भारत में जाति आधारित भेदभाव तो है ही, वर्गीय भेद भी कुछ कम नहीं है। बतौर उदाहरण यह कि जो शहरी मिडिल क्लास सवर्ण हैं, उनके घरों में आम बातचीत में गरीबों दलितों मजदूरों को समाज की समस्याओं के लिए ज़िम्मेदार माना जाता है। उनके दिलो-दिमाग में यह बात बिठा दी गयी है कि पढ़े-लिखे शहरी लोग सबसे सही लोग हैं और जो अनपढ़ गरीब झुग्गी झोंपड़ी में रहने वाले छोटी जातियों के लोग हैं, वे अपराधी व कामचोर लोग हैं तथा और समाज में अपराध वगैरह इनलोगों की वजह से होते हैं। पुलिस अगर ज्यादा सख्ती करे और इन लोगों को काबू में रखे तो अच्छे मकानों में रहने वाले सभ्य शहरी लोग ज्यादा सुकून से रह सकते हैं।
आजकल की फ़िल्में भी इस बात को मध्य आय वर्गीय लोगों को बचपन से दिमाग में डालती हैं कि पुलिस को आरोपियों को अदालत तक ले जाने की बजाय सीधे गोली से उड़ा देना चाहिए क्योंकि आरोपी कानून की कमजोरी का फायदा उठा कर बच जाते हैं। इसलिए फिल्मों में जब हीरो पुलिस वाला आरोपी को अदालत के रास्ते में गोली से उड़ाता है, तो लोग सिनेमा हॉल में तालियां बजाते हैं।
इस तरह की सोच का असर इतना प्रभावशाली है कि पुलिस तंत्र और अदालतों पर भी इसका असर पड़ता है। इसलिए देश में हर साल पुलिस द्वारा एनकाउंटर की घटनाएं सामने आती हैं। इनमें से चंद मामलों में ही कभी कोई चर्चा होती है। ऐसे मामले, जिनकें जांच व कार्रवाई होती हो, अपवाद ही कहे जा सकते हैं। इसके लिए कहानियां गढ़ी जाती हैं। मसलन किसी आरोपी की गाड़ी पलट जाने का बहाना बना कर उसकी हत्या कर दी जाती है। सरकार, मीडिया और अदालत सभी सच जानते हैं, लेकिन कार्रवाई नहीं होती।
लेकिन इसका असर क्या होता है? वे कौन लोग हैं जो इन सबका खामियाजा उठाते हैं? यदि मैं हम की भाषा में कहूं तो हम शहरी खाते पीते मिडिल क्लास को तो दमन करने वाली, आवाज़ दबा देने वाली क्रूर पुलिस और सरकार चाहिए। हम तो बड़ी जातियों के वे लोग हैं जो अपने पिता की सामाजिक और आर्थिक हैसियत की वजह से पढ़ गए, नौकरी पा गये या व्यापार कर रहे हैं। लेकिन जो दलित हैं, आदिवासी हैं, मजदूर हैं, गरीब बस्तियों में रहने वाले प्रवासी हैं, जो पढ़ नहीं पाए, उन्हें इस क्रूरता को झेलना पड़ता है।
रही बात पुलिस तंत्र के कार्यशैली की तो यह बात किसी से छिपी नहीं है कि वह ऐसे गरीब-मजलूमों के साथ किस तरह का व्यवहार करती है। फर्जी मुकदमे दर्ज कर जेलों में सड़ा देने के मामले तो बेहद आम हैं।
एक उदाहरण छत्तीसगढ़ की सामाजिक कार्यकर्ता सोनी सोरी का है, जिनके गुप्तांगों में पत्थर भर दिए गए और उन्हें अदालत के बाहर पुलिस जीप में डाले रखा गया और अदालत ने बिना उनकी हालत देखे उन्हें जेल भेजने का आदेश दे दिया।ऐसे ही हैदराबाद में एक महिला डाक्टर के साथ बलात्कार हुआ। बहुत शोर हुआ तो पुलिस ने चार गरीब लड़कों को पकड़ा और हथकड़ी पहनाकर गोली मार दी। शहरी मिडिल क्लास के लोग बहुत खुश हुए कि ऑन द स्पाॅट इंसाफ किया गया। अब इस मामले की जांच के लिए गठित सुप्रीम कोर्ट की कमेटी ने अपनी रपट में एनकाउंटर को फर्जी करार दिया है। लेकिन सवाल तो तब भी थे। पहला सवाल तो यह कि लोगों को गोली चलाने वाले पुलिस वालों पर इतना भरोसा क्यों है कि वह सच बोल रहा है? दूसरा यह कि जिनकी हत्या कर दी गई, वही अपराधी थे, इसकी जांच कब हुई? हो सकता है अपराधी कोई और रहे हों, पुलिस ने निर्देष लोगों को पकड़ लिया हो। सच या झूठ का फैसला करना अदालतों का काम है। लेकिन इस मामले में तो मामला अदालत तक पहुंचा ही नहीं।
मैं तो मध्य आय वर्गीय लोगों से कहना चाहता हूं कि आपको संविधान आधारित अदालतों की प्रक्रिया पर पर भरोसा क्यों नहीं है? यह मुमकिन है कि इनके अनुपालन में खामियां हैं। लेकिन इसका इलाज इन संस्थाओं को खत्म कर देना नहीं है। बल्कि इन्हें ठीक करने के लिए संघर्ष करना ज़रूरी है। पुलिस और अदालतें पुरुषवादी, जातिवादी, साम्प्रदायिक समाज से आये हुए लोगों से भरी हुई हैं। इसलिए इनका कामकाज इनका व्यवहार पुरुषवादी, जातिवादी और साम्प्रदायिकता से भरा हो सकता है। इसलिए यह समाज की ज़िम्मेदारी है कि वह इनके इस व्यवहार पर नज़र रखे और जैसे ही ये लोग इस तरह का व्यवहार करें समाज तुरंत सड़कों पर उतर कर इनका विरोध करे।
अगर आप अन्याय, पुरुषवाद, जातिवाद और संप्रदायवाद का समर्थन करेंगे तो आपका पूरा तंत्र जनता को सताने वाला बन जाएगा और इसका शिकार कोई भी हो सकता है।
(संपादन : नवल/अनिल)
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