुए डॉ. बी. आर. आंबेडकर ने पांचवीं अनुसूची भारत के संविधान मे डाल दी, जिसमें आदिवासियों के हक-अधिकार शामिल थे। इस तरह डॉ. आंबेडकर और जयपाल सिंह मुंडा के सयुंक्त प्रयासों से भारतीय संविधान मे आदिवासियों के लिए शिक्षा, नौकरी, व लोकसभा-विधानसभा मे 7.5 प्रतिशत सीटें आरक्षित कर दी गयीं। इस तरह आदिवासियों को संविधान में विशेष अधिकार प्राप्त हुए।

जयपाल सिंह मुंडा ने वर्ष 1948 में आदिवासी लेबर फेडरेशन की स्थापना की। लेकिन आदिवासियों को राजनैतिक भागेदारी दिलाने के लिए 1 जनवरी 1950 को अखिल भारतीय आदिवासी सभा को झारखण्ड पार्टी में परिवर्तित कर दिया। अपने पहले चुनाव में ही झारखण्ड पार्टी ने बड़ी सफलता प्राप्त कर तहलका मचा दिया। झारखण्ड पार्टी के टिकट पर बिहार में 4 सांसद व 32 विधायक चुने गए। इसी तरह का प्रदर्शन 1957 के चुनाव में देखने को मिला। इस चुनाव में 34 विधायक व 5 सांसद चुने गए। लेकिन 1962 के चुनाव में गिरावट देखने को मिली। इस बार 22 विधायक व 5 सांसद चुने गए। परन्तु चुनाव के बाद पार्टी में भगदड़ मच गई जिसके कारण जयपाल मुंडा ने 1963 में इस शर्त के साथ कांग्रेस पार्टी में विलय कर दिया गया कि विलय के बाद कांग्रेस पार्टी अलग झारखण्ड राज्य का निर्माण करेगी। इसके बाद जयपाल सिंह मुंडा बिहार के पहले आदिवासी उप मुख्यमंत्री बने। इसके अलावा सामुदायिक विकास मंत्री बने। लेकिन एक महीने के बाद उन्होंने अपने पद से इस्तीफा दे दिया क्योंकि कांग्रेस पार्टी ने अपना वादा पूरा नहीं किया। 1967 में जयपाल सिंह मुंडा फिर से सांसद चुने गऐ। इसके बाद कांग्रेस से उनका मनमुटाव बढ़ता ही चला गया। 

13 मार्च, 1970 को जयपाल सिंह मुंडा ने कहा कि “कांग्रेस ने धोखा दिया और झारखण्ड पार्टी का विलय सबसे बड़ी भूल थी। मैं झारखण्ड पार्टी में लौटूंगा और अलग झारखण्ड राज्य के लिए आंदोलन करूंगा।” लेकिन इस घोषणा के एक सप्ताह बाद ही जयपाल सिंह मुंडा का दिल्ली में देहांत हो गया। इस तरह एक महान व्यक्तित्व हमेशा-हमेशा के लिए सो गया और अपने पीछे बहुत ही शानदार विरासत छोड़ गया।

आज जब दुनिया सत्ता, संसाधनों और दूसरे ग्रहों पर कब्जे की दौड़ में शामिल है, ऐसे में आदिवासी समाज आज भी प्राकृतिक अधिकारों और संसाधनों की रक्षा के दायित्व से मुकरा नहीं है। पर्यावरण, भाषा, कला, साहित्य, संगीत, जमीन, नदी, पहाड़, झरना, इतिहास, सामाजिक समानता, बंधुत्व, सामूहिकता, पुरखों की विरासत और इंसानी पहचान के स्तर पर उन्हें उसे बचाने के लिए मोर्चा खोल रखा है। अपनी जान दे कर भी यह समुदाय लड़ रहा है। सन् 2000 में जब झारखण्ड अलग राज्य बना तो लगा कि जयपाल सिंह मुंडा का अलग झारखण्ड राज्य का सपना पूरा हो गया। परन्तु अलग राज्य बनने के बाद भी आदिवासी पिछड़े हुए हैं। सरकारें विकास के नाम पर आदिवासियों को जल, जंगल, जमीन से बेदखल कर रही है। आज भी आदिवासी अपने अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

रवि महेंद्र

लेखक सामाजिक कार्यकर्ता व दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र विषय के असिस्टेंट प्रोफेसर हैं

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