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दलित-बहुजन कविता में समाजवाद के स्वर

उत्तर भारत में दलित कविता के क्षेत्र में शून्यता की स्थिति तब भी नहीं थी, जब डॉ. आंबेडकर का आंदोलन चल रहा था। उस दौर में और आजादी के बाद अनेक दलित कवि हुए, जिन्होंने कविताएं लिखीं। प्रस्तुत है कंवल भारती की विशेष आलेख श्रृंखला ‘हिंदी दलित कविता का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य’ की चौथी कड़ी

दलित कविता का ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्यचौथी कड़ी

अछूतोद्धार के गांधीवादी मॉडल ने हिंदू कवियों को बहुत प्रभावित किया। इस मॉडल में अस्पृश्यता का विरोध था, वर्णाश्रम-धर्म का खंडन नहीं था, हिंदुओं के हृदय-परिवर्तन का आग्रह था, पर हिंदुत्व का विरोध नहीं था। उसमें अछूतों की पढ़ाई-लिखाई से इनकार तो नहीं था, पर उनके स्वाभिमान को कुचलने वाले गंदे पेशों को छोड़ने का समर्थन नहीं था। इस मॉडल से प्रभावित हिंदू कवियों ने अछूतों को महिमामंडित करने वाली कविताओं की झड़ी लगा दी। अछूतोद्धार के इसी गांधीवादी मॉडल पर 1927 में ‘चांद’ पत्रिका ने ‘अछूत अंक’ निकाला था। इसी अंक से अछूतों के संबंध में लिखीं गई कुछ कविताओं के नमूने यहां दिए जाते हैं।

इन कविताओं का मुख्य स्वर गांधीवादी है, जो हिंदुओं को यह समझा रहा है कि यदि हिंदुओं ने अछूतों को गले नहीं लगाया, तो मुसलमान और ईसाई उन्हें गले लगाने को तैयार बैठे हैं। शोभाराम ‘धेनुसेवक’ ने ‘अछूत आवेदन’ कविता में कहा–

अछूतों को हड़पने के लिये तैयार बैठे हैं।

तिरस्कृत तुम से हो कितने विधर्मी अब बने बैठे।

गिराने को तुम्हें वे खाईयां गहरी खने बैठे।।[1]

पं. रामचंद्र शुक्ल ‘सरस’ ने ‘अछूत’ शीर्षक कविता में अछूतों को महिमामंडित करते हुए लिखा–

शेष-विदेह सनेह चाहते, हैं सराहते कह कर पूत।

हैं हम उन्हीं विष्णु-चरणों से, कैसे हैं तब कहो अछूत?

लेकिन उन्होंने यह भी स्पष्ट कर दिया कि पद (शूद्र) और मुख (ब्राह्मण) में समता नहीं हो सकती–

हां, यह सच है पद अरु मुख में, कभी न हो सकती समता।

दोनों ही हैं एक देह के, अतः उचित क्षमता-ममता।।[2]

अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ ने लिखा कि छूने से कोई अछूत जन अपूत नहीं हो जाता–

‘हरिऔध’ धरम-धुरन्धर मुदित होत,

मोह-मद बिनसे प्रमादिन के मूये ते।

छाये रहे उर मैं अवनि के अछूते-भाव,

बनत अपूत ना अछूत-जन छूये ते।।[3]

कुमारी सरस्वती देवी ने ‘आसार’ कविता में हिंदुओं को चेतावनी देते हुए लिखा–

आंख क्यों है अब तलक यों देखती?

कान क्यों हैं सुन रहे उस राग को?

जब हमारे ही हमारे सामने,

थामते हैं दामने-इसलाम को।।

जुल्म से लाखों ईसाई हो गये,

जुल्म का फिर भी न पारावार है।

जुल्म होते हैं धरम के नाम पर,

कौम के मिटने का यह आसार है।।[4]

यही चेतावनी रामचरित उपाध्याय ने ‘परिरम्भ’ कविता में दी–

ऊंच-नीच के भेद भगा कर, कर दो परिरम्भण आरम्भ।

क्या हिन्दुत्व मिटा देने पर, चाटोगे ले कर के दम्भ?

उसी म्लेच्छ से हाथ मिलाते, जो पहले का रहा चमार।

पर, छूते थे उसे न पहले, इस हिन्दूपन को धिक्कार।।

जब कुत्ते भी हट जाते हैं, तुम से पाकर के दुत्कार।

फिर अछूत क्यों तजें न तुमको? कुछ तो मन में करो विचार।।[5]

व्यास मोतीलाल शर्मा ने ‘विश्वास-घात’ कविता में वर्ण-व्यवस्था की प्रशंसा करते हुए लिखा कि जब तक वर्ण-धर्म का राज रहा, चारों वर्ण उन्नति करते रहे। यथा–

स्वार्थ जब परमार्थ का शुभ अंग था,

प्रेम-सरिता बह रही थी देश में।

देश-उन्नति अर्थ करते कर्म थे,

वर्ण चारों आर्य जन के वेश में।।

कवि ने आगे और भी निर्लज्जता से कहा कि अछूतों को ‘महत्तर’ (मेहतर) का पद दिया और एक होते हुए भी उन्हें ‘डेढ़’ (ढेढ़) कहा। यथा–

प्रथमतः जिनको ‘महत्तर’ पद दिया,

आज उनको भ्रष्ट, नीचा, कह रहे।

एक हो, निज ‘डेढ़’ था जिनको कहा,

नीच से भी नीच हो दुख सह रहे।।[6]

लेकिन यह सवाल यहां उठाना स्वाभाविक है कि इन गांधीवादी कवियों ने ‘महत्तर’ और ‘डेढ़’ जैसे सम्बोधन दलितों को ही क्यों दिए, उनका प्रयोग द्विजों के लिये उन्होंने क्यों नहीं किया?

इसी तरह गयाप्रसाद शुक्ल ‘सनेही’ ने अछूतों को सेवक श्रेणी में ही रखा है, स्वतंत्र मनुष्य-श्रेणी में नहीं। यथा–

सेवक अगर अछूत न होते, कैसे आप अछूते रहते

किसी तरह तो पूत न होते, सेवक अगर अछूत न होते।[7]

ब्रह्मदत्त दीक्षित ‘ललाम’ ने ‘अछूत’ की महानता का बखान इस तरह किया–

वे पतित अछूत अपूत दीन उन सा है जग में धन्य कौन?

जग का वैषम्य सहा करते वे शान्त तपस्वी धीर मौन।

उनकी शबरी से राम बने, उनकी कुबरी से श्याम बने।

अविराम उन्हीं की सेवा से, कितने घनश्याम ‘ललाम’ बने।।[8]

इसी तरह भगवती चरण वर्मा ने लिखा—

अरे ये इतने कोटि अछूत, तुम्हारे बेकौड़ी के दास।

दूर है छूने की बात, पाप है आना इनके पास।

सुभद्रा कुमारी चौहान मंदिर-प्रवेश को लक्ष्य करते हुए एक अछूत स्त्री में जबरन देव-भक्ति दिखा रही हैं–

मैं अछूत हूं मंदिर में आने का,

मुझको अधिकार नहीं है।

किन्तु देवता यह न समझना,

तुम पर मेरा प्यार नहीं है।।

प्यार असीम अमिट है फिर भी,

पास तुम्हारे आ न सकूंगी।

यह अपनी छोटी-सी पूजा,

चरणों तक पहुंचा न सकूंगी।।[9]

आरसी प्रसाद सिंह ने ‘हरिजन’ शीर्षक से अपनी लंबी कविता में लिखा कि हरिजन तो राष्ट्र का कर्णधार है–

रे कौन तुम्हें कहता अछूत?

तुम तो स्वराष्ट्र के कर्णधार।

तुम शांति-शील के साधु चित्र

रे कौन तुम्हें कहता अछूत?[10]

हिंदी जगत में इस तरह की कविताओं की बाढ़-सी आ गयी थी। आजादी के बाद तक यह दौर चला। हिंदी कवि ऐसी कविताएं लिखकर अछूतों के प्रति अपना दायित्व नहीं निभा रहे थे, वरन् वे गांधी के ‘हरिजन मॉडल’ को अपना समर्थन दे रहे थे। वे इस भ्रम में जी रहे थे कि वे अछूतों को ‘महान’, ‘राष्ट्र सेवक’, ‘राष्ट्र का कर्णधार’ और ‘विष्णु-चरण’ बताकर अछूतों के लिये कोई महान काम कर रहे थे। ‘पूना-पैक्ट’ में भले ही गांधी और हिंदुओं के दबाव में दलित पक्ष पराजित हो गया था, पर इस पराजय में भी दलित चेतना प्रखर हुई थी। उसने पूना-पैक्ट को राजनैतिक आवश्यकता के रूप में स्वीकार किया था, गांधीवाद और हिंदुत्व को स्वीकार नहीं किया था।

1960-1980 के दौरान प्रकाशित विभिन्न दलित-बहुजन काव्य संग्रह

इस दलित चेतना ने दलितों को ‘सेवक’ या ‘विष्णु-चरण’ के रूप में नहीं देखा और न ‘हरिजन’ माना। इसके विपरीत, उसने दलित को एक स्वतंत्र नागरिक के रूप में अपना विकास करने पर जोर दिया। इस दृष्टि से दलित चेतना के कवियों ने सामाजिक और आर्थिक शोषण के खिलाफ आवाज उठायी और दलित कविता को नयी धार दी। इन कवियों ने दलितों के राजनैतिक शोषण की भी खबर ली और गांधीवाद के ढकोसले को भी उजागर किया। उन्होंने गांधीवादी कवियों की इस धारणा की तीखी आलोचना की कि दलित मंदिर-प्रवेश चाहते हैं और हिन्दुओं से शासित होकर रहना चाहते हैं। उन्होंने जाति और वर्ग-विहीन समाज की स्थापना के लिये लोकतंत्र तथा समाजवाद की आवश्यकता पर जोर दिया।

इस दौर के कवियों में प्रकाश लखनवी, संतराम न्यायी ‘अवधी’, कुंवर उदयवीर सिंह, मनोहर लाल प्रेमी, पागल बाबा, राम स्वरूप शास्त्री, मंगलदेव विशारद, सद्गुरु शरण ‘चंद्र’, दुलारे लाल जाटव, बिहारी लाल कलवार, भीखाराम गड़रिया, आचार्य मेधार्थी विद्यालंकार, रमेश चन्द्र मल्लाह, राम शरण विद्यार्थी कहार, बदलू राम ‘रसिक’, वीर सिंह ‘चंद्र’, सत्यमित्र विद्यालंकार, नंदकिशोर न्यायी, सूर्य कुमार, जगत सिंह ‘सेंगर’, श्रीराम वर्मा ‘चिंतक’, रघुनाथ राम, राम स्वरूप आर्य ‘भंवर’, नत्थू सिंह ‘पथिक’ और रणजीत सिंह इत्यादि का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है।

इन कवियों का समय 1960 से 1980 तक का है। इन दो दशकों की दलित कविता की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि इसके रचनाकारों में दलित जातियों के साथ-साथ पिछड़ी जातियों के कवि भी शामिल थे। इस कविता ने जाति के तंग दायरे को तोड़ा था और शोषण और अन्याय पर आधारित पूंजीवादी और ब्राह्मणवादी व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठाई थी, जो दमनकारी थी। ये कवि शोषक वर्गों की सत्ता को ध्वस्त कर दलित-शोषित सर्वहारा की सत्ता चाहते थे। ‘प्रकाश’ लखनवी ने आल्हा की तर्ज में ‘शोषित पुकार’ लिखी, जिसमें उन्होंने लोकतंत्र और साम्यवाद का पक्ष लेते हुए कहा–

बामनशाही ढोंग मिटाओ, अब तो भारत है आजाद।

साम्यवाद की बजे दुंदभी, वर्ण-जाति होवे बरबाद।।

लोकतंत्र का तत्व यही है, खुलैं तरक्की के सब द्वार।

बंद होयं शोषण की राहें, अर्थ व्यवस्था का होय सुधार।।

शोषक-शोषित का है झगड़ा, शोषक रहे भ्रांति फैलाय।

शोषित इनकी बात न मानै, इनकी कलई सब खुलि जाय।।

सौ मां नब्बे शोषित हो, शोषक सौ मां दस हैं यार।

एका करौ सबै शोषित मिलि, करो हुकूमत पर अधिकार।।

नब्बे प्रतिशत बहुमत भैया काहे मैया रहे लजाय।

सकल देश तुम्हरी मुट्ठी मां, जागो भैया रहे जगाय।।[11]

पिछड़े वर्ग के ‘प्रकाश’ लखनवी, चंद्रिका प्रसाद जिज्ञासु का उपनाम था। उन्होंने अपनी साहित्य-यात्रा कविता से ही आरंभ की थी। उनकी कविताएं इतनी लोकप्रिय हुईं, कि जनता ने उन्हें ‘राष्ट्रकवि’ की उपाधि दे दी थी। स्वाधीनता संग्राम के दिनों में उनकी देशभक्ति पूर्ण कविताएं जवानों में जोश भरती थीं। एक बार एक अंग्रेज अफसर को छावनी में तलाशी के दौरान एक भारतीय सिपाही की जेब से जिज्ञासु की कविताओं की पुस्तक बरामद हुई थी, जिसके लिये उस सिपाही को भी दंडित किया गया था और कवि को भी 124ए के तहत गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया था।

दरअसल, बहुजन समाज ने जिस आजादी का सपना देखा था, आजादी मिलने के बाद वह सपना पूरा नहीं हुआ। उन्होंने देखा कि स्वतंत्र भारत में भी ब्राह्मणशाही कायम है और शोषकों को हर तरह का शोषण करने की आजादी मिली हुई है। इस स्थिति का बहुत ही मार्मिक वर्णन प्रकाश लखनवी ने अपनी कविता ‘जमाने की रफ्तार’ में किया। यथा–

मिल-मालिकों से चुपके, लाखों की मदद लेना,

बढ़वाना कीमतों का, पब्लिक का गला कटाना।

मोटों की मदद करना, चुसवाना गरीबों को,

नश्तर फलक के दिल में, शोखी से है लगाना।

चोर बाजारी रिश्वत, रोकी न गयी जिससे,

क्या खाक हुकूमत का, बांधा है उसने बाना?

पानी की तरह पैसा, पब्लिक का उड़ रहा है,

होता है विमानों पर लीडर का आना-जाना।

बापू पहन लंगोटी और खा के मरे गोली,

है शर्म, उनके पीछे, यूं लूट-सी मचाना।

दामन में नेहरू के छुप, उल्लू सीधा करना,

शुद्धात्मा के मुख पर, कालिख को है लगाना।

घर में तो तबाही है बाहर है वाह-वाही,

क्या शान है गजब की, यूं घर का जर लुटाना।

यह दास्तान कौमी, लंबी है दुख भरी है,

मातम-सा बन गया है, गम-दर्द का तराना।[12]

यहां कवि ने आजाद भारत के नेहरू-युग की दास्तान सुनायी है। पंद्रह अगस्त का दिन दलित कवियों के लिये भी खुशी का दिन था, क्योंकि देश अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त हुआ था। अब अपना राज था, पर शीघ्र ही यह खुशी दुख में बदल गयी, जब दलितों ने देखा कि भारत की शासन-सत्ता ब्राह्मणों, सामन्तों और पूंजीपतियों के हाथों में आयी है और दलित-सर्वहारा वर्ग के हिस्से में गुलामी आयी है। अतः दलित-पिछड़े कवियों ने ‘पंद्रह अगस्त’ की वर्षगांठ का स्वागत नहीं किया। प्रकाश लखनवी ने लिखा–

यह पंद्रह अगस्त, आजादी का दिन है, पर किसकी?

करतल-गत है पूंजी, प्रभुता, शासन-सत्ता जिसकी।।

राम राज्य है मुट्ठी भर को, सुख-संपत्ति खुशहाली।

बहुजन दुखी अभाव-ग्रसित हैं, रोजी से भी खाली।।

पिछड़ा और पिछड़ता जाता, दबा दब गया और।

अगड़ा और अगड़ता जाता, बना हुआ सिरमौर।।

जनता की बढ़ गयी गुलामी, भय दुख दैन्य खिराज।

ब्राह्मण-क्षत्रिय-लालाशाही को है पूर्ण स्वराज।।

क्रांति बिना ही शासन बदला, दे सकता न सुधार।

बहुजन सुख हित क्रांति वंदना, करिये क्रांति पुकार।।

भीम प्रतिज्ञा महाक्रांति की, बंधु कीजिए आज।

अर्थ व्यवस्था तोड़-फोड़कर, बदलो धर्म समाज।।[13]

यह सातवें दशक की कविता है। उस समय तक ‘बहुजन’ शब्द राजनीति में नहीं आया था। साहित्य में सर्वहारा और शोषित वर्ग के लिये ‘बहुजन’ शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग जिज्ञासु जी (प्रकाश लखनवी) ने ही किया था। ‘बहुजन दुखी अभाव ग्रसित है’ के रूप में वे बहुसंख्यक शोषित समाज के दुखी होने की बात कर रहे थे। इसी कविता में कवि बहुजन समाज को महाक्रांति की ‘भीम प्रतिज्ञा’ भी कराता है। कहना न होगा कि कवि ने यहां आंबेडकर की सामाजिक क्रांति का भी स्मरण किया है और समाजवादी आर्थिक क्रांति का भी।

कवि शोषित वर्गों को उनके इतिहास से भी परिचित कराता है। वह अपनी ‘शोषित-प्रबोध’ कविता में बताता है कि किस तरह आर्यों ने छल-बल से भारत के मूल-निवासियों को पराजित किया और वर्ण-विधान बनाकर आर्य राज्य स्थापित किया। इस कविता पर स्वामी अछूतानंद जी ‘हरिहर’ के ‘आदि हिंदू’ सिद्धांत का प्रभाव देखा जा सकता है। यथा–

हुआ कायम आर्यों का राज्य, बना विध्वंसी वर्ण-विधान।

बन गये भिक्षुक सबके गुरु, लगे बनिये देने धन-दान।।

शेष बहुसंख्यक जनता कृषक तथा उत्पादक, शिल्पी, श्रमिक।

बनायी गयी शूद्र औ दास, दलित, शोषित, वंचित, निर्धनिक।।

विप्र, क्षत्री बनिये तो बने ‘द्विजाती’ उच्च वर्ण के लोग।

शेष वर्णाश्रम शूद्र अछूत भोगने लगे कष्ट दुख भोग।।

मिले फिर आर्यों के शक, हूण, एक बन ‘मुंशी’ दूजा ‘जाट’।

बन गया पूरा शोषक गुट्ट, कर दिया जिसने बाराबाट।।[14]

कवि आगे कहता है कि अब देश स्वतंत्र है, जनतंत्र कायम है और बालिग मताधिकार प्राप्त है। तुम शोषितों की संख्या भी ज्यादा है, अतः उठो और देश पर कब्जा कर लो। यथा–

देश अब तो है पूर्ण स्वतंत्र, यहां पर कायम है जनतंत्र।

और है बालिग मत-अधिकार, तुम्हारी संख्या अमिति अनंत।।

उठो, जागो, तोड़ो यह नींद, देश पर कर लो निज अधिकार।

यही बाबा का है उपदेश, यही है ज्ञान, नीति का सार।।[15]

स्वतंत्रता के बाद देश में कांग्रेस की हुकूमत कायम हुई। उसने डॉ. आंबेडकर के व्यवस्था-परिवर्तन के आंदोलन को खत्म करने के लिये दलित नेता जगजीवन राम को मंत्री बनाया, जिन्होंने ‘दलित वर्ग संघ’ बनाकर दलितों को कांग्रेस और गांधीवाद से जोड़ने का काम किया। वे कांग्रेस के एक मात्र कद्दावर दलित नेता माने जाते थे, जो डॉ. आंबेडकर के विरोधी थे। कवि प्रकाश लखनवी ने 1975 में ‘जगजीवन-स्तवन’ शीर्षक से एक आलोचनात्मक कविता जगजीवन राम पर लिखी, जो अत्यंत तीखी और विचारोत्तेजक कविता थी। इस कविता में कवि ने दलितों की दुर्दशा का वर्णन करते हुए जगजीवन राम से बहुजन-हित में क्रांति करने हेतु बाबासाहेब डॉ. आंबेडकर का सच्चा उत्तराधिकारी बनने की अपील की थी। यह पूरी कविता इस प्रकार है–

हे कांग्रेस के ऊंचे नेता, हरिजन-हितकारी जगजीवन।

तुम दलितों के कुल भूषण हो, शोषित-दुखहारी जगजीवन।।

ये श्रमिक कमेरे शोषित जन, मजदूर कड़ी मेहनत वाले।

ये भी मानव-अधिकारों के सब हैं अधिकारी जगजीवन।।

खिलवाड़ हो रहा जो इनसे, उससे तो आप सुपरिचित हैं।

अंधेर चलेगा यह कब तक अतिशय दुखकारी जगजीवन?

इकरार हुआ था क्या इनसे, क्या-क्या थे वादे किये गये?

अब ये सब बातें कहां गयीं, हरिजन-उपकारी जगजीवन?

शिल्पी, उत्पादक और श्रमी, नब्बे प्रतिशत तो दास बने।

सौ में दस शोषक पूंजीपति शोषक सरकारी जगजीवन।।

मुट्ठी भर शोषक तो प्रभु हों, बहुजन समाज आज्ञाकारी।

जनतंत्र यही क्या है सचमुच या है ऐयारी जगजीवन।।

ओहदे ऊंचे उनको चहिए, सत्ता और माल खजाना सब।

बहुजन समाज पीसे चक्की, श्रम से अति भारी जगजीवन।।

ऊंची शिक्षा, ऊंचे ओहदे, सब ही रिजर्व दस प्रतिशत को।

नब्बे प्रतिशत हों, दीन-हीन बरबाद दुखारी जगजीवन?

भीतर रहकर यदि आप नहीं कुछ कर सकते, तो फिर सुनिए–

कर त्याग निकल आयें बाहर, फैले उजियारी जगजीवन।

नेतृत्व करें बाहर आकर, बहुजन समाज सिरमौर बनें,

बाबा के आप बनें सच्चे उत्तर-अधिकारी जगजीवन।।[16]

कह नहीं सकते कि जगजीवन राम ने इस कविता को सुना था अथवा नहीं? पर, उन दलितों में, जो डॉ. आंबेडकर के सपनों के अनुरूप पूंजीवादी और ब्राह्मणवादी व्यवस्था को खत्म करके समाजवादी व्यवस्था की स्थापना करना चाहते थे, इस कविता ने जगजीवन राम की छवि शोषक वर्ग के प्रतिनिधि की बना दी थी।

दलित कवि पूना-पैक्ट की पीड़ा को नहीं भूले थे। दलितों के प्रतिनिधियों ने गांधी जी से हाथ मिलाकर जिस तरह भारत की आजादी का मार्ग प्रशस्त किया था, उसे भी वे जानते थे। पर, आजादी के बाद, इन कवियों ने यह भी अनुभव किया कि जिन सवर्णों पर दलितों ने विश्वास किया था, वे ही शोषक बन गये थे। इस स्थिति पर दलित कवियों ने विचारोत्तेजक और महत्वपूर्ण कविताएं लिखीं। दुलारे लाल जाटव ने अपनी कविता में कहा–

सुनो शोषितों, गांधी के संग तुमने बिगुल बजाया था।

शोषण कर्ता अंग्रेजों को लंदन खेद पठाया था।।

पर अब तो ब्राह्मण-ठाकुर-लाला ही शोषणकारी हैं।

जिनकी स्वार्थ पूर्ण माया से, शोषित सभी दुखारी हैं।।

ऊपर से नीचे तक इनका शासन में है जाल बिछा।

गांधी और खादी-परदे में कैसा भ्रष्टाचार मचा।।

यह कैसा अंधेर, जहां पर दस की तो सब चलती है।

पर नब्बे प्रतिशत बहुमत की दाल नहीं कुछ गलती है।।

तुम तो हो सम्पत्ति देश की, वोट तुम्हारे हैं ज्यादा।

क्यों तुमने गफलत में सर पर भार लुटेरों का लादा।।

देश तुम्हारा, तुम हो राजा, तुम न कहीं से आये हो।

ले लो अपना राज हाथ में, क्यों अब देर लगाये हो।।[17]

इस दौर के दलित-पिछड़े कवि समाजवादी व्यवस्था के पक्षधर थे। वे इस देश का सबसे बड़ा सर्वहारा और शोषित वर्ग दलित-पिछड़े को मानते थे। वे केवल पूंजीवादी व्यवस्था का ही खात्मा नहीं चाहते थे, अपितु, ब्राह्मणवादी व्यवस्था का भी अंत चाहते थे। इसके लिये वे स्वतंत्र भारत के शासकों से अपीलें नहीं करते थे, वरन् शोषितों को जागरूक करते थे। उनका लक्ष्य वही था, जो डॉ. आंबेडकर का था– जाति और वर्ग विहीन समाज की स्थापना और भारत को एक राष्ट्र बनाना। रमेशचंद्र मल्लाह की यह कविता देखिए, जो इस विषय की विचारोत्तेजक कविता है–

ब्राह्मणशाही राज मिटाना शोषित वीरो तुमको है।

शोषित-संघी राज बनाना, शोषित वीरो तुमको है।।

जाति-पाँति का भेद भगाना, शोषित वीरो तुमको है।

एक राष्ट्र का बिगुल बजाना, शोषित वीरो तुमको है।।[18]

भारत में लोकतंत्र के नाम पर जो जन-विरोधी व्यवस्था कायम हुई, उसका मुखिया यद्यपि ब्राह्मण था, पर उसका संरक्षक सामंती और पूंजीपति वर्ग था। इसलिये आजादी के बाद जो सत्ता ब्राह्मणों के हाथों में आयी, उसमें ब्राह्मण भी एक शोषक वर्ग के रूप में था। लोकतंत्र में ब्राह्मण के इस शोषक रूप को दलित-पिछड़े कवियों ने अच्छी तरह पहचान लिया था। इसे हम दलित कवि भीखाराम गड़रिया की ‘पंडित जी’ कविता में देख सकते हैं, जो एक व्यंग्यात्मक कविता है, पर यथार्थपरक है। यथा–

मैं पंडित जी कहलाता हूं।

मैं राजनीति का ज्ञाता हूं।।

निबलों से खूब अकड़ता हूं, सबलों के पैर पकड़ता हूं,

दुनिया को धर्म जकड़ता हूं, फिर माल चकाचक खाता हूं।

शोषण के दांव बताता हूं, खुद मैं भिक्षुक बन जाता हूं,

मैं भोग विलास सिखाता हूं, अपना ऐश्वर्य बढ़ाता हूं।

मैं पूरा अवसरवादी हूं, अगुवा बनने का आदी हूं,

मैं धूर्त, पहनता खादी हूं, दुनिया को ठग कर खाता हूं।

मैं पंडित जी कहलाता हूं।।[19]

इसी भाव-भूमि पर बिहारी लाल कलवार ने यह सिंह-गर्जना की–

सुखन का हमारे असर देख लेना।

जो हैं जेर उनको जबर देख लेना।।

जिन्हें आप अब तक समझते थे गीदड़।

वही होंगे शेरे-बब्बर देख लेना।।

अजी रोटियां-बेटियां एक होंगी।

रहेगी न कुछ भी कसर देख लेना।।

न आयेगा चकमे में अब कोई शोषित।

फिरेंगे इधर सब बशर देख लेना।।

इधर हम हैं नब्बे, उधर दस हैं शोषक।

न फिर भी खबर हो, समर देख लेना।।

बनेगा सुदृढ़ संगठन अब ‘बिहारी’।

जगे शोषित का हुनर देख लेना।।[20]

ये कवि जातियां तोड़कर रोटी-बेटी एक करना चाहते थे। इनका सपना जाति और वर्ग-विहीन समाज का था। और इस समाज के निर्माण की आशा शोषक वर्ग से नहीं की जा सकती थी। इसी को लक्ष्य करके दलित कवि राम स्वरूप ‘अमर’ ने ‘उठो शोषितों’ ग़ज़ल लिखी–

उठो शोषितों! क्यों पड़े सो रहे हो?

बहुत सो चुके, क्यों समय खो रहे हो?

तुम्हें जुल्म में आग अब है लगानी,

सदा से सताये हुए जो रहे हो।

इस आजादी में भी बने दास हो तुम?

गो राजा यहां के तुम्हीं तो रहे हो।

अमर शान से अब तो जीना तुम्हें है,

बढ़ाओ कदम क्यों शिथिल हो रहे हो।[21]

यह उर्दू शाइरी की ग़ज़ल नहीं है, वरन् लोक काव्य की ग़ज़ल है। लोक सांगीत और नौटंकी की किताबों में ऐसी बेशुमार ग़ज़लें लिखी गयी हैं। लोक काव्य में ये ग़ज़लें तब लिखी जाती थीं, जब जनता में जोश पैदा करना होता था। ऐसी ही एक जोशीली ग़ज़ल रमेशचंद्र मल्लाह ने लिखी थी, जिसमें हमें शोषक और शोषित के बीच आर-पार की लड़ाई का मंज़र मिलता है। यथा–

कब्जा है शोषकों का तलवार शोषकों की।

है मुल्क शोषकों का सरकार शोषकों की।।

सोता रहेगा कब तक, शोषितों का मुकद्दर।

कब तक रहेगी किस्मत बेदार शोषकों की।।

शोषित की झोंपड़ी तो मिट्टी में मिल रही है।

होती हैं कोठियां पर तैयार शोषकों की।।

जीने की इजाजत बस उसको फकत मिली है।

जिसने है की गुलामी दो-चार शोषकों की।।

जुल्मों सितम न चलता जग में सदा किसी का।

कम होगी शान शौकत, खूंखार शोषकों की।।

शोषित का खूं जो खौला, चुपके से चल पड़े हैं।

करने को आज कब्रें तैयार शोषकों की।।[22]

ये दलित चेतना के कवि थे, जो शोषकों का राज मिटाकर शोषितों का राज कायम करने का सपना बुन रहे थे। लेकिन मार्क्सवादी चेतना के पैरोकारों ने उनकी कद्र नहीं की। उनके यहां इन समाजवादी दलित-पिछड़े कवियों का कोई रिकार्ड नहीं मिलता। इसका मुख्य कारण यही था कि ये मौलिक समाजवादी चेतना से लैस दलित-पिछड़े कवि थे, जिसके एजेन्डे में ब्राह्मणवाद ही शोषित वर्ग का सबसे बड़ा शत्रु था। यह ब्राह्मणवाद ही जाति और धर्म के नाम पर दलितों-पिछड़ों और मजदूरों को एक नहीं होने दे रहा था। पर, दलित-पिछड़े कवियों को ऐसे छद्म समाजवादियों की जरूरत भी नहीं थी, जो उनकी दृष्टि में, ब्राह्मणवाद को ही पाल-पोस रहे थे। दलित कवि आशावादी थे। उन्हें पूरा विश्वास था कि एक दिन आयेगा, जब अछूत, शूद्र, मजदूर और किसान सब मिलकर शोषक राज का खात्मा करेंगे। रामशरण विद्यार्थी कहार ने अपनी कविता में कहा–

एका करके तुमको अपना संख्या बल दिखलाना है।

मिली हुई आजादी का अब, पूरा लाभ उठाना है।।

कांप उठे शोषक, दिल थरथर आज तुम्हारे तर्जन से।

जाग उठे सोई मानवता, आज तुम्हारे गर्जन से।।[23]

दलित-पिछड़े कवियों ने मार्क्सवादी और कांग्रेसी दोनों नेताओं की दलित हितैषी छवि को भी तोड़ा। उनके चेहरे से दलितों की हमदर्दी का नकाब उतारते हुए दलित कवि ‘साथी’ ने अपनी ग़ज़ल में लिखा—

अछूतों के हमदर्द बनते अगर हो।

छुआछूत का गढ़ ढहाओ तो जानें।।

तड़प करके शोषक से कहता है शोषित।

ये शोषण यहां से मिटाओ तो जानें।।[24]

गांधीवादी और मार्क्सवादी दोनों ही कवि मार्क्सवाद और गांधीवाद का मुखौटा लगाये हुए थे, भीतर से वे ब्राह्मण और ब्राह्मणवादी ही थे। इसलिये वे न छुआछूत का गढ़ ढा सकते थे और न शोषण को खत्म कर सकते थे। इसके विपरीत दलित-पिछड़े कवि दलित-पिछड़े जातियों से आये थे, उनके पास शोषण और जातीय दंश की गहन अनुभूतियां थीं और एक नया विमर्श था, जिसमें नयी सभ्यता और नयी संस्कृति का विजन था। दरअसल, यह दलित-बहुजन कविता ही ‘नयी कविता’ थी, वह नहीं, जिसे सवर्ण कवियों ने सत्तर के दशक में घोषित किया था। दलित-पिछड़े कवियों ने बिना किसी लाग-लपेट के स्वयं को दलित-शोषित का कवि घोषित किया। वीर सिंह ‘चंद्र’ की यह कविता देखिए–

मैं कवि हूं शोषित जनता का, गिरि पर खड़ा पुकार रहा हूं।

मैं कवि हूं दलितों-पतितों का, कटु ध्वनि से हुंकार रहा हूं।।

उन कवियों से परिचित हूं मैं, जिन्हें स्वार्थ ने था ललचाया।

जिस-जिसने अपनी प्रतिभा से, चाटुकारिता को अपनाया।।

तप ही तो करता था शंबूक, क्या लेता उस रामचंद्र का।

जिसका गौरव वाल्मीक ने, अतिशय रंजित स्वर में गाया।।

मैं कवि हूं शोषित जनता का, सभी रहस्य बिदार रहा हूं।

मैं कवि हूं दलितों-पतितों का…

जिसने गिने एक श्रेणी में ढोल, गंवार, शूद्र, पशु नारी।

कौन प्रेरणा थी वह अंधी, जिसने तुलसी की मति मारी।।

मैं कहता हूं आज देश में, जो विष-भरा प्रचार करें यह,

राष्ट्र-भक्ति की दंड-नीति से, वे सब ताड़न के अधिकारी।।

मैं कवि हूं शोषित जनता का, उनका भाग्य सुधार रहा हूं।

मैं कवि हूं दलितों-पतितों का…

तुम अपनी सभ्यता बनाते, उन्हीं पुलिंदों के बल पर तो।

उसी सभ्यता पर इतराते, उन्हीं पुलिंदों के बल पर तो।।

हमको रहे असभ्य बताते, उन्हीं पुलिंदों के बल पर तो।

अपने अवगुण रहे छिपाते, उन्हीं पुलिंदों के बल पर तो।।

मैं कवि हूं शोषित जनता का, उनमें भर अंगार रहा हूं।

मैं कवि हूं दलितों-पतितों का[25]

यह लंबी कविता है, जिसमें सात ‘बंद’ और 44 पंक्तियां हैं। इसमें दलित-बहुजन कवि ने दलित-शोषितों के उत्थान के प्रति जहां अपनी प्रतिबद्धता प्रकट की है, वहां शोषक श्रेणी के प्रपंचों और उनके प्रति मुख्यधारा के कवियों की उदासीनता को भी उजागर किया है। यहां कवि ने धर्मशास्त्रों को ‘पुलिंदा’ कहा है, और उनको जलाने के लिए वह शोषितों में अंगार भर रहा है। इस कविता के एक महत्वपूर्ण ‘बंद’ में समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व का उद्घोष किया गया है, जो डॉ. आंबेडकर का क्रांतिकारी नारा था। यथा–

बांध न सकें धर्म-मर्यादा, अब ये पोथी पत्रे तेरे।

नवयुग ने उस धर्म विहग के, फाड़-फाड़ सब पंख बिखेरे।

साम्य-धर्म, स्वतन्त्र-धर्म, बन्धुत्व-धर्म है आज विश्व का,

उन सपनों को भूल, अरे! अब उखड़ गये उस छल के डेरे।।

मैं कवि हूं शोषित जनता का, सबका भला विचार रहा हूं।

मैं कवि हूं दलितों-पतितों का …[26]

दलित-पिछड़े वर्ग के कवि अपने लक्ष्य में गंभीर थे। वे आर-पार की लड़ाई लड़ रहे थे और इसके लिये वे ब्राह्मणवाद के सांस्कृतिक जाल को सबसे पहले काटकर फेंकना चाहते थे। वे ब्राह्मण-शूद्र को नहीं, वरन् ‘मनुष्य’ को स्थापित करना चाहते थे। इसी युग के एक अन्य बहुजन कवि सत्यमित्र विद्यालंकर ने ब्राह्मण को ‘आदमी’ बनने की सलाह दी–

ऋषियों के बंशज वे, जो अपने को ‘भूसुर’ कहते हैं,

आज आदमी कहला लें, अथवा जीना-मरना छोड़ें।[27]

आगे उन्होंने ब्राह्मण के ब्राह्मणत्व का खंडन करते हुए कहा–

गये ‘शील गुण हीन विप्र’ की पूजा से तरने वाले।

रहे नहीं अब ‘विप्र द्रोह पावक’ से डरने वाले।।

जपा करें वे आज ‘ब्राह्मणोमुखमासीत’ पहर आठो,

पर, इन भोंडे मंत्रों की हम कद्र नहीं करने वाले।

जिनकी काया में अब तक शोषण का रक्त समाया है,

वे ऋषि पुत्र, हमारी छाया छूने से डरना छोड़ें।

घास समझकर चरने वाले, अब हमको चरना छोड़ें।।[28]

इन दलित-पिछड़े कवियों ने सिर्फ भारत के अछूतों की ही बात नहीं की, वरन् उन्होंने विश्व भर के शोषितों के लिये आवाज बुलंद की। एक अन्य कवि नन्दकिशोर न्यायी ने लिखा–

अरे हरिजनों, अरे गिरजनों, अरे बहुजनों, अरे किसानों।

अमरीका के अरे नीग्रो, पिछड़े मुसलमान, क्रिस्तानों।।

अरे, एशिया के नवयुवकों, अफ्रीकन और हिन्दुस्तानी।

अधिकारों के लिये मर मिटो, अधिक न चलने दो मनमानी।।

शोषित-वंचित अब न रहेंगे, यही हमारा नारा है।

उठो गरीबों, उठो बहुजनों, यह संसार तुम्हारा है।।[29]

आगे कवि ने साम्यवाद का मार्ग प्रशस्त करते हुए लिखा–

व्यक्तिवाद का निकल रहा जग से अरे, आज दिवाला।

फैल रहा है, साम्यवाद का अद्भुत इक नया उजाला।।

चरमर-चरमर टूट रहा है, इस समाज का सड़ियल ढांचा।

पूंजीपतियों के मुंह पड़ रहा आज चहुं ओर तमाचा।।

उत्तर से दक्षिण के ध्रुव तक, अब गरीब का राज बनेगा।

फिर से नयी बसेगी दुनिया, फिर से नया समाज बनेगा।।[30]

आगे कवि शोषक श्रेणी को चेतावनी देता है–

आज हैं लाखों ही एकलव्य, आज हैं लाखों ही शंबूक।

उलट देंगे ये तख्ता आज, उठी है स्वाभिमान की हूक।।

गिरेंगे ये मन्दिर के कलश, मिटेंगे ये पाखंड विधान।

नहीं सह सकता दलित समाज, अरे ये सदियों का अपमान।।

ढहेंगे मन्दिर के अवशेष, मिटेंगे ब्रह्मा-विष्णु-सुरेश।

नाम ले जिनका जपते रहे, धर्म पर देते रहे कलेश।।

डुबा दो सागर में यह धर्म, बनाता जो मानव को श्वान।

मिटा दो उस संस्कृति के चिन्ह, न रह पायें किंचन भी प्राण।।[31]

इस दौर के दलित-पिछड़े कवियों का विजन बहुत स्पष्ट था। वे धर्म की अफीम खिलाकर जनता को सुलाना नहीं चाहते थे, वरन् उसका भौतिक विकास चाहते थे। वे जानते थे शोषित वर्ग अपने अधिकारों के प्रति जागरूक न हो जाय, इसीलिये शोषक और शासक वर्ग उन पर अत्याचार करता है। दलित-पिछड़े कवि इसी नवजागरण के विप्लवी कवि थे। इनमें लखनऊ के बदलूराम ‘रसिक’ महत्वपूर्ण कवि हुए हैं, जिन्होंने ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद के खिलाफ अपनी ओजपूर्ण कविताओं से दलित चेतना को नयी धार दी थी। ‘न अब जुल्म जालिम, चलेगा तुम्हारा’, उनकी सबसे प्रसिद्ध कविता है–

लुभाकर, भुलाकर, रुला करके मारा।

न अब जुल्म जालिम, चलेगा तुम्हारा।।

यह कविता जोशपूर्ण ही नहीं, विचारपूर्ण भी है। यथा–

मुकद्दर से ही नीचे हमको बताकर।

धर्मरूप पाखंड हमको दिखाकर।

करें दान ब्राह्मण की पूजा कराकर।

लड़ाकर हमें तूने फितरत से मारा।

न अब जुल्म जालिम, चलेगा तुम्हारा।।

दिखा मनु का कानून बेरहम झूठा।

बहुत दिन तलक तूने बहुजन को लूटा।

नहीं कर्म धोखे का कोई भी छूटा।

नचाया बहुत गाड़ अधरम का खूंटा।

लहू चूसने का बनाया सहारा।

न अब जुल्म जालिम, चलेगा तुम्हारा।।[32]

बदलू राम रसिक की कविता में शोषक श्रेणी के सारे प्रपंचों को मिटाने की हुंकार थी। यथा–

उठो क्रांति के दूत बन आगे आओ।

बढ़ा पाप-संताप सारा मिटाओ।

सुदृढ़ संगठित शक्ति अपनी बनाओ।

‘करो या मरो’ पाठ सबको पढ़ाओ।

यही वक्त है, दो गुंजा अपना नारा।

न अब जुल्म जालिम, चलेगा तुम्हारा।।

मिटा दो जमाने से कुनबा-परस्ती।

मिटा दो लुटेरों के शोषण की हस्ती।

मिटा दो ये जातीयता वाली बस्ती।

मिटा दो गरीबों की फाका-परस्ती।

तभी तो ‘रसिक’ देश होगा हमारा।

न अब जुल्म जालिम, चलेगा तुम्हारा।।[33]

एक अन्य कविता में ‘रसिक’ शोषितों की नयी बस्ती बनाने की बात करते हैं। यथा–

मिटायेंगे शोषण की खूँखार हस्ती।

बसायेंगे शोषित नयी अपनी बस्ती।।[34]

‘रसिक’ की एक और कविता ‘ढोंगियों का ढोंग’ है, जिसमें वह ब्राह्मण-कर्म पर मारक प्रहार करते हैं। उनकी दृष्टि में व्यभिचार, जारकर्म, अधर्म, पाखण्ड, शोषण, विश्वासघात और आतंक ये सब ब्राह्मण के कर्म हैं। यथा–

झूठ, छल, पाखंड, धोखा, धूर्तता, अधरम-धरम।

बेरहम बन जो, कुकरम कर्म करवाता रहा।।

तीर्थों में दिन को पंडा, रात को गुंडा बना।

कमालो अस्मत लूटने में, जो न थर्राता रहा।।

भक्तों से बनवाये मंदिर हरि-भजन के वास्ते।

कब्जा कर व्यभिचार-रत, उनमें जो इतराता रहा।।

कृष्ण-राधा नाम पर क्या राम नौटंकी बना।

लड़कों को औरत बना जो रोज नचवाता रहा।।

नरक से जाने का रास्ता स्वर्ग वैतरणी बता।

पांच पैसे तक की गाय पुजवाता रहा।।

विष्णु की छाती पै भृगु की लात का दिखला निशान।

अपने शापातंक से दुनिया को धमकाता रहा।।

खाया जिस पत्तल में, उसमें छेद जिसने कर दिया।

दक्षिणा लेकर उसी को शूद्र बतलाता रहा।।

अब मिटेगा वर्ण, वर्ग और छूत, शोषण, जात-पांत।

क्योंकि यह सदियों से लाखों जुल्म ही ढाता रहा।।

सिर्फ मानववाद ही है विश्वभर का धर्म एक।

बन ‘रसिक’ करले ग्रहण क्यों मन को भरमाता रहा।।[35]

कहना न होगा कि इस दौर की दलित-बहुजन कविता ने समाजवाद को अपना लक्ष्य बनाया था। उसमें जातियों की संकीर्णता के विरुद्ध संपूर्ण शोषित वर्ग की मुक्ति की चिंता थी। उसने मानवीय गौरव की प्रतिष्ठा के साथ-साथ आम आदमी की मूलभूत आवश्यकताओं के लिये भी आवाज उठायी। वह नये समाज और नयी व्यवस्था के निर्माण के लिये शोषित जनता के जीवन में, वास्तव में, उफान लाना चाहती थी। जैसा कि, कवि जगन सिंह ने शोषित की आवाज को व्यक्त करते हुए कहा था–

मानव में मस्तिष्क सहित तन, हाथ, पांव, मुख, कान चाहिए।

मैं भी मानव हूं मुझको भी रोटी, बसन, मकान चाहिए।।[36]

आठवें दशक की दलित-बहुजन कविता का संघर्ष सामाजिक समानता और आर्थिक मुक्ति इन्हीं दो लक्ष्यों को पाने के लिये था। यह उसकी बहुजन चेतना की समाजवादी धारा थी। कहना न होगा कि इसी समय के दलित कवियों ने डॉ. आंबेडकर के आंदोलन को ठीक ढंग से समझा था।

संदर्भ :

[1] चांद; अछूत अंकद्ध मई 1927, पं. नंदकिशोर तिवारी (संपादक), दूसरी आवृत्ति, 2008, राधाकृष्ण प्रकाशन प्रा.लि., नयी दिल्ली, पृष्ठ 14

[2] वही, पृष्ठ 64

[3] वही, पृष्ठ 69

[4] वही, पृष्ठ 71

[5] वही, पृष्ठ 75

[6] वही, पृष्ठ 78

[7] हिन्दी काव्य में दलित काव्यधारा, माताप्रसाद, विश्वविद्यालय प्रकाशन, चौक, वाराणसी, प्रथम संस्करण, 1993, पृष्ठ 76

[8] वही, पृष्ठ 78

[9] वही, पृष्ठ 83

[10] वही, पृष्ठ 93

[11] शोषित-पुकार (कविता संग्रह), बहुजन कल्याण प्रकाशन, लखनऊ, आठवां संस्करण, 1984, पृष्ठ 13

[12] वही, पृष्ठ 11

[13] बहुजन हुंकार (कविता संग्रह), बहुजन कल्याण प्रकाशन, लखनऊ, , छठा संस्करण, 1983, पृष्ठ 2-3

[14] शोषित-पुकार, पृष्ठ 5

[15] वही

[16] वही, पृष्ठ 1

[17] शोषित-पुकार, पृष्ठ 7

[18] बहुजन-हुंकार, पृष्ठ 7

[19] शोषित-पुकार, पृष्ठ 8-9

[20] वही, पृष्ठ 8

[21] वही, पृष्ठ 3

[22] वही, पृष्ठ 14

[23] वही, पृष्ठ 16

[24] वही

[25] बहुजन-हुंकार, पृष्ठ 3-4

[26] वही, पृष्ठ 4

[27] वही, पृष्ठ 5

[28] वही, पृष्ठ 6

[29] वही, पृष्ठ 13

[30] वही, पृष्ठ 13-14

[31] वही, पृष्ठ 15

[32] वही, पृष्ठ 7-8

[33] वही, पृष्ठ 9

[34] वही

[35] वही, पृष्ठ 11-12

[36] वही, पृष्ठ 16

(संपादन : नवल/अनिल)

लेखक के बारे में

कंवल भारती

कंवल भारती (जन्म: फरवरी, 1953) प्रगतिशील आंबेडकरवादी चिंतक आज के सर्वाधिक चर्चित व सक्रिय लेखकों में से एक हैं। ‘दलित साहित्य की अवधारणा’, ‘स्वामी अछूतानंद हरिहर संचयिता’ आदि उनकी प्रमुख पुस्तकें हैं। उन्हें 1996 में डॉ. आंबेडकर राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 2001 में भीमरत्न पुरस्कार प्राप्त हुआ था।

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