संयुक्त विश्वविद्यालय प्रवेश परीक्षा (सीयूईटी) पूर्ववर्ती केंद्रीय विश्वविद्यालय संयुक्त प्रवेश परीक्षा (सीयूसीईटी) का संशोधित रूप है। सीयूसीईटी 2010 में यूपीए के कार्यकाल में शुरू हुआ था। सीयूसीईटी नए केंद्रीय विश्वविद्यालयों के लिए बनाई गई थी। बाद में कुछ केंद्रीय विश्वविद्यालय और राज्य विश्वविद्यालय और जुड़ गए। अब इसका विस्तार कर देश के उन 45 केंद्रीय विश्वविद्यालयों से जोड़ दिया गया है जो शिक्षा मंत्रालय भारत सरकार से संबंधित हैं। इसकी मांग बहुत पहले से अकादमिक जगत में चल रही थी।
दरअसल, सीयूईटी केवल उन विश्वविद्यालयों के लिए है जो सीधे तौर पर केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय से जुड़ें हैं। लेकिन जो केंद्रीय विश्वविद्यालय शिक्षा मंत्रालय के अधीन न होकर भारत सरकार के अन्य मंत्रालयों यथा स्वास्थ्य मंत्रालय, विज्ञान व प्रौद्योगिकी मंत्रालय से जुड़े है; उन विश्वविद्यालयों में यह लागू नहीं किया गया है।
शिक्षा मंत्रालय, भारत सरकार के मुताबिक, सीयूईटी ठीक उसी तरह का एक यूनिक मॉडल होगा जैसे आईआईटी, आईआईएम, नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, मेडिकल कॉलेजों में नीट के रूप में और अन्य उच्च शिक्षण संस्थानों में पहले से लागू है।
अब अनेक सवाल हमारे सामने हैं। मसलन, क्या ‘संयुक्त विश्वविद्यालय प्रवेश परीक्षा’ को ‘केंद्रीय विश्वविद्यालय संयुक्त प्रवेश परीक्षा’ बनाकर इसे सिर्फ सभी केंद्रीय विश्वविद्यालयों में लागू किया जाना चाहिए तथा राज्य विश्वविद्यालयों, डीम्ड विश्वविद्यायलयों और अन्य में नहीं? सभी अलग-अलग राज्यों के राज्य विश्वविद्यालयों के लिए एक फार्म और एक परीक्षा पद्धति होनी चाहिए? एक राज्य में उस राज्य के सभी विश्वविद्यालयों और उसके संघटक कालेजों के लिए एक संयुक्त प्रवेश परीक्षा होनी चाहिए, जिससे उस राज्य के सभी विश्वविद्यालयों और उसके संघटक कालेजों में दाखिला मिल सके?
शिक्षा मंत्रालय (पूर्व में मानव संसाधन विकास मंत्रालय), भारत सरकार ने सीयूईटी के माध्यम से प्रवेश परीक्षा करवाने का दायित्व राष्ट्रीय परीक्षा एजेंसी (एनटीए) को दिया है। सीयूईटी का पूरे देश में विरोध हो रहा है और इसे बंद करके पहले जैसी प्रणाली को लागू करने की मांग की जा रही है। विरोध इस आधार पर किया जा रहा है कि देश के सुदूरवर्ती क्षेत्र के छात्रों पर इसका नकारात्मक असर पड़ेगा खास तौर से जो राज्य बोर्ड से पढ़ने वाले छात्र हैं। हालांकि सीयूईटी को बंद करके पहले जैसी प्रणाली को जारी रखने में भी अनेकानेक समस्याएं हैं। मसलन अलग-अलग विश्वविद्यालयों का अलग-अलग फॉर्म भरना, फीस जमा करना, परीक्षा देना इत्यादि चीजे छात्र-छात्राओं के लिए अवसरों को सीमित कर देती हैं तथा सरकार के संसाधन ज्यादा खर्च होते है। अगर एक फॉर्म और एक परीक्षा से देश के सभी केंद्रीय विश्वविद्यालय और संघटक कालेजों में या एक फॉर्म और एक परीक्षा से किसी भी एक राज्य के सभी विश्वविद्यालयों और संघटक कालेजों में दाखिला पाने के अवसर हो तो इसे अच्छा ही माना जाएगा।
विश्वविद्यालयों में दाखिला पाने के लिए सिर्फ तीन प्रणाली हो सकती है। पहला प्रवेश परीक्षा, दूसरा न्यूनतम योग्यता के मेरिट के आधार पर और तीसरा “पहले आओ, पहले पाओ” के आधार पर। इसमें सबसे सशक्त और अच्छा प्रवेश परीक्षा प्रणाली को माना जाता है। ज्ञानार्जन आधारित अध्ययन और अंक संग्रहण आधारित अध्ययन, ये दो अलग-अलग पढाई के तरीके है। अंक संग्रहण आधारित अध्ययन कक्षा की परीक्षा में अच्छा अंक लाने में सहायक हो सकता है, लेकिन जरुरी नहीं है कि इससे प्रवेश परीक्षा में भी अच्छा नंबर आये जबकि ज्ञानार्जन आधारित अध्ययन करने से प्रवेश परीक्षा में अच्छा नंबर लाया जा सकता है। अगर न्यूनतम योग्यता के मेरिट के आधार पर प्रवेश दिया जायेगा तो गरीब, ग्रामीण, सुदूरवर्ती और ऐतिहासिक रूप से वंचित छात्रों पर नकारात्मक असर पड़ेगा और फलस्वरूप गरीब और अमीर के बीच खाई बढ़ती जायेगी।
यह विचार अकादमिक जगत में है कि एनटीए, शिक्षा मंत्रालय भारत सरकार की एजेंसी है तो उसको केंद्र सरकार के उच्च शैक्षणिक संस्थानों का ही प्रवेश परीक्षा लेना चाहिए। सभी राज्यों के विश्वविद्यालयों में विविधता है, इसलिए एक प्रवेश परीक्षा से सभी राज्यों के विश्वविद्यालयों में दाखिला नहीं लिया जाना चाहिए। भारतीय संविधान में शिक्षा समवर्ती सूची में होने के नाते भारतीय स्कूल प्रणाली में केंद्र तथा राज्य के स्कूल बोर्डों में विविधता है और अलग-अलग राज्य के स्कूल बोर्डों में भी विविधता है। अलग-अलग स्कूल बोर्डों के पाठ्यक्रम एवं मूल्यांकन पद्धति में एकरूपता नहीं है। सीबीएसई और आईसीएसई जैसे स्कूल बोर्ड मूल्यांकन का उदार पद्धति अपनाते हैं, उनके छात्रों को इससे लाभ होगा। लेकिन जो कुछ स्कूल बोर्ड सामान्य मूल्यांकन पद्धति अपनाते है और कुछ स्कूल बोर्ड सख्त मूल्यांकन पद्धति अपनाते हैं। अगर दाखिला प्रवेश परीक्षा की मेरिट के अलावा कक्षा की मेरिट पर होगी तो जो स्कूल बोर्ड मूल्यांकन का सख्त पद्धति अपनाते हैं, उनके छात्रों और छात्राओं को नुकसान होगा।
यूजीसी के चेयरमैन डॉ. ममीडाला जगदीश कुमार एक इंटरव्यू में बता रहे थे कि शैक्षणिक संस्थान सीयूईटी के अंक के आलावा मेरिट के आधार पर न्यूनतम योग्यता निर्धारित कर सकते हैं। अब सवाल है कि इसकी जरुरत क्यों है? और अगर ऐसा किया जाएगा तो इसका असर किस तबके के छात्रों पर पड़ेगा? जब सीयूईटी अपने मूल में कक्षा के मेरिट सिस्टम के खिलाफ और प्रवेश परीक्षा के मेरिट पर आधारित है तो क्या सरकार यह बताएगी कि सीयूईटी के प्रवेश परीक्षा में अच्छे अंक लाने के बावजूद न्यूनतम योग्यता में कक्षा के मेरिट का औचित्य क्या है? क्या दाखिला के लिए प्रवेश परीक्षा पर्याप्त मानदंड नहीं है? या फिर यह शोषण करने की साजिश है और अच्छा करने के नाम पर ग्रामीण, सुदूरवर्ती और प्रथम पीढ़ी अध्ययन करने वाले छात्रों को अच्छे शैक्षणिक संस्थानों में दाखिला लेने से वंचित करने की सरकारी नीति है? अगर प्रवेश परीक्षा हो रहा है तो उसके बाद न्यूनतम अंक निर्धारित करने का कोई औचित्य नहीं है क्योंकि छात्र प्रवेश परीक्षा में अपनी योग्यता का प्रदर्शन कर रहा है। इसलिए प्रवेश परीक्षा के आलावा न्यूनतम अंक निर्धारित करने की प्रासंगिकता नहीं है। अगर संस्थान अलग-अलग मेरिट रखेंगे तो उनमें एकरूपता कहां होगी? केंद्र को चाहिए कि शैक्षणिक संस्थानों में एकरूपता लाने के लिए एक कानून बनाये, जिसका अनुपालन सभी विश्वविद्यालय और संघटक कॉलेज करें। सभी शैक्षणिक संस्थानों में एकरूपता लाना सीयूईटी के मूल मकसद में से एक है, जिससे सबके समान अवसर मिले तो फिर अलग-अलग शैक्षणिक संस्थानों में एक पाठ्यक्रम के न्यूनतम योग्यता में विविधता होना, उसके मूल उद्देश्य के खिलाफ होगा।
इस देश के बड़े हिस्से में एनसीईआरटी की किताबें नहीं पढ़ाई जाती है। इसलिए वे छात्र प्रभावित होंगे जो राज्य बोर्ड से पढ़ते है और इससे सीबीएसई बोर्ड के छात्रों को लाभ होगा जिसमें अधिकतम अच्छी आर्थिक स्थिति के बच्चे पढ़ते हैं। सरकार अक्सर अमीर आश्रित नीतियां बनाती है। ये नीति भी उन्ही में से एक साबित होगी क्योंकि प्रस्तावित प्रवेश परीक्षा सीबीएसई पैटर्न पर आधारित होगी। इसलिए गणित, विज्ञान, अर्थशास्त्र इत्यादि को (साहित्य को छोड़ कर) सभी स्कूल बोर्डों में एनसीईआरटी की किताबें अनिवार्य कर देना चाहिए। साहित्य का पाठ्यक्रम जैसे हिंदी, अंग्रेजी, गुजराती, मराठी इत्यादि सम्बंधित राज्यों को निर्धारित करना चाहिए। ऐसा करने से कई फायदे एक साथ साधे जाएंगे, जो सरकारों का उद्देश्य भी है और चुनौती भी। सभी स्कूल बोर्डों में एनसीईआरटी लागू करने से देश की शिक्षा में एकरूपता आएगी, जिसका लाभ न सिर्फ सीयूईटी में मिलेगा, बल्कि जितनी भी संयुक्त प्रवेश परीक्षाएं होती हैं, सभी में राज्य बोर्डों के वंचित वर्गों के छात्र-छात्राओं की हिस्सेदारी बढ़ेगी और दूसरा इससे निजी स्कूलों की किताबों पर हो रही लूट को ख़त्म किया जा सकेगा, और अभिभावकों को आर्थिक शोषण से बचाया जा सकता है।
(संपादन : नवल/अनिल)
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