सुब्ह रो रोके शाम होती है
शब तड़पकर तमाम होती है
हम जो कहते हैं कुछ इशारों से
ये ख़ता लाक़लाम होती है
ज़फ़र के ये शे’र भले ही महबूब के दिल की बेक़रारी का मंज़र खींचते हैं, लेकिन वास्तव में यह स्त्री की बेबसी का चित्र भी खींचते हैं। एक मुलाकात में अमृता प्रीतम ने पाकिस्तान की शाइरा सारा शगुफ़्ता से पूछा था, “तुम्हारी जन्म-तारीख क्या है?” सारा का जवाब था, “परिंदे का चहचहाना ही मेरा जन्मदिन है।” और इस पुरुष-समाज में एक लड़की का चहचहाना तब बंद हो जाता है, जब वह औरत बन जाती है। नुपुर चरण ने इसे अपनी “अंतहीन” कविता में बहुत मार्मिक अभिव्यक्ति दी है। यथा–
अमरूद सी महकती लड़कियां
दशहरी सी पकती लड़कियां
झरबेरियों सी उगती लड़कियां
अमरख सी खट्टी-मीठी लड़कियां
महुए की मस्ती से भरी लड़कियां
गन्ने के रस में पगी लड़कियां
जब बनती हैं औरत
तो सूख क्यों जाती हैं?
नूपुर चरण अपने पहले कविता संग्रह ‘हार्शू क्रैब’ से ही, जो इसी वर्ष (2022 में) प्रकाशित हुआ है, स्त्री-विमर्श की उन सशक्त कवयित्रियों में शामिल हो गई हैं, जो वक्त की चेतना की तहरीरें लिखकर इतिहास में दर्ज हो चुकी हैं। इस संग्रह में 73 कविताएं हैं, जो बहुत सलीके से स्वयं की यात्रा में, स्त्री-मुक्ति का विमर्श, समाज और उसके विरोधाभास, प्रतीक, अवधारणाएं तथा प्रेम के सांचे में ढाली गई हैं और अंत में ‘सुपरनोवा’ का चयन है, जिसमें प्रकृति की सबसे सुंदर घटना मरता हुआ तारा, अपनी विशालता और अप्रतिम चमक के साथ अनंत में विलीन होता है, वैसे ही स्त्री को भी हम उसके सर्वश्रेष्ठ अवदान के साथ निरंतर मरते हुए देखते हैं।
नूपुर की कविताओं की यह विशेषता है कि उनका अर्थ उनकी अंतिम पंक्तियों में खुलता है, ठीक वैसे ही जैसे शे’र का अर्थ उसकी अंतिम पंक्ति में खुलता है। इस तरह नूपुर नज्मों में शे’र कहने वाली अद्भुत अदाकारा हैं।
नूपुर चरण ने अपने कविता-संकलन का नाम ‘हार्शू क्रैब’ रखा है। जहन में यह सवाल उठ सकता है कि इस अजीब नाम का क्या अर्थ है? कवयित्री ने ‘हार्शू क्रैब’ के बारे में लिखा है कि यह अश्वनाल केकड़ा है, एक समुद्री आथ्रोपोड, जो जिफोसुरा गण के लिम्युलिडाए कुल में श्रेणीकृत है। इसकी विशेषता यह है कि इसकी उत्पत्ति लगभग 45 करोड़ वर्ष पहले हुई थी, और तब से अब तक इसमें बहुत कम बदलाव आया है। भारतीय समाज भी अपनी सामाजिक संरचना में ‘हार्शू क्रैब’ की तरह का ही जीवित जीवाश्म है, जिसमें बहुत कम बदलाव आया है। उनका कहना है कि इस संरचना में हाशिए की अस्मिताएं आज भी अपने अस्तित्व के लिए संघर्षरत हैं। नूपुर ने ‘हार्शू क्रैब’ कविता से स्त्री-मुक्ति के विमर्श की शुरुआत की है, जिस पर हम आगे चर्चा करेंगे।
‘हार्शू क्रैब’ संग्रह के आरंभ में ‘स्वयं की यात्रा में’ अभिव्यंजित सात कविताएं हैं, जिसमें पहली कविता ‘जिजीविषा’ है। कभी पाकिस्तानी शायरा किश्वर नाहीद ने अपनी एक नज्म में औरत की तुलना घास से की थी। उस नज्म में नाहीद ने कहा था– “घास भी मुझ जैसी है/ ज़रा सर उठाने के क़ाबिल हो/ तो कांटे वाली मशीन/ इसे मख़मल बनाने का सौदा लिए/ हमवार करती रहती है।”
‘जिजीविषा’ में नूपुर चरण भी स्त्री के लिए घास की उपमा को स्वीकार करती हैं। लेकिन उनकी स्त्री अपने काटे जाने से मरती नहीं है, बल्कि जितना कटती है, उतनी ही जीने की प्रबल इच्छा रखती है। यथा– “मैं घास हूं/ तुम मुझे कितना भी काटोगे, रौंदोगे/ मैं उग आऊंगी/ मौसम के अनुकूल होने पर।” और अंत में–
मेरी जिजीविषा का क्या करोगे?
कि मैं हर बार आऊंगी
आ ही जाऊंगी
तुम्हारे हर किए-धरे के बावजूद।
क्या लिखना आसान होता है? शायद एक स्त्री के लिए नहीं। और वह भी तब, जब शासकों के प्रशस्ति-गान लिखने की जगह वह लिखना चाहती हो शासकों की क्रूर व्यवस्था पर, चाहती हो करना उनकी आलोचना; तब लिखना आसान नहीं होता। तब उसे रूसी शायरा ऐना आख्मातोवा की तरह जेल में डाला जा सकता है, और कर्नाटक की गौरी लंकेश की तरह मृत्युदंड भी दिया जा सकता है। नूपुर ‘तफरीह’ कविता में कहती हैं, कि कागज पर कलम से शब्दों की तफरीह करने को लेखन नहीं कहते, बल्कि लेखन कठिन होता है– “जब लिखना हो/ सामाजिक अन्याय पर/ ईश्वर के झूठ पर/ व्यवस्था की विसंगतियों पर/ शोषण पर/ दमन पर/ संवेदनाओं पर/पीड़ा पर/ आदमी पर/ उसकी आदमियत पर।” क्योंकि–
तब अपने भय पर
विजय प्राप्त कर
अपने अंतर्मन को निचोड़कर
रख देना होता है
शब्दों की जगह।
‘हार्शू क्रैब’ कविता में स्त्री-मुक्ति का विमर्श स्त्री द्वारा स्वयं को बदलने का विमर्श है। कवयित्री की दृष्टि में स्त्री भी ‘हार्शू क्रैब’ की तरह ही जीवित जीवाश्म है, जिसने अपने आपको बहुत कम बदला है। और यह सच है कि औरत ने अपने आपको ज्यादा नहीं बदला। स्त्री समाज की वह इकाई है, जिसे पहली पाठशाला माना जाता है। अगर स्त्री वैज्ञानिक विचारों की नहीं है, रूढ़िवादी है, तो सिर्फ यही नहीं होगा कि समाज को बदलने में उसका कुछ भी योगदान नहीं होगा, बल्कि उसकी कई पीढ़ियां भी रूढ़िवादी ही बनी रह सकती हैं। इसलिए औरत की मुक्ति औरत के द्वारा ही हो सकती है, जैसा कि तसलीमा नसरीन लिखती हैं– “औरत ही कर सकती है औरत को आज़ाद/ कायदों कानूनों पर/ सभ्य पेट्रोल छिड़ककर।”
नूपुर चरण की इस कविता में सत्य का उदघाटन है– “समाज के हिसाब से/ हार्शू क्रैब की रचना/ प्रकृति ने की है/ और/ औरत की रचना/ संस्कृति ने की है।” और यह संस्कृति, जिसने औरत की रचना की है, औरत की नहीं है, बल्कि यह वर्चस्ववादी सामंतवादी संस्कृति है, जो और कुछ नहीं, सिर्फ मर्द का अनुशासन है। इस अनुशासन में औरत का वतन नहीं होता, और जब वतन नहीं होता, तो अस्मिता भी कहां होती है? अमृता प्रीतम ने लिखा है– “कभी मैं दीवारों में चिनी जाती हूं/ और कभी बिस्तर में/ क्या औरत का बदन के अलावा/ कोई वतन नहीं होता?”
इस अनुशासन को नूपुर चरण ने ‘स्त्रियां’ कविता में बहुत कठोर शब्दों में व्यक्त किया है–
लड़कियां कामुक होती हैं,
औरतें सौभाग्यवती होती हैं
माताएं पुत्रवती होती हैं
वृद्धाएं बोझ होती हैं
और अपने हर रूप में
ये पुरुषों को लुभाने वाली
वेश्याएं होती हैं।
कहां है इसमें स्त्री की अपनी अस्मिता, उसकी व्यथा? शायद फ्रायड ने गलत नहीं कहा था कि लिंग की पूजा वास्तव में पितृसत्ता का प्रतीक है।
चिलीयन कवयित्री वायोलेता पारा ने पितृसत्ता पर लानत भेजी है– “खुदा की लानत चूल्हे की आग पर कि मेरा दिल एक कच्चा मांस है/ खुदा की लानत समय के कानूनों पर/ जो हमारी पीड़ाओं को छलते हैं।” स्त्री-जीवन की इस पीड़ा की भरपाई कहीं नहीं है, सच तो यह है कि पितृसत्ता को उसका अहसास तक नहीं है। जैसे लोहे को जंग लगती है, वैसे ही स्त्री भी इस दर्द के लिए अभिशप्त है। नूपुर चरण की ‘अभिशप्त’ कविता इस सच की जलती हुई चिंगारी है–
शीशे पर पड़ी खरोंचें दिखती नहीं हैं
ऊपर से देखने पर इतना साफ़ और निश्चल
कि कभी हम जान ही नहीं पाते
कितने घाव भरे हैं उसके भीतर
कितनी हलचल है उसके अंदर।
मिजोरम की शायरा जोथानपारी ने लिखा है कि “वह शापित है, क्योंकि उसने एक औरत का जन्म पाया है।” और मशहूर शायरा इशरत आफरी औरत के वजूद पर लिखती हैं– ”लड़कियां मांओं जैसे मुक़द्दर क्यों रखती हैं/ तन सहरा और आंख समुंदर क्यों रखती हैं।” यही भावाभिव्यक्ति नूपुर चरण की कविता ‘अस्तित्व’ में मिलती है–
तुम चाहो तो
मेरे रूप अनेक हैं
सब कुछ निर्भर है
तुम्हारे चाहने पर
फिर मैं
और मेरा अस्तित्व कहां है?
दुखद यह है कि यह अस्तित्वहीनता ही स्त्री की नियति है। नूपुर की ‘मौन’ कविता एक ऐसे मौन को रेखांकित करती है, जो विरोध करना भूल गया है। यथा–
आ गया बसंत
गुलाब की कलियां चटकी हैं
आ जाओ तुम उन्हें मसलने के लिए.
आ गया बसंत बगिया महकी है
आ जाओ तुम इसे उजाड़ने के लिए
अब तुम्हें कोई विरोध सहना नहीं होगा
क्योंकि कांटों ने मौन रहना सीख लिया है।
असल में यह मौन स्वाभाविक नहीं है, बल्कि स्वाभाविक बना दिया गया है, क्योंकि घर-परिवार में लड़की को ऐसे ही संस्कार दिए जाते हैं कि बेटी, कुछ गलत भी हो जाए, तो मौन रहना, इसी में परिवार का मान-सम्मान सुरक्षित है। हिंदी कवयित्री शांति यादव की कविता ‘बाप की टोपी’ में इसका मार्मिक चित्रण मिलता है। यथा– “बाप की टोपी/ कपड़े की नहीं होती है/ बेटी के जिस्म की बनी होती है/ जहां-जहां बेटी जाती है/ बाप की टोपी साथ जाती है।”
इसलिए, स्त्री हो या युवती, उसकी नियति वही है, जिसे नूपुर चरण ने ‘युवती’ कविता में चित्रित किया है। यथा–
युवती होना
‘युव’ को खोकर सिर्फ ‘ती’ का बच जाना
‘ती’ जो बन जाती है ‘नियति’
जलने की, घुटने की
द्वंद्व में जीने की
बंधन में बंधने की
और खुद को खोजकर पूछने की
कि क्या होता है युवती होना
और, ‘युव’ को खोकर सिर्फ ‘ती’ का बच जाना?
स्विटज़रलैंड की शायरा अलफोंसिना ने, जिसने अमृता प्रीतम के अनुसार आत्महत्या कर ली थी, एक बहुत ही महत्वपूर्ण कविता लिखी थी, जिसमें उसने कहा था–
मेरी कविताओं ने जो भी कहा
वह शायद एक वर्जित बात थी
जो औरत की ज़ात से औरत की ज़ात तक
बहुत ही छिपाकर और दबाकर रखी हुई बात थी।
और नूपुर चरण ने औरत की ज़ात से औरत की ज़ात तक वही छिपी-दबी वर्जित बात ‘मासिक और धर्म’, ‘कम्फर्ट वुमन’, ‘आबरू-बाखता औरतें’, ‘हाँ’, ‘जरूरत’, ‘स्त्रियां जो मुक्त हैं’ और ‘नान्ह जात की औरतें’ कविताओं में पूरी आज़ादी से कही है। ‘मुक्ति की चाह’ में भी स्त्री इतनी भ्रमित हो जाती है कि उसी शिकंजे में पुन: फंस जाती है, जिससे निकलना चाहती है। यथा–
पता नहीं मेरी मुक्ति की चाह कमजोर थी
या तुम्हारा बुना जाल मजबूत था
कि थोड़े बहुत बदलाव के साथ
मैंने स्वीकार लिया तुम्हारी ही व्यवस्था को।
कवयित्री नूपुर चरण ने स्त्री की विवशता को चित्रित करने के साथ-साथ उसकी मुक्ति की राह भी प्रशस्त की है। क्योंकि सिमोन द बोवुआर की तरह उसका भी मानना है कि कोई स्त्री पैदा नहीं होती, बल्कि बना दी जाती है। इसलिए उससे मुक्ति की चेतना भी उसे ही पैदा करनी होगी, जैसाकि कवयित्री ‘क्षण और मुक्ति’ कविता में स्त्री को संबोधित करती है–
जिस क्षण तुम अपनी देह को
पवित्र-अपवित्र के बंधन से मुक्त कर पाओगी
जिस क्षण अपनी देह पर अपना अधिकार जताओगी
जिस क्षण तुम्हारी योनि में होने बंद हो जाएंगे
यज्ञों के अनुष्ठान
जिस क्षण तुम एक बेटी, बहु, बहन, पत्नी होने के
बंधन से मुक्त हो पाओगी
जिस क्षण तुम सभी दैवीय शक्तियों को त्याग
प्रकृति की साधारण जीव बन जाओगी |
ठीक उसी क्षण से ही
तुम मुक्त हो जाओगी
और पितृसत्ता के ताबूत में
आखरी कील ठोक जाओगी।
यह सच है कि पितृसत्ता की गुलामी से मुक्त होना ही स्त्री की वास्तविक स्वतंत्रता है। कहते हैं कि नारीवादी फ्रैंच लेखिका सिमोन द बोवुआर की जब मृत्यु हुई, तो उसकी शवयात्रा में स्त्रियों के एक समूह ने स्त्री-मुक्ति का यह गीत गाया था– “उठो, गुलाम महिलाओं, तोड़ दो अपने बंधन।”
मोरक्को की कवयित्री मृरिदा एन ऐत सेतिक के गीत की एक पंक्ति है– “दर्द मुझे ऐसा लगता है, जैसे लोहे को जंग लगता है।” यह दर्द ही वास्तव में व्यक्ति को संवेदनशील बनाता है। वह पत्थर है, जिसे दर्द नहीं लगता। मनुष्य अगर एक सामाजिक प्राणी है, तो समाज से वह निरपेक्ष होकर नहीं रह सकता। सामाजिक सरोकारों के साथ एक स्वस्थ समाज के निर्माण के लिए प्रतिरोध और संघर्ष की चेतना का होना जरूरी है। यही चेतना समाज में दिखने वाले शोषण, दमन और अत्याचार के खिलाफ व्यक्ति को सक्रिय करती है। इस चेतना से लैस समाज और उसके विरोधाभास खंड के अंतर्गत नूपुर चरण की ‘बोलना जरूरी है’ महत्वपूर्ण कविता है–
बोलो कि बोलना जरूरी है
विरोध करो कि विरोध करना जरूरी है
मुखर हो हर गलत के प्रति
कि मुखरता जरूरी है
वरना यह चुप्पी
हमें चलती-फिरती लाशों में
तब्दील कर देगी।
आज के इस राजनीतिक फासीवाद के दौर में, जब लोकतंत्र और व्यक्ति की स्वतंत्रता को निरंतर कुचला जा रहा है, क्या भारत माता की जय बोली जा सकती है? नफरत की आग में मासूमों को मरते हुए और बस्तियों को जलते हुए देखकर क्या वंदे मातरम बोला जा सकता है? अगर हां, तो हम डरे हुए लोग हैं। और नूपुर चरण की कविता ‘विद्रोह’ डरे हुए लोगों के लिए नहीं है। उसमें विद्रोह का स्वर है, जो देशभक्ति की कीमत पर देश को जलता हुआ नहीं देख सकती। यथा–
मैं नहीं कह सकती भारत माता की जय
जब पढ़ती हूं मासूमों को मरते हुए।
मैं वंदेमातरम नहीं कह पाती
जब देखती हूं दलित बस्तियों को जलते हुए।
मगर मैं विद्रोही हो जाती हूं
एक पल में देशद्रोही हो जाती हूं।
सामाजिक सरोकार के क्रम में नूपुर चरण की अगली कविता ‘भूख और भात’ है, जिसमें भूख से मरने वाली तीन आदिवासी बच्चियों और अन्य गरीबों की मौत पर कवयित्री की संवेदना मर्मस्पर्शी है। नेपाल की कवयित्री पारिजात की कविता की चार पंक्तियां हैं– “अन्यायपूर्वक मारे गए वे लोग/ हमारे मानस में हमसे मुखातिब होते हैं/ और उनकी हत्याओं का बदला लेने के लिए/ हमारा गुस्सा उमड़ने लगता है।” नूपुर चरण की इस कविता में भी मरी हुई आत्माएं उनके सपने में आती हैं और सवाल करती हैं–
हमारी तो बस देह मृत हुई
तुम्हारी तो आत्मा तक मृत है
तुम कैसे सोती हो चैन की नींद?
कैसे रह सकती हो आराम से?
कैसे खाती हो निवाला?
जबकि हम मर गए भूख से।
उन तीन बच्चियों की,
मानसिक विकलांग आदिवासी लड़के की,
भात मांगती हुई बेटी की
और ऐसे ही भूख से मरी हुईं अनगिनत आत्माएं
आती हैं सपनों में मेरे
करती हैं भयानक अट्टहास
खोजती हैं चारों तरफ चिल्लाते हुए
रोटी और भात।
पारिजात ने भी भूख से मौत का एक भयानक साक्ष्य दिया है–
अब मृत्यु का वास्तविक साक्ष्य मेरे पास है
वह एक संकरे पहाड़ी पुल पर मेरे हाथ आया
जब एक मां ने नमक के लिए
फलियों की अदला-बदली करने के इरादे से उसे पार किया
भूख की बेहाली से वह लड़खड़ाई
और उसकी पीठ पर टिका पालना फिसल गया
और उसका बच्चा चीखें मारता हुआ
काली नदी की प्रलुब्ध लहरों में जा समाया।
यह भूख से हुई मौत थी। गोपालदास नीरज ने अपनी किसी कविता में कहा था कि भूख इंसान को गद्दार बना देती है। लेकिन ऐसे साक्ष्य कभी मिले नहीं, जब किसी भूखे व्यक्ति ने गद्दारी की हो। भूखा व्यक्ति सिर्फ अकाल मौत मरता है, बगावत नहीं करता। बगावत करने के लिए शरीर में जान होनी चाहिए, और जान रोटी से आती है। इसलिए भूखे आदमी को रोटी के सिवा न कुछ दिखता है और न कुछ समझ में आता है। इसलिए दुनिया के भूखे कभी एक नहीं हो सकते। नूपुर चरण की एक और कविता ‘भूख एक प्रश्न’ इस सच को शिद्दत से रेखांकित करती है–
भूख और परिवार की जद्दोजहद के बीच
फंसा हुआ मनुष्य
क्या समझ पायेगा तुम्हारे नारों को
वर्ग-संघर्ष के सिद्धांतों को।
या तुम्हारे मेनोफेस्टो को–
दुनिया के मजदूरों एक हो।
भूखी अंतड़ियां एक हो सकती हैं भला?
भूख से सनका हुआ दिमाग
क्रांति कर सकता है क्या?
लेकिन दुनिया का तो पता नहीं, भारत में जरूर भूख का निर्माण ब्राह्मणों की वर्णव्यवस्था ने किया है, जिसने कानूनन एक वर्ग विशेष को अछूत और जीविकविहीन बनाकर रखा गया। इस व्यवस्था में उसे स्वच्छ व्यवसायों से धनोपार्जन न करने दिया और अगर किया भी तो उसका सब धन छीनकर उसे गरीब बनाकर ही रखा गया। उसे समस्त मानव-अधिकारों से वंचित रखा गया, ताकि वह अपना उत्थान न कर सके। उस दलित वर्ग के प्रति हिंदू समाज में आज भी सर्वत्र घृणा, तिरस्कार और उपेक्षा मौजूद है। आजादी के पचहत्तर साल बीत जाने के बाद भी यह वर्ग अपने लिए आज़ादी की प्रतीक्षा कर रहा है। जैसी संपूर्ण आज़ादी ब्राह्मणों और अन्य हिंदुओं को प्राप्त है, वैसी संपूर्ण आज़ादी दलितों के लिए अभी भी एक सपना है।
(क्रमश: जारी)
समीक्षित पुस्तक : ‘हार्शू क्रैब’ (काव्य संकलन)
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