भारत परंपरा, विश्वास और मिथकों का देश है। इसके सांस्कृतिक प्रतीकों को भी इन्हीं परंपराओं और मिथकों से गढ़ा गया है। राम या कृष्ण सभी परंपराओं और मिथकों की उपज हैं। कुछ मिथकों के ऐतिहासिक प्रमाण हैं तो कुछ पौराणिक ग्रंथों के आधार पर गढ़ लिये गये हैं। इन्हीं प्रतीकों और मिथकों में एक हैं सम्राट अशोक, विशाल और अखंड भारत के चक्रवर्ती राजा। माना जाता है कि आज भारत के राष्ट्रीय चिह्न के रूप में जिस सिंह स्तंभ का इस्तेमाल किया जा रहा है, वह सम्राट अशोक के समय का है और इसका निर्माण उन्होंने ही कराया था।
इतिहासकारों की मानें तो सम्राट अशोक का मगध साम्राज्य काफी विशाल था। इतिहास की यात्रा इतनी जटिल और अन्वेषी साबित हुई और सम्राट अशोक को कुशवाहा जाति के द्वारा सांस्कृतिक प्रतीक के रूप में इस्तेमाल शुरू किया गया। धीरे-धीरे यह मान्यता स्थापित हो गयी। उत्तर प्रदेश और बिहार में बसने वाली कोईरी जाति ने इसे अब जाति प्रतीक के रूप में इस्तेमाल करने की शुरुआत की है।
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के कार्यकाल में सम्राट अशोक का महिमामंडन किया गया। उनकी जयंती मनाने की शुरुआत उनकी पार्टी जदयू ने की। पटना में विशाल सम्राट अशोक कन्वेंशन सेंटर बनाया गया। नीतीश कुमार ने इतिहासकारों के साक्ष्यों और दस्तावेजों के आधार पर चैत्र महीने के शुक्ल पक्ष की अष्टमी को सम्राट अशोक की जयंती के रूप में चिह्नित किया गया। इसके माध्यम से नीतीश कुमार ने कुशवाहा जाति के सांस्कृतिक प्रतीक के रूप में सम्राट अशोक को स्थापित कर दिया। मुख्यमंत्री ने अब सम्राट अशोक की जयंती को राजकीय समारोह के रूप में मनाने का निर्णय लिया है।
बिहार की सामाजिक न्याय की धारा को शहीद जगदेव प्रसाद ने मजबूत ताकत दी थी। वे समाजवादी आंदोलन के बड़े नेता थे और उनके नेतृत्व में सवर्णों और सामंतों के खिलाफ लंबी लड़ाई लड़ी गयी। आखिरकार सामंती शक्तियों ने उनकी हत्या करवा दी। उनकी हत्या के बाद भी उनका आंदोलन तेज होता गया, जिसने बिहार में राजनीति की धारा बदल दी। वह सामाजिक न्याय की धारा के पर्याय बन गये। समाजवादी धारा के नेता नीतीश कुमार और लालू यादव दोनों जगदेव प्रसाद की सामाजिक विरासत की दावेदारी करते हैं।
नीतीश कुमार ने जगदेव प्रसाद के बेटे और पूर्व केंद्रीय मंत्री नागमणि के राजनीतिक प्रभाव को कम करने के लिए एक सांस्कृतिक प्रतीक के रूप में सम्राट अशोक को खड़ा किया था। सम्राट अशोक के महिमामंडन के पीछे जगदेव प्रसाद के सामाजिक आंदोलन की धार को कमजोर करने की चेष्टा भी हो सकती है, क्योंकि नीतीश कुमार को कुशवाहा जाति पर अपनी पकड़ बनाये रखने के लिए एक ऐसे प्रतीक की जरूरत थी, जो निर्विवाद हो। ऐसे में सम्राट अशोक का नाम सामने आया। सम्राट अशोक के नाम का असर पूरी राजनीति और समाज पर पड़ने लगा। कुशवाहा जाति के नये प्रतीक को हड़पने की कोशिश दोनों सहयोगी दल भाजपा और जदयू ने समान रूप से किया। दोनों पार्टियों में खींचतान 8 और 9 अप्रैल को साफ-साफ दिखी। 8 अप्रैल को भाजपा की ओर से अशोक कन्वेशन सेंटर के बापू सभागार में सम्राट अशोक जयंती समारोह का आयोजन किया तो 9 अप्रैल को जदयू की ओर से श्रीकृष्ण मेमोरियल हॉल में सम्राट अशोक जयंती समारोह का आयेाजन किया गया।
भाजपा की ओर से आयोजित जयंती समारोह में केंद्रीय मंत्री भूपेंद्र यादव, केंद्रीय गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय और उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य भी मौजूद थे। इसके अलावा प्रदेश भाजपा के वरिष्ठ नेताओं समेत पार्टी के सभी मंत्री मंच पर मौजूद दिखे। इस आयोजन के लिये भाजपा ने अपनी पूरी ताकत लगा दी थी। इसका आयोजन के नेतृत्व का जिम्मा पंचायती राज मंत्री सम्राट चौधरी को सौंपी गयी थी। सम्राट चौधरी कुशवाहा जाति के हैं और भाजपा में कुशवाहा नेता के रूप में स्थापित हो गये हैं। राजद और जदयू के साथ लंबे समय तक राजनीति करने वाले सम्राट चौधरी का भाजपा में शामिल होते ही कद बड़ा हो गया। राबड़ी देवी और नीतीश कुमार सरकार में मंत्री रहते हुए सम्राट चौधरी का कद बड़ा हो गया था और बड़ी पार्टी का सपोर्ट मिलने के बाद प्रभाव भी बढ़ गया। इसीलिए भाजपा ने सम्राट चौधरी को पहले एमएलसी बनाया और फिर मंत्री की जिम्मेवारी सौंप दी।
सम्राट अशोक जयंती के बहाने भाजपा ने कुशवाहा जाति में मजबूत पैठ बनाने का प्रयास शुरू कर दिया है। कुशवाहा जाति पर अब तक नीतीश कुमार का व्यापक प्रभाव रहा था और लव-कुश की राजनीति के प्रयोगकर्ता वही थे। कुशवाहा जाति की संख्या और राजनीतिक इतिहास को देखते हुए भाजपा ने पहली बार कुशवाहा में आधार बढ़ाने की व्यापक रणनीति पर काम शुरू किया है। जयंती समारोह के मंच पर भाजपा ने सम्राट अशोक की सांस्कृतिक पहचान को नये सिरे से परिभाषित किया और उसे राष्ट्रवाद से जोड़ दिया। इस समारोह के लिए भीड़ जुटाने का जिम्मा सभी सांसदों और विधायकों को सौंपा गया था और कोशिश की गयी थी कि भीड़ में अधिकतर कुशवाहा जाति के ही हों। समारोह को संबोधित करने वाले अधिकतर वक्ताओं ने सम्राट अशोक के अखंड भारत की अवधारणा पर फोकस किया। समारोह को संबोधित करते हुए केंद्रीय भूपेंद्र यादव ने अखंड और विशाल भारत के निर्माण में सम्राट अशोक के योगदान की चर्चा करते हुए कहा कि हम गठबंधन धर्म और राजनीति में पूरा विश्वास करते हैं। दरअसल इस आयोजन के बहाने भाजपा सम्राट अशोक के नाम पर अपने राजनीतिक एजेंडे का संदेश कुशवाहा जाति को दे गयी है।
उधर, 9 अप्रैल को जदयू की ओर आयोजित सम्राट अशोक जयंती समारोह में भी पार्टी नेताओं ने सम्राट अशोक के महिमामंडन की कोशिश की। लेकिन जदयू की ओर से आयोजित समारोह में सम्राट अशोक से ज्यादा नीतीश कुमार का गुणगान हुआ। पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष ललन सिंह और वरिष्ठ नेता उपेंद्र कुशवाहा मुख्यमंत्री की राजनीतिक ताकत को ही बताते रहे और यह संदेश देने की कोशिश करते रहे कि नीतीश कुमार किसी की कृपा से नहीं, बल्कि जनता की ताकत से शासन कर रहे हैं।
दरअसल, भाजपा और जदयू दोनों सामाजिक न्याय की कीमत पर सवर्णों की राजनीति करते रहे हैं। इसलिए सामाजिक न्याय के सबसे बड़े नेता जगदेव प्रसाद को किनारे कर सांस्कृतिक प्रतीक सम्राट अशोक के बहाने सामाजिक न्याय आंदोलन की धारा को कमजोर करने की कोशिश की है। सांस्कृतिक राष्ट्रवाद भाजपा को ज्यादा सूट करता है। इस कारण सम्राट अशोक के बहाने कुशवाहा जाति में संदेश पहुंचाना ज्यादा आसान हो गया। इसलिए मंच से बोलने वाले लगभग हर कुशवाहा नेता ने भाषण की शुरुआत ‘भारत माता की जय’ से की। यह नारा सामाजिक न्याय आंदोलन को कमजोर होने का पर्याय है। जगदेव प्रसाद का नारा था– “सौ में नब्बे शोषित हैं, नब्बे पर दस का शासन नहीं चलेगा, नहीं चलेगा”।
नारा बदलने से राजनीति के सरोकार बदल जाते हैं। सम्राट अशोक के नाम पर जिस तरह के राजनीतिक अवधारणा खड़ी की जा रही है, वह जरूर सामाजिक न्याय की अवधारणा को कमजोर करने वाली है। यह कुशवाहा जाति को भी समझना होगा और सामाजिक न्याय की राजनीति करने वालों को भी।
(संपादन : नवल/अनिल)
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