गत 23 जुलाई, 2022 के अंग्रेजी दैनिक ‘दी हिंदू’ में प्रकाशित एक ख़बर के मुताबिक मदुरई के वामपंथी सांसद एस. वेंकटेशन के एक सवाल के जवाब में भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय ने बताया है कि 2021 में अनुसूचित जनजाति (एसटी), अनुसूचित जाति (एससी), अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के छात्रों को इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी (आईआईटी) के पीएचडी के पाठ्यक्रमों में से कुछ में एक भी सीट नहीं मिली है। ऐसा नहीं है कि उपरोक्त वंचित वर्गों के छात्रों ने इन पाठ्यक्रमों में आवेदन ही नहीं किया था। आईआईटी, दिल्ली में बायोकेमिकल इंजीनियरिंग विभाग में पीएचडी के लिए ओबीसी और एसटी छात्रों के कुल 275 आवेदन आए थे, लेकिन इन वर्गों के एक भी छात्र इस पाठ्यक्रम के लायक नहीं पाए गए।
इसी प्रकार आईआईटी, मंडी में एससी के 369 और एसटी के 73 छात्रों के आवेदन करने के बावजूद बेसिक साइंस डिपार्टमेंट में एक भी सीट नहीं मिली। आईआईटी, हैदराबाद और आईआईटी, तिरुपति के कंप्यूटर साइंस विभाग में 248 ओबीसी छात्रों के आवेदन के बावजूद एक को भी पीएचडी के लायक नहीं समझा गया। यही हाल आईआईटी, बीएचयू के मैटेरियल साइंस विभाग का रहा, जहां 128 ओबीसी छात्रों में से किसी को भी पीएचडी के लायक नहीं पाया गया।
ये आंकड़े एक छोटी-सी बानगी भर हैं कि किस तरह वंचित वर्गों के छात्रों के हकों पर डाका डाला जा रहा है। सामाजिक विज्ञान के भी विषयों जैसे– समाजशास्त्र, इतिहास, कला, मनोविज्ञान तथा विभिन्न भाषाओं के पाठ्यक्रमों में हालात और भी ज्यादा ख़राब हैं। इन वर्गों के छात्र पीएचडी प्रवेश परीक्षा में तो सफल हो जाते हैं, परन्तु उन्हें शोध करवाने के लिए कोई गाइड नहीं मिलता। यूजीसी के नियमों के तहत प्रवेश परीक्षा में उत्तीर्ण विद्यार्थियों को अपने शोध गाइड का चयन खुद ही करना पड़ता है। अब इस स्थिति में शोध गाइड के हाथ में है कि वह छात्र को अपने निर्देशन में शोध करवाए या न करवाए। किसी शोधार्थी छात्र को तीन साल तक कोई गाइड नहीं मिलने की स्थिति में उसकी शोध पात्रता रद्द हो जाती है तथा उसे फिर परीक्षा देकर यह पात्रता हासिल करनी पड़ती है। देश भर के करीब-करीब सारे विश्वविद्यालयों तथा तकनीकी संस्थानों में हर वर्ष बहुजन समाज के बड़ी संख्या में छात्रों को गाइड नहीं मिलने के कारण पीएचडी पात्रता रद्द हो जाती है।
ऐसा क्यों होता है, इसका अनुमान लगाना जटिल नहीं है। विश्वविद्यालयों में जातिवाद असरहीन नहीं है। कहा तो यह जाना चाहिए कि विश्वविद्यालयों को गुरूकुल के माफिक बनाकर रखा गया है, जहां वंचित वर्गों के छात्रों के लिए बाधाओं की कोई कमी नहीं है। बताते चलें कि मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू होने से पूर्व विश्वविद्यालयों में ओबीसी वर्ग के शिक्षकों की संख्या लगभग शून्य थी। हालांकि एससी वर्ग का आरक्षण तो पहले ही से था, परंतु इन जगहों पर योग्य अभ्यर्थी न मिलने का बहाना बनाकर इन पर नियुक्तियां नहीं की जाती थीं और कमोबेश यही स्थिति आज भी है। आरक्षण लागू होने के बावजूद देश भर के विश्वविद्यालयों और तकनीकी संस्थानों में इन वर्गों के हजारों शिक्षकों के पद खाली पड़े है। इसका एक महत्वपूर्ण पक्ष यह भी है कि जब इन संस्थानों में शिक्षकों की भर्तियां निकलती हैं तो कुछ लोग विभिन्न मामलों को लेकर कोर्ट में चले जाते हैं और नियुक्तियां लंबे समय तक टल जाती हैं। बहुजन वर्ग के शिक्षकों की नियुक्ति को लेकर सरकारों में भी दृढ़ इच्छाशक्ति का घोर अभाव है। यह भी लगता है कि सरकारें जानबूझकर इन मामलों को लंबा करना टालना चाहती हैं। बहुजन वर्ग के शिक्षकों की संख्या अत्यंत कम होने के कारण वंचित वर्गों के छात्रों को काफी भेदभाव भी झेलना पड़ता है। बहुत से विश्वविद्यालयों में तो कुछ वर्ग के अध्यापक वंचित वर्गों के छात्रों को अपने निर्देशन में जानबूझकर पीएचडी कराने में टालमटोल भी करते हैं।
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि इस मामले में कुछ हद तक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) , अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) आदिके हालात कुछ बेहतर हैं, लेकिन इन मामलों में इनकी प्रतिष्ठा भी तेजी से गिर रही है। इसका कारण यह है कि इन संस्थानों में भी बड़े पैमाने पर केंद्रीय सत्ता राजनीतिक पक्षधरता के हिसाब से गैर-आरक्षित वर्गों के लोगों की नियुक्तियां करा रही है। अगर यही हालात रहे, तो बहुत जल्दी इन संस्थानों का भी गैर सांप्रदायिक तथा गैरजातिवादी स्वरूप नष्ट हो जाएगा।
वास्तविकता यह है कि तमाम सरकारी दावों के बावजूद दलित, पिछड़े और आदिवासी समाज के छात्रों की संख्या अभी भी बहुत कम है, विशेष रूप से उच्च शिक्षा में। उच्च शिक्षा में सकल नामांकन दर 13.8 फीसदी है , जबकि अनुसूचित जाति में बालिकाओं की दर 1.8 फीसदी तथा अनुसूचित जनजाति के बालिकाओं की दर 1.6 फीसदी है। 6 से 14 आयु वर्ग के 35 लाख आदिवासी बच्चे यानी 54 फीसदी अभी भी स्कूलों से बाहर हैं। इस आयु वर्ग के 18.9 फीसदी बच्चे, जो स्कूलों में दाखिल तो हैं, लेकिन स्कूल नहीं जा रहे हैं। वास्तव में सरकार ने इन वर्गों के लिए योजनाएं तो बना लीं तथा उनके लिए निशुल्क कोचिंग और आरक्षण की व्यवस्था भी कर दी, लेकिन हमारी नौकरशाही में इनके प्रति अपार घृणा भरी हुई है। इसलिए अक्सर इन योजनाओं का क्रियान्वयन ही नहीं हो पाता और जो होता भी है, उसमें इतनी कमियां छोड़ दी जाती हैं कि इन्हें आसानी से पलटा जा सके। इन वर्गों से आने वाले राजनेता भी सुख-सुविधा,पद प्रतिष्ठा पाने के बाद इन अन्यायों को देखकर भी चुप्पी साध लेते हैं। इसका सबसे अच्छा उदाहरण उत्तर प्रदेश और बिहार है। बिहार में तो करीब तीन दशक से सामाजिक न्याय के आकांक्षी लोगों की सरकार रही है तथा वे आज भी वहां एक बड़ी ताकत हैं, लेकिन इन प्रदेशों में बहुजन वर्ग के छात्रों और अध्यापकों के साथ सबसे ज़्यादा अन्याय हुआ और आज भी जारी है। बंगाल में लंबे समय तक मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी का शासन रहा,लेकिन वहां का भी रिकार्ड इस मामले में बहुत ख़राब है। तमिलनाडु में पेरियार के द्रविड़ आंदोलन और केरल में, जहां नारायण गुरु जैसे बहुजन नायकों ने जातिवाद के खिलाफ आंदोलन चलाया, वहां कम्युनिस्टों का शासन होने के साथ ही ईसाई मिशनरियों ने दलित, पिछड़े और आदिवासियों के छात्रों की शैक्षणिक हालत को सुधारने के लिए काफी काम किया है। लेकिन वहां भी संघ परिवार विषम परिस्थितियों के निर्माण में जुटा है।
इन बातों का निष्कर्ष यह है कि आज़ादी के 75 वर्ष बीत जाने के बाद भी इन वर्गों की सामाजिक और शैक्षणिक स्थिति पर बहुत ज़्यादा अंतर नहीं पड़ा है। आज़ादी का अमृत महोत्सव मनाने तथा घर-घर में राष्ट्रीय ध्वज फहराने पर दलित, पिछड़े तथा आदिवासियों के सामाजिक, शैक्षिक और राजनैतिक स्थितियों में बहुत ज़्यादा सुधार नहीं होगा। इसके लिए दृढ़ इच्छाशक्ति, सामाजिक मानसिकता में बदलाव तथा कानून लागू करने वाली एजेंसियां जब तक मुश्तैदी से इन वर्गों को संविधान में दिए गए अधिकारों को कड़ाई से लागू नहीं करती हैं, तब तक यह लक्ष्य अभी भी बहुत दूर है।
(संपादन : नवल/अनिल)
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