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भारत में वैज्ञानिक परंपराओं के विकास में बाधक रहा है ब्राह्मणवाद

कई उद्धरणों से ब्राह्मणवादी ग्रंथ भरे पड़े हैं, जिनसे भलीभांति ज्ञात होता है कि भारतीय खगोल-विद्या व विज्ञान को पस्त करने में हर प्रकार के हथकंडे अपनाए गए। वैज्ञानिकों को हर प्रकार से हतोत्साहित करने के प्रयास किए गए ताकि ब्राह्मण ग्रंथों को वैज्ञानिक तर्कों के तेज के समक्ष निस्तेज होने से बचाया जा सके। बता रहे हैं द्वारका भारती

विज्ञान की अधिकतर खोजें यूरोप में हुई हैं। यह तथ्य लिखते समय अनायास ही भारत के बारे में भी जिज्ञासा होती है कि क्या भारत में भी कभी विज्ञान जैसी कोई परंपरा रही होगी? वैसे भारत के मिथकों में ऐसी बहुत-सी कल्पनाओं का वर्णन मिलता है, जिसके आधार पर आज के कथित राष्ट्रवादी भारत की प्राचीनता से खुद तो अभिभूत होते ही हैं, अन्य देशवासियों की भावनाओं में भी यह भाव जगाने में कोई कोर-कसर नही रखते। महाभारत व रामायण जैसे प्राचीन ग्रंथों को संदर्भ के तौर पर इस्तेमाल करते हुए उनमें वर्णित अस्त्र-शस्त्रों और उडऩखटोलों को भारत की प्राचीन वैज्ञानिक समृद्धि के तौर पर प्रस्तुत करते आए हैं। इसका प्रभाव इतना असरदार है कि सरकार द्वारा आधुनिक अस्त्रों का नामकरण भी इन्हीं कल्पित नामों पर होता आया है। जैसे कि आधुनिक मिसाइलों के नाम नाग और त्रिशूल जैसे रखे जाते हैं। जैसे पाकिस्तान अपने आग्नेय अस्त्रों के नाम अपने ऐतिहासिक पात्रों के आधार पर आधारित रखता है, उसी प्रकार भारत की सरकार भी अपने अस्त्र-शस्त्रों का नाम अपने मिथकीय-ऐतिहासिक पात्रों पर रख कर उन पात्रों को ऐतिहासिकता की परिधि में रखने का प्रयास करती आई है। अपने देश में निर्मित विमान को पुष्पक विमान कहने में गर्व की अनुभूति का दावा किया जाता है।

विज्ञान के नाम पर इस प्रकार का साहित्य ही हमारे सामने आता है। इससे भी हास्यास्पद स्थिति तब उत्पन्न होती है, जब यह कहा जाता है कि भारत के रहस्यमयी ग्रंथों से सूत्र चुराकर विदेशी लोगों ने खूब वैचारिक प्रगति की और वे हमसे आगे निकल गये हैं। देश के ब्राह्मणवादी संगठन, जिनमें बकौल राजेंद्र यादव के उनमें अर्द्धशिक्षित व्यापारी लोग शामिल हैं, जो आज भी इन्हीं मान्यताओं पर आधारित भारत के विज्ञान का उल्लेख करते हुए इतराना नहीं भूलते।

इसके बावजूद ऐसा नहीं है कि कभी ज्ञान-विज्ञान की भारत में कोई परंपरा ही न रही हो। गणित व खगोल-विद्या के क्षेत्र में भारत की बहुत-सी उपलब्धियां रही हैं। लेकिन यह एक कड़वा सत्य है कि विज्ञान की तमाम अभिरूचियों पर ब्राह्मणवादी प्रतिछाया का प्रभुत्व बना रहा है। एक तरफ विज्ञान की तर्कपूर्ण शैली और दूसरी ओर ब्राह्मणवादी ग्रंथों में धूर्तता से लैस धार्मिक मान्यताएं अभी भी विज्ञान पर इस प्रकार छाए हैं जैसे कल्पित राहू सूर्य को अपने मुंह में छिपाए रखता है। विज्ञान को ऐसा कोई मौका ही नहीं आने दिया गया, ताकि वह खुल कर मैदान में आ सके। जब भी ऐसा प्रयत्न अर्थात् विज्ञान ग्रंथों की मान्यताओं के विरुद्ध खड़ा होने में प्रयासरत हो, तो ब्राह्मणवादी ग्रंथों की मान्यताएं भी सदा उसके साथ एक साए की तरह चिपकी रही हैं। ब्राह्मणवादी रुढिय़ों को हानि न पहुंचे, इसका प्रयास सदा किया गया है।

वैसे तो विश्व भर में विज्ञान के सम्मुख धार्मिक-जड़ता की एक दीवार अटल खड़ी रही है, लेकिन भारत की रुढि़वादी मान्यताएं सशक्त रूप में अपना प्रभुत्व जमाए रही हैं और आज भी यह मान्यताएं विज्ञान के साथ-साथ चलती दिखाई पड़ती हैं। उदाहरण के तौर पर किसी विज्ञान-प्रदर्शनी या विज्ञान भवन का उद्घाटन या शिलान्यास करते हुए संस्कृति के नाम पर ‘गणेश पूजा या नारियल फोड़ने जैसी गैर-वैज्ञानिक रूढिय़ां साथ-साथ चल रही हैं। वस्तुत: यह प्रक्रिया आज से नहीं, बल्कि पुरातन काल से दोहराई जा रही हैं। जब कभी ऐसा अवसर आया कि विज्ञान ने ब्राह्मणवादी मान्यताओं को चोट पहुंचाई, तो विज्ञान के साथ ब्राह्मणवादी मान्यताओं को भी चस्पा कर दिया गया। इसका उदाहरण हमें एक विदेशी वैज्ञानिक पर्यटक अलबेरुनी (973-1048) के यात्रा वृतांत से मिलता है। अलबेरुनी ने सन् 1017 से लेकर सन् 1048 के दौरान भारत की यात्रा की और अपनी यात्रा के दौरान भारतीय खगोल विद्या का पर्याप्त ज्ञान अर्जित किया। अपनी यात्रा वृतांत में उसने इन्हीं ब्राह्मणवादी रुढिय़ों, जो विज्ञान पर अपना प्रभुत्व बनाती हैं, का रोचक वर्णन किया है। उसने अपने इस अद्भुत विश्लेषण में यह सिद्ध किया है कि भारतीय खगोल शास्त्री किस प्रकार ग्रहण-संबंधी अपने विचारों का ब्राह्मणवादी-मिथकों से मेल बैठाने का प्रयत्न करते हैं। जबकि भारत के दो खगोलशास्त्री व गणितज्ञ वराहमिहिर (लगभग छठी शताब्दी) और ब्रह्मगुप्त (लगभग सातवीं-आठवीं शताब्दी) अच्छी तरह जानते थे कि चंद्रग्रहण और सूर्यग्रहण के कारण क्या हैं। विज्ञान के प्राख्यात इतिहासकार जार्ज सटिन ब्रह्मगुप्त को भारतभूमि का एक महान वैज्ञानिक मानते हैं।

इससे पहले हम आर्यभट की चर्चा करते हैं। आर्यभट के बारे में कहा जाता है कि वे ऐसे पहले भारतीय वैज्ञानिक थे, जिन्होंने यह सिद्ध किया कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है। लेकिन ब्रह्मगुप्त इस सिद्धांत का खंडन करते हैं। आर्यभट ने कहा था कि चंद्र की छाया जब पृथ्वी पर पड़ती है तो सूर्यग्रहण होता है और पृथ्वी की छाया जब चंद्रमा पर पड़ती है तो चंद्रग्रहण होता है। लेकिन हैरानी की बात तो यह है कि ब्रह्मगुप्त जो कि एक खगोलशास्त्री और गणितज्ञ भी थे, ने आर्यभट की इस वैज्ञानिक धारणा का खंडन किया और ब्राह्मणवादी धारणा जिसमें राहू-केतु राक्षस ही इन ग्रहणों के जिम्मेवार हैं, को सही ठहराया।[1]

वैज्ञानिक चेतना से दूर ही रहा है ब्राह्मणवाद

अलबेरुनी यह भी स्पष्ट करते हैं– “हिंदू खगोलशास्त्री इस बात को अच्छी तरह जानते हैं कि चंद्रमा पर पृथ्वी की छाया पड़ने से चंद्रग्रहण और सूर्य पर चंद्रमा की छाया पड़ने से सूर्यग्रहण लगता है। उन्होंने अपने परिकलनों को ज्योतिष-ग्रंथों तथा अन्य कृतियों में लिपिबद्ध किया है।”[2]

अलबेरुनी ने वराहमिहिर की पुस्तक ‘वृहत संहिता’ से कई अनुच्छेदों को उद्धृत कर इस तथ्य को प्रमाणित किया है। इन तथ्यों में वराहमिहिर पहले तो ब्राह्मणवादी परंपरा द्वारा स्वीकृत मिथक का उल्लेख करते हैं, जिसके अनुसार राहू द्वारा सूर्य को ग्रस लिए जाने से ग्रहण लगता है। आज भी यह धारणा बनी हुई है कि राहू जब सूर्य को ग्रस लेता है तो सारी पृथ्वी पर अंधेरा छा जाता है। ऐसा भी नहीं है कि ऐसी धारणाएं (मिथ्या) केवल भारत में ही हों, विदेशों में भी इस प्रकार की लोककथाओं का जिक्र मिलता है, लेकिन आज के युग में उन मिथ्या धारणाओं या लोककथाओं को लोग भूल चुके हैं या फिर उन्हें मिथक के रूप में ही लेते हैं, वैज्ञानिक नहीं मानते। लेकिन भारत में ऐसी धारणाओं को खत्म नहीं किया गया है। आज भी ज्योतिष अंधविश्वास की खान बने रहकर भारतवासियों को मुंह चिढ़ा रहा है। हालांकि राहू द्वारा सूर्य को ग्रसने की थ्योरी को झुठलाते हुए वराहमिहिर बताते हैं कि यह मिथक झूठा है और ग्रहण का यथार्थ वैज्ञानिक कारण है कि चंद्रमा पर पृथ्वी की छाया पड़ने से चंद्रग्रहण और सूर्य पर चंद्रमा की छाया पड़ने से सूर्यग्रहण लगता है।

पुस्तक ‘वृहत संहिता’ में वराहमिहिर की अपनी मान्यता इस प्रकार उल्लिखित की गई है–

“(5) 1 : कुछ विद्वानों की मान्यता है कि राहू एक दैत्य था और उसकी माता का नाम सिंहिका था। देवताओं ने विष्णु से अनुरोध किया कि समुद्र मंथन से निकला अमृत वह उन लोगों के बीच वितरित कर दें। विष्णु जब देवताओं को अमृत बांट रहे थे तब राहू भी देवता के वेश में उनलोगों के बीच आ बैठा। विष्णु ने उसे थोड़ा-सा अमृत दिया, जो उसने अपने मुख में डाल लिया। लेकिन तभी विष्णु को पता लगा कि वह कौन है और उन्होंने अपने चक्र से उसका सिर उड़ा दिया। फिर भी राहू के मुंह में अमृत शेष था। अत: उसका सिर जीवित रहा और अमृत का प्रभाव शरीर में न फैल सकने के कारण उसका धड़ निर्जीव होकर गिर पड़ा। जब राहू दीनभाव से बोला कि ‘मेरा क्या अपराध था कि मुझे इस स्थिति में पहुंचा दिया?’ तब उसे संतुष्ट करने के लिए उसे आकाश में स्थान दे दिया गया।

“(5) 2 : कुछ अन्य विद्वानों का कथन है कि राहू का भी सूर्य और चंद्रमा जैसा शरीर है, लेकिन वह बहुत काला है, इसलिए आकाश में दिखाई नहीं पड़ता।”

आगे चलकर अलबेरुनी टिप्पणी करते हैं कि “इन बेतुकी बातों का वर्णन कर चुकने के बाद वराहमिहिर कहते हैं–

“(5) 4 : राहू का यदि अपना शरीर होता तो वह तत्काल सक्रिय हो उठता, लेकिन हम देखते हैं कि वह दूर से ही ग्रसता है। उसके और चंद्रमा के बीच छह राशियों का अंतर होता है। इसके अतिरिक्त उसकी गति न तो घटती है और न ही बढ़ती है। इसलिए हम यह नहीं सोच सकते कि उसके शरीर के चंद्रमा के निकट पहुंच जाने के कारण चंद्रग्रहण होता है …

“(5) 8 : दैव-अनुग्रह-संपन्न विद्वानों ने जैसा कहा है कि पृथ्वी के छाया-भाग में चंद्रमा के प्रवेश से चंद्रग्रहण लगता है। इसलिए चंद्र ग्रहण कभी पश्चिम की ओर से नहीं होगा और न सूर्य ग्रहण पूर्व की ओर से।

“(5) 9 : वृक्ष की छाया की भांति पृथ्वी की छाया दूर तक फैलती है।

“(5) 10 : चंद्रमा जब सूर्य से दूर सातवीं राशि में रहते हुए बहुत ही सामान्य अक्षांश पर आ जाता है और वह बहुत उत्तर अथवा बहुत दक्षिण में स्थित नहीं रहता, तो पृथ्वी के छाया-प्रदेश में प्रवेश कर जाता है, जिससे चंद्रग्रहण लगता है। इसका प्रथम प्रभाग पूर्व की ओर से शुरू होता है।

“(5) 11 : चंद्रमा जब पश्चिम से सूर्य के निकट पहुंचता है, तो वह सूर्य को ढंक देता है, मानो किसी मेघ खंड ने उसे ढक लिया हो। भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में यह ढंका हुआ अंश भिन्न-भिन्न दिखाई देता है।

“(5) 12 : चंद्रमा को जो ढंकता है, वह चंद्रमा से बड़ा है, इसलिए चंद्रमा का आधा भाग जब ग्रहण-ग्रस्त हो जाता है, तो चंद्रमा का प्रकाश मलिन पड़ जाता है, लेकिन सूर्य को जो ढंकता है, वह सूर्य से बड़ा नहीं, इसलिए ग्रहण के बावजूद सूर्य की किरणों की प्रखरता विद्यमान रहती है।

“(5) 13 : चंद्रग्रहण और सूर्यग्रहण से राहू का कोई संबंध नहीं। इस विषय पर विद्वानों का अपने-अपने ग्रंथों में मतैक्य है।”

अलबेरुनी इस बारे में अपनी टिप्पणी जाहिर करते हैं। वे अपनी समझ के अनुसार दोनों ग्रहणों का वर्णन करने के बाद यह दुखड़ा रोते हैं कि लोग इनके कारणों से अनभिज्ञ हैं और कहते हैं– “राहू नहीं होता और वह सूर्य अथवा चंद्रमा को नहीं ग्रसता तो ब्राह्मण स्नान नहीं करते।”

वराहमिहिर इसका उत्तर देते हैं–

“(5) 14 : इसका कारण यह है कि सिर कट जाने पर राहू का अहंकार नष्ट हो गया और ग्रहण काल में ब्राह्मण जो हवन करते हैं, उसका एक अंश ब्रह्मा राहू को भी देते हैं।

“(5) 15 : अतएव वह ग्रहण-स्थल के निकट रहकर अपना भाग प्राप्त करना चाहता है। इसलिए उस अवस्था में लोग बहुधा उसकी चर्चा करते और उसे ही ग्रहण का कारण समझते हैं। हालांकि इन बातों में उसका कोई संबंध नहीं, कारण कि ग्रहण पूर्वत: चंद्रमा की कक्षा की एकरूपता और उपक्रम पर निर्भर करता है।”

उपरोक्त संदर्भ में वराहमिहिर की दोहरी मानसिकता प्रकट होती है। एक तरफ तो वह राहू को चंद्रग्रहण का कारक नहीं मानते लेकिन दूसरी ओर राहू की चर्चा करते हुए अंधविश्वास से भी अपनी नजरें नहीं हटाते। अपनी पुस्तक “व्हाट इज लिविंग एंड व्हाट इज डेड इन इंडियन फिलास्फी” में मार्क्सवादी लेखक देवी प्रसाद चट्टोपध्याय वराहमिहिर की इस मानसिकता पर अपनी टिप्पणी में कहते हैं कि “यह स्पष्ट हो जाने पर कि वराहमिहिर राहू को ग्रहण का कारण नहीं मानते, उनका यह वक्तव्य बहुत विलक्षण लगता है। जाहिर है, इस बात को अच्छी तरह जानते हुए कि ग्रहण से राहू का वस्तुत: कुछ लेना-देना नहीं, वह यह भी जानते हैं कि वैज्ञानिकों पर ब्राह्मणवादी परंपरा का जबरदस्त दबाव है और ब्राह्मणवादी कर्मकांडों की प्रमाणिकता के प्रति संदेह उठाना बहुत दुस्साहसिक सिद्ध हो सकता है। इसलिए येन-केन प्रकारेण उन्हें कर्म-कांडों का औचित्य सिद्ध करना अथवा उसके लिए तर्काधार खोज निकालना पड़ता है।”

आगे चलकर देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय इस संबंध में अलबेरुनी की टिप्पणी को उद्धृत करते हैं– “पूर्व में उद्धृत वराहमिहिर के अनुच्छेदों में जो कहा है, उससे प्रकट है कि उन्हें जगत के स्वरूप का सही ज्ञान था, लेकिन बाद में उन्होंने जो कहा वह विचित्र और आश्चर्यजनक है। जो भी हो, लगता है कि वह यदाकदा ब्राह्मणों का पक्ष लेने लगते हैं, क्योंकि वह उन्हीं के बीच से आए हैं और अपने को उनसे अलग नहीं कर सकते। फिर भी उसके लिए उन्हें दोषी नहीं ठहराया जा सकता, क्योंकि समग्र रूप से देखें तो सत्य के धरातल पर उनके पैर मजबूती से टिके हैं और उन्होंने सत्य का स्पष्टतया उद्घाटन किया है…”

इसके साथ ही वे (अलबेरुनी) अपनी टिप्पणी को और आगे बढ़ाते हैं। ब्रह्मगुप्त का उदाहरण देते हुए वे उस पर आए ब्राह्मणों के स्पष्ट दबाव की चर्चा करते हैं, जिससे यह भलीभांति स्पष्ट हो जाता है कि ब्राह्मण अपने धर्मग्रंथों में व्यक्त अंधी व अवैज्ञानिक धारणओं को बचाने के लिए किस हद तक जा सकते हैं। अलबेरुनी की यह टिप्पणी इस संदर्भ में बहुत महत्वपूर्ण है। वे कहते हैं– “खुदा का कितना रहस्य होता अगर सभी लब्धप्रतिष्ठत विद्वानों ने उन्हीं की मिसाल का अनुसरण किया होता। लेकिन ब्रह्मगुप्त का उदाहरण देखिए, जो सचमुच एक लब्धप्रतिष्ठित खगोलवेत्ता थे। एक ब्राह्मण के रूप में पुराणों में उन्होंने पढ़ा था कि सूर्य चंद्रमा के नीचे है, इसलिए उन्हें राहू की आवश्यकता पड़ जाती है, जो सूर्य को अपना ग्रास बनाकर उसे ग्रहण करे। इस पौराणिक वर्णन के आधार पर इस सत्य को दरकिनार कर देते हैं और बनावटी बात का समर्थन करते हैं। यदि वह घृणावश ऐसा काम नहीं करते – और हम समझते हैं कि ऐसा करना उनके लिए असंभव था – पौराणिक मान्यताओं का उपहास करते अथवा उन मान्यताओं के विरुद्ध बिल्कुल बेलौस ढंग से अपने विचार व्यक्त करते, तो उन्हें अपने जीवन से हाथ धो बैठने के लिये तैयार रहना पड़ता।”

अपने इन विचारों को और समझाने हेतु अलबेरुनी ब्रह्मगुप्त के सिद्धांत, जिसका नाम ‘ब्रह्मसिद्धांत’ है, को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत करते हैं। इस पुस्तक ‘ब्रह्मसिद्धांत’ के प्रथथम अध्याय में व्यक्त उनके (ब्रह्मगुप्त) के विचारों को उद्धृत करते हैं– “कुछ लोग मानते हैं कि ग्रहण का कारण राहू नहीं है। लेकिन यह मूर्खतापूर्ण विचार है, क्योंकि वही ग्रहण करता है और आम तौर पर लोग कहते हैं कि राहू ही ग्रसता है। वेद, जो कि ब्रह्मा के मुख से निकली ‘ईश्वरीय वाणी’ है, बताते हैं कि राहू ग्रसता है। मनु द्वारा प्रणीत स्मृति और ब्राह्मण-पुत्र गर्ग द्वारा रचित संहिता ने भी इस बात का समर्थन किया है। इसके विपरीत, वराहमिहिर, श्रीषेण, आर्यभट और विष्णुचंद्र का मत है कि ग्रहण का कारण राहू नहीं है, बल्कि चंद्रमा और पृथ्वी की छाया इसका कारण है। यह बात सबकी (जनसाधारण की) मान्यता के बिल्कुल विपरीत है और यह सद्य: निरूपित सनातन विचार के प्रति वैमनस्य से जनित है, क्योंकि यदि राहू को ग्रहण का कारण नहीं माना जाता तो ग्रहणकाल में ब्राह्मणों द्वारा प्रति दिन के रीति-रिवाज, जैसे अपने शरीर पर गर्म तेल का लेपन और पूजा-पाठ से संबंधित अन्य कार्य, भ्रामक मान लिए जाएंगे और उनको दिव्य-सुख की प्राप्ति नहीं होगी। इन बातों को भ्रामक समझने वाला व्यक्ति जनसाधारण द्वारा स्वीकृत धर्मसिद्धांत का पोषक नहीं माना जाएगा कि “राहू द्वारा सूर्य और अथवा चंद्रमा के ग्रसे जाने के बाद पृथ्वी का संपूर्ण जल गंगाजल की भांति पवित्र रहता है।”

एक वेदोक्ति है– “राहू दैत्यों की पुत्री सैनका (सिंहिका) का पुत्र था।” अत: लोग प्रचलित पूजा-पाठ करते हैं। इसलिए उक्त लेखकों को आम मान्यता का विरोध नहीं करना चाहिए, क्योंकि वेद, स्मृति और संहिता की सभी बातें सच हैं।

उक्त उद्धरण से स्पष्ट है कि प्रसिद्ध खगोलशास्त्री, जो अच्छी तरह जानता था कि चंद्रग्रहण के वैज्ञानिक कारण हैं, ब्राह्मणों से इतना डरा हुआ था कि वह चाह कर भी वेदों में स्मृतियों को झुठला नहीं पाया। ब्राह्मण की कही बातों को झुठलाने का उसमें साहस नहीं था, इसी कारण वह ब्राह्मणवादी पौराणिक धारणाओं को भी पुष्ट करने जैसे कार्य करता रहा। ब्राह्मणों की मान्यताओं से त्रस्त वराहमिहिर-आर्यभट तक को झूठा सिद्ध करने की भूमिका निभाने को विवश था। ब्राह्मणों के समक्ष विज्ञान पस्त था और धर्म-ग्रंथ विजेता।

अलबेरुनी एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण रखता था, इसलिए वह ब्रह्मगुप्त जैसे प्रखर वैज्ञानिक के क्रियाकलापों पर तीक्ष्ण दृष्टि रखता है। ब्रह्मगुप्त को लेकर वह अपनी टिप्पणी आगे बढ़ाते हैं, जिससे उस काल की ब्राह्मणवादी रूचियों का भी पर्दाफाश होना स्वाभाविक है। अपनी अगली टिप्पणी में वे स्पष्ट करते हैं– “इस मामले में ब्रह्मगुप्त यदि उन लोगों में से है, जिनके बारे में ईश्वर का कहना है कि यद्यपि उनके हृदय में किसी प्रकार की आशंका नहीं है तथापि उन्होंने द्वेषवश अथवा अहंवश हमारे संकेतों को ठुकरा दिया है, तो हम कोई तर्क-वितर्क नहीं करेंगे, लेकिन उनके कान में धीरे से कहेंगे कि यदि लोग परिस्थितिवश धर्मसंहिताओं का विरोध करना छोड़ देते हैं (जैसा कि आपके मामले में देखा जाता है) तो आप खुद अपने बारे में वह बात भूल जाते हैं? क्यों आप ऐसे विचार व्यक्त करने के बाद सूर्यग्रहण के बाद चंद्रमा को जिम्मेदार मानते हुए, पृथ्वी की छाया के व्यास का हिसाब लगाने लगते हैं? आप जिन विचारों को उचित समझते हैं, उन्हें छोड़ कर क्यों आप धर्म-विरोधी सिद्धांत के प्रति सहमति प्रकट करते हुए दोनों ग्रहणों को परिकलित करने लगते हैं? यदि ग्रहण के समय पूजा-पाठ करने अथवा कोई और कार्य संपादित करने के लिए ब्राह्मणों से कहा जाता है, तो ग्रहण से इन बातों की एक तारीख का ही बोध होता है और इसे इन बातों का कारण नहीं माना जा सकता।

“जहां तक मेरी बात है, मैं तो समझता हूं कि जिस आधार पर ब्रह्मगुप्त ने उपर्युक्त बातें कहीं (जो स्वयं उनकी अपनी आत्मा के खिलाफ था) वह आधार एक दु:खद स्थिति का द्योतक था, जिसका शिकार सुकरात को भी होना पड़ा था और जिसने उनके अपने प्रचुर ज्ञान, तीक्ष्ण मेधा शक्ति और युवकोचित ओज के बावजूद उन्हें अभिभूत कर लिया था, क्योंकि उन्होंने तीस वर्ष की आयु में ही ब्रह्मसिद्धांत का प्रणयन किया था। सचमुच यह यदि उनका मात्र एक बहाना था, तो हम इसे स्वीकार करते हैं और इस विषय को यहीं छोड़ देते हैं।”

यहां यह बताना आवश्यक होगा कि ब्रह्मगुप्त का जन्म 598 ई. में हुआ था और तीस वर्ष की आयु (628 ई.) में उन्होंने ब्रह्मस्फुट-सिद्धांत की रचना की थी। वे एक महान वेधकर्ता भी थे। इस महान वैज्ञानिक के प्रति अलबेरुनी की यह टिप्पणी बहुत मार्मिक है, जो हमें यह बताती है कि किस प्रकार उन्होंने ब्राह्मणी तंत्र की दहशत में अपना वैज्ञानिक कार्य किया होगा।

इसी प्रकार आर्यभट के प्रति उनकी एक टिप्पणी हमारी आंखें खोलने के लिए काफी होगी। उनके बारे में कट्टर वेदांती अप्पय दीक्षित (1530-1600) की टिप्पणी जो उनके धरती के घूमने के सिद्धांत को हेय बनाने की पूरी कोशिश करती है। यह है– “आर्यभट्टाद्यमिमत भूब्रमणदिवानां श्रीतिन्याय विरोधन हेयवृात्”। अर्थात आर्यभट द्वारा प्रतिपादित भूभ्रमण का वाद श्रुति और न्याय के विरुद्ध होने के कारण हेय है।[3]

इसी प्रकार की आर्य के बारे में एक और टिप्पणी हमें चौंकाती है– “जब भारत में अप्पय दीक्षित जैसे दुराग्रही वेदांती आर्यभट के भूभ्रमणवाद का विरोध कर रहे थे, तब यूरोप में कोपरनिकस के सूर्य केंद्रवाद की स्थापना हो चुकी थी।”

गुणाकर मूले की टिप्पणी इस संदर्भ में बहुत महत्वपूर्ण है– “परंपरावादियों (ब्राह्मणवादियों) ने आर्यभट के मतों का भले ही विरोध किया हो, मगर उनका महान कृतित्व विद्वत्जगत में सदैव आदृत रहा।”

इस संदर्भ में देवी प्रसाद चट्टोपाध्याय के विचार बहुत सटीक जान पड़ते हैं। वे कहते हैं– “भारत के महान खगोलशास्त्री ब्रह्मगुप्त को ग्रहण के वैज्ञानिक कारणों का भरपूर बोध होने के बावजूद, उन्हें अपने अनूठे ज्योतिष-ग्रंथ के प्रथम अध्याय में ही यदि वेद और मनुस्मृति के प्रति अगाध निष्ठा व्यक्त करनी पड़ी, बल्कि धर्म-ग्रंथों की अवज्ञा करके ग्रहण की वैज्ञानिक व्याख्या करने वालों की घोर निंदा तक करनी पड़ी तो कणाद और गौतम की स्थिति तो और भी चिंताजनक है। ऐसे में ब्राह्मणवादी परंपरा और उस परंपरा के प्रवक्ताओं, अर्थात् धर्मशास्त्र प्रणेताओं की प्रताडऩा से बचने के लिए वेद के प्रति प्रकटत: भक्ति भाव दिखाने के सिवाय उनके सामने चारा ही क्या था?”[4]

भारत में विज्ञान की प्रगति यूरोप के मुकाबले बहुत कम ही देखने में आती है। इसका कारण भारतीय संस्कृति का ही सबसे ज्यादा अंधविश्वास भरा दखल रहा है। वेदों को लेकर तरह-तरह की महिमामंडन किए गए हैं और इस तरह किए गए हैं कि उनके उपर आज भी उंगुली उठाना खतरे से खाली नहीं है। वेदों में धरती को लेकर तथा सूर्य के घूमने की भ्रांतियां आज के वैज्ञानिक युग में भी खूब प्रचलित हैं। अथर्ववेद में कहा गया है कि इंद्र ने सृष्टि के आरम्भ में कांपती हुई पृथ्वी को स्थिर किया है। (2.12.1) अनेक रूपों वाली अचल पृथ्वी की इंद्र रक्षा करता है। (12.1.17)

इस प्रकार सूर्य के संदर्भ में भी वेदों की अपनी अवैज्ञानिक मान्यताएं दर्ज हैं। कहा गया है कि सूर्यदेव स्वर्णमय रथ पर चढ़ कर देवताओं और मनुष्यों को अपने-अपने कर्म में लगाते हुए संपूर्ण लोगों को देखते हुए आते हैं। (यजु. 33/43)

कहा जाता है कि धरती को वेदों में अचल माना जाता था। इसी कारण इसका एक नाम अचला भी पड़ गया है। पृथ्वी के साथ उसके कथित अचल होने के गुण को इतना ज्यादा जोड़े जाने के कारण ही संस्कृत और हिंदी में अचला शब्द पृथ्वी का पर्याय बन गया। ‘अचला’ कहने पर और किसी वस्तु का बोध न होकर पृथ्वी का ही बोध होता है। इन ब्राह्मणवादी ग्रंथों का उन दिनों इतना प्रभाव होता था कि तमाम वैज्ञानिक मान्यताओं का खूब मजाक उड़ाया जाता था। उदाहरणतया ब्रह्मागुप्त के सिद्धांत पर यह कहकर व्यंग्य किया गया था कि यदि धरती घूमती है तो ऐसा होने पर पंक्षी अपने-अपने घोंसलों में कैसे पहुंचते हैं। यदि पृथ्वी तीव्र वेग से पूर्व की ओर भ्रमण करती है, तो ध्वजा को पृथ्वी के वेग से सर्वदा पश्चिम की ओर ही उडऩा चाहिए और यदि वह मंद वेग से चलती है तो ऐसे में वह 24 घंटे में चक्र पूरा नहीं कर पाएगी। आश्चर्य की बात यह है कि यह टिप्पणी आर्यभट के बारे में वराहमिहिर ही ब्राह्मणों के दबाव में करते हैं।

एक और ब्राह्मणवादी टिप्पणी सातवीं-आठवीं शताब्दी में (639-748) एक विद्वान लट्टाचार्य भी करते हैं। उन्होंने कहा है– “यदि पृथ्वी चलती है तो फिर पंक्षी अपने घोंसलों में नहीं पहुंच सकेंगे और आकाश में फेंका हुआ बाण सदा पश्चिम में गिरेगा। यदि पृथ्वी पूर्व की ओर घूमती है तो फिर बादल हमेशा पश्चिम को जाएगा। यदि कहो कि पृथ्वी धीरे-धीरे चलती है, इसलिए बादल पश्चिम की ओर नहीं जाते, तो हमारा कहना है कि ऐसी मंदगति से एक दिवस में पृथ्वी का भ्रमण कैसे पूर्ण होगा?”

इसी प्रकार भास्कराचार्य((1114 – 1185) भी पृथ्वी के गतिशील होने से इंकार करते रहे हैं। पृथ्वी को अचल मानते हुए वे कहते हैं कि “जैसे सूर्य और अग्नि में उष्णता, चांद में शीतलता, जल में गति और पाषाण में कठोरता है, उसी प्रकार पृथ्वी स्वभाव से ही अचल है।”[5]

आश्चर्य नहीं होगा यदि यह कहा जाएगा कि इस गणितज्ञ पर भी ब्राह्मणवादी दबाव काम कर रहा हो।

ब्राह्मणवादी ग्रंथों में वैज्ञानिकों ज्योतिर्विदों को बदनाम करने को लिए लगातार अभियान चलाया गया। उन्हें जहां कहीं भी अवसर प्रदान हुआ, यह घोषणा की कि ज्योतिर्विद लोग नीच हैं, घृणा के पात्र और अपवित्र हैं, उन्हें किसी प्रकार का सहयोग व सम्मान नहीं दिया जाना चाहिए। इस प्रकार के धर्मशास्त्रीय आदेश प्रस्तुत हैं–

“ज्योतिर्विदों को श्राद्ध, यज्ञ और किसी बड़े दान के लिए नहीं बुलाना चाहिए। इन्हें बुलाने से श्राद्ध अपवित्र, दान निष्फल और यज्ञ फलहीन हो जाता है। आविक (बकरीपाल), चित्रकार, वैद्य और नक्षत्रों का अध्याय करने वाले– यह चार तरह के ब्राह्मण यदि देवताओं के गुरु बृहस्पति के समान भी विद्वान हों, तो भी उनका सम्मान नहीं करना चाहिए।” (अत्रि संहिता)

इसी प्रकार की एक और टिप्पणी हमें महाभारत से मिलती है। उसमें नक्षत्रों का अध्ययन करने वालों पर सख्त टिप्पणी की गई है। कहा गया है–

“जो ब्राह्मण नक्षत्रों के अध्ययन से जीविका चलाता है, ब्राह्मणों को उसे अपनी पंक्ति में बैठकर भोजन नहीं करने देना चाहिए। हे युधिष्ठिर, ऐसे व्यक्ति द्वारा खाया गया श्राद्ध-भोजन राक्षसों के पेट में जाता है, न कि पितरों के।”[6]

इसी प्रकार मनुस्मृति में भी आदेश दर्ज है–

“नक्षत्रजीवी लोग निंदित, पंक्ति को दूषित करने वाले और द्विजों में अधम हैं। इन्हें विद्वान द्विज देवयज्ञ और श्राद्ध में कभी भोजन न कराएं।”[7]

इस प्रकार के कई उद्धरणों से ब्राह्मणवादी ग्रंथ भरे पड़े हैं, जिनसे भलीभांति ज्ञात होता है कि भारतीय खगोल-विद्या व विज्ञान को पस्त करने में हर प्रकार के हथकंडे अपनाए गए। वैज्ञानिकों को हर प्रकार से हतोत्साहित करने के प्रयास किए गए ताकि ब्राह्मण ग्रंथों को वैज्ञानिक तर्कों के तेज के समक्ष निस्तेज होने से बचाया जा सके। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि भारत में एक स्वस्थ वैज्ञानिक परिपाटी उतनी फल-फूल न सकी, जितनी फलनी चाहिए थी। पुरोहितशाही के कड़े पहरे में खगोल विद्या दम तोड़ती जैसे दिखाई पड़ती है। विज्ञान के विरोधी खुद को दैवज्ञ घोषित करके वैज्ञानिक पद्धति पर आक्रमण तो करते ही थे, साथ ही, उनके ऊपर निजी-स्तर पर भी ओछे आक्रमण किए। इनके बारे में यह टिप्पणी बहुत मनोरंजक है जो कि ज्ञान-विज्ञान का विरोध करने वालों के मानसिक स्तर का आभास तो करवाती ही है, उनके ओछेपन का परिचय भी देती है–

“आकाश में दूर स्थित ग्रहों के अच्छे-बुरे प्रभाव को बताने वाले दैवज्ञ को यह पता नहीं होगा कि घर में उनकी पत्नी किसके साथ अवैध संबंध स्थापित कर आनंद मना रही है।”

वैज्ञानिकों को नास्तिक, मलेच्छ, चांडाल आदि कहकर उन्हें जाति से भी च्युत करने तक के हथकंडे अपना कर जलील करने के सभी प्रकार के सामान जुटाए गए। उनको इतना प्रताडि़त किया गया कि उनकी आने वाली पीढिय़ां भी इस प्रकार के खोज कार्य न कर सकें। हकीमों, जराहों (शल्य-चिकित्सकों) को शूद्रों की श्रेणी में रखा गया।

यह तय है कि यदि भारत में ब्राह्मणवादी शक्तियों का ज्ञान-विज्ञान पर इतना कठोर प्रतिबंध न होता तो भारतीय ज्ञान-विज्ञान के आकाश पर सदा चमक बिखरी होती। वेदों को अपौरुषेय घोषित कर, तमाम प्रकार के अंधविश्वासों को फलने-फूलने तथा ब्राह्मणशाही को ताकतवर बनाने के तमाम फार्मूले इजाद किए गए ताकि विज्ञान का गला घोंटा जा सके।

संदर्भ

[1] मूले, गुणाकर, संसार के महान गणितज्ञ, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ 59
[2] अलबेरुनी, अलबेरूनी वर्णित भारत (ग्यारहवी शती के भारतीय धर्म, दर्शन, साहित्य, भूगोल, खगोल-शास्त्र, गणित, कानून, रीतिरिवाज व ज्योतिष का वर्णन), खंड-2, अनुवादक संतराम बी.ए.,पब्लिकेशन स्कीम, पृष्ठ 107
[3] मूले, गुणाकर, संसार के महान गणितज्ञ, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृष्ठ 59
[4] चटोपाध्याय, देवी प्रसाद , भारतीय दर्शन में क्या जीवंत है और क्या मृत, पीपुल्स पब्लिशिंग हाऊस, पृष्ठ 254
[5] भास्कराचार्य, सिद्धांत शिरोमणि, अध्याय 5
[6] महाभारत, हिंदी अनुवाद. पृष्ठ 90, श्लोक 11/12
[7] मनुस्मृति, अध्याय 3

(संपादन : नवल/अनिल)


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लेखक के बारे में

द्वारका भारती

24 मार्च, 1949 को पंजाब के होशियारपुर जिले के दलित परिवार में जन्मे तथा मैट्रिक तक पढ़े द्वारका भारती ने कुछ दिनों के लिए सरकारी नौकरी करने के बाद इराक और जार्डन में श्रमिक के रूप में काम किया। स्वदेश वापसी के बाद होशियारपुर में उन्होंने जूते बनाने के घरेलू पेशे को अपनाया है। इन्होंने पंजाबी से हिंदी में अनुवाद का सराहनीय कार्य किया है तथा हिंदी में दलितों के हक-हुकूक और संस्कृति आदि विषयों पर लेखन किया है। इनके आलेख हिंदी और पंजाबी के अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं। इनकी प्रकाशित कृतियों में इनकी आत्मकथा “मोची : एक मोची का अदबी जिंदगीनामा” चर्चा में रही है

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