दलित पैंथर की स्थापना दिवस की पचासवीं वर्षगांठ (29 मई, 1972) पर विशेष
वर्ष 1956 में डॉ. भीमराव आंबेडकर के परिनिर्वाण के बाद दलित आंदोलन की धार उम्मीद के विपरीत तीखी और मजबूत नहीं रही। इसका एक प्रमुख कारण था कांग्रेस ने डॉ. आंबेडकर के विचारों की जगह गांधी के विचारों को अधिक महत्व देना शुरू किया और कांग्रेस से जुड़े हुए दलित नेता जगजीवन राम, भोला पासवान शास्त्री और अन्य लोग गांधी के विचारों से अधिक प्रभावित दिखे। दलितों का एक बड़ा समूह कांग्रेस का वोट बैंक बना रहा। लेकिन दलितों का एक जागृत समूह आंबेडकरवादी हो गया था और उनमें से अनेक ने बौद्ध धर्म अपना लिया था।
आंबेडकरवादी दलितों ने दलितों के ऊपर हो रहे अत्याचारों के खिलाफ आवाज बुलंद करना शुरू कर दिया था। यह बात न केवल तत्कालीन कांग्रेसियों और सामंती प्रवृत्ति के सवर्णों बल्कि कुछ गैर सवर्णों को भी नागवार गुजरी।वह 1970 के दशक का आरंभ था। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के नेतृत्व में बैंकों का राष्ट्रीयकरण, पाकिस्तान पर विजय और बांग्लादेश के निर्माण से राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उनकी लोकप्रियता आसमान छूने लगी थी। 1971 के मध्यावधि चुनाव में 518 संसदीय सीटों में कांग्रेस ने 350 सीटें जीतकर प्रचंड बहुमत से इंदिरा गांधी के नेतृत्व में सरकार बना ली। कांग्रेस ने राज्यों में भी बहुत अच्छा प्रदर्शन किया। अपार सफलता और लोकप्रियता से इंदिरा गांधी न सिर्फ अहंकारी हो गईं बल्कि मनमानी पर उतर आईं।
लेकिन मीडिया और अखबार,ने जिनमें अधिकांश वामपंथी विचारधारा के थे, सरकार के अहंकार को तोड़ने का काम कर रहे थे। सामंती प्रकृति के कांग्रेसी, गुंडे और जातीय दंभ से भरे लोग दलितों पर लगातार अत्याचार कर ही रहे थे। इस दौरान गांवों में दलित की हत्या, जमीन छीन लेना, स्त्रियों से बलात्कार और नंगा करके घुमाया जाना इत्यादि घटनायें तेजी से बढ़ी थीं।
इन घटनाओं ने महाराष्ट्र के दलित युवकों लेखकों और समाजसेवी लोगों को चिंतित और आक्रोशित कर दिया था। ज.वि. पवार ने अपनी पुस्तक ‘दलित पैंथर : एक आधिकारिक इतिहास’ में इन बातों का जिक्र करते हुए दलित पैंथर के निर्माण, उसके कार्यशैली, और उसके द्वारा किए गए कार्यों का विस्तृत वर्णन किया है। दरअसल, यह पुस्तक एक दस्तावेज है, एक संस्मरण है और दलित पैंथर की आत्मकथा भी है।
पवार लिखते हैं, “आंदोलन के साथ मेरे जुड़ाव का दौर मेरे जीवन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण कालखंड था और इसीलिए मैंने अपनी कहानी के बजाय दलित पैंथर आंदोलन की आत्मकथा लिखने को प्राथमिकता दी।”
पवार का मानना है कि दलित पैंथर का काल दलित आंदोलन का स्वर्ण काल था। दलित पैंथर के गठन की पृष्टभूमि की चर्चा करते हुए वे 10 अप्रैल, 1970 को संसद मे प्रस्तुत हुए इलायापेरुमल समिति की रिपोर्ट का उल्लेख करते हैं। इलायापेरुमल सांसद थे। उन्हें 1965 में दलितों पर होने वाले अत्याचारों और उसे रोकने के उपाय सुझाने के लिए गठित समिति का अध्यक्ष नियुक्त किया गया था। समिति ने अपनी रपट 30 जनवरी, 1970 को सौंपी थी, जिसे संसद में प्रस्तुत करने की हिम्मत सरकार नहीं जुटा पा रही थी। अंततः विपक्षी पार्टियों के दबाव में सरकार ने रपट संसद में पेश किया। इलायापेरुमल समिति ने देश में दलितों पर अत्याचार के लगभग 11,000 घटनाओं का विवरण प्रस्तुत किया था। केवल एक वर्ष में 1,117 दलितों की हत्या कर दी गई थी। दलित महिलाओं से बलात्कार और उन्हें नंगा घुमाना, अच्छे कपड़े और चप्पल पहनने पर पीटा जा रहा था। पेयजल के स्रोतों को गंदा किया जा रहा था।
रपट आने के बाद जमीनी स्तर पर परिवर्तन के लिए लड़ रहे युवकों के तनबदन में आग लग गई। सरकार की इस मामले में असफलता को भर्त्सना और दोषी व्यक्तियों पर कड़ी कार्रवाई की मांग उठ रही थी। इसलिए दया पवार, नामदेव ढसाल, राजा ढाले इत्यादि के साथ ज.वि. पवार ने 12 दलित लेखकों के हस्ताक्षर के साथ एक विरोध पत्र सरकार को लिखा। उसमें उन्होंने लिखा– “अगर सरकार दलितों पर अत्याचार और उनके साथ हो रहे अन्याय को नियंत्रित करने में असफल रही, तो हम कानून को अपने हाथों में लेंगे।” महाराष्ट्र समेत पूरे भारत से दलितों पर अत्याचार की खबरें लगातार आ रही थीं। जिसके विरोध में 27 युवकों ने चैम्बूर पुलिस थाने तक मार्च किया।
कुछ युवकों ने महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री बसंतराव नाईक से मिलकर ज्ञापन सौंपा। मुख्यमंत्री ने सुझाव दिया कि युवक अघाड़ी को प्रभावित गांवों में जाकर अत्याचारों की सही जानकारी एकत्रित करके उन्हें अवगत कराना चाहिए। लेकिन युवकों ने उनकी बात नहीं मानी, क्योंकि यह काम सरकार के गुप्तचर एजेंसियों का था। एक दिन नामदेव ढसाल, राजा ढाले और ज.वि. पवार ने निश्चय किया कि दलितों पर अत्याचार करने वालों को सबक सिखाने के लिए एक आंदोलन शुरू करें। यह बात 29 मई, 1972 की है। ढसाल और पवार ने पैदल चलते हुए मुंबई की सड़कों पर अपनी जुझारू संस्था का नाम ‘दलित पैंथर’ चुना।
सनद रहे कि अमेरिका में, 1966 में, मार्टिन लूथर किंग जूनियर के नेतृत्व में अहिंसात्मक नागरिक अधिकार आंदोलन चला था। लेकिन कुछ युवकों ने इस आंदोलन की असफलता से आक्रोशित होकर ‘ब्लैक पैंथर’ नामक एक संगठन तैयार किया था, जो काले अमेरिकन लोगों के विरुद्ध हो रहे अत्याचार का मुंहतोड़ जवाब दे सके। जमीनी रूप से दोषियों को सजा दे सके।
उसी तर्ज पर उसके कुछ साल बाद महाराष्ट्र में दलित पैंथर का जन्म दलित नौजवानों ज.वि. पवार, राजा ढाले और नामदेव ढसाल के क्रांतिकारी विचारों से हुआ। दलित पैंथर के घोषणा-पत्र में कहा गया कि अमानवीय जातिवाद से निपटने के लिए मुंबई के विद्रोही युवकों ने दलित पैंथर नामक संगठन ही स्थापना की है। प्रारंभ में रैलियां आयोजित की गईं।
उन दिनों ही पुणे से प्रकाशित साप्ताहिक पत्रिका ‘साधना’ ने 25वीं स्वाधीनता दिवस के उपलक्ष्य में ‘दलितों की स्वतंत्रता’ विषय पर विशेषांक निकाला, जिसमें राजा ढाले के एक लेख पर खूब विवाद हुआ। दरअसल ढाले ने अपने लेख में इसका जिक्र किया था कि उन दिनों सरकार राष्ट्रध्वज का अपमान करने वालों को जेल या 300 रुपये जुर्माना की सजा निर्धारित की थी। जबकि दलित और बौद्ध महिलाओं को नंगा घुमाने वाले दोषियों को मात्र एक माह या 50 रुपये जुर्माना की सजा थी। राजा ढाले ने लिखा, “ब्राह्मणगांव में किसी ब्राह्मण महिला को नंगा नहीं किया जाता। वहां बौद्ध महिला को नंगा किया जाता है। राष्ट्रध्वज केवल एक कपड़े का टुकड़ा है। उसका असम्मान करने पर व्यक्ति को भारी जुर्माना चुकाना पड़ता है और एक जीती जागती दलित महिला जो अनमोल है, उसे नंगा कर दिया जाता है तो उसके लिए केवल 50 रुपए का जुर्माना निर्धारित है। कोई भी राष्ट्र उसके लोगों से बनता है। क्या हमारी मां-बहनों की गरिमा और सम्मान की कीमत कपड़े के एक टुकड़े से भी कम है? अतः इस तरह के अपराध की कड़ी सजा होनी चाहिए।” ‘साधना’ में छपे इस लेख ने पूरे महाराष्ट्र में तहलका मचा दिया।
दलित पैंथर का पहला विरोध प्रदर्शन दादा साहेब रूपवते के खिलाफ हुआ था, जो बसंतराव नाईक की सरकार में कल्याण राज्यमंत्री थे। इस दौर में दलितों पर हो रहे अत्याचार के मुद्दे पर महाराष्ट्र में दलितों में उबाल था, किंतु रूपवते सरकार का बचाव कर रहे थे। उन्होंने कहा था कि दलितों पर अत्याचार के लिए सरकार जिम्मेदार नहीं है। ऐसे में दलित पैंथर के युवाओं ने उनके विरुद्ध 18 सितम्बर, 1972 को जून्नर तालुका के कार्यक्रम में, जहां जुनार ताल्लुका बौद्धजन संघ द्वारा रूपवते को सम्मानित किया जाना था, विरोध प्रदर्शन का निर्णय लिया। भारी पुलिस बल तैनाती के बीच दलित पैंथर के 50-60 युवाओं ने न सिर्फ प्रदर्शन किया, वरन् 45 मिनट तक ‘वापस जाओ’ के नारे लगाकर गिरफ्तारियां दी। 19 सितम्बर, 1972 को औरंगाबाद में भी करीब 400 युवकों ने रूपवते को काला झंडा लहराते हुए उनके इस्तीफे की मांग की। इस प्रकार दलित पैंथर के युवाओं ने अपने प्रदर्शन द्वारा अखबारों में जगह बना ली।
ज.वि. पवार ने एक अत्यंत अमानवीय घटना ‘दलित किसान की बलि’ का उल्लेख किया है। यह 12 अगस्त, 1972 को ऐरण गांव की घटना थी, जिसमें रामदास नारनवरे नामक 8 एकड़ भूमि के मालिक दलित किसान की गांव वालों ने हैजा से मरे दो लोगों की मृत्यु का दोषी करार दिया। नारनवरे पर डायन और तांत्रिक होने का झुठा आरोप लगाकर मनुस्मृति निर्धारित नियमों के अनुसार नर बलि दे डाली और लाश को कुंए में फेंक दिया। इस निर्मम हत्या के विरोध में प्रदेश भर में प्रदर्शन हुए और सरकार को 9 व्यक्तियों के खिलाफ केस करके गिरफ्तार करना पड़ा।
उधर ‘साधना’ में प्रकाशित राजा ढाले के विचारोत्तेजक लेख के बाद दक्षिणपंथी ताकतें मौके की ताक में थीं कि प्रेस को आग लगा दिया जाय। कांग्रेस और शिवसेना के कार्यकर्ताओं ने विरोध प्रदर्शन का अल्टीमेटम दिया था। दलित पैंथर के कार्यकर्ताओं और ज.वि. पवार, राजा ढाले जैसे लोगों ने ‘साधना’ पत्रिका के समर्थन में खड़ा होने का निर्णय लिया। ज.वि. पवार और पैंथर के लोग पूना शाखा के पैंथर के मुखिया अनिल कांबले से मिले। बड़ी संख्या में बिना प्रचार के पैंथर को साथ देने युवक इकट्ठे थे। कांग्रेस और शिवसेना समर्थक उग्र रूप से नारा लगा रहे थे– ‘साधना प्रेस’ को आग लगा दो।
इसके जवाब में दलित पैंथर के युवाओं द्वारा कहा गया कि हमारी साधना नहीं जलेगी। भारी पुलिस बल की तैनाती थी। दोनों गुट आमने-सामने आ गए थे। इसी बीच दलित पैंथर के सदस्यों पर पत्थरबाजी हुई। पैंथर के सदस्यों ने विरोधी गुट के लोगों को दौड़ा-दौड़ाकर उस इलाके से बाहर कर दिया। कांग्रेस और शिवसेना समर्थक भाग खड़े हुए।इस प्रकार ‘साधना’ को न सिर्फ बचा लिया गया वरन् इस विजय ने पैंथर के युवकों और राजा ढाले को नायक बना दिया। बड़ी संख्या में युवा दलित पैंथर के सदस्य बने।
इसके बाद 11 सितंबर, 1972 को मनुस्मृति की शवयात्रा निकाली गयी। जगजीवन राम बड़े प्रभावी कांग्रेस के मंत्री रहे। लेकिन दलितों के अत्याचार के मुद्दे पर उन्होंने लगभग चुपी साध रखी थी। वे चाहते तो दलितों पर अत्याचार के मामले में संसद में आवाज उठा सकते थे। अतः दलित पैंथर ने जगजीवन राम के कार्यक्रम का विरोध करने का निश्चय किया। यह कार्यक्रम 24 सितम्बर, 1972 को महाराष्ट्र प्रदेश कांग्रेस कमेटी के मुख्यालय, तिलक भवन में आयोजित था। प्रदर्शन के दौरान पुलिस ने 64 कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर जेल भेज दिया। गिरफ्तारी के एक दिन बाद ज.वि. पवार और साथियों ने मिलकर 64 कार्यकर्ताओं को रिहा करवाया। इससे दलित पैंथर को अत्यधिक प्रचार और समर्थन मिला।
इसी क्रम में 6 दिसंबर, 1972 को मुंबई के दादर अवस्थित चैतभूमि में पहली रैली का दलित पैंथर ने सफल आयोजन किया। बड़ी संख्या में लोगों ने भाग लिया। इस बीच संसद में दलितों पर अत्याचार पर चर्चा के दौरान गृह राज्यमंत्री रामनिवास मिर्धा ने दलितों पर अत्याचार के कुछ आंकड़े प्रस्तुत किये। चर्चा के दौरान प्रणव मुखर्जी ने सुझाव दिया कि जिस गांव में ऐसी घटनाएं होती हैं, वहां के सभी निवासियों पर सामूहिक जुर्माना लगाया जाना चाहिए। दलित पैंथर के सदस्य यह मांग पहले से कर रहे थे। गृह राज्यमंत्री ने इस सुझाव पर गंभीरता से विचार करने की बात कही।
यह दलित पैंथर आंदोलन का शानदार आगाज था। 1 जनवरी, 1973 को भीमा कोरेगांव पहुंच कर दलित पैंथर के सदस्यों ने विजयस्तंभ को सलामी दी।
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इन गतिविधियों के कारण दलित पैंथर का आधार और समर्थन रोज-ब-रोज मजबूत हो जा रहा था। फिर 6 मार्च, 1973 को आधी रात को शिवाजी पार्क में ज.वि. पवार ने करीब 500 से अधिक कार्यकर्ताओं के साथ ‘गीता दहन’ के कार्यक्रम की घोषणा की। इसी कार्यक्रम में राजा ढाले ने संक्षिप्त भाषण के बाद गीता की एक प्रति जेब से निकाली और माचिस से आग लगा दी। मौके पर मौजूद पुलिसकर्मियों ने तुरंत पुस्तक को छीन लिया और दलित पैंथर के 264 सदस्यों को गिरफ्तार कर लिया, जिन्हें पवार ने बाद में रिहा कराया।
इसी क्रम में एक और घटना ने दलित पैंथर के युवाओं के तनबदन में आग लगा दी। पुरी के शंकराचार्य निरंजन ने अपने एक बयान में कहा था कि चमार जितना भी पढ़-लिख जाय चमार ही रहेगा। दलित अछूत हैं और अछूत ही रहेंगे। दलित पैंथर के सदस्य शंकराचार्य को सबक सिखाने के लिए उनके मुंबई आने का इंतजार कर रहे थे। पैंथर के सदस्यों को पता चला कि शंकराचार्य कुछ आमंत्रित व्यक्तियों को संबोधित करने लेभिंगटन रोड स्थित जिला हाउस आने वाले हैं। लेकिन शंकराचार्य की मीटिंग रद्द कर दी गई। रात 9 बजे आयोजकों ने इसकी घोषणा की। दलित पैंथर के सदस्यों ने ‘शंकराचार्य डर गया’, ‘शंकराचार्य भाग गया’ के नारे लगाए।
उन दिनों दलितों को डरा-धमकाकर उनकी जमीन पर दखल कर लेना आम बात थी। दलित पैंथर के युवकों ने ऐसे दलितों को अपनी जमीन पर पुनः कब्जा दिलाने का महत्वपूर्ण कार्य किया। घटना का जिक्र करते हुए ज.वि. पवार ने लिखा है कि राजगुरू नगर तहसील के अस्खेड़ गांव के बाबुराव लिम्बोरे नामक ऊंची जाति के बाहुबली ने दलित विदूदगडू मोरे की कनपटी पर बंदूक रखकर उससे कहा कि वह अपनी 30 एकड़ जमीन जोतना बंद कर दे। जान बचाकर मोरे गांव से भागकर मुंबई आ गया और चर्च गेट स्टेशन पर फुटपाथ पर रहने लगा। मोरे की हालत जानकर दलित पैंथर के युवकों ने उसके गांव अस्खेड़ जाने का निर्णय लिया। दलित पैंथर के युवकों ने गांव पहुंचकर मोरे को उसके खेत पर कब्जा दिलाया और उसे कानूनी रूप से उसका मालिकाना हक भी दिलाया। प्रेस विज्ञप्ति निकाली गई “दलित किसान का शोषण हुआ समाप्त, धनी किसान ने दलित पैंथर के सामने किया आत्मसमर्पण।”
इसी प्रकार गांव के दलितों के जमीन पर जानबुझकर नाला बनाने, रोड बनाने और सरकारी कार्यों में लगाने का काम गांव के सरपंच और मुखिया मिलकर करते थे। दलित पैंथर ने कड़ा कदम उठाते हुए इस तरह की चालाकी का न सिर्फ पर्दाफाश किया, बल्कि दलितों के इस प्रकार के शोषण को अमानवीय करार देते हुए न्यायोचित कदम सरकार को उठाने के लिए बाध्य किया। इसी प्रकार पूणे जिले के राजगुरु नगर तहसील के ही दलित किसान भीमाशंकर गायकवाड़ की 23.26 एकड़ जमीन पर मुखिया ने कब्जा कर लिया था। दलित पैंथर ने वह जमीन वापस करवाई। दलितों को उनकी जमीन वापस करवाना, उस पर उनको कानूनन हक और कब्जा दिलवाना दलित पैंथर की सबसे बड़ी जीत थी। इससे पूरे महाराष्ट्र दलित पैंथर की कारवाही कर अच्छा असर हुआ और दलित पैंथर के सदस्यों की न सिर्फ संख्या का इजाफा हुआ वरन उनकी शक्ति का भय ऊंची जाति के किसानों में भी हुआ। इसका असर यह हुआ कि दिन प्रतिदिन गैर बौद्ध दलित, बौद्ध दलित और यहां तक कि ऊंची जाति के प्रगतिशील लोग दलित पैंथर से जुड़ने लगे।
बेरोजगारी के विरुद्ध आंदोलन दलित पैंथर का सबसे महत्वपूर्ण और सकारात्मक कदम था। 29 मार्च, 1974 से पूरे महाराष्ट्र के रोजगार कार्यालयों और राज्य सचिवालय के समक्ष विरोध प्रदर्शन का निर्णय दलित पैंथर द्वारा लिया जाना, क्रांतिकारी कदम था। दरअसल, रोजगार कार्यालयों की स्थापना डॉ. आंबेडकर के प्रयासों से तब हुई थी जब वे ब्रिटिश हुकूमत के समय पार्लियामेंट की कार्यकारी परिषद के श्रम समिति के सदस्य थे। 1974 तक आते आते देश भर के रोजगार कार्यालय दलित विरोधी और भ्रष्टाचार के अड्डे बन गए। मुंबई के मुख्य कार्यालय में जब पत्र लिखकर सरकारी विभागों में नियुक्तियों की सिफारिश का ब्यौरा मांगा गया तो रोजगार कार्यालय में पत्र का जवाब देना भी जरूरी नहीं समझा। ऐसे में दादा भाई सालवे के नेतृत्व में 50 युवक रोजगार कार्यालय में घुसकर सरकार के खिलाफ नारा लगाना शुरू कर दिया। कुछ समय बाद पुलिस ने युवकों को हिरासत में लिया और कुछ घंटो बाद उन्हें छोड़ दिया गया। दूसरे दिन ज.वि. पवार ने कार्यालय अधिकारी से मिलकर अपनी बात रखी तो उसने मुख्यमंत्री को पत्र लिखने और राज्य के सचिवालय से बात करने की सलाह दी क्योंकि सचिवालय पूरे राज्य के आंकड़े इकट्ठे करने की व्यवस्था थी। तब जो आंकड़े दिए गए, उससे स्पष्ट था कि निचली श्रेणी को छोड़कर आरक्षण का पालन नहीं किया गया था।
ज.वि. पवार ने आंकड़ों सहित तत्कालीन मुख्यमंत्री बसंतराव नाईक से मिलकर अपनी बात रखी। उन दिनों मुख्यमंत्री के पास ही गृह विभाग भी था। मुख्यमंत्री ने अपनी टिप्पणी लिखी तथ्यों की जांच कर अगर आवश्यक हो तो, आरक्षित पद भरने का निर्देश दिया गया था।
बाद में बसंत दादा पाटिल महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बने और उन्होंने आरक्षण नीति ठीक ढ़ग से लागू करने नियुक्ति और पदोन्नति में बैकलॉग समाप्त करने का निर्णय लिया। दलितों के गोपनीय चरित्र प्रमाण पत्र को सवर्ण अधिकारियों द्वारा प्रतिकूल टिप्पणी देकर उनके पदोन्नति और सेवा को बाधित किया जाता था। अतः तत्कालीन उपमुख्यमंत्री तिरपूड़े ने सेवा अवधि को एक मात्र पदोन्नति का आधार मानने का आदेश दिया, जिससे पूरे महाराष्ट्र में एससी और एसटी वर्ग के युवाओं की नियुक्तियां हुई और पदोन्नति में भी दलित अफसरबनाए गए। दलित पैंथर के सदस्यों ने बैंकों समेत सभी सरकारी संस्थाओं में उचित प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किया।
एक अत्यंत दर्दनाक घटना का उल्लेख पवार ने किया है। यह थी ‘गंवई बन्धुओं की आंखे फोड़ने की घटना। गोपाल नाथू गंवई और बबरुवाहन नाथू गंवई सगे भाई थे। गोपल की 16 साल की बेटी खेतों में मजदूरी करती थी। उद्धवराव नामक व्यक्ति ने उससे प्रेम का नाटक करके उसे गर्भवती बना दिया। गंवई भाईयों ने उद्धवराव से कहा कि वह लड़की से शादी कर ले। लेकिन लड़के के घर वालों ने दोनों भाईयों की मांग न सिर्फ खारिज कर दी, बल्कि उनके उपर झूठा मुकदमा दर्ज करा दिया। अदालत ने दोनों भाईयों को बरी कर दिया। इससे लड़के पक्ष की जातिगत अहंकार को चोट पहुंची। 26 सितम्बर को पुलिस पाटिल के 20 गुंडों ने घर बुलाकर दोनों भाईयों की निर्ममतापूर्वक आंखें फोड़ दी। समाचार पत्रों में यह खबर छपने के बाद मुख्यमंत्री बसंत नाईक ने पीड़ितों को एक-एक हजार रुपए सहायता राशि की घोषणा की, जिसकी राजा ढाले ने कड़ी आलोचना की और सिद्धार्थ कोलनी चैम्बूर में एक सभा आयोजित कर आक्रोश व्यक्त किया। इसी बीच इंदिरा गांधी के मुंबई यात्रा की घोषणा हुई। ज.वि. पवार ने प्रेस विज्ञप्ति जारी कर कहा कि गंवई बंधू प्रधानमंत्री की कार के सामने कूदकर आत्महत्या कर लेगें। पुलिस ने घोषणा की कि गंवई बंधू आत्महत्या का विचार त्याग दें तो प्रधानमंत्री से उन्हें मिलाया जा सकता है। अंततः ज.वि. पवार व राजा ढाले ने दोनों पीड़ितों को श्रीमती गांधी से मिलवाया। दोनों व्यक्तियों के आंख के गड्ढों को देखकर और उनकी पीड़ा सुनकर श्रीमती गांधी की आंखों में आंसू आ गए। पुलिस के थाना प्रभारी पाटिल को निलंबित कर दिया गया। नए सिरे से जांच शुरू की गई और दोषियों को कड़ी सजा दिलाने के लिए नई धाराएं लगाई गई।
दलित पैंथर का अवसान, व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा, पैंथर के अंदर घुस आए स्वार्थी लोगों और व्यक्तिगत लालच के कारण हुआ। लेकिन यह आंदोलन इतना दमदार था कि तब दलित पैंथर की शाखा विदेशों में भी गठित की गई। लंदन निवासी मोहन लाल और ए.शिवनंदन सहित अन्य भारतियों की मदद से लंदन में दलित पैंथर की शाखा का गठन किया गया। पांच साल से भी कम के कार्यकाल में दलित पैंथर ने जिस जोश और समर्पण से काम किया, वह वास्तव में डॉ. आंबेडकर के बाद अत्यंत ही क्रांतिकारी था। इसका असर ही रहा कि दलित पैंथर के अवसान के बाद भी धमक बनी रही। दलित साहित्यकारों ने अपने साहित्य से अपने समाज की पीड़ा से देश और दुनिया को रु-ब-रु कराया है। इसी दौरान उत्तर प्रदेश में कांशीराम ने 1980 के दशक में बहुजन नेतृत्व का सूत्र दिया और राजनीति की कुंजी खोज निकाली। उन्होंने ने साफ-साफ नारा दिया– “वोट हमारा राज तुम्हारा, नहीं चलेगा।” उत्तर प्रदेश में दलितों की जागृति और आंदोलन उसकी ही अगली कड़ी थी। इस दौरान डॉ. आंबेडकर के विचारों को घर-घर पहुंचाने का काम हुआ। यह सामाजिक न्याय की मांग भी थी। फिर बिहार में लालू प्रसाद यादव के नेतृत्व में पिछड़ों और दलितों में सिर ऊंचा कर चलने का जोश आया।
कुल मिलाकर ‘दलित पैंथर’ ने छोटे से कार्यकाल में सामाजिक न्याय के इतिहास में एक नया अध्याय जोड़ दिया, जिससे आनेवाली पीढ़ियां ऊर्जान्वित होती रहेंगीं।
(संपादन : समीक्षा/नवल/अनिल)
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