अशराफ (कुलीन वर्ग) मुसलमानों के एक समूह ने हाल ही में दिल्ली स्थित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के कार्यालय में उसके प्रमुख मोहन भागवत से मुलाकात की थी। इसमें दिल्ली के पूर्व उपराज्यपाल नजीब जंग, पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एस. वाई. कुरैशी, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति लेफ्टिनेंट जनरल (सेवानिवृत्त) ज़मीरउद्दीन शाह, राष्ट्रीय लोक दल के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष शाहिद सिद्दीकी और व्यवसायी सईद शेरवानी शामिल थे। इस मुलाकात के दौरान मोहन भागवत के अलावा संघ के सह-सरकार्यवाहक कृष्ण गोपाल भी मौजूद थे। सियासी गलियारे में इस मुलाकात ने खासी चर्चा बटोरी।
अब जबकि अशराफों ने आधिकारिक तौर पर शासक हिंदू सवर्ण की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ा दिया है और दोनों में मेलमिलाप व बातचीत भी होनी शुरू हो गयी है तो सवाल उठता है कि क्या अब इन दोनों के धर्म खतरे से बाहर आ जाएंगे?
जवाब है नहीं, बिलकुल नहीं! दरअसल आज़ादी के बाद आमतौर पर अशराफ समाज को हिंदू सवर्ण और उनके हिंदुत्व से वास्तविक खतरे का सामना करना ही नहीं पड़ा। जबकि पसमांदा (दलित-पिछड़े मुसलमान) वर्ग के लोगों के लिए यह खतरा रोज़मर्रा की धार्मिक और जातिगत हिंसा के साथ-साथ भयानक दंगों के रूप में सामने आता रहा है। अशराफ समाज की दुविधा हमेशा सिर्फ इतनी सी थी कि क्या वे हिंदू सवर्ण को बड़ा भाई मानकर धार्मिक वर्चस्ववाद पर समझौता करें, और सवर्णों के परिवार में छोटे भाई के रूप में शमिल हो जाएं।
कांग्रेस-आरएसएस के शासन काल में, सतही तौर पर अशराफ समाज की सुविधा के लिए गंगा-जमुनी शांति का राग अलापा जाता था। इससे अशराफ वर्ग को उनके पुनरूत्थान की कुछ न कुछ उम्मीद बनी रहती थी। लेकिन आरएसएस-भाजपा ने अशराफों के लिए इस असमंजस भरे फैसले को काफी आसान बना दिया है।
हालांकि 2014 के बाद से ही अशराफ समुदाय की खामोश भीड़ आरएसएस-भाजपा की ओर जाती हुई दिखाई दे रही थी। लेकिन अशराफों की दिल्ली स्थित संघ के कार्यालय तक खुली चहलक़दमी दो वजहों से तेज हो गई है। पहली वजह तो यह अहसास कि आरएसएस-भाजपा काफी वक़्त तक सत्ता में रहने वाले है; और दूसरी यह कि राजनीतिक रूप से महत्वाकांक्षी पसमांदा का एक हिस्सा आरएसएस-भाजपा की ओर बढ़ रहा है।
अशराफ समुदाय के आरएसएस-भाजपा परिवार में शामिल होने से ‘उग्रवादी हिंदुत्व’ की सिर्फ एक जड़ ‘अशरफों की इस्लामिक वर्चस्ववाद’ ही कमज़ोर पड़ेगी। मुस्लिम पहचान को एक दुश्मन की तरह स्थापित करने की दूसरी और ज़्यादा मज़बूत वजह फुले-आंबेडकरवादी लोकतांत्रिक विमर्श की बढ़ती लोकप्रियता भी है।
दरअसल, फुले-आंबेडकरवादी बहुजनवाद का लोकतांत्रिक विमर्श ब्राह्मण सवर्णों के सामने बड़ी चुनौती के रूप में उभरा है। यदि हिंदू सवर्णों को देश की 90 प्रतिशत धन, संपत्ति और संसाधनों पर अपना नियंत्रण बरकरार रखना है, तो उन्हें हिंदू-मुस्लिम के तहखाने के भीतर दलित, आदिवासी, पसमांदा बहुजन के लोकतांत्रिक आंदोलनों को भस्म करते रहना होगा। इस मक़सद को पूरा करने के लिए हिंदू पहचान को बार-बार तब तक पैदा नहीं किया जा सकता जब तक कि उनके सामने कोई मुस्लिम दुश्मन मौजूद न हो। इसलिए जाति व्यवस्था के ठेकेदार, हिंदू-मुस्लिम तहखाने को हिंसा के माध्यम से ढंके और खुले तौर पर बनाए रखेंगे। इस हिंसा का सबसे ज़्यादा असर पसमांदा-बहुजनों पर ही पड़ता रहेगा।
हालांकि उग्र हिंदुत्व की एक जड़ को काटना अशराफ समुदाय के हाथ में तो है लेकिन इसकी दूसरी जड़ उनकी समझ से बिलकुल परे है। जो भी हो, यह सुझाव देना घोर नाइंसाफी होगी कि इस देश के बहुजन-पसमांदा गंगा-जमुनी शांति बनाने के लिए आज़ादी और बराबरी के अपने लोकतांत्रिक संघर्ष को छोड़ दें। तो आखिर रास्ता क्या बचता है?
मुझे लगता है कि अशराफ समुदाय का हिंदू सवर्णों में घुल-मिल जाना समाज में लोकतांत्रिक तत्वों के विभिन्न धड़ों को काफी हद तक स्पष्टता प्रदान करेगा। यह बहुजन (बहुसंख्यक) और अल्पजन (अल्पसंख्यक) के बीच की जातिगत रेखा को और स्पष्ट करेगा। दलित, पसमांदा, आदिवासी, अति पिछड़ा बहुजन वर्ग संख्यात्मक रूप से अल्पसंख्यकों (हिंदू सवर्ण, अशराफ) पर भारी रहेगा। हालांकि यह अल्पसंख्यक वर्ग अपने सभी वित्तीय, संस्थागत और मीडिया संसाधनों की ताक़त के साथ लड़ाई में उतरता है। इसलिए अभी भी इन अल्पजनों की स्थिति मज़बूत रहेगी। लेकिन वह लड़ाई कितनी भी आशाजनक क्यों न लगे, यह अशराफ समुदाय की क्षमता पर निर्भर करेगा कि क्या वो अपने आपको हिंदू-सवर्ण परिवार में शामिल करवा पाते हैं या नहीं। वैसे तो विभाजन के बाद अशराफों ने हिंदू सवर्णों के लिए कोई ख़ास खतरा पैदा नहीं किया है, फिर भी उनके बीच यह पुनर्मिलन मुश्किल ही लगता है।
कहना अतिशयोक्ति नहीं कि अशराफ समाज के जो कुलीन लोग मोहन भागवत से अपना पक्ष रखने के लिए मिले थे, उनमें हिंदू-सवर्णों से पारिवारिक पुनर्मिलाप करने की न तो क्षमता है और ना ही उनमें इतनी जल्दी ऐसी क्षमता हासिल करने की कोई संभावना नज़र आती है। अशराफ परिवारों या उनके संगठनों के बीच ऐसी कोई बहस सुनने को नहीं मिलती, जिससे उनके अंदर बजबजाते मजहबी वर्चस्ववाद का विनाश करके लोकतांत्रिक व्यवस्था के पक्ष में कोई माहौल बन सके।
भागवत से मिले अशराफ इस बात को अच्छी तरह से जानते हैं। वरना वे अपने मजहबी वर्चस्ववाद को धीरे-धीरे ख़त्म करके लोकतंत्र की स्थापना के लिए तब्लीगी जमात, जमात-ए-इस्लामी-हिंद, मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड, देवबंदी, बरेलवी आदि के प्रमुखों से मिलना शुरू कर देते। आरएसएस प्रमुख भागवत भी यह बात भली-भांति समझते है। इसलिए उन्होंने ‘हमें काफिर मत कहो’ और ‘हमारी गैया को मत छुओ’ जैसे लॉलीपॉप से उन अशराफों का दिल बहला दिया। इसके अलावा एक तथ्य यह कि अशराफ समुदाय की बनायी गयी मजहबी वर्चस्ववाद की ज़मीन पर ही उग्रवादी हिंदुत्व फसल उग सकती है। इसलिए उग्र हिंदुत्व के फलने-फूलने की पहली जड़ भी अभी सलामत ही रहने वाली है। ये दोस्ती के बढे हुए हाथ, छोटे आदमियों की मोटी छाया से ज्यादा कुछ नहीं हैं।
ऐसे हालात में फ़िलहाल फुले-आंबेडकरवादी बहुजन विमर्श ही उम्मीद की किरण पैदा करता है, जिसमें लोकतांत्रिक समाज बनाने का व्यापक दृष्टिकोण हो। इस विमर्श को अल्पसंख्यात्मक हीनता से ग्रस्त होने की कोई मजबूरी नहीं है और न ही इसमें किसी तरह के धार्मिक वर्चस्ववाद की ज़रुरत है। वर्तमान समय में यह इकलौता वर्ग है, जिसे हिंसा के ज़रिए किसी पहचान को पैदा करते रहने की कोई आवश्यकता नहीं है। दरअसल, सदियों के अशराफ-सवर्ण वर्चस्व के कारण शैक्षिक और आर्थिक नुकसान की भरपाई के लिए बहुजनों को सामाजिक शांति की सबसे ज़्यादा ज़रुरत है। बहुजन विमर्श दलित, पसमांदा, आदिवासी और अति-पिछड़ा जैसे हाशिए के समूहों को अपनी सोच के दायरे में सबसे आगे रखता है। बहुजन विमर्श ही हिंदू-मुस्लिम जुगलबंदी को सबसे मज़बूत चुनौती दे सकता है। इसमें हिंदू-मुस्लिम नफरत के रथ को थामने के लिए सभी बौद्धिक, ऐतिहासिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक हथियार मौजूद हैं। इसलिए बहुजन लोकतंत्र ही सवर्ण और अशराफ द्वारा ‘मुस्लिम’ और ‘हिंदू’ पहचान के आधार पर पैदा किये गये बनावटी खतरों से बचा सकता है।
(संपादन : नवल/अनिल)
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