भाजपा सरकार में अब खुला खेल ब्राह्मणवादी चल रहा है, बे-रोकटोक और बे-लगाम। ऐसा लगता है कि जैसे सरकार और न्यायपालिका के बीच अंदरखाने सहमति बन चुकी है कि दलित-पिछड़ों को ठिकाने लगाने के लिए दोनों मिलकर काम करेंगे। चूंकि सरकार भी सवर्णों की है, और न्यायपालिका में भी सर्वत्र उनका ही वर्चस्व है, जिसका मानस भी हिंदुत्व वाला है, इसलिए दोनों मिलकर दलित-पिछडी जातियों के वैधानिक अधिकारों का निर्भय होकर हनन कर रहे हैं। ताजा मामला उत्तर प्रदेश में नगर निकायों के चुनावों में हाईकोर्ट द्वारा पिछड़ी जातियों का निर्धारित आरक्षण समाप्त करने का है।
जैसे ही उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा स्थानीय निकाय चुनावों की घोषणा जारी की गई, उसके विरोध में सवर्णों द्वारा धड़ाधड़ 93 जनहित याचिकाएं इलाहाबाद हाईकोर्ट की लखनऊ खंडपीठ में दायर कर दी गईं। उन्हीं जनहित याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए जज देवेन्द्र कुमार उपाध्याय और सौरभ लवानिया की खंडपीठ ने यह फैसला सुनाया कि उत्तर प्रदेश सरकार बिना ओबीसी आरक्षण के तत्काल चुनाव कराए और ओबीसी की सभी सीटों को सामान्य घोषित करे।
जाहिर है कि यह फैसला नहीं है, क्योंकि इसमें एक पक्ष के साथ न्याय नहीं हुआ। हकीकत में देखा जाए, तो यह उसी तरह का एक फतवा है, जैसे मुस्लिम इदारों के उलेमा इस्लाम की रौशनी में मुसलमानों की किसी सामाजिक या धार्मिक समस्या पर फतवे जारी करते हैं।
सबसे अधिक लोकतंत्र-विरोधी तत्व वे 93 सवर्ण हैं, जिन्होंने पिछड़ी जातियों के आरक्षण के खिलाफ याचिकाएं दायर की थीं। किसी भी जज ने उनसे यह नहीं पूछा कि आखिर उन्हें पिछड़ी जातियों से इतनी नफरत क्यों है? क्यों वे उनको लोकतांत्रिक अधिकार देना नहीं चाहते? अगर निकाय चुनावों में पिछले सर्वे के आधार पर ही कुछ सीटों पर पिछड़ी जातियों के सभासद और अध्यक्ष चुन लिए जाएंगे, तो इससे उन्हें क्या परेशानी हो सकती थी? क्या उससे लोकतंत्र खतरे में पड़ जाता? क्या इस लोकतंत्र में वंचित वर्गों का कोई हिस्सा नहीं है? लेकिन हकीकत यह है कि सवर्णों के ये प्रतिनिधि लोकतंत्र में अपना वर्चस्व अपनी पुश्तैनी बपौती समझते हैं। कहना न होगा कि अधिकांश जज भी इसी वर्चस्ववाद का प्रतिनिधित्व करते हैं। यही कारण है कि उन्होंने उनकी अलोकतांत्रिक याचिकाओं को खारिज करने के वजाए, स्वीकार कर लिया, और उन्हीं के आधार पर पिछड़ी जातियों के आरक्षण को समाप्त करने का आदेश भी जारी कर दिया।
इस संबंध में, समाजवादी पार्टी (सपा) के मुखिया और पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव का यह कहना गलत नहीं हो सकता कि भाजपा जो काम खुद नहीं कर पाती, उसे वह जनहित याचिका के माध्यम से करवाती है। अगर याचिका दाखिल करने वाले सवर्णों की राजनीतिक पृष्ठभूमि को देखा जाए, तो यह हकीकत साफ़ हो जाएगी कि याचिकाकर्ता भाजपा और आरएसएस से जुड़े हुए लोग हैं। भाजपा के राज में यह खेल खुला ब्राह्मणवादी है, जो दलित-पिछड़ी जातियों के मामलों में बहुत चतुराई से खेला जाता है। भाजपा और आरएसएस का ओबीसी के आरक्षण का विरोध कोई नया नहीं है। ये दोनों संगठन अपने जन्म से ही दलित-पिछड़े वर्गों के आरक्षण के विरोधी रहे हैं। विरोधी शब्द बहुत छोटा है, ये वास्तव में उसके दुश्मन रहे हैं।
भारत में ब्राह्मण-तंत्र के इस अन्याय को कौन नहीं जानता कि आज़ादी के चालीस साल बाद पिछड़ी जातियों को 27 प्रतिशत आरक्षण 1990 में मंडल कमीशन की रिपोर्ट को लागू करके दिया गया था, और जिन विश्वनाथ प्रताप सिंह ने इसे अपनी सरकार में लागू किया था, उन्हें आरएसएस और भाजपा के द्विजों ने ‘गद्दार जयचंद’ की उपाधि देकर अपना दुश्मन माना था। इससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि आरएसएस और भाजपा के लोग किस कदर पिछड़ी जातियों के उत्थान के दुश्मन हैं! ऐसे दुश्मनों से पिछड़ी जातियों के वैधानिक अधिकारों के हनन की ही अपेक्षा की जा सकती है।
हाईकोर्ट के फैसले के बाद, अब मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ कह रहे हैं कि वह पिछड़ों को आरक्षण दिए बगैर निकाय चुनाव नहीं करायेंगे। उनका कहना है कि आरक्षण के लिए पहले पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन किया जायेगा, फिर उसके बाद ट्रिपल टेस्ट के आधार पर सीटों का आरक्षण तय किया जायेगा, तभी चुनाव कराए जायेंगे।
विदित है कि प्रदेश सरकार ने 2017 में पिछड़े वर्गों का सर्वे कराया था, जिसके आधार पर पिछड़े वर्ग के लिए सीटों का आरक्षण निर्धारित किया गया था, और उसी आधार पर चुनाव कराए गए थे। हाईकोर्ट ने पिछले सर्वे को नहीं माना, क्योंकि 93 याचिकाओं ने उन्हें यह बताया कि पिछला सर्वे सवर्णों के वर्चस्व के लिए घातक है। सवर्ण याचिकाकर्ताओं ने इस बात पर जोर दिया कि राज्य सरकार ने सुप्रीम कोर्ट की गाइड लाइन को नहीं माना, जिसमें कहा गया था कि निकाय चुनावों में ओबीसी के राजनीतिक पिछडेपन का आकलन करने के लिए आयोग का गठन हो, और फिर ट्रिपल टेस्ट के आधार पर सीटों का आरक्षण हो। सवर्णों ने इस बात की भी वकालत की कि निकायों में ओबीसी आरक्षण एक प्रकार का राजनीतिक आरक्षण है, जिसका सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक पिछड़ेपन से कोई लेना-देना नहीं है। लेकिन हाई कोर्ट के जजों ने सवर्ण याचिकाकर्ताओं से पलटकर यह नहीं पूछा कि अगर ओबीसी का आरक्षण राजनीतिक है, तो सवर्णों का सामान्य आरक्षण क्या है? क्या वह राजनीतिक नहीं है?
दूसरी बात जजों को यह भी गौर करनी चाहिए थी कि 2017 का सर्वे क्यों मान्य नहीं है? और क्या निकाय चुनावों के लिए हर बार नया सर्वे कराया जायेगा?
अगले लोकसभा के चुनावों को देखते हुए भाजपा सरकार के लिए ओबीसी आरक्षण का मुद्दा एक बड़ा मुद्दा है। अगर ओबीसी का दिमाग घूम गया तो 2024 में केंद्र में सरकार बनाने का भाजपा का गणित भी घूम सकता है। इसलिए खबर है कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने ओबीसी आरक्षण के लिए अवकाशप्राप्त जस्टिस राम अवतार सिंह की अध्यक्षता में पांच सदस्यीय पिछड़ा वर्ग आयोग का गठन कर दिया है, जो छह महीने में अपनी रिपोर्ट देगी। आयोग के चार सदस्य पिछड़े वर्ग से आते हैं, जबकि आयोग के अध्यक्ष गैर-पिछड़े वर्ग से हैं। ट्रिपल टेस्ट के आधार पर आयोग जो रिपोर्ट देगा, उसी के मुताबिक सरकार निकाय चुनावों में ओबीसी का आरक्षण निर्धारित करेगी। लेकिन विधि विशेषज्ञों का कहना है कि इसके बाद भी सरकार को सुप्रीम कोर्ट से मंजूरी लेने की आवश्यकता होगी। प्रदेश सरकार ने हाई कोर्ट के फैसले पर रोक लगाने और गठित आयोग की रिपोर्ट आने के बाद ओबीसी आरक्षण के साथ चुनाव कराने की स्वीकृति देने का आग्रह करने के संबंध में सुप्रीम कोर्ट में विशेष अनुज्ञा याचिका दाखिल कर दी है।
इस संबंध में कानून के जानकारों का मानना है कि हाई कोर्ट का फैसला सुप्रीम कोर्ट की गाइडलाइन के मुताबिक हुआ है, इसलिए यह भी हो सकता है कि सुप्रीम कोर्ट मंजूरी न दे और हाईकोर्ट के फैसले को ही बहाल रखे।
खेल वाकई दिलचस्प है। देखते हैं ऊंट किस करवट बैठता है?
(संपादन : नवल/अनिल)
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